(01-12-2021) समाचारपत्रों-के-संपादक

Date:01-12-21

एक नई कृषि क्रांति की जरुरत
शिवकांत शर्मा, ( लेखक बीबीसी हिंदी सेवा के पूर्व संपादक हैं )

कृषि सुधार कानून आए और चले गए, लेकिन किसानों की चिंता का मुख्य मुद्दा जस का तस है। बीज, खाद, कीटनाशक, बिजली, पानी और मजदूरी की बढ़ती दरों की वजह से खेती की लागत लगातार बढ़ रही है। इसलिए किसान अपनी उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की कानूनी गारंटी चाहते हैं। एमएसपी की वर्तमान व्यवस्था अव्वल तो सभी राज्यों और सभी फसलों पर लागू नहीं है तिस पर यह सरकारों की इच्छा पर निर्भर है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के किसानों को इस व्यवस्था से खूब फायदा हुआ है। वहीं बिहार जैसे राज्यों को न इसके होते हुए लाभ मिल रहा था और न ही इसके हटाए जाने से कोई लाभ हुआ है। इसकी एक मुख्य वजह शायद बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में जोतों का बहुत छोटा होना है। कृषि विभाग के आंकड़ों के अनुसार पंजाब और हरियाणा के किसानों के पास औसतन 14 और 11 बीघा जमीन है वहीं बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसानों के पास औसत जोत मात्र डेढ़ से तीन बीघा। इसीलिए पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के औसत किसानों के पास बेचने के लिए कम उपज ही बचती है और वे खरीदार की सौदेबाजी का शिकार हो जाते हैं। ऐसे में एमएसपी की कानूनी गारंटी मिलने से छोटी जोत वाले किसानों को भी शायद इसका कुछ लाभ मिले।

कृषि उपज का न्यूनतम मूल्य तय किया जाना कोई नई बात नहीं है। अमेरिका और यूरोप में कृषि उपज के बाजार मूल्यों में गिरावट थामने के लिए किसानों को अपने कुछ खेतों को खाली रखने और जैव-विविधता को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी दी जाती है। भारत में किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए एमएसपी की व्यवस्था है। स्वरूप भिन्न होने के बावजूद बात वही है। हालांकि भारत सरकार को भय है कि एमएसपी की गारंटी से महंगाई बढ़ सकती है, क्योंकि गेहूं, मक्का और धान जैसी फसलों के एमएसपी उनकी अंतरराष्ट्रीय जिंस बाजार कीमतों के बराबर आ चुके हैं। इसलिए उपज की गुणवत्ता और किसानों की उत्पादकता में गिरावट आने का भी खतरा है।

सरकार की सबसे बड़ी चिंता पूरे देश की उपज का एमएसपी तय करने और उस पर आने वाले खर्च की है। वहीं कुछ कृषि अर्थशास्त्रियों की दलील है कि सरकारी बजट पर इससे कुछ हजार करोड़ का ही अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। यह दलील मान भी ली जाए तब भी देश भर की उपज को किसानों से खरीद कर उसके भंडारण और वितरण की चुनौती बहुत बड़ी है। दुनिया भर की सरकारें इसमें नाकाम रही हैं। उसमें उपज के भारी मात्र में बर्बाद होने और घूसखोरी की गुंजाइश बनी रहती है। सरकारों को केवल राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा लायक कृषि उपज को खरीदना और उसका भंडारण करना चाहिए। बाकी काम बाजारों पर छोड़कर नीतियों द्वारा मूल्यों पर नियंत्रण रखना चाहिए।

जिस तरह गन्ना और कपास किसानों को उनकी फसलों का न्यूनतम मूल्य दिलाया जाता है उसी तरह बाकी फसलों के न्यूनतम मूल्य को व्यापारियों से दिलाने की व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकती? यह संभव है, परंतु इसके लिए ग्रामीण इलाकों में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का तेजी से विकास करना होगा। घरेलू उपभोक्ता के साथ-साथ यदि खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी कृषि उपज की मांग करने लगेगा तो बाजार में उसकी कीमतें स्थिर रखने में आसानी होगी। इस उद्योग को कृषि उत्पादों के भंडारण के लिए बड़ी संख्या में शीत-गोदामों की जरूरत होगी। उनके खिलाफ किसान नेताओं और उनके समर्थकों ने एक अनुचित मुहिम छेड़ी हुई है।

खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का तेज विकास इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि भारत का कृषि क्षेत्र विकास दर में सेवा और उद्योग जैसे दूसरे क्षेत्रों की तुलना में लगातार पिछड़ रहा है। देश की आधे से अधिक आबादी के कृषि में संलग्न होने के बावजूद आज अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान मात्र 18 प्रतिशत रह गया है। भारत में करीब 14 करोड़ लोगों के पास खेती की जमीन है। उनमें केवल छह करोड़ लोग ही उस पर साल में दो फसलें लेते हैं। उनमें से भी 80 प्रतिशत के पास औसतन तीन बीघा से कम जमीन है। उन्हें गुजर-बसर के लिए खेती से इतर आय के दूसरे साधनों की भी जरूरत है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों का विकास ऐसे साधन उपलब्ध करा सकता है।

कृषि क्षेत्र का विकास गांवों और शहरों के बीच बढ़ती आर्थिक विषमता की खाई को पाटने के लिए भी जरूरी है। यह कृषि सुधारों के बिना संभव नहीं। इसके लिए एक नई कृषि क्रांति की जरूरत है। मिट्टी और सिंचाई का वैज्ञानिक प्रबंधन, नकदी फसलों को बढ़ावा, अच्छे बीज सुलभ कराना, बागवानी, वानिकी और मत्स्य पालन को प्रोत्साहन और नई पर्यावरण हितैषी तकनीकों का विकास समय की जरूरत बन चुका है। स्वाभाविक है कि सरकार सारे काम खुद नहीं कर सकती। उनकी पूर्ति के लिए निजी उद्यमों और पूंजी के लिए राह खोलनी होगी। राजनीतिक बिरादरी को उद्यम विरोधी बयानबाजी से भी बाज आना होगा। कृषि जैसे समाज के आधारभूत क्षेत्र को पीछे छोड़कर देश का संतुलित और समावेशी विकास नहीं किया जा सकता। इसके लिए कृषि सुधारों के साथ-साथ खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास जरूरी है। साथ ही किसानों के लिए एमएसपी और उससे भी बढ़कर खेतिहर मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी की गारंटी आवश्यक है, क्योंकि एमएसपी गारंटी से बढ़ने वाली खाद्य पदार्थो की महंगाई की सबसे बड़ी मार उन्हीं खेतिहर और गरीब मजदूरों पर ही पड़ने वाली है। इसलिए एमएसपी गारंटी के बदले किसानों से न्यूनतम मजदूरी की गारंटी और जलवायु की रक्षा के लिए पराली जलाने जैसे प्रदूषणकारी काम न करने और खेती में जलवायु की रक्षा का ध्यान रखने का वचन लेना आवश्यक होगा।

एमएसपी गारंटी का मामला कृषि उत्पादकों और उपभोक्ताओं की जरूरतों के बीच संतुलन बिठाने पर भी आधारित है। सरकार को किसानों की आय सुरक्षा के साथ-साथ उपभोक्ताओं की आमराय और सहमति भी जुटानी होगी। कोई लोकतांत्रिक सरकार केवल एक वर्ग की खुशामद कर अधिक दिनों तक नहीं टिक सकती। उपभोक्ताओं का वर्ग किसानों से भी कई गुना बड़ा है। इसलिए समर्थन मूल्य गारंटी जैसी नीति पर आगे बढ़ने से पहले सरकार को उनका ध्यान भी रखना होगा।

 

Date:01-12-21

जीएसटी दरें कम रहने से बढ़ सकता है कर अनुपालन
टीसीए श्रीनिवास-राघवन

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले सप्ताह कहा था कि कर संग्रह बढ़ाने के लिए करदाताओं की संख्या में इजाफा करना होगा। वित्त मंत्री ने इसके पीछे तर्क दिया था कि करदाताओं की संख्या बढ़ेगी तो कर संग्रह भी बढ़ेगा और अंतत: कर दरों में कटौती का रास्ता भी खुल जाएगा। मगर क्या संग्रह इसके उलट तरीके से नहीं बढ़ाया जा सकता है? यानी क्या कर दरें कम रहने से अधिक से अधिक संख्या में करदाता कर भुगतान के लिए आगे नहीं आएंगे? वास्तव में कर दरें कम रहने के कई और लाभ भी मिल सकते हैं और कई दूसरी बड़ी समस्याएं भी सुलझाई जा सकती हैं। उपभोग के मद में खर्च में कमी और वित्तीय प्रणाली में नकदी का आदान-प्रदान जारी रहना ऐसी ही समस्याएं है। वास्तव में ये एक दूसरे से जुड़े हैं।

फिलहाल हालत यह है कि कर भुगतान में किसी तरह की हिचकिचाहट नहीं दिखाने वाले करदाता भी रोजमर्रा में काम आने वाले उत्पादों पर करीब 20 प्रतिशत से अधिक खर्च करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। केश तेल, टूथपेस्ट और शैंपू ऐसी ही कुछ वस्तुएं हैं। उपभोक्ता इनके बदले नकद भुगतान कर रहे हैं।

एक अन्य उदाहरण पर भी विचार करते हैं। लोग अक्सर अपने घरों की मरम्मत करते रहते हैं। इस कार्य में दो प्रमुख सामग्री की जरूरत होती है। ये दो सामग्री सीमेंट और पेंट हैं। मान लें कि घर की मरम्मत में 2 लाख रुपये मूल्य का सीमेंट लगेगा। अगर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) का भुगतान 28 प्रतिशत दर से करना है तो कुल मिलाकर 2.56 लाख रुपये खर्च होगा। इसी तरह, पेंट के लिए अगर 1 लाख रुपये की जरूरत होगी तो किसी व्यक्ति को 18 प्रतिशत जीएसटी के साथ कुल मिलाकर 1.18 लाख रुपये का भुगतान करना होगा। इस उदाहरण पर दूसरे दृष्टिकोण से भी विचार किया जा सकता है। जीएसटी के साथ घर की मरम्मत पर 3.74 लाख रुपये खर्च आएगा मगर पूरा भुगतान नकद किया जाए तो केवल 3 लाख रुपये ही जेब से जाएंगे। कोविड-19 महामारी से देश की अर्थव्यवस्था सुस्त हो गई है और इसका असर लोगों की आय पर भी हुआ है। ज्यादातर लोगों की कमाई कोविड महामारी के बाद कम हो गई है। इन चुनौतीपूर्ण हालात में सरकार लोगों से उपभोग पर अधिक खर्च करने की उम्मीद नहीं कर सकती है। बात अगर आवश्यक वस्तुओं की हो तो खर्च वाजिब लगता है मगर फ्रिज, एयर कंडीशनर और टेलीविजन जैसी विलासिता की वस्तुओं पर कोई भी व्यक्ति असामान्य हालात में खर्च करने की हिम्मत स्वाभाविक तौर पर नहीं जुटा पाएगा। इन सभी वस्तुओं पर 18 प्रतिशत या 28 प्रतिशत जीएसटी लगता है।

यहां पर एक तर्क यह दिया जा सकता है कि ऐसे दुकानदार छोटे हैं और इनकी सालाना कमाई निर्धारित 40 लाख रुपये की सीमा से कम है। लिहाजा उन्हें जीएसटी से मुक्त रखा गया है। मगर जीएसटी के दायरे से उन्हें मुक्त रखना स्वयं एक समस्या का कारण बन जाता है। एक ग्राहक के रूप में मैं यह कैसे पता करूंगा कि अमुक दुकानदार की सालाना कमाई कितनी है? एक ग्राहक कैसे मालूम कर पाएगा कि दुकानदार को जीएसटी देना पड़ता है या नहीं या फिर इसके मद में ली गई रकम वह अपनी जेब में डालेगा या सरकार को कर देगा?

हां, जीएसटी के मद में भुगतान की गई रकम कहां जाएगी इसका पता लगाया जा सकता है।

ग्राहक दुकानदार से जीएसटी क्रमांक के साथ बिल की मांग कर सकता है। मगर यहां एक और समस्या खड़ी हो जाती है। इस बात का पता कैसे चलेगा कि दुकानदार जो बिल दे रहा है उस पर अंकित जीएसटी क्रमांक सही है? कई ग्राहक इस पेचीदा प्रक्रिया से बचना चाहता है। मोटे तौर पर इस तरह के लेनदेन में कोई समस्या नहीं आनी चाहिए मगर ग्राहक नकद भुगतान करने में स्वयं को अधिक सहज पाता है। अब इस पूरी प्रक्रिया के नतीजे पर गौर करते हैं। सरकार जब आर्थिक गतिविधियों का जायजा लेने की कोशिश करती है तो ऐसे लेनदेन सामने नहीं आ पाते हैं। इससे सरकार को जीएसटी के रूप में प्राप्त होने वाले राजस्व से हाथ धोना पड़ता है। नकद लेनदेन कम करने की सरकार की योजना की राह में भी इससे बाधा उत्पन्न होती है। जीएसटी परिषद ने मान लिया कि कर दरों को लेकर रेवेन्यू न्यूट्रल रेट का आंख मूंदकर पालन करने से उन वस्तुओं पर अधिक कर लग रहा है जिन पर अमूमन कम कराधान होना चाहिए। इसे देखते हुए जीएसटी परिषद ने दरें कम कर दी हैं और अनुपालन बढ़ाने पर अधिक ध्यान दिया है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के अनुसार मौजूदा वेटेड औसत जीएसटी दर 11.6 प्रतिशत है। यह 15 प्रतिशत राजस्व रेवेन्यू न्यूट्रल रेट से काफी कम है। जब जीएसटी का क्रियान्वयन हुआ था तो उस समय 15 प्रतिशत रेवेन्यू न्यूट्रल रेट की सिफारिश की गई थी।

इसके बावजूद कोविड महामारी में भी जीएसटी राजस्व उच्चतम स्तरों पर हैं। चालू वित्त वर्ष के पहले सात महीनों में औसत जीएसटी राजस्व 1.16 लाख करोड़ रुपये रहा है। जीएसटी क्रियान्वयन के बाद से यह अब तक का सर्वोच्च स्तर है। कोविड महामारी से पहले वित्त वर्ष 2019-20 में यह आंकड़ा 1.01 लाख करोड़ रुपये था। जीएसटी परिषद की अध्यक्ष होने के नाते वित्त मंत्री को राज्यों को अधिक से अधिक वस्तुओं को 28 प्रतिशत और 18 प्रतिशत से निचली कर श्रेणियों में लाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। ऐसा करने से न केवल कर अनुपालन बढ़ेगा बल्कि अधिक उपभोग से कर राजस्व में भी इजाफा होगा। मगर वित्त मंत्री को दो बातों का ध्यान रखना चाहिए। पहली बात यह कि कर अधिकारी मंत्रियों को हमेशा यह कह कर डराते रहते हैं कि अनुपालन सुनिश्चित करने से पहले कर दरें घटाने से राजस्व में कमी आएगी।

 

Date:01-12-21

धरती को बचाने का महाप्रयोग
निरंकार सिंह

धरती को उल्काओं (एस्टेरायड) के हमलों से बचाने के लिए अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने अंतरिक्ष में मौजूद एक उल्कापिंड को अपने अंतरिक्ष यान से जोरदार टक्कर कराने के लिए फाल्कन राकेट को अंतरिक्ष में रवाना कर दिया है। यह इस तरह का पहला मिशन है। अगर इसमें सफलता मिलती है, तो भविष्य में उन विशाल उल्कापिंडों को धरती पर आने से रोका जा सकेगा, जो यहां जीवन के लिए खतरा बन सकते हैं। वैज्ञानिक इस अंतरिक्ष यान से ऐसी तकनीक के परीक्षण की तैयारी कर रहे हैं, जिसे भविष्य में किसी खतरनाक उल्का या उल्कापिंड को पृथ्वी से टकराने से रोका जा सकता है। नासा के इस मिशन का नाम ‘डार्ट मिशन’ है, जिसके आधार पर वह पृथ्वी की ओर आने वाली किसी बड़ी अंतरिक्ष चट्टान को निष्क्रिय करने के लंबे समय से चल रहे प्रस्ताव का मूल्यांकन करेगा। यह अंतरिक्ष यान डिमोफोर्स नामक एक आकाशीय पिंड या आब्जेक्ट से टकराएगा। नासा के वैज्ञानिक यह देखना चाहते हैं कि डिमोफोर्स की गति और रास्ते को कितना बदला जा सकता है।

हालांकि, डिमोफोर्स से पृथ्वी को कोई खतरा नहीं है। यह भविष्य में पृथ्वी की ओर आने वाले ऐसे खतरों से निपटने का तरीका सीखने का पहला प्रयास है, यानी कल को कोई ऐसा पिंड या मलबा धरती की ओर आया, तो उसे कैसे दूर रखा जा सकता है। 24 नवंबर, 2021 को फाल्कन 9 राकेट, डार्ट अंतरिक्ष यान को कैलिफोर्निया के वेंडेबर्ग स्पेस फोर्स बेस से अंतरिक्ष में रवाना कर दिया गया। उल्कापिंड, सौर मंडल के बचे हुए खंड हैं, जिनमें से अधिकांश से पृथ्वी के लिए कोई खतरा नहीं होता। लेकिन जब ऐसी कोई चट्टान सूर्य का चक्कर लगाते हुए पृथ्वी की ओर बढ़ती, तो टक्कर की आशंका हो सकती है।

बत्तीस करोड़ अमेरिकी डालर लागत का डार्ट मिशन, उल्कापिंड की एक जोड़ी को निशाना बनाएगा, जो इस वक्त एक-दूसरे की परिक्रमा कर रहे हैं। ऐसी परिक्रमा को बाइनरी कहा जाता है। इन दोनों में से बड़े उल्कापिंड का नाम है डिडिमोस, जो करीब 780 मीटर में फैला है। डिमोफोर्स करीब 160 मीटर चौड़ा है। डिमोफोर्स के आकार वाले उल्कापिंड के पृथ्वी से टकराने के बाद, कई परमाणु बमों की ऊर्जा जितना असर होगा। इससे लाखों की जान जा सकती है। लेकिन तीन सौ मीटर और इससे अधिक चौड़ाई वाली उल्कापिंड तो पूरे के पूरे महाद्वीप तबाह कर सकते हैं। एक किलोमीटर के आकार वाले पिंड तो पूरी पृथ्वी को खतरे में डाल सकते हैं।

डार्ट अगले साल सितंबर तक अंतरिक्ष में घूमता रहेगा और फिर पृथ्वी से सड़सठ लाख मील दूर जाकर अपने लक्ष्य को निशाना बनाएगा। डार्ट लगभग पंद्रह हजार मील प्रति घंटा की गति से (6.6 किमी प्रति सेकेंड) की गति से डिमोफोर्स से टकराएगा। इससे डिमोफोर्स की दिशा चंद मिलिमीटर ही बदलने के आसार हैं। अगर ऐसा हो गया तो, उसकी कक्षा बदल जाएगी। यह एक बहुत छोटा परिवर्तन लग सकता है, लेकिन एक उल्कापिंड को पृथ्वी से टकराने से रोकने के लिए इतना ही करना है। यह इस तरह का पहला मिशन है। अगर इसमें सफलता मिलती है, तो भविष्य में उन विशाल उल्कापिंडों को धरती पर आने से रोका जा सकेगा, जो यहां जीवन के लिए खतरा बन सकते हैं।

नासा के प्लेनेटरी डिफेंस कोआर्डिनेशन आफिस ने कहा कि इसका प्रभाव अगले साल 26 सितंबर और 1 अक्तूबर, 2022 के बीच देखे जाने की उम्मीद है। उल्कापिंड उस समय पृथ्वी से 6.8 मिलियन मील (1.1 करोड़ किलोमीटर) दूर होगा। इस टक्कर से कितनी ऊर्जा निकलेगी, इस बारे में कुछ स्पष्ट नहीं है, क्योंकि डिमोफोर्स उल्कापिंड की आंतरिक संरचना को लेकर ज्यादा जानकारी नहीं है। डार्ट अंतरिक्ष यान का आकार एक बड़े फ्रिज जितना है। इसके दोनों तरफ लिमोसिन के आकार के सौर पैनल लगे हैं। यह डिमोफोर्स से पंद्रह हजार मील प्रति घंटे की रफ्तार से टकराएगा। वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में इस तरह के छोटे प्रयोग किए हैं, लेकिन अब वास्तविक परिदृश्य में इसका परीक्षण करना चाहते हैं। नासा के वैज्ञानिकों का कहना है कि डिडिमोस-डिमोफोर्स सिस्टम इसलिए बेहतर है, क्योंकि धरती पर मौजूद टेलीस्कोप से इनके बारे में पता लगाया जा सकेगा। जैसे इनकी चमक कैसी है या फिर ये परिक्रमा करने में कितना समय लगाते हैं।

पिछले कई सालों से बेन्नू नाम के एक उल्कापिंड की चर्चा दुनिया भर में हो रही है। कहा जा रहा है कि आने वाले सालों में यह पृथ्वी से टकरा सकता है। आखिर कब पृथ्वी से इसकी टक्कर होगी, इसको लेकर तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। लेकिन अब नासा ने सारी अटकलों पर विराम लगा दिया है। नासा के मुताबिक बेन्नू के धरती से टकराने की आशंका बहुत कम है। अगर ऐसा हुआ तो इसकी टक्कर 24 सितंबर, 2182 को हो सकती है। बेन्नू की पृथ्वी से टकराने की आशंका पहले से ज्यादा है, लेकिन वैज्ञानिक इसको लेकर चिंतित नहीं हैं।

गौरतलब कि नासा पहले बेन्नू को लेकर काफी चिंतित था, लिहाजा उसने इस एस्टरायड पर एक अंतरिक्ष यान भेजा। ओसिरिस आरइएक्स के इस अंतरिक्ष यान को 2018 में भेजा गया। 2020 के अंत में उल्कापिंड की सतह पर यह सफलतापूर्वक उतरने में कामयाब रहा। इसके बाद इस यान ने नमूने भेजने शुरू किए। अंतरिक्ष यान ने बताया कि बेन्नू एक बहुत ही डार्क और प्राचीन उल्कापिंड है। नासा के एक बयान में कहा गया है कि बेन्नू की सतह से नमूने जमा कर अंतरिक्ष यान ने भेजा है, जिससे बेहतर भविष्यवाणी करने के लिए सटीक आंकड़ा मिल रहा है।

धरती के बाहर हमें जीवन भले न मिला हो, लेकिन अंतरिक्ष से कई मेहमान हमारे करीब से गुजर जाते हैं। आमतौर पर मंगल और बृहस्पति के बीच के क्षेत्र से आने वाली चट्टानें धरती ही नहीं, सौर मंडल और ब्रह्मांड के जन्म और विकास के कई सवालों का जवाब दे सकती हैं। ये चट्टानें होती हैं उल्कापिंड। उल्कापिंड वे चट्टानें होती हैं जो किसी ग्रह की तरह ही सूरज के चक्कर काटती हैं, लेकिन ये आकार में ग्रहों से काफी छोटी होती हैं। हमारे सौर मंडल में ज्यादातर उल्कापिंड मंगल ग्रह और बृहस्पति की कक्षा में उल्कापिंड क्षेत्र में पाए जाते हैं। इसके अलावा भी ये दूसरे ग्रहों की कक्षा में घूमते रहते हैं और ग्रह के साथ ही सूरज का चक्कर काटते हैं।

करीब साढ़े चार अरब साल पहले जब हमारा सौर मंडल बना था, तब गैस और धूल के ऐसे बादल, जो किसी ग्रह का आकार नहीं ले पाए और पीछे छूट गए, वही इन चट्टानों यानी उल्कापिंडों में तब्दील हो गए। यही वजह है कि इनका आकार भी ग्रहों की तरह गोल नहीं होता। ब्रह्मांड में कई ऐसे उल्कापिंड हैं, जिनकी परिधि सैकड़ों मील की होती है और ज्यादातर किसी छोटे से पत्थर के बराबर होते हैं। ग्रहों के साथ ही पैदा होने के कारण इन्हें अध्ययन करके ब्रह्मांड, सौर मंडल और ग्रहों की उत्पत्ति से जुड़े सवालों के जवाब खोजे जा सकते हैं।

अगर किसी तेज रफ्तार चट्टान के धरती से करीब छियालीस लाख मील से करीब आने की संभावना होती है, तो उसे अंतरिक्ष संगठन खतरनाक मानते हैं। नासा का सेनटरी सिस्टम ऐसे खतरों पर पहले से ही नजर रखता है। इस प्रणाली के मुताबिक जिस उल्कापिंड से धरती को वाकई खतरे की आशंका है, वह अभी साढ़े आठ सौ साल दूर है। हालांकि, वैज्ञानिकों को विश्वास है कि आने वाले वक्त में प्लेनेटरी डिफेंस सिस्टम विकसित कर लिया जाएगा, जिस पर काम पहले ही शुरू हो चुका है।

 

Date:01-12-21

सामरिक संबंधों को नये आयाम
डॉ. सुरेन्द्र कुमार मिश्र

इक्कीसवें भारत-रूस वार्षिक सम्मेलन में सहभागिता हेतु रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन 6 दिसम्बर को भारत की आधिकारिक यात्रा पर आ रहे हैं। टू-प्लस-टू वार्ता में दोनों देशों के रक्षा एवं विदेश मंत्री भी सहभागिता करेंगे। परंपरागत रूप से भारत-रूस, सामरिक साझेदारी 6 प्रमुख घटकों-रक्षा, आर्थिक, राजनीति, आतंकवाद विरोधी सहयोग, नागरिक परमाणु ऊर्जा व अन्तरिक्ष सहयोग पर आधारित है।

उल्लेखनीय है कि विगत वर्ष यह वार्षिक शिखर सम्मेलन कोरोना महामारी के कारण आयोजित नहीं हो सका था। अब ऐसे समय में होने जा रहा है, जब रूसी नेतृत्व अमेरिका के साथ भारत के तेजी से सुदृढ़ होते संबंधों को लेकर चिन्तित है, जबकि भारतीय पक्ष पाकिस्तान के साथ रूस के सुदृढ़ होते संबंधों को लेकर आशंकित व असमंजस की स्थिति से गुजर रहा है। भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची के अनुसार बैठक में भारत की ओर से रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस. जयशंकर भाग लेंगे, जबकि रूस की ओर से रक्षा मंत्री सर्गेई शोइगु तथा विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव सहभागिता करेंगे। शिखर सम्मेलन में रूस-भारत-चीन (आरआईसी) तंत्र के भीतर बातचीत पर भी विचारों का आदान-प्रदान होने की पूरी संभावना है। ग्रुप-20 (जी-20), ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन व दक्षिणी अफ्रीका) और संघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के भीतर संयुक्त रूप से काम करने सहित सामयिक वैश्विक मामलों पर भी व्यापक रूप से परिचर्चा होगी।

भारत-रूस के द्विपक्षीय संबंधों में रूस का रक्षा सहयोग प्रमुख आधार कहा जा सकता है। लंबी अवधि से भारत रूस के रक्षा उद्योग के लिए दूसरा सबसे बड़ा बाजार बना रहा है। 2017 में भारतीय सेना के हार्डवेयर आयात का लगभग 68 प्रतिशत रूस से किया गया। फलस्वरूप रूस भारत के लिए रक्षा उपकरणों का प्रमुख आपूर्तिकर्ता बन गया। यही कारण है कि आज भी अधिकांश रूसी लोग भारत को सकारात्मक दृष्टि से ही देखते हैं। मास्को स्थित गैर-सरकारी थिंक टैंक लेवाडा सेंटर द्वारा 2017 के एक जनमत सर्वेक्षण के अनुसार-रु सियों ने भारत को अपने शीर्ष पांच ‘दोस्तों’ में से एक के रूप में भारत को मान्यता दी। चार अन्य देशों में बेलारूस, चीन, अफगानिस्तान व सीरिया हैं। सामरिक संकट एवं समस्याओं को विशेष रूप से ध्यान में रखते हुए भारत इस समय अपनी सुरक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए अति आधुनिक हथियार और रक्षा प्रणाली जुटा रहा है। विगत सदी के आखिरी दशक तक रूस भारत के लिए सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता देश रहा है, लेकिन विगत दो दशक में इजराइल और अमेरिका से सबसे अधिक हथियार खरीदने के कारण रूस की हिस्सेदारी भारत की शस्त्र आपूर्ति में घटकर लगभग 60 प्रतिशत ही रह गई है। अभी तक भारत ‘क्वाड’ (चतुर्भुज सुरक्षा संगठन) के सदस्यों यानी अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ एक फ्रेमवर्क में काम कर रहा है। नया संगठन ऑकस (ऑस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंग्डम तथा यूनाइटेड स्टेट) के तैनात व तैयार होने के कारण चीन के साथ ही रूस भी चिन्तित हुआ है।

हाल में भारत ने अमेरिका की तिरछी नजर की परवाह न करते हुए रूस से एस-400 (एंटी मिसाइल सिस्टम) की खरीद की। इससे स्पष्ट है भारत अपने सामरिक हितों को लेकर किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं करने वाला। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अनेक बार संकेत दिए कि रूस से एस-400 प्रक्षेपास्त्र रक्षा प्रणाली की खरीद पर भारत पर ‘प्रतिबंध लगाने वाले अमेरिका के विरोधियों के माध्यम से प्रतिबंध अधिनियम’ (काउंटिरंग अमेरिका’ज एडवर्सरीज थ्रू सैंक्शन एक्ट-‘काट्सा’) के तहत प्रतिबंध लगा सकते हैं। यह कानून डोनाल्ड ट्रंप द्वारा पेश किए गए कानून का ही भाग है। यही कारण है कि अमेरिका अभी तक किसी भी संभावित छूट पर ठोस निर्णय नहीं कर पाया है। इसका प्रमुख कारण यह भी माना जा रहा है कि भारत-अमेरिका के बीच बढ़ती सामरिक साझेदारी के कारण भारत ‘कास्टा’ के तहत छूट पाने में भी सक्षम होगा। वास्तव में इस अमेरिकन आधिनियम ‘कास्टा’ (सीएएटीएसए) के सन्दर्भ में भारतीय सोच यही है कि इस समय भारत व अमेरिका के बीच नई व्यापक वैश्विक रणनीतिक साझेदारी बनी है और एक लंबी अवधि से भारत की रूस के साथ एक विशेष और विशेषाधिकार प्राप्त साझेदारी भी है। बाइडेन प्रशासन ने हाल ही में कहा कि इस कानून में देश विशेष के लिए छूट का प्रावधान नहीं है और इस विषय से संबंधित हमारी द्विपक्षीय बातचीत जारी रहेगी। अमेरिकी विदेश विभाग के अधिकारी ने कहा कि अमेरिका भारत के साथ अपनी ‘रणनीतिक साझेदारी’ को महत्त्व देता है । हम यह भी जानते हैं कि हाल के वर्षो में भारत के साथ हमारे सामरिक संबंधों में न केवल विस्तार हुआ है, बल्कि ये और अधिक प्रगाढ़ हो गए हैं।

यह बात ध्यान देने योग्य है कि भारत अमेरिका से 30 सशस्त्र ‘प्रीडेटर’ ड्रोन खरीदने के लिए लंबी अवधि से चल रहे प्रस्ताव को अपना अन्तिम रूप देने को तैयार है। तीनों सेनाओं (स्थल, नौ एवं वायु सेना) के लिए खरीदे जाने वाले ड्रोन पर लगभग 22000 करोड़ रुपये (तीन अरब अमेरिकी डॉलर) का अनुमानित व्यय होगा। भारतीय नौ सेना ने इस ड्रोन की खरीद के लिए प्रस्ताव दिया था और अब तीनों सेनाओं को दस-दस ड्रोन मिलने की संभावना है। भारतीय सशस्त्र बल विशेष रूप से पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में चीन के साथ चल रही लगातार तनातनी और जम्मू एयर बेस पर ड्रोन हमले के बाद ऐसे हथियारों को खरीदने के लिए विशेष रूप से अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। यह ड्रोन लगभग 35 घंटे तक अनवरत हवा में रहने में सक्षम है।

शिखर सम्मेलन में जहां द्विपक्षीय व विशेष सामरिक संबंधों की परिचर्चा व्यापक स्तर पर होगी वहीं रूस भारत के सबसे महत्त्वपूर्ण सामरिक सहयोगी के रूप में स्थापित होगा। इससे दोनों ही देशों के भू-सामरिक, भू-आर्थिक, भू-रणनीतिक तथा भू-राजनयिक लाभ छिपे हैं। विश्वास है कि दोनों देश सम-सामयिक परिदृश्य को विशेष रूप से ध्यान में रखते हुए न केवल नई पहल करेंगे, बल्कि दोनों पक्ष अपने रक्षा, व्यापार, निवेश के साथ ही विज्ञान व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण समझौतों को भी अन्तिम रूप देंगे।

Date:01-12-21

बहु-आयामी गरीबी की बढ़ती चुनौती से मुकाबला
जयंतीलाल भंडारी, ( अर्थशास्त्री )

बहु-आयामी गरीबी की चुनौती से संबंधित नीति आयोग की 26 नवंबर की रिपोर्ट इन दिनों गंभीरतापूर्वक पढ़ी जा रही है। इस बहु-आयामी गरीबी सूचकांक (मल्टी-डायमेंशनल पोवर्टी इंडेक्स या एमपीआई) में यह तथ्य सामने आया है कि देश में गरीबी सबसे बड़ी आर्थिक-सामाजिक चुनौती बन गई है। रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश देश के सर्वाधिक गरीब आबादी वाले राज्य हैं। बिहार में 51.91 प्रतिशत, झारखंड में 42.16 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 37.79 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 36.65 प्रतिशत और मेघालय में 32.67 प्रतिशत आबादी गरीब है। इस सूचकांक के तहत केरल में 0.71 प्रतिशत, गोवा में 3.76 प्रतिशत, तमिलनाडु में 4.89 प्रतिशत और पंजाब में 5.59 प्रतिशत जनसंख्या गरीब पाई गई है।

इसमें दो मत नहीं है कि कोविड-19 ने भारत में गरीबी और भूख की चुनौती को बढ़ाया है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2005-06 में भारत में 51 फीसदी लोग गरीब थे, 2015-16 में यह 27.9 फीसदी रह गया और इसमें लगातार कमी आ रही थी। कोरोना के एक साल ने देश को गरीबी के मामले में कई वर्ष पीछे धकेल दिया। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2020 में कोविड-19 संकट के पहले दौर में करीब 23 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे जा चुके थे। ये वे लोग हैं, जो प्रतिदिन राष्ट्रीय न्यूनतम पारिश्रमिक 375 रुपये से भी कम कमा रहे हैं। इसी तरह अमेरिकी शोध संगठन प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि कोरोना महामारी ने भारत में बीते साल 7.5 करोड़ लोगों को गरीबी के दलदल में धकेल दिया है।

यदि कोरोना काल में सरकार ने गरीबों को राहत देने के सफल अभियान नहीं चलाए होते, तो देश में बहु-आयामी गरीबी और बढ़ी हुई दिखाई देती। स्थिति यह है कि देश की दो तिहाई आबादी को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के दायरे में लाया गया है। अप्रैल 2020 से प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना लागू की गई और इससे देश के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन मिल रहा है, यह योजना मार्च 2022 तक के लिए बढ़ाई गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुताबिक, जनधन, आधार और मोबाइल के कारण गरीब व कमजोर वर्ग के करोड़ों लोग डिजिटल दुनिया से जुड़कर प्रत्यक्ष रूप से लाभान्वित हो रहे हैं। वर्ष 2020 में सरकार द्वारा घोषित आत्मनिर्भर भारत अभियान से 40 करोड़ से अधिक गरीब वर्ग के लोगों तक उनके खातों में सीधी राहत पहुंचाई गई। यह भी महत्वपूर्ण है कि डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) के जरिये अगस्त 2021 तक 90 करोड़ से अधिक लाभार्थी फायदा ले चुके हैं।

निश्चित रूप से इस समय देश में लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा, कौशल विकास, रोजगार और सार्वजनिक सेवाओं में सुधार के साथ-साथ उनके जीवन-स्तर को ऊपर उठाने की दिशा में लंबा सफर तय करना है। 15वें वित्त आयोग ने पहली बार स्वास्थ्य के लिए उच्च-स्तरीय कमेटी गठित की थी। इस कमेटी ने स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च को जीडीपी के 2.5 प्रतिशत तक बढ़ाने की जो रिपोर्ट दी है, उसे क्रियान्वित करना होगा। चूंकि कोविड-19 के कारण देश में डिजिटल शिक्षा की जरूरत बढ़ गई है और इसकी अहमियत रोजगार में भी बढ़ गई है, इसलिए वंचित वर्ग के युवाओं के लिए रोजगार के मौके जुटाने के लिए एक ओर सरकार द्वारा डिजिटल शिक्षा के रास्ते की कमियों को दूर करना होगा, तो दूसरी ओर, कौशल प्रशिक्षण के साथ नई योग्यता अर्जित करनी पड़ेगी।

राज्यों में बहु-आयामी गरीबी कम करने के लिए विशेष रणनीतिक उपाय किए जाने जरूरी हैं। हम उम्मीद करेंगे कि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सामुदायिक रसोई की व्यवस्था को मजबूत बनाकर उन जरूरतमंदों के लिए भोजन की कारगर व्यवस्था सुनिश्चित की जाएगी, जिन्हें पीडीएस का लाभ नहीं मिल पा रहा है। सामुदायिक रसोई योजना से गरीब महिला, बच्चों, बेघरों, झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों और औद्योगिक व निर्माण स्थलों पर काम करने वाले कमजोर वर्ग के लोगों तक इसका सीधा लाभ पहुंचाया जाएगा। साथ ही, वन नेशन-वन राशन कार्ड की योजना को कारगर बनाया जाएगा। उम्मीद है कि देश में गरीबी, भूख और कुपोषण खत्म करने के लिए पोषण अभियान-2 को पूरी तरह सफल बनाया जाएगा।