News Clipping on 03-09-2018

Date:03-09-18

दुनिया की 22% आबादी को रिप्रेजेंट करता है बिम्सटेक

काठमांडू में संपन्न हुआ बिमस्टेक का दो दिनी चौथा शिखर सम्मेलन

नेपाल की राजधानी काठमांडू में प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की अध्यक्षता में ‘बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टरल टेक्निकल एंड इकनॉमिक को-ऑपरेशन (BIMSTEC)’ यानी बिम्सटेक का दो दिवसीय सम्मेलन संपन्न हुआ। यह बिम्सटेक का चौथा सम्मेलन है और यह “शांत, संपन्न और स्थिर बंगाल की खाड़ी क्षेत्र’ थीम पर आधारित है। इसमें करीब-करीब वही देश शामिल हैं, जो दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) में हैं।

क्या है यह संगठन?

21 साल पहले बैंकॉक में बांग्लादेश, भारत, श्रीलंका और थाइलैंड इनकॉमिक कॉर्पोरेशन नाम से एक क्षेत्रीय समूह की स्थापना हुई थी। तब इन देशों के पहले नाम के अक्षरों के आधार पर इसका नाम BIST-EC रखा गया था। मगर 22 दिसंबर 1997 को म्यांमार भी इसका पूर्णकालिक सदस्य बन गया। ऐसे में BIMST-EC इसका नाम कर दिया। बाद में साल 2004 में नेपाल और भूटान भी इसके सदस्य बन गए। ऐसे में 31 जुलाई 2004 को इसके नाम का अर्थ बदलते हुए ‘बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टरल टेक्निकल एंड इकनॉमिक को-ऑपरेशन’ कर दिया गया।

कैसे बनते हैं अध्यक्ष

देशों के नाम के प्रथम अक्षर के अनुसार क्रम से इस समूह की अध्यक्षता का निर्णय होता है। फिलहाल नेपाल इसका अध्यक्ष है। इससे पहले बांग्लादेश (1997-99), भारत (2000), म्यांमार (2001-02), श्रीलंका (2002-03), थाइलैंड (2003-05) और बांग्लादेश (2005-06) बिम्सटेक की अध्यक्षता कर चुके हैं। भूटान के मना करने पर भारत ने 2006-09 तक अध्यक्षता की थी।

सार्क का विकल्प क्यों बनाया?

पाकिस्तान का सार्क में अड़ियल रूख

बिम्सटेक की स्थापना आज से 1997 में हुई थी। इसकी शुरुआत गुजराल डॉक्ट्रिन के वक्त से ही मानी जा सकती है, जिसमें पाकिस्तान को शामिल न करने की बात कही गई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने साफ संकेत दिया था कि अगर पाकिस्तान अपना असहयोगात्मक रवैया नहीं छोड़ेगा, तो भारत क्षेत्रीय सहयोग में उसे शामिल नहीं करेगा। इसका वर्तमान स्वरूप 2004 में स्थिर हुआ जब सम्मेलन की प्रक्रिया और अन्य चीजें तय हुईं। इसमें एक मुद्दा यह था कि सार्क-जो एक क्षेत्रीय संगठन के रूप में दक्षिण एशिया में है। दरअसल, दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) की सीमित सफलता और पाकिस्तान के लगातार असहयोगात्मक रवैये के चलते एक क्षेत्रीय संगठन की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद को बढ़ावा देना जारी रखने के चलते भारत ने पाकिस्तान में होने वाले सार्क शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया था, तभी से सार्क के अस्तित्व और अस्मिता पर सवाल उठना शुरू हो गया था। अब माना जा रहा है कि भारत की ओर से बिम्सटेक को बढ़ावा दिया जाएगा, जिससे बिम्सटेक में शामिल सार्क देशों के बीच भी क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा मिलेगा, क्योंकि बिम्सटेक में पाकिस्तान नहीं है।

बंगाल की खाड़ी के देशों की एकता

दूसरी बात यह है कि भारत की लुक ईस्ट नीति है। नब्बे के दशक में शुरू हुई इस नीति के तहत पूर्व की तरफ देखने की पहल के तहत हमने बंगाल की खाड़ी से सटे देशों के साथ बिम्सटेक शुरू किया। आज इसमें 7 देश हैं जिनकी पहुंच बंगाल की खाड़ी से है-श्रीलंका, थाइलैंड, भारत, म्यांमार, बांग्लादेश। इनके अलावा नेपाल और भूटान जमीन से घिरे हुए हैं मगर उनका पोर्ट एक्सेस बंगाल की खाड़ी के पास है।
क्या हैं इसके लक्ष्य?

बिम्सटेक ने लगभग 14 एजेंडे तय किए, जो आपस में आर्थिक और तकनीकी सहयोग बढ़ाने पर आधारित हैं। इस बार भी इन मुद्दों को प्राथमिकता दी जानी है, मगर सभी मुद्दों पर बात हो पाना संभव नहीं हैं। बिम्सटेक के सदस्य देशों में फ्री ट्रेड एग्रीमेंट का प्रस्ताव है, ताकि आपस में व्यापार को बढ़ावा दिया जा सके। अभी इन देशों में आपस में इतना ट्रेड नहीं है। कुछ में है, जैसे भारत और श्रीलंका में, भारत और नेपाल में या म्यांमार और थाइलैंड के बीच। मगर भारत का थाइलैंड के साथ या नेपाल का बांग्लादेश के साथ उतना ट्रेड नहीं है।

बिम्सटेक से जुड़ी खास बातें

लुक ईस्ट पॉलिसी के बाद अब एक्ट ईस्ट पॉलिसी

बिम्सटेक के सफर से जुड़े दो महत्वपूर्ण तथ्य हैं। एक, दक्षिण एशियाई देशों के बीच उप-क्षेत्रीय सहयोग का विकास हुआ और दूसरा, इसमें आसियान संगठन के दो (दक्षिण-पूर्वी एशियाई) देशों- म्यांमार और थाइलैंड- के शामिल होने से सदस्य देशों के बीच अंतरक्षेत्रीय सहयोग का विकास हुआ। म्यांमार और थाइलैंड का बिम्सटेक में शामिल होना भारत की ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ का परिणाम था, जिसे मोदी ने अब ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ का रूप दिया है।

बिम्सटेक से दक्षिण एशिया पर फोकस

जाहिर है दक्षिण एशियाई सहयोग संगठन यानी सार्क तक तो भारत सिर्फ दक्षिण एशिया में ही क्षेत्रीय सहयोग, व्यापार, आयात-निर्यात आदि कर रहा था, लेकिन बिम्सटेक को बढ़ावा मिलने से पहुंच दक्षिण-पूर्वी एशिया तक हो गई है। भारत पहले सिर्फ दक्षिण एशिया पर ही फोकस कर रहा था, लेकिन अब उसने अपना विस्तार शुरू कर दिया है। अब भारत ने विकल्प के रूप में बहुपक्षीय संगठनों को प्रोत्साहन देना शुरू कर दिया है, जिसमें सबसे ऊपर है बिम्सटेक।

एडीबी करता है फंडिंग

बंगाल की खाड़ी से जुड़े देशों के संगठन बिम्सटेक के विकास के लिए इस संगठन का डेवलपमेंटल पार्टनर एडीबी (एशियन डेवलपमेंट बैंक) बना। बिम्सटेक देशों के बीच में भौतिक संपर्क, आर्थिक संपर्क और सांस्कृतिक संपर्क इन तीनों को बढ़ाने के लिए एडीबी प्रोत्साहन करता है और फंड देता है।

8 वर्ष में 50 अरब डॉलर बढ़ा व्यापार

इसके लिए त्रिपक्षीय संपर्क मार्ग की व्यवस्था बनाई है, जो भारत, थाइलैंड और म्यांमार के बीच है। वर्ष 2013 में इस समूह का आंतरिक व्यापार 74.63 अरब डॉलर था, जो 2005 में महज 25.16 अरब डॉलर ही था। मुक्त व्यापार समझौते के लागू होने के बाद इस समूह के अंदर व्यापार में 43 से 59 अरब डॉलर तक की बढ़ोतरी हो सकती है, लेकिन इसके लिए हर सदस्य देश को यातायात और अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर सुविधाओं में बहुत अधिक बेहतरी करनी होगी।


Date:03-09-18

असहमति की आड़ में अराजकता

संजय गुप्त, (लेखक दैनिक जागरण समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं)

इस वर्ष के प्रारंभ में महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में दलित और मराठा समुदाय के लोगों के बीच हुई हिंसा की जांच करते हुए पुणे पुलिस ने जून माह में जब पांच लोगों को गिरफ्तार किया, तो उनके पास से कुछ ऐसे पत्र मिले, जिनसे गहरी साजिश के संकेत मिले। जब जांच और आगे बढ़ी तो पुणे पुलिस ने विभिन्न् राज्यों से पांच और लोगों को गिरफ्त में लिया। ये मानवाधिकार अथवा सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में अपनी पहचान रखते हैं। इन पर शहरों में नक्सलियों के मुखौटों की तरह काम करने, उन्हें वैचारिक समर्थन देने और उनके लिए संसाधन जुटाने का आरोप है। पुणे पुलिस के अनुसार इन पांचों की नक्सलियों के साथ-साथ कश्मीरी अलगाववादियों से भी साठगांठ है और ये हिंसक आंदोलनों को भड़काते रहे हैं। उच्चतम न्यायालय ने इन सभी की गिरफ्तारी यह कहते हुए नजरबंदी में बदल दी कि असहमति लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व है। नि:संदेह लोकतंत्र में असहमति के लिए स्थान होना चाहिए और अगर विरोध का स्वर घुटेगा तो लोकतंत्र तानाशाही में बदल जाएगा, लेकिन हिंसक आंदोलनों में लिप्त तत्वों को असहमति के अधिकार की आड़ में छिपने का अवसर नहीं दिया जा सकता।

यह एक तथ्य है कि नक्सली समर्थक तत्व असहमति के अधिकार की आड़ में हिंसक गतिविधियों की वकालत करते हैं। अपने देश में आजादी के दो दशक बाद ही माओ से प्रभावित कानू सान्याल, चारू मजूमदार आदि ने पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी इलाके से व्यवस्था के खिलाफ हिंसा के रास्ते पर चलना शुरू किया था। इसी कारण माओवाद को नक्सलवाद के नाम से भी जाना जाता है। माओवाद या नक्सलवाद की विचारधारा के तहत भोले-भाले ग्रामीणों और खासकर आदिवासियों को यह सिखाया गया कि उन्हें अपने अधिकार राज्य के विरुद्ध हथियार उठाने से ही मिलेंगे। इस तरह नक्सली संगठनों ने धीरे-धीरे अपनी ताकत बढ़ाई और वे देश के उन हिस्सों में खासतौर पर सक्रिय हो गए, जहां खनिज संपदा की प्रचुरता है। उन्होंने सुनियोजित ढंग से इन संसाधनों पर अपना अधिकार जताना और सरकारी तंत्र को लूट-खसोट करने वाला बताना शुरू कर दिया। जब नक्सलियों का आतंक बढ़ा तो केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारों ने उनके खिलाफ कमर कसी। आज स्थिति यह है कि 10 राज्यों के 68 जिलों में मौजूदगी दर्शाने वाले नक्सलियों में से 90 फीसदी 35 जिलों तक सिमटकर रह गए हैं।

नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई कितनी जोखिम भरी रही है, यह इससे समझा जा सकता है कि बीते 20 सालों में नक्सली हिंसा में लगभग 12 हजार लोग मारे गए हैं। इनमें तकरीबन 2,700 सुरक्षा बलों के जवान हैं। बीते तीन वषों में नक्सली हिंसा में 25 प्रतिशत कमी आई है। इसकी एक वजह नक्सलियों से मिलीभगत रखने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जीएन साईंबाबा की गिरफ्तारी और सजा भी रही। वैसे नक्सली अभी भी चुनौती बने हुए हैं। वे रह-रहकर बड़ी वारदात कर रहे हैं। मई 2013 में छत्तीसगढ़ के सुकमा में उन्होंने कांग्रेस नेताओं के काफिले पर हमला कर 27 लोगों को मार डाला था। इनमें छत्तीसगढ कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा आदि शामिल थे। बीते दशकों में नक्सली संगठनों ने वंचित समाज को इस तरह बरगलाया कि इस तबके के लोगों ने हथियार उठाने से गुरेज नहीं किया। राज्य के खिलाफ हथियार उठाने को अभिव्यक्ति की आजादी नहीं कहा जा सकता।

इसे तो राष्ट्र-राज्य के विरुद्ध युद्ध ही कहा जाएगा। यही कारण है कि केंद्र में चाहे जो सरकार रही हो, उसने नक्सलियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा ही माना है। संप्रग शासन के समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो यह बात बार-बार दोहराते थे। इसमें दोराय नहीं कि बौद्धिक तबके के एक समूह को नक्सलियों से न केवल हमदर्दी है, बल्कि वह उनकी मदद भी करता है। उनके इस कुप्रचार को वैचारिक अंधता के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता कि सरकारें शोषितों की आवाज कुचलकर उनके संसाधनों पर कब्जा कर रही हैं। आज अगर भारत में लोकतंत्र है और उसकी मिसाल दुनिया भर में दी जाती है तो इसलिए नहीं कि यहां की सरकारों ने अपने ही लोगों पर जुल्म ढाए हैं। हकीकत यह है कि भारतीय संविधान के तहत जो कानून बने, उनसे कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी संतुष्ट नहीं। उनका असंतोष एक तरह के विद्रोह में तब्दील हो गया है। वे नक्सलियों के समर्थक इसीलिए हैं, क्योंकि नक्सली हथियारों के बल पर सरकारों का विरोध करने के साथ खनिज एवं वन संपदा पर अपना एकमात्र अधिकार समझते हैं। वे न तो लोकतंत्र पर आस्था रखते हैं और न ही भारतीय संविधान पर।

आखिर किसी भी लोकतंत्र में कोई भी सरकार ऐसे खतरनाक तत्वों के प्रति क्यों नरमी बरते? ऐसा करना तो आत्मघात करने जैसा होगा। समझना कठिन है कि पुणे पुलिस की कार्रवाई को असहमति की आवाज दबाने की कोशिश किस आधार पर कहा जा रहा है? ध्यान रहे कि गिरफ्तार पांच लोगों में कुछ उस कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के समय भी गिरफ्तार किए गए थे, जो आज पुणे पुलिस की कार्रवाई का विरोध कर रही है। आखिर कांग्रेस द्वारा उन लोगों का समर्थन करने का क्या मतलब, जिनके बारे में पुणे पुलिस का दावा है कि वे आठ करोड़ रुपए से मशीनगन, ग्रेनेड, कारतूस आदि खरीदने की सोच रहे थे, ताकि राजीव गांधी हत्याकांड जैसा कारनामा किया जा सके? कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को याद होना चाहिए कि संप्रग सरकार ने नवंबर 2013 में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा था कि माओवाद का मुखौटा बने कुछ बुद्धिजीवी शहरों में सक्रिय हैं।

इस हलफनामे के अनुसार ऐसे तत्व नक्सलियों की हथियारबंद गुरिल्ला टुकड़ी से भी अधिक खतरनाक हैं। हलफनामा यह भी कहता है कि कैसे ये तथाकथित बुद्धिजीवी मानवाधिकार और असहमति के अधिकार की आड़ लेकर सुरक्षा बलों की कार्रवाई को कमजोर करने के लिए कानूनी प्रक्रिया का सहारा लेते हैं और झूठे प्रचार के जरिए सरकारों और उसकी संस्थाओं को बदनाम करते हैं। नक्सली संगठनों को अपने शहरी साथियों की जरूरत इसलिए है, क्योंकि वे जब बतौर बुद्धिजीवी कोई बात कहते हैं तो वह कहीं न कहीं असर करती है। नक्सलियों के इन मुखौटों को झूठा प्रचार अभियान चलाने में भी आसानी होती है और मानवाधिकारों की आड़ लेने में भी। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि नक्सलियों के समर्थक इसलिए अधिक बेचैन हैं, क्योंकि उनसे प्रभावित लोगों का उनसे मोहभंग हो रहा है। 2011-2014 के मुकाबले 2014-2017 की अवधि में आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों की संख्या में 185 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। हैरानी नहीं कि नक्सलियों और उनके समर्थकों की बेचैनी के कारण ही वह साजिश रची गई हो, जिसका दावा पुणे पुलिस ने किया है। जल्द ही सुप्रीम कोर्ट में इस दावे की परीक्षा होगी, लेकिन गिरफ्तार किए गए लोगों के पक्ष में जैसी लामबंदी हो रही है, उससे साफ है कि कुछ वामपंथी नेता और बुद्धिजीवी मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करते रहने के सुनियोजित एजेंडे पर चल रहे हैं। अवार्ड वापसी इसी एजेंडे का एक हिस्सा था।