News Clipping 20-07-2018

Date:20-08-18

चुनावी मौसम में प्रधानमंत्री मोदी के बही खाते की जांच

ए के भट्टाचार्य

देश में चुनावी माहौल बनने लगा है। राजनीतिक दल और उनके नेता मई 2019 से पहले होने वाले आम चुनाव की तैयारी में जुट गए हैं। प्रश्न यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चुनावी बही-खाता कैसा दिख रहा है? कौन सी पहल उन्हें वोट दिला सकती हैं और किस तरह की नीतियां मतदाताओं को दूर कर सकती हैं? शुरुआत करते हैं उनकी चार प्रमुख आर्थिक नीति पहलों से जो हैं: नोटबंदी, वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) और नया मौद्रिक नीति ढांचा।

देश की प्रचलित मुद्रा में से 86 प्रतिशत को बंद करने के लगभग दो वर्ष बाद अब यह स्पष्ट है कि इसने अर्थव्यवस्था पर बुरा असर डाला। वृद्घि पर इसका असर हुआ, डिजिटल लेनदेन और कर अनुपालन में बढ़ोतरी आदि लक्ष्य तो बिना नोटबंदी के भी हासिल किए जा सकते थे। क्या इससे मोदी को राजनैतिक लाभ मिलेगा? हां, अगर वह ऐसी धारणा बनाने में कामयाब हो जाएं कि नोटबंदी का लक्ष्य नकदी के ढेर पर बैठे कारोबारियों को नुकसान पहुंचाना था। गरीब भारतीय मतदाताओं के लिए मोदी खुद को ऐसे नेता के रूप में पेश कर सकते हैं जो काले धन और अवैध संपदा जमा करने के खिलाफ रहा है।

जुलाई 2017 में जीएसटी लागू होने के बाद भी बाधाएं उत्पन्न हुईं लेकिन अर्थव्यवस्था पर इसका समग्र प्रभाव फायदेमंद ही रहा। राजस्व से जुड़ी चिंताएं अल्पकालिक हैं और अप्रत्यक्ष कर संग्रह में इजाफा बोनस होगी। छोटे व्यापारी और कारोबारी जीएसटी को पसंद नहीं करेंगे क्योंकि वह उनको कर दायरे में लाता है। परंतु एक बार शुरुआती दिक्कतें खत्म होने के बाद जीएसटी को सरकार की बड़ी पहल माना जा सकता है। चुनावों में जरूर यह मददगार नहीं होगी। कारोबारी और छोटे उद्यम, जो भाजपा के समर्थकों में गिने जाते हैं वे जीएसटी के कारण मोदी सरकार से नाराज भी हो सकते हैं। प्रश्न यह है कि क्या सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रमों के लिए हाल में घोषित की गई राहत उस गुस्से को कम कर सकेगी।

आईबीसी को मई 2016 में लागू किया गया। यह एक बड़ा सुधार है और अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव भी उतना ही बड़ा होगा जितना कि जीएसटी का। नई कर व्यवस्था देश के संघीय ढांचे को मजबूत बना रही है। वस्तु एवं सेवाओं पर अप्रत्यक्ष कर दरों के निर्धारण में यह मशविरे के आधार पर निर्णय ले रही है जबकि पहले यह निर्णय संसद और राज्य विधानसभाओं द्वारा लिया जाता था। आईबीसी ने देश में दोहरी बैलेंस शीट की समस्या का निराकरण किया। उसने बैंकिंग क्षेत्र की तनावग्रस्त संपत्ति और बकाये की समस्या से जूझ रही कर्जग्रस्त कंपनियों से जुड़ी समस्याओं का समाधान किया।

आईबीसी में यह क्षमता है कि वह बैंकों को फंसे हुए कर्ज की समस्या से निजात दिला सके और डिफॉल्ट करने वाले प्रवर्तकों को उनकी कंपनी से बाहर कर सके। यह सब पारदर्शी और न्यायालयीन निगरानी में किया जा रहा है। संकटग्रस्त बैंकों को इससे राहत मिल सकती है जबकि अपनी कंपनी पर अधिकार गंवाने वाले प्रवर्तक नाराज हो सकते हैं। चुनावी दृष्टि से देखें तो मोदी उन तबकों के प्रिय भी नहीं हैं जिनको आईबीसी के तहत अपनी कंपनियां गंवानी पड़ीं। मौद्रिक नीति का नया ढांचा मुद्रास्फीति पर लक्षित है और उसने आरबीआई और सरकार की संबद्घता की नई शर्तें तय की हैं। नई बनी मौद्रिक नीति समिति में सरकार द्वारा नियुक्त तीन स्वतंत्र सदस्य हैं। मुद्रास्फीति को लक्षित करना चुनाव में भाजपा को फायदा दिला सकता है।

पांच ऐसी कल्याणकारी योजनाएं हैं जो आगामी चुनाव में सरकार को फायदा पहुंचा सकती हैं। ये योजनाएं हैं 5 करोड़ से अधिक गरीब परिवारों को घरेलू गैस दिलाने वाली उज्ज्वला योजना, सभी गांवों तक बिजली पहुंचाने की योजना हालांकि अभी भी कई गांवों में परिवार बिना बिजली के रहते हैं, गरीबों को कारोबारी ऋण देने के लिए मुद्रा योजना, देश में 32 करोड़ लोगों के बैंक खाते खुलवाने वाली जन धन योजना और 10 करोड़ से अधिक परिवारों को चिकित्सा कवर दिलाने वाली आयुष्मान योजना। मोदी इन योजनाओं का चुनावी लाभ लेने की हरसंभव कोशिश करेंगे। अगर ये योजनाएं मतदाताओं को लुभाने में नाकाम रहती हैं तो मोदी सामाजिक एजेंडे का सहारा लेगे जिसमें सरकार पहले ही ढेर सारा जरूरी काम कर चुकी है।

अनुसूचित जाति एवं जनजाति पर अत्याचार को लेकर बने कानून में दलितों को संतुष्ट करने के लिए उचित संशोधन किया जा चुका है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधनिक दर्जा दिया जा चुका है। तीन तलाक के मसले पर जो बाधाएं हैं उनसे भी निजात पाई गई ताकि मुस्लिम महिला मतदाताओं को लुभाया जा सके। असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी को लेकर उपजे हालिया विवाद के बाद अन्य राज्यों में भी ऐसी कवायद की मांग उठी है। यह बात भी भाजपा के हित में जाती है। अगर यह सारा गणित नाकाम हो जाता है तो भी भाजपा राम मंदिर मुद्दे पर तो भरोसा कर ही सकती है। सर्वोच्च न्यायालय आगामी आम चुनाव के पहले इस विषय पर अपना मत देने वाला है। ऐसे में कहा जा सकता है कि मोदी की चुनावी संभावनाओं को इकलौती चुनौती आर्थिक नीतियों के मोर्चे पर मिलेगी। वह अपनी कल्याण योजनाओं और सामाजिक एजेंडे से इनसे पार पा सकते हैं।

ऐसे में प्रश्न यह है कि मोदी की कमजोरी क्या हो सकती है? विपक्षी दलों द्वारा पेश की जाने वाली चुनौतियों से इतर एक चुनौती अंदर से भी उभर सकती है जिसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। मोदी के नेतृत्व को संघ परिवार से चुनौती मिल सकती है। इससे निपटना आसान नहीं होगा। ऐसी कोई भी चुनौती चुनाव के बाद ही उभरेगी और वह काफी हद तक चुनाव के नतीजों पर निर्भर करती है।


Date:20-08-18

केरल में बाढ़ के कारण आया संकट राष्ट्रीय आपदा का रूप ले चुका है

संपादकीय

बाढ़ और बारिश के चलते केरल के हालात किस कदर खराब हैं, इसका पता इससे भी चल रहा है कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस राज्य का दौरा करने पहुंचे। केरल में जान-माल की क्षति के आंकड़े यही बयान कर रहे हैं कि इस राज्य में बाढ़ के कारण आया संकट राष्ट्रीय आपदा का रूप ले चुका है। शायद यही कारण है कि एक ओर जहां संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने इस समुद्र तटीय भारतीय राज्य में हुई जनहानि पर दुख जताया वहीं संयुक्त अरब अमीरात के प्रधानमंत्री ने यहां के बाढ़ प्रभावितों की मदद के लिए पहल की। यह समय की मांग है कि केंद्र सरकार के साथ-साथ अन्य राज्य सरकारें अपनी साम‌र्थ्य भर केरल की सहायता के लिए आगे आएं।

यह संतोष की बात है कि वे ऐसा कर रही हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि ऐसे मौके पर धनराशि से ज्यादा जरूरत राहत और बचाव सामग्री जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने की होती है। हालांकि हमारे सुरक्षा बल इस कठिन काम को करने में सक्षम हैं, लेकिन जब बाढ़ और बारिश के चलते भूस्खलन का सिलसिला कायम हो तो प्रभावित लोगों को सहायता पहुंचाना आसान नहीं होता। यह चिंताजनक है कि सेना और सुरक्षा बलों की हर संभव कोशिश के बाद भी केरल में जान-माल की क्षति का आंकड़ा कम होने का नाम नहीं ले रहा है। इसके पहले केरल में ऐसी खतरनाक बाढ़ करीब सौ साल पहले आई थी। उसकी याद शायद ही किसी को हो, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पर्यावरण के जानकार और साथ ही जल, जंगल, जमीन की चिंता करने वाले इसे लेकर लगातार चेतावनी देते रहे कि केरल अपने भविष्य से खेल रहा है। दुर्भाग्य से इस तरह की चेतावनी की उपेक्षा ही की गई-ठीक वैसे ही जैसे हमारे अन्य राज्य करते हैं।

केरल के हालात पांच साल पहले उत्तराखंड में बाढ़ से उपजी भयावह स्थितियों का स्मरण करा रहे हैं। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि जैसे उत्तराखंड ने नियम-कानून को धता बताकर किए जाने वाले कामों की अनदेखी की वैसा ही केरल ने भी किया। नतीजा सामने है। केरल के नेताओं और नौकरशाहों को इसके लिए जवाबदेह बनाया जाना चाहिए कि आखिर उन्होंने उस रपट को खारिज क्यों किया जिसमें पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील इलाकों में खनन और निर्माण कार्य रोकने को कहा गया था? नि:संदेह कम समय में जरूरत से ज्यादा बारिश होने के कारण केरल में उपजे हालात को प्राकृतिक आपदा की ही संज्ञा दी जाएगी, लेकिन इस आपदा के लिए एक बड़ी हद तक यहां का शासन-प्रशासन भी जिम्मेदार है।

यदि विकास को अंधाधुंध विकास का पर्याय बना दिया जाएगा और पर्यावरण के साथ पारिस्थितिकी तंत्र की परवाह नहीं की जाएगी तो फिर उसके दुष्परिणामों से बचना मुश्किल ही होगा। यह ठीक नहीं कि आज जब ग्लोबल वार्मिग के कारण दुनिया भर में बहुत कम या ज्यादा बारिश होनी लगी है तब हमारे नीति-नियंता न्यूनतम सजगता भी नहीं दिखा रहे हैं। इससे भी खराब बात यह है कि वे अवैध-अनियोजित निर्माण अथवा खनन को रोकने के अदालती आदेश-निर्देश का पालन मुश्किल से ही करते हैं।