News Clipping on 17-08-2018

Date:17-09-18

Unfinished Story

India’s HDI ranking shows success in poverty reduction but failure on equality

TOI Editorials

India’s ranking in UN’s Human Development Index (HDI) went up by just one from last year, to 130th. But the country has made appreciable strides on its HDI value since 1990. India’s HDI value was only 0.43 in 1990. In 2017, this grew to 0.64 – an increase of around 50%. Consider that India’s life expectancy in 1990 was 57.9 years. In 2017, it went up to 68.8 years. Over the same period, India’s per capita income in PPP terms saw an increase of a whopping 267% from $1,733 to $6,353. Similarly, expected years of schooling went up from 7.6 years to 12.3 years.

All of which isn’t surprising given that it was in 1991 that India initiated economic liberalisation. The HDI improvement over this period essentially captures the benefits that accrued to Indian society from that historic decision. That India’s HDI value is higher than the South Asian average of 0.638 exemplifies this point. Yet, the very fact that India went up just one spot from its 2016 HDI ranking shows that improvement has been part of a larger global trend where other countries too have made considerable achievements in bettering their citizens’ lives.

Plus, development hasn’t been spread evenly, with India’s income inequality the highest at 18.8% – compared to 15.7% for Bangladesh and 11.6% for Pakistan. In fact, when corrected for inequality India’s HDI value falls by 26.8% to 0.468. This means that most of the improvements have flowed to the top of the social pyramid while those at the base have only just been lifted out of poverty. This also means that the middle class hasn’t grown as much as it should have, while small and medium enterprises have failed to transfer the agrarian workforce to manufacturing. Add to this gender inequality which glaringly shows up in the per capita income parameter, and we are looking at a really mixed picture.

This indicates India’s economic liberalisation is an unfinished story, and that our socialist political DNA has held us back rather than create a more equal society. Thus, it’s high time that the existing development paradigm is challenged and economic reforms undertaken on a war footing. In fact, it’s by really opening up the economy and further improving ease of doing business that all sections of society can grow. Socialist interventions like reservations and archaic labour laws only hold India back from realising its true potential.


Date:17-09-18

लगन के साथ मेहनत करें तो कामयाबी मिलना तय है

वरुण बरनवाल

मेरी सफलता के पीछे मेरी मां, रिश्तेदार और दोस्तों का खास योगदान है। इन लोगों का मुझे पर ऐसा भरोसा रहा कि कि पढ़ाई जारी रखने के लिए कोई मेरी फीस भर देता था तो कोई किताबों, फॉर्म का इंतजाम कर देता था। कारण यह था कि मेरा जीवन बेहद गरीबी में बीता। पिताजी की साइकिल सुधारनेे की दुकान थी। उसी की कमाई से हमारा घर चलता था। इसी आमदनी में से कुछ पैसे मेरी पढ़ाई पर खर्च हो जाते थे। पहले ही आमदनी कम और उस पर पढ़ाई का खर्च। इससे हमारे घर की हालत और खराब हो जाती थी। लेकिन, मेरे भीतर पढ़ाई की बहुत ललक थी। पैसे के संघर्ष के बावजूद मेरा पढ़ाई करने का बहुत मन होता था, लेकिन गरीबी के चलते स्कूल की फीस भरना कठिन था।

हाईस्कूल में एडमिशन के लिए हमारे घर के पास एक ही अच्छा स्कूल था। वहां दाखिले के लिए 10 हजार रुपए डोनेशन लगता था। मैं जानता था कि इतने पैसे मेरी मां के पास नहीं थे। इसलिए मैंने मां से कह दिया कि रहने दो एक साल का गैप ले लेता हूं। अगले साल पैसे जुटाकर दाखिला ले लूूंगा। फिर हुआ यूं कि जो डॉक्टर मेरे पिता का इलाज करते थे, वे हमारी दुकान के सामने से गुजरे तो मेरे दाखिले के बारे में पूछ लिया। मैंने अपनी कठनाई बता दी। यह सुनने के बाद उन्होंने अपनी ओर से 10 हजार रुपए देकर कहा- जाओ दाखिला करवा लो। यही वह पल था जिसने मेरे सपनों को हवा दी और नया आत्मविश्वास पैदा किया। अब लगने लगा कि पढ़ाई करके मैं कुछ कर सकता हूं। दाखिला तो डॉक्टर साहब ने दिला दिया, लेकिन इसके बाद टेंशन यह था कि स्कूल की हर महीने की फीस कैसे दूंगा? मैंने स्कूल के प्रिंसिपल से अनुरोध किया तो उन्होंने मेरी फीस माफ कर दी। 2006 में पिताजी का निधन हो गया। उसके बाद तो जैसे मेरे परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा।

पिता बहुत मेहनत करके थोड़ा कुछ कमा लेते थे। 10वीं का परिणाम आया तो जैसे जीवन में नया संचार हो गया। मैंने स्कूल में टॉप किया था लेकिन, आगे की पढ़ाई के लिए पैसे जुटा पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल काम था। पांच भाई-बहनों में मैं सबसे बड़ा था, इसलिए पिता के जाने के बाद घर चलाने की पूरी जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ गई। मैंने फैसला कर लिया था कि अब आगे नहीं पढ़ूंगा। साइकिल की दुकान पर ही काम करूंगा, ताकि घर खर्च चल सके। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। मेरे स्कूल में टॉप करने पर मां सबसे ज्यादा खुश हुईं, उन्हें लगा जैसे वे पास हो गई हों। वे उत्साह में भरकर बोलीं, घर के हम सभी लोग कुछ न कुछ काम कर लेंगे। मैं दुकान संभाल लूंगी, तू तो बस आगे की पढ़ाई पर ध्यान दे। मां के ये शब्द सुने तो मुझे नई दिशा मिल गई। मन उत्साह से भर गया। 11वीं-12वीं की पढ़ाई के दो वर्ष मेरे जीवन के सबसे कठिन रहे। कोई भी मौसम हो, मैं सुबह 6 बजे उठकर स्कूल जाता था। फिर दोपहर 2 से रात 10 बजे तक बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता था। उसके बाद दुकान पर हिसाब-किताब करता था।

मेरे घर की स्थिति देखते हुए मेरे टीचर ने मेरी दो वर्ष की फीस भर दी। इस तरह मैंने साइंस विषय के साथ 12वीं पास की। आगे इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पहले साल की फीस 1 लाख रुपए थी। मैं ट्यूशन कर रहा था, घर के सभी सदस्य कुछ न कुछ करके मेरी पढ़ाई के लिए पैसे जोड़ रहे थे लेकिन, इतना काफी नहीं था। घर का खर्च और कई जरूरतें भी होती थीं। कोई सिर्फ मेरी पढ़ाई के लिए ही सारे लोग काम थोड़ी कर रहे थे। इसलिए जब इंजीनियरिंग में एडमिशन के लिए पैसे की जरूरत पड़ी तो हमारे परिचित सुकुमार भैया, परिवार और कुछ लोगों ने पैसे इकट्‌ठा करके पुणे के एमआईटी कॉलेज में इलेक्ट्रॉनिक्स एंड टेक्नोलॉजी में मेरा एडमिशन करा दिया। इंजीनियरिंग के पहले टर्म की एग्जाम में टॉप करने पर मुझे आगे की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति मिल गई लेकिन, उसे हासिल करने में भी मुझे दो साल लगे। बिना अड़चन मेरा कोई काम नहीं होता था।

लेकिन प्रश्न खड़ा हुआ था कि आगे के वर्षों की फीस कहां से आएगी? मैंने कॉलेज टीचर से निवेदन करके कहा कि मैंने प्रथम वर्ष में 86 फीसदी अंक हासिल किए हैं जो कॉलेज में एक रिकॉर्ड है। क्या मेरी फीस माफ हो सकती है? इसके बाद टीचर ने मेरी गुजारिश पर ध्यान दिया और मेरी सिफारिश डीन व डायरेक्टर से कर दी। लेकिन सेकंड ईयर तक मेरी बात उनके द्वारा ठीक से सुनी नहीं गई। इस बीच दोस्त बीच-बीच में पैसे देकर मेरी मदद करते रहे। बदले में मैं भी दोस्तों की पढ़ाई में मदद कर दिया करता था। इस प्रकार आर्थिक परेशानियों से जूझते हुई मैंने 2012 में इंजीनियरिंग पूरी की। मेरी प्लेसमेंट अच्छी हो गई, कई कंपनियों से मुझे नौकरी के ऑफर आने लगे। इधर, मैंने सिविल परीक्षा देने का मन बना रखा था, लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि तैयारी कैसे करूं? मैंने जब नौकरियों के ऑफर ठुकरा दिए तो सबसे ज्यादा नाराज मेरी मां हुई। उन्होंने कई महीनों तक मुझसे बात नहीं कि। कारण वही था कि घर की स्थिति इतनी खराब है, ऐसे में मैं नौकरियों के ऑफर ठुकरा रहा था। जब 2013 मे यूपीएससी मे 32वी रैंक आई तो सबसे ज्यादा खुश मेरी मां ही थी। परिणाम सुनकर मुझे तो यकीन नहीं आ रहा था। अगर मेरी मां ने मुझे सहारा नहीं दिया होता तो शायद आज मैं एक साइकिल मैकेनिक ही होता। मेरा सोचना है कि आप लगन से साथ मेहनत करते हैं तो दुनिया की कोई ताकत आपको आगे बढ़ने से रोक नहीं सकती।


Date:17-09-18

गंदगी के खिलाफ लंबी लड़ाई

संजय गुप्त, (लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)

आज दुनिया में भारत लोकतंत्र के प्रति समर्पण, युवा आबादी, तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ अन्य अनेक अच्छी बातों के लिए जाना जाता है, लेकिन इसी के साथ उसकी पहचान इस रूप में भी है कि यहां साफ-सफाई के प्रति उतनी जागरूकता नहीं जितनी होनी चाहिए। गांवों और शहरों के सार्वजनिक स्थलों में गंदगी की समस्या को नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही गंभीरता के साथ लिया। तमाम चुनौतियों के बाद भी उन्होंने 2 अक्टूबर 2014 को राजपथ से स्वच्छ भारत का नारा दिया। उन्होंने देशवासियों को महात्मा गांधी के स्वच्छ भारत के सपने की याद दिलाते हुए यह संकल्प लेने के लिए प्रेरित किया कि वे सप्ताह में कम से कम दो घंटे सफाई के लिए समय निकालें। उनकी अपील का असर हुआ। राज्य सरकारों के साथ स्थानीय निकायों और सामाजिक संगठनों के अतिरिक्त कॉरपोरेट जगत ने भी स्वच्छ भारत अभियान को अपनी-अपनी तरह से गति देनी शुरू की। इसी क्रम में दैनिक जागरण समूह ने भी स्वच्छता के इस अभियान को अपनाया। आज चार साल बाद यह कहा जा सकता है कि देश का शायद ही ऐसा कोई नागरिक हो जो स्वच्छता अभियान से परिचित न हो। साफ-सफाई के प्रति जागरूकता एक बड़ी उपलब्धि इसलिए है, क्योंकि आम तौर पर हमारे देश में लोग सार्वजनिक स्थलों में गंदगी को लेकर बेपरवाह ही दिखते रहे हैं। चूंकि गंदगी के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई लंबी चलेगी इसलिए प्रधानमंत्री ने एक बार फिर स्वच्छता ही सेवा के तहत देशवासियों को प्रेरित करने का काम किया।

गत दिवस उन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों में वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये 17 जगहों पर विभिन्न लोगों से संवाद किया। इनमें नामचीन उद्योगपति, अभिनेता से लेकर आध्यात्मिक गुरु, मीडियाकर्मी, छात्र, ग्रामीण आदि शामिल थे।स्वच्छता अभियान के बीते चार साल में कई उल्लेखनीय कार्य हुए हैं। इस दौरान करीब नौ करोड़ शौचालय बनाए गए। 2014 में महज 39 प्रतिशत आबादी शौचालय का इस्तेमाल करती थी। आज यह आंकड़ा 90 प्रतिशत तक पहुंच गया है। अभी तक 20 राज्य खुले में शौच से मुक्त हो चुके हैं। 20 राज्यों की इस उपलब्धि के बावजूद उत्तर और पूर्वी भारत के राज्यों में अभी काफी कुछ किया जाना शेष है। हमें इस पर ध्यान देना होगा कि स्वच्छता एक संस्कार के रूप में हमारी जीवनशैली में कैसे शामिल हो। इसके लिए हमें अपनी आदतों में परिवर्तन लाना होगा। आदत के कारण ही तमाम लोग शौचालय होने के बावजूद खुले में शौच की प्रवृत्ति नहीं छोड़ पा रहे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार करीब 40 प्रतिशत लोग गंदगी के कारण बीमार पड़ते हैं। इस कारण उन्हें आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ता है। हालांकि स्थिति में बदलाव भी दिख रहा है। डायरिया के मामलों में कमी आई है।

करीब तीन लाख बच्चों की जान बचाने में भी स्वच्छता अभियान की भूमिका मानी जा रही है। दरअसल लोगों को घर ही नहीं, आसपास भी सफाई की चिंता करनी होगी। आखिर क्या वजह है कि औसत नागरिक सड़क पर चलते अथवा ट्रेन-बस में सफर करते समय साफ-सफाई का ख्याल नहीं रखता? अपने घर का कूड़ा बाहर फेंक देना शिक्षित समाज की निशानी नहीं। देश के अन्य शहरों को इंदौर से सीख लेनी चाहिए। सफाई के मामले में इंदौर की सफलता लगन और समर्पण की कहानी है। सफाई के मामले में 2016 में यह शहर 25वें स्थान पर था, लेकिन अब सिरमौर है। यहां हर घर और दुकान से कूड़ा इकट्ठा करते समय ही सूखे और गीले कचरे को अलग-अलग करने की व्यवस्था है ताकि उसका खाद और पशु चारे के तौर पर उपयोग किया जा सके। इंदौर की कायापलट इसलिए हो सकी, क्योंकि स्वच्छता अभियान ने लोगों की सोच बदलने का काम किया।  अगर यह काम इंदौर या फिर भोपाल में हो सकता है तो फिर देश के दूसरे शहरों में भी तो हो सकता है। अगर दूसरे शहरों में ऐसा नहीं हो पा रहा है तो इसका प्रमुख कारण साफ-सफाई की ठोस योजनाओं का अभाव है। स्वच्छता अभियान के कई आयाम हैं। जरूरी केवल यह नहीं कि सड़कों एवं अन्य सार्वजनिक स्थलों की नियमित सफाई हो।

इसी के साथ सीवर सिस्टम को भी दुरूस्त करने की जरूरत है। सीवर सिस्टम के अभाव या फिर उसमें खराबी के कारण लाखों लोग नारकीय स्थितियों में रहने को विवश हैं। नियोजित बस्तियां तो अपेक्षाकृत साफ-सुथरी दिखती हैं, लेकिन अनियोजित अथवा अवैध बस्तियों में गंदगी का ही आलम नजर आता है। हमारे शहरों की एक बड़ी समस्या कूड़ा निस्तारण की है। कूड़े के निस्तारण का उपयुक्त तंत्र न होने के कारण जगह-जगह कूड़े के ढेर लगे होते हैं। अंतत: इससे ड्रेनेज सिस्टम जाम होता है और बीमारियों का प्रकोप बढ़ता है। बरसात के दिनों में ड्रेनेज जाम होने से सड़कें तालाब बन जाती हैं। कई शहरों का नियोजित विकास नहीं हो पाने से वहां का सीवेज सिस्टम ध्वस्त हो चुका है। अगर सीवर लाइनें हैं भी तो उनके गंदे पानी के शोधन की ठोस व्यवस्था नहीं है। इस मामले में सरकारों को कहीं अधिक ध्यान देना होगा। गंदगी के कारण शहरों की बदहाली का एक बड़ा कारण स्थानीय निकायों की निष्क्रियता है। यह नगर निकायों की जिम्मेदारी है कि वे शहर साफ रखें, लेकिन वे इस जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं। निकायों में भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या है। यह ठीक है कि उन्हें स्वायत्तता मिलनी चाहिए, लेकिन उन्हें अपनी कार्यप्रणाली भी दुरुस्त करनी होगी।

कई निकाय तो अपने कर्मियों को वेतन देने भर की आमदनी भी नहीं जुटा पाते। बहुत कम स्थानीय निकाय ऐसे हैं जिनके पास पर्याप्त संसाधन हैं। बेहतर होगा कि स्थानीय निकायों का नेतृत्व करने वाले यह समझें कि ईमानदार कोशिश की कभी हार नहीं होती। स्वच्छ समाज के निर्माण का हमारा सपना तब साकार होगा जब हम अपनी सोच में बुनियादी बदलाव लाएंगे। हम सभी को अपने आप से यह सवाल करना चाहिए कि क्या देश को गंदगी से मुक्त करना केवल सफाई कर्मियों का काम है? जिन सफाई कर्मियों को इस कारण विशेष महत्व मिलना चाहिए कि वे दूसरों की गंदगी साफ करते हैं उनके साथ अस्पृश्य सरीखा व्यवहार समझ से परे है। यह सबकी जिम्मेदारी है कि सफाईकर्मियों को यह आभास कराएं कि वे एक बड़ा काम कर रहे हैं। अभी हम इसके प्रति सचेत नहीं, इसका पता इससे भी चलता है कि रह-रह कर सीवर साफ करने वाले सफाई कर्मियों की मौत की खबरें आती रहती है। इन मौतों का एक बड़ा कारण सफाई कर्मियों की अनदेखी होती है। आखिर उन्हें आवश्यक उपकरण दिए बिना सीवर साफ करने के काम में लगाने का क्या मतलब? अगर स्वच्छ भारत के सपने को साकार करना है तो सफाई कर्मियों को मुख्यधारा में शामिल करने के साथ उन्हें समुचित संसाधन भी उपलब्ध कराने होंगे। एक मीडिया समूह के नाते दैनिक जागरण का यही प्रयास है कि जहां सफाई कमिर्यों को समुचित महत्व और मान मिले वहीं हर व्यक्ति इस भावना से लैस हो कि सार्वजनिक स्थलों को साफ-सुथरा रखना खुद उसकी भी जिम्मेदारी है।