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(31-12-2021) समाचारपत्रों-के-संपादक

Date:31-12-21

Killing the licence
The Government must give a more transparent account of its actions against NGOs
Editorial

If the past few years of enhanced measures against non-governmental organisations (NGOs) operating in India had not put enough of a squeeze on them, then the Ministry of Home Affairs’s long-drawn-out process of scrutinising their foreign-funding licences by year-end is sure to do so. Close on the heels of the news that the Missionaries of Charity group had been denied a renewal of its licence under the Foreign Contribution (Regulation) Act, 2010 (amended in 2020), comes the revelation that more than four-fifths of the applications of the 22,000-plus NGOs that have sought renewal have yet to be scrutinised. Unless the Government extends the deadline by midnight, all of them stand to lose their ability to access international funding in the new year. As experts have explained, the NGOs have to prove not only that the source of funding and their usage of the funds is appropriate but also establish that their work does not qualify as harmful to “public interest” or “national security” — ambiguous terms that are left to MHA officials to define. So, as many as 2,000 NGOs under scrutiny may be denied a renewal of their FCRA licence as the Missionaries of Charity and its roughly 200 homes around the country have been in this round.

Contrary to the Government’s defence that it is only following accounting and audit procedures, it seems clear that organisations that have particularly faced the Modi government’s ire are those that work in specific “sensitive areas”: pollution and climate change issues, human rights, child labour and human slavery, health and religious NGOs, particularly Christian and Islamic charities. Prominent names among nearly 20,000 NGOs to have lost their foreign-funding licences since 2014 include Amnesty International, Greenpeace India, People’s Watch, European Climate Foundation, Compassion International and the Gates Foundation-backed Public Health Foundation of India. If the Government has ample evidence to prove that Indians are better off without the work of these internationally renowned organisations, then it has yet to show it. It is time the Government gives a more transparent account of its actions against NGOs, which at present appear to mirror those in China and Russia which have used their NGO laws to shut down dissent and criticism. The actions in India over “foreign hand” concerns seem more hypocritical given the relative ease with which political parties are able to access foreign funds for their campaigns through electoral bonds, under the same FCRA that seeks to restrict funds to NGOs. At a time when India is facing the crippling effects of the COVID-19 pandemic and a long-term economic crisis, the Government’s moves that have resulted in an estimated 30% drop in international non-profit contributions, only hurt the poorest and most vulnerable recipients of philanthropic efforts, particularly those by NGOs working in areas where government aid fails to reach.

 

Date:31-12-21

विकास का लाभ नीचे तक नहीं पहुंच रहा है
संपादकीय

कोई कितना गरीब है यह इस बात से तय होता है कि तुलना किससे की जा रही है। व्यक्ति, समूह, समाज, देश और महाद्वीप गरीबी के इसी पैमाने पर देखे जाते हैं। वर्ल्ड इनइक्वेलिटी डेटाबेस के अनुसार आज भारत में नीचे की आधी आबादी का गरीबी का स्तर वही है जो सन 1932 में यानी महामंदी के तत्काल बाद अमरीका के 50% नीचे के वर्ग में था। लब्बोलुआब ये कि हम गरीबी में भी अमेरिका से 90 साल पीछे हैं। आजादी मिली तो संविधान के जरिये ‘हम भारत के लोग अपने को आर्थिक न्याय देने को प्रतिबद्ध हुए’, राज्य की समाजवादी नीति बनी। सन 1970 में ‘गरीबी हटाने का नारा दिया’ और चार साल बाद आपातकाल लगाने का कारण भी गरीबों का विकास बताते हुए 42वें संशोधन के जरिए संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ शब्द जोड़ा गया। हर चुनाव मंच से राजनीतिक वर्ग ने बताया कि उसका लक्ष्य गरीबों का उत्थान है। सन 2014 में एक बार फिर ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा आया। लेकिन आजादी के पहले 30 वर्षों में आधी आबादी की वास्तविक सालाना आय मात्र 2.2% रही। चौंकाने वाली बात यह कि अगले 45 साल भी यही दर बनी रही। नोबेल पुरष्कार विजेता अभिजीत सेन के मुताबिक भारत दुनिया के सबसे अधिक आर्थिक असमानता वाले देशों में अग्रणी है। इसे एक और तरह से समझें। मानव विकास सूचकांक जब 31 साल पहले शुरू हुआ तो भारत 135 वें स्थान पर था। आज भी कमोबेश वहीं का वहीं है जबकि जीडीपी आयतन में देश दो दर्जन खाने ऊपर आकर आज छठवें स्थान पर है। मतलब विकास का लाभ नीचे तक नहीं पहुंच रहा है।

Date:31-12-21

आप सबको नया दशक मुबारक हो!
चेतन भगत, ( अंग्रेजी के उपन्यासकार )

सभी पाठकों को नया दशक मुबारक हो! आइए वायरस और उसके वैरिएंट से जुड़ी 2020 और 2021 की बुरी यादें मिटा दें और एक-दूसरे को 2022 की बधाई दें!

कोई भी नया साल हो, अपने साथ दो चीज़ें लेकर आता है- एक रात पहले की पार्टी से हुआ हैंगओवर और दूसरा डरावना ‘आर’ शब्द- रिजॉल्यूशन(संकल्प)। ओमिक्रॉन के प्रतिबंधों ने पार्टी रोक दी और हैंगओवर से बचा लिया। हालांकि हम अभी भी बाद वाले यानी रिजॉल्यूशन में अटके हैं!

एक अच्छे और जिम्मेदार इंसान होने के नाते हमें कुछ चीज़ें करने के लिए उन पर डटे रहना चाहिए। पर ना जाने क्यों 1 जनवरी ही है, जब हम सोचते हैं कि खुद को चमत्कारिक रूप से बदल देंगे, कोई भी तारीख जैसे 19 सितंबर या 22 अप्रैल के लिए ऐसा नहीं कहते। दुखद है कि हम नए साल के संकल्पों से अच्छी तरह नहीं जुड़ते। स्टडी का डाटा बताता है कि अधिकांश संकल्प जनवरी में ही दम तोड़ देते हैं। लोकप्रिय फिटनेस एप स्ट्रावा ने उसके लाखों उपयोगकर्ताओं की शारीरिक गतिविधियों के आधार पर आकलन किया। उन्होंने यहां तक कि तारीख भी बता दी कि जब ज्यादातर लोग अपने संकल्प त्याग देते हैं- 19 जनवरी, शर्म से इसे ‘क्विटर्स डे’ नाम से जाना जाता है।

संकल्प असफल क्यों होते हैं? क्योंकि यह इच्छाशक्ति और आत्मनियंत्रण पर निर्भर करते हैं, दोनों सीमित संसाधन हैं। अपने जीवन को हर समय अपनी इच्छा शक्ति से चलाने की कोशिश में हम थक जाते हैं। असली बदलावों के लिए धारणाओं और मानसिकता में बदलाव की जरूरत है। ये हमें व्यवहार और आदतों में बदलाव की ओर ले जाएगा, जिससे अंतत: नए परिणाम मिलेंगे। ये कहना कि ‘कल से मीठा नहीं और कसरत शुरू! ’ काम नहीं करेगा। अपनी धारणाएं बदलना कारगर होगा। आपके लिए क्या ज्यादा जरूरी है? मिठाई का स्वाद या आप आइने में कैसा दिखते हैं ये? चिप्स खाते हुए ओटीटी पर शो देखना या अपनी हेल्थ? जिस दिन आपका माइंडसेट बदल जाएगा, तब आप खुद मिठाई रख देंगे, रिमोट दूर फेंककर लंबी सैर पर निकल जाएंगे। अगर नहीं, तो 19 जनवरी भी जल्दी ही आ जाएगी।

इसलिए, संकल्प जरूर लें, पर उसके साथ बदलावों की दिशा में एक तरोताज़ा मानसिकता बनाएं। भारत को क्या करने का संकल्प लेना चाहिए? हमें किन नए माइंडसेट की जरूरत है, व्यक्तिगत तौर पर और देश के तौर पर? यहां छह सुझाव हैं- 2022 में जिनकी हर भारतीय को जरूरत है।

1. कोशिश करें कि बस मोटापा न घेर पाए

महामारी ने हमें अच्छी सेहत की महत्ता सिखा दी। आपकी अपनी इम्यूनिटी मायने रखती है, शायद टीके और बूस्टर डोज़ से भी कहीं ज्यादा। हम भारतीयों ने बहुत लंबे समय से अपने खाने में स्वाद और अनहेल्दी को जोड़ दिया है। समोसा और गुलाबजामुन प्रेम नहीं हैं, वे अनरिफाइंड कार्ब्स, शुगर और फैट हैं। बारिश के मौसम का मतलब जरूरी नहीं कि हम मीठी चाय और पकौड़े खाएं। बाहर बारिश का मतलब है कि आज घर पर कसरत करने का दूसरा रास्ता निकालें। कुछ भी मत खाएं, विशेषतौर पर महीनों रखा रहने वाला पैकेट का खाना। ताज़ा खाएं। दौड़ें, वॉक करें, वजन उठाएं और सक्रिय बने रहें। मोटे न हों (माफ करें, ये कहने का और कोई तरीका नहीं), क्योंकि यही डायबिटीज़ और मौतों का अकेला सबसे बड़ा कारण है।

2. काम में रुचि नहीं तो एक्जिट प्लान बनाएं

हम अपना आधे से ज्यादा समय काम करते हुए बिताते हैं। अगर उसे नापसंद करेंगे (ज्यादातर लोग करते हैं) तो ये निश्चित रूप से आपकी शारीरिक-मानसिक सेहत पर असर डालेगा। किसी और की जिंदगी जीने के लिए और जो नहीं करना चाहते, वह करने के लिए जीवन बहुत छोटा है। अगर अपने काम से प्यार नहीं करते, तो 2022 में इससे निकलने की कोई योजना बनाएं

3. निवेश के नए तरीकों से दोस्ती करें

दिखावा करने के लिए मत जिएं। उपभोग करना कूल नहीं है, पैसा होना और आर्थिक स्थिरता के साथ उन्मुक्त जीना कूल है। भारतीय व्यवस्थित तरीके से निवेश नहीं करते। हम बहुत कम रिटर्न के बाद भी बैंक एफडी से चिपके रहते हैं। बाजार, म्यूचुअल फंड्स, शेयर्स के बारे में सीखें।

4. वक्त है कि खुद के लिए जिया जाए

भारतीय संस्कृति में परिवार व समाज को महत्व दिया जाता है। हमें एक-दूसरे के लिए जीने में आनंद आता है। हालांकि ये अच्छा है, पर ये हमारे जीवन को दूसरों को खुश करने या दूसरों से तवज्जो हासिल करने की ओर ले जा सकता है। याद रखें, आप पहले आते हैं। दूसरों से पहले अपना ख्याल करें। आपकी जिंदगी को खुशहाल बनाने के लिए दूसरा कोई नहीं आने वाला। अपनी जिंदगी पर ध्यान केंद्रित करके सिर्फ आप ही इसे खुशनुमा बना सकते हैं। दोस्त, रिश्तेदार, पत्नी, बाकी जरूरी लोग, भाई-बहन, बच्चे- सब जरूरी हैं, पर आपके लिए आपसे ज्यादा महत्वपूर्ण कोई नहीं है।

5. डोपामाइन केमिकल की गिरफ्त में न आएं

चॉकलेट, सोशल मीडिया, सेक्स, वीडियो गेम, एल्कोहल, ड्रग्स, ट्विटर पर एक-सी विचारधारा वालों को लगातार सुनने, शो देखने, सोशल मीडिया फीड देखते रहने में क्या कॉमन है? इन सबके दौरान डोपामाइन निकलता है, दिमाग को प्रेरित करने वाला यह केमिकल उन्हीं चीजों की और आकांक्षा करता है। प्रेरित बने रहने के लिए डोपामाइन चाहिए। हालांकि बिना प्रयास, प्रोडक्टिव काम के डोपमाइन नुकसानदेह है। अपने डोपामाइन मैनेज करें- सिर्फ उपयोगी गतिविधियों से इसे लें, जो कि आत्म-विकास की ओर ले जाए।

6. देश व समाज के लिए इतना तो करें

भारत विविधता भरा देश है। हालांकि जो विवि‌ध होता है, वह नाजुक भी होता है। इस विविधता को कायम रखने के लिए हमें कड़ी मेहनत करनी होगी, क्योंकि एक बार अगर यह खो दी, तो हम शांति, भ‌िवष्य की समृद्धि और बतौर राष्ट्र हमारे सारे आनंद खो देंगे। 2022 में अपने देश व इसकी विविधता को मजबूत बनाने के लिए कदम उठाएं। कुछ भी करें-कलाकृतियां बनाएं, बिजनेस, सर्विस या उत्पाद बनाएं या अच्छी तरह अपनी नौकरी करते हुए उत्कृष्टता का पीछा करें। देश की जीडीपी, खुशी और भाईचारे में योगदान दें। अगर ये नहीं कर सकते, तो कम से कम ऐसा कुछ ना करें जो भारत को कमजोर करे। दिल दुखाने वाले शब्द, विभाजनकारी धारणाएं, अपने धर्म को ही श्रेष्ठ मानना- ये ये सब देश और जिस समाज में हम रहते हैं, उसे कमजोर करते हैं। अगर दूसरों की मदद करने के लिए नहीं जी सकते, तो कम से कम उन्हें परेशान तो ना करें।

हम नहीं चाहते कि ऊपर बताए गए संकल्प 19 जनवरी, 2022 तक समाप्त हो जाएं। हम चाहते हैं कि ये संकल्प बने रहें। उसके लिए ऊपर लिखे को फिर से पढ़ें। आप अपने जीवन और अपने राष्ट्र को क्या चाहते हैं, इस बारे में अपनी मानसिकता बदलें। बाकी सब होता जाएगा। ये दो साल बहुत बुरे गुजरे, पर मेरे अंदर से कुछ आवाज़ आ रही है कि 2022 वापसी करेगा। मसल्स बनाएं, मनी बनाएं और सकारात्मकता फैलाएं। हैप्पी न्यू ईयर!

 

Date:31-12-21

किराना दुकानों को मिला नया साझेदार
इंद्रजित गुप्ता, ( लेखक फाउंडिंग फ्यूल के संस्थापक हैं )

देश का खुदरा और वितरण कारोबार प्राय: काफी बिखरा हुआ है। इस क्षेत्र में अगला संघर्ष इस बात को लेकर उभर रहा है कि आखिर हर जगह मौजूद किराना स्टोरों की सेवा का अवसर किसे मिलेगा। ताजा मसले की शुरुआत दो सप्ताह पहले हुई जब अखिल भारतीय उपभोक्ता उत्पाद वितरण महासंघ ने हिंदुस्तान यूनिलीवर, पीऐंडजी और डाबर समेत करीब दो दर्जन बड़ी उपभोक्ता वस्तु (दैनिक उपभोग वाली यानी एफएमसीजी) निर्माता कंपनियों को लिखा कि उन्हें कारोबार के समान अवसर मुहैया कराए जाएं। उनकी नाराजगी नए संगठित बिजनेस टु बिजनेस कारोबारों मसलन रिलायंस जियोमार्ट, मेट्रो कैश ऐंड कैरी तथा उड़ान से थी। महासंघ ने मांग की कि कीमतों और मार्जिन के मामले में उन्हें भी बी2बी थोक विक्रेताओं के साथ समानता मिले वरना वे अगले वर्ष से इन एफएमसीजी कंपनियों का सामान रखना बंद कर देंगे।

दशकों से कंपनियों द्वारा नियुक्त प्रत्यक्ष वितरक ही भारतीय खुदरा और वितरण कारोबार की विशिष्ट पहचान रहे हैं। इनकी बदौलत बड़ी एफएमसीजी कंपनियां सीधे लाखों किराना दुकानों तक कम लागत में पहुंच सकीं। इस व्यवस्था में नए उत्पाद लॉन्च करने पर भी उनका अधिक नियंत्रण था। वे किराना दुकानों को कह सकती थीं कि वे नए उत्पाद रखें। ऐसा इस आशा के साथ किया जाता कि कंपनी अपने विज्ञापन और रणनीतियों की बदौलत उत्पादों की बिक्री सुनिश्चित कर सकेगी। इसके अतिरिक्त ब्रांड मालिक के रूप में एफएमसीजी कंपनियां मोलभाव की ताकत बरकरार रखतीं और खुदरा कारोबारी और वितरक दोनों के मार्जिन पर नियंत्रण रख पातीं। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों की तुलना की जाए तो अभी भी 4 फीसदी का अंतर नजर आता है। आश्चर्य नहीं कि भारत में एफएमसीजी कंपनियों ने इस प्रत्यक्ष वितरण मॉडल को अपनी प्रतिस्पर्धी बढ़त का अहम जरिया माना। अभी भी उनके मूल्यांकन में इसकी बड़ी हिस्सेदारी है।

यही कारण है कि थोक कारोबार में यह विवाद मौजूदा एफएमसीजी कंपनियों के लिए दिक्कत की वजह बना है। एक स्तर पर जहां वे अपनी ही कंपनी के वितरणों के हितों की अनदेखी नहीं कर सकतीं और उन्हें अलग-थलग नहीं छोड़ सकतीं। अभी भी उनकी खुदरा बिक्री में सबसे अधिक हिस्सेदारी उन्हीं की है। इसके साथ ही जमीनी हकीकतों की अनदेखी करना भी संभव नहीं है। किराना व्यापारी लंबे समय तक विभिन्न कंपनियों के वितरकों से उत्पाद खरीदते थे लेकिन अब उनके पास एक नया विकल्प है : सीधे संगठित थोक विक्रेता से सामान खरीदना। वे सामान की पुन:पूर्ति जल्दी कर सकते हैं, मार्जिन अधिक है और डिजिटल ऑर्डर देने की सुविधा है। इसमें ढेर सारे वितरक विक्रेताओं से नहीं निपटना पड़ता है और उन्हें अपनी खरीद को ठोस बनाने में मदद मिलती है। चूंकि थोक विक्रेताओं की नई खेप विविध उत्पादों की पेशकश करती है इसलिए उन्हें बेहतर सेवा स्तर का वादा भी मिलता है। स्टोर में सीमित जगह होने के कारण किराना मालिक कम स्टॉक रख सकता है और जरूरत पडऩे पर जल्द सामान ला सकता है। इससे उनकी अहम कार्यशील पूंजी बचती है और वे ज्यादा विविध उत्पाद रख सकते हैं।

एक और बात है जिसकी अनदेखी करना मुश्किल है: निजी लेबल या ब्रांड। थोक विक्रेता अपना दायरा बढ़ा रहे हैं और किराना दुकानदारों के साथ मजबूत रिश्ते कायम कर रहे हैं। ऐसे में वे भी वही करेंगे जो संगठित खुदरा कारोबारियों में से अधिकांश करते हैं। यानी स्थापित ब्रांड की जगह पर ढेर सारे निजी ब्रांड बाजार में पेश करना। ये ब्रांड किराना दुकानदारों को अधिक मार्जिन देते हैं। हालांकि यह ब्रांड मालिकों के लिए वास्तविक चुनौती नहीं है।

संभावित परिदृश्य पर विचार करते हैं। पहला, समेकित स्तर पर जब तक पारंपरिक कंपनी वितरण व्यवस्था कम लागत पर बेहतर पहुंच सुनिश्चित करती है, एफएमसीजी कंपनियां संतुलन कायम करने को मजबूर होंगी। भले ही वे इन थोक विक्रेताओं को कम कीमत और उच्च मार्जिन की पेशकश नहीं करतीं तो भी थोक विक्रेता किराना कारोबारियों को अच्छा खासा मार्जिन देंगे। उड़ान के पास वेंचर कैपिटल की अच्छी खासी फंडिंग है जिसकी मदद से वह ग्राहक जुटा सकती है। रिलायंस जियोमार्ट, जर्मन बी2बी थोक विक्रेता मेट्रो कैश ऐंड कैरी तथा फ्लिपकार्ट पर भी यही बात लागू होती है।

यदि वे नए किराना को अपने साथ जोड़कर अपना विस्तार करने लगें तो कंपनी के वितरकों का बचाव कैसे हो सकेगा? बीते वर्षों में एक बात स्पष्ट रूप से देखी गई है: बेहतर संचालित कंपनियों के वितरकों को बड़े भूभाग के प्रबंधन की अनुमति होती है। परिणामस्वरूप उनका काम बहुत बड़े पैमाने पर होता है और आपूर्ति शृंखला को डिजिटल बनाने का अवसर भी होता है। ऐसा करने पर बेहतर निर्णय लेने के लिए डेटा की गुणवत्ता में सुधार होता है। लेकिन इसमें अलग चुनौतियां हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में कंपनियों के वितरकों को एफएमसीजी कंपनियों के साथ मोलतोल की ताकत भी मिल जाती है। दूसरा, कई नई स्थानीय और बहुराष्ट्रीय एफएमसीजी कंपनियां हैं जिनके पास पारंपरिक वितरण लाभ जैसा कुछ नहीं। इन नई कंपनियों के लिए संगठित थोक विक्रेता अपनी पहुंच और वितरण बढ़ाने के लिए ईश्वरीय तोहफे की तरह हैं। वे जियोमार्ट, मेट्रो या उड़ान जैसी फर्म के साथ खुशी-खुशी काम करेंगी।

अंत में, संगठित खुदरा के उलट थोक विक्रेताओं के लिए चैनल संबंधी विवाद से बचना आसान नहीं होगा। बीते वर्षों के दौरान तमाम टकराव के बाद संगठित खुदरा कारोबारी बड़ी एफएमसीजी कंपनियों के साथ एक किस्म का संतुलन कायम करने में कामयाब हुई थीं। रिलायंस रिटेल और फ्यूचर ग्रुप जैसे बड़े खुदरा रिटेलर सीधा वितरण हासिल करने में कामयाब रहे क्योंकि वे यह साफ दिखा चुके थे कि उनका विशाल स्वरूप, स्वयं सेवा मॉडल ने प्रीमियम और नए उत्पादों की बेहतर खरीद में मदद की थी। वे परिचालन की उच्च लागत की भरपाई के लिए उच्च मार्जिन हासिल करने में कामयाब रहे। संगठित खुदरा का आकार प्रत्यक्ष वितरण मॉडल से अलग होने का भी लाभ मिला। एक समस्या यह हो सकती है कि थोक विक्रेता भी अपने लिए उसी व्यवस्था की मांग कर सकते हैं जो कंपनी वितरक अभी किराना को दे रहे हैं।

लाखों वितरकों की आजीविका को संभावित खतरे को देखते हुए माना जाना चाहिए कि नए वर्ष में यह विवाद और जोर पकड़ेगा।

Date:31-12-21

नाहक सियासत
संपादकीय

इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के खिलाफ कोई व्यक्ति निराधार, जहरीले विचारों और नफरत का प्रसार करे। किसी भी सोचने-समझने वाले जिम्मेदार नागरिक की नजर में यह अस्वीकार्य होगा और संबंधित क्षेत्र की सरकार और प्रशासन की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह नफरत फैलाने वाले उस व्यक्ति पर कानूनसम्मत कार्रवाई करे। इस लिहाज से छत्तीसगढ़ की पुलिस ने कालीचरण महाराज नामक व्यक्ति को गिरफ्तार करके यही संदेश देने की कोशिश की है कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है और उसे समाज में नफरत और हिंसक विचार को फैलाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। गौरतलब है कि पिछले हफ्ते रायपुर में धर्म संसद नाम से हुए आयोजन में कालीचरण ने महात्मा गांधी के बारे में कई आपत्तिजनक बातें कहीं। यहां तक कि उनकी हत्या को भी सही ठहराने की कोशिश की। इससे संबंधित चर्चित वीडियो में कालीचरण बिना किसी संकोच के महात्मा गांधी के खिलाफ अपने दुराग्रह और उनकी हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे के प्रति भक्तिभाव दर्शा रहा था।

यह समझना मुश्किल है कि किसी व्यक्ति को एक ऐसे शख्स से इस हद तक नफरत कैसे हो सकती है, जिसने अपनी जिंदगी देश की आजादी के आंदोलन में झोंक दिया और जिसने अपने जीवन-मूल्यों से दुनिया भर में अहिंसा का संदेश फैलाया। आज महात्मा गांधी केवल भारत में नहीं, बल्कि दुनिया भर में एक महान शख्सियत के रूप में जाने जाते हैं। मगर भारत में ही कुछ लोग उनके खिलाफ जहरीले विचार जाहिर कर उनके योगदान को खारिज करने की कोशिश कर रहे हैं। एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र से जुड़े प्रतीकों के खिलाफ हिंसक विचारों का प्रसार शायद सभी देशों में कानून की कसौटी पर अनुचित माना जाता होगा। इसलिए कालीचरण के खिलाफ कई जगहों पर मुकदमे दर्ज हुए और इस क्रम में छत्तीसगढ़ की रायपुर पुलिस ने उसे मध्यप्रदेश के खजुराहो से पच्चीस किलोमीटर दूर बागेश्वर धाम स्थित लाज से गिरफ्तार किया, जहां वह छिपा हुआ था। इस मामले में मध्यप्रदेश के गृहमंत्री ने कालीचरण की गिरफ्तारी की प्रक्रिया पर एतराज जताते हुए कहा कि छत्तीसगढ़ की पुलिस की अपनी कार्रवाई की जानकारी मध्यप्रदेश पुलिस को देनी चाहिए थी। इससे तय अंतरराज्यीय नियम-कायदों का उल्लंघन हुआ है।

सवाल है कि जो व्यक्ति अपनी करतूत के नतीजे का अंदाजा लगा कर भाग खड़ा हुआ था और दूर जाकर कहीं छिपा हुआ था, वह अपनी गिरफ्तारी के बारे में जानकारी मिलने पर क्या इतनी आसानी से पकड़ में आता! कई बार पुलिस के कामकाज करने का तरीका ऐसा होता है, जिसमें प्रक्रिया को लेकर कुछ सवाल-जवाब की गुंजाइश हो सकती है, मगर असली मकसद किसी अपराध के आरोपी को कानून के कठघरे में खड़ा होना चाहिए। कालीचरण ने जिस तरह अपने बयान में अपने दुराग्रहों का प्रदर्शन किया, वह केवल महात्मा गांधी के खिलाफ नफरत फैलाने की कोशिश नहीं है, बल्कि एक तरह से देश की आजादी के आंदोलन के मूल्यों और संघर्ष की भावनाओं को अपमानित करना है। इससे ज्यादा अफसोसनाक और क्या हो सकता है कि जिस व्यक्ति और उनके साथ खड़े लाखों-करोड़ों लोगों ने निस्वार्थ भाव से देश की आजादी के लिए आंदोलन में हिस्सा लिया, उसमें न जाने कितने लोगों ने अपना बलिदान दिया, उसकी अहमियत को स्वीकार करने के बजाय उसे अपमानित किया जाए। कालीचरण की गिरफ्तारी का तरीका गलत हो सकता है, मगर उसका दोष सिद्ध है। इस पर राजनीति करने के बजाय अदालत के फैसले का इंतजार करना चाहिए।

Date:31-12-21

आर्थिक विकास और महिलाएं
परमजीत सिंह वोहरा

अब समाज में महिलाओं के आर्थिक विकास को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। महिला सशक्तिकरण की बात तो हम लंबे समय से कर रहे हैं, पर हमारे मुल्क की तीव्र आर्थिक प्रगति के लिए अब महिलाओं के आर्थिक विकास को प्राथमिकता देना अत्यंत आवश्यक है। एक सौ चालीस करोड़ की आबादी वाले हमारे मुल्क में करीब पचपन करोड़ लोग अपने परिवार के कमाने वाले सदस्यों पर निर्भर हैं। इसमें घरेलू महिलाएं बड़ी तादाद में हैं। इसके अलावा हमारे समाज में शिक्षित महिलाओं का भी घरेलू महिलाओं की संख्या में बहुत बड़ा भाग है। आश्रितों की इतनी बड़ी संख्या अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती है।

इन दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था दो प्रकार की स्थितियों से गुजर रही है। एक तरफ जहां आर्थिक विकास में निरंतरता बनाए रखना मुख्य उद्देश्य है, तो वहीं दूसरी तरफ लगातार बढ़ रही आर्थिक असमानता भारत के समग्र आर्थिक विकास में बहुत बड़ी बाधा है। लगातार बढ़ती आर्थिक विषमता ने अमीरों और गरीबों के बीच की खाई को बहुत चौड़ा कर दिया है। कोरोना महामारी के दौरान जहां एक तरफ भारत में गरीबों की संख्या में सात करोड़ की बढ़ोतरी हुई है, वहीं दूसरी तरफ अरबपतियों की संख्या में सैंतीस प्रतिशत की वृद्धि। यह हमें लगातार सोचने को विवश कर रही है। इस विकट परिस्थिति से भी निपटा जा सकता है अगर आर्थिक सुधारों में महिलाओं के आर्थिक विकास को मुख्य उद्देश्य के रूप में रखा जाए।

भारत में महिला आर्थिक विकास तभी संभव है, जब हर महिला रोजगार को अपना उद्देश्य बनाए। भारत में वर्तमान महिला आर्थिक विकास से संबंधित कार्यों और नीतियों पर एक दृष्टि डालें, तो पाएंगे कि आजादी के पचहत्तर वर्षों बाद भी महिला सशक्तीकरण का विचार हमारे कानों में गूंजता तो रहता है, पर अभी तक भारत में इस पर ठोस कार्य नहीं हुए हैं। सही मायनों में महिला सशक्तिकरण तभी संभव है जब महिला आर्थिक विकास की ओर मजबूती से काम हो। स्थिति इतनी विकट है कि देश की कुल आबादी में अड़तालीस प्रतिशत महिलाएं हैं, पर रोजगार में सिर्फ एक तिहाई ही संलग्न हैं। भारत की कुल ‘एमएसएमई’ का मात्र उन्नीस प्रतिशत महिलाओं द्वारा संचालित हो रहा है। महिलाओं का वेतन भी पुरुषों के वेतन का पैंसठ प्रतिशत है। ‘बीएसई’ और ‘एनएसई’ में सूचीबद्ध कंपनियों में मात्र नौ प्रतिशत महिलाएं उच्च पद पर आसीन हैं। जिस तरह दिन-प्रतिदिन कंप्यूटर द्वारा ‘आटोमेशन’ हो रहा है, उससे वर्ष 2030 तक करीब दो करोड़ ग्रामीण रोजगारों में संलग्न महिलाओं के सामने बरोजगारी की समस्या भी खड़ी होने वाली है। एक शोध रिपोर्ट के मुताबिक अगर भारत में महिलाओं को पुरुषों के बराबर रोजगार में तवज्जो मिलने लग जाए, तो अर्थव्यवस्था में बिना कोई आमूलचूल परिवर्तन हुए भी जीडीपी सात अरब अमेरिकी डालर तक बढ़ सकती है।

महिलाओं के आर्थिक स्वावलंबन की सोच को देखते हुए अब महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा उद्यमिता की तरफ बढ़ना चाहिए। पिछले कुछ समय से समाज में एक बदलाव आया है, जिसमें माता-पिता अपनी पुत्री के लिए भी तकनीकी तथा व्यावसायिक प्रबंधन की शिक्षा को ज्यादा से ज्यादा प्राथमिकता देने की कोशिश कर रहे हैं। महिलाओं के आर्थिक विकास के मुद्दे को बड़ी संख्या में बल तब मिलेगा, जब ऐसी शिक्षित लड़कियां स्वयं आगे बढ़ कर अपनी तकनीकी तथा व्यावसायिक प्रबंधन की शिक्षा का उपयोग खुद के व्यावसायिक प्रतिष्ठान में करने की कोशिश करेंगी। इसके माध्यम से समाज में एक बदलाव आएगा तथा महिलाओं का समाज के आर्थिक विकास में भी योगदान बढ़ेगा। इस संदर्भ में हमारे समाज की एक वास्तविकता को भी समझना होगा। आज भी हमारा समाज उद्यमिता या एंटरप्रेन्योरशिप के अंतर्गत महिलाओं को कमजोर समझता है। यह लगभग सभी की मानसिकता है कि व्यवसाय या व्यापार करना सिर्फ पुरुषों के दायरे में आता है, क्योंकि वही इसमें ज्यादा सक्षम होते हैं। इसी सोच के कारण महिला उद्यमी को अपने व्यापार-व्यवसाय को दूसरों के सामने प्रस्तुत करने में अनेक समस्याएं आती है, जिसमें सबसे बड़ी बाधा आवश्यक वित्त की सुविधाओं के निर्धारण तथा प्राप्ति से संबंधित होती है।

इसके अलावा हमारे समाज में महिलाएं स्वयं भी व्यवसाय को प्राथमिकता नहीं देना चाहतीं, क्योंकि वे इसमें पुरुषों का एकाधिकार ज्यादा देखती हैं। यह भी हमारी एक सामाजिक मानसिकता का प्रतीक है कि परिवार में छोटे बच्चों के पालन-पोषण की प्राथमिक जिम्मेदारी पुरुष की तुलना में महिला की ज्यादा होती है, जिसके कारण भी आधुनिक रूप से शिक्षित महिलाएं व्यापार करने का निर्णय लेने में हिचकती हैं तथा वे व्यवसाय की तुलना में नौकरी करने को ज्यादा उचित समझती हैं, क्योंकि उस दशा में वे अपने आप को ज्यादा सुविधाजनक पाती हैं। अगर वास्तव में महिला आर्थिक विकास की बात करनी है, तो हमें उपरोक्त सामाजिक सोच तथा मानसिकता को बदलना होगा।

इस संदर्भ में एक विडंबना यह भी है कि उन महिलाओं को आर्थिक विकास से कैसे जोड़ा जाए, जो निम्न मध्यवर्गीय परिवार से संबंधित हैं। वे मात्र साक्षर हैं, आधुनिक रूप से शिक्षित नहीं हैं तथा उनके परिवार में आश्रितों की संख्या भी अधिक है। वर्तमान परिस्थिति में हमारे मुल्क में ऐसी महिलाओं की संख्या काफी है। यहां एक आदर्श स्थिति बन सकती है, अगर ये महिलाएं स्वयं आगे बढ़ कर किसी भी तरह के आर्थिक रोजगार को अपनी आय का मुख्य स्रोत बनाने का निश्चय करें। इसके माध्यम से जहां एक तरफ आश्रितों की संख्या कम होगी, वहीं दूसरी तरफ आर्थिक विषमता भी कम होगी।

ऐसी महिलाओं के आर्थिक स्वावलंबन से पहले उन्हें आर्थिक विकास का एक स्रोत मिलना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए सरकारों, सामाजिक संगठनों और औद्योगिक घरानों आदि को मिल कर एक पहल करनी होगी। सामाजिक संस्थानों के माध्यम से ऐसी महिलाओं को प्रमाणित तथा एकत्रित करना होगा, जो अपने जीवन में आर्थिक उद्देश्य को पूरा करना चाहती हैं। सरकारों के माध्यम से औद्योगिक घरानों को दिशा-निर्देश दिए जाएं कि वे आगे बढ़ कर सामाजिक संगठनों के साथ मिल कर एक सामंजस्य स्थापित करें, ताकि ऐसी महिलाओं को उनके आर्थिक उद्देश्य के लिए किसी विशेष तरह के रोजगार के लिए शिक्षित और प्रशिक्षित किया जा सके। इस संदर्भ में सिलाई, कढ़ाई, पेंटिंग, ब्यूटी पार्लर, कुकिंग से संबंधित कई तरह के प्रशिक्षण दिए जा सकते हैं। यह सब कई जगह किया भी जा रहा है, पर अब सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि इन प्रशिक्षण शिविरों के बाद भी ऐसी प्रशिक्षु महिलाओं को उद्यमिता के बारे में भी सिखाया जाए, जिसके अंतर्गत मुख्य रूप से गुणवत्ता प्रबंधन तथा सोशल मीडिया के विभिन्न स्रोतों के माध्यम से अपने उत्पाद की मार्केटिंग के नए तौर-तरीके जानना अत्यंत आवश्यक है।

अक्सर देखा जाता है कि प्रशिक्षण शिविर के बाद भी कम पढ़ी-लिखी महिलाएं रोजगार में सलंग्न नहीं होतीं, क्योंकि उनमें उद्यमिता अपनाने का आत्मविश्वास नहीं होता है। जरूरत है इन महिलाओं को प्रेरित और जागरूक करने की, ताकि बैंकिंग सुविधाओं और आर्थिक सहयोग से उन्हें उद्यमिता की तरफ मोड़ा जा सके। यह समाज में एक क्रांतिकारी बदलाव ला सकता है।

वास्तव में स्त्री और पुरुष दोनों के कंधों पर अपने परिवार को चलाने की जिम्मेदारी के साथ समाज और देश के आर्थिक विकास में योगदान देना एक कर्तव्य है। खुशी होती है इस बात से कि हम स्त्री सशक्तिकरण को बहुत तवज्जो देते हैं तथा वास्तव में इस पक्ष पर पिछले काफी समय से बहुत मजबूती से काम भी हो रहा है, पर अब समय आ गया है, जब स्त्री को आर्थिक विकास की मुख्यधारा में पुरुष के समान ही महत्त्व दिया जाए।

 

 

Date:31-12-21

उफ! ऐसी सियासत!
आचार्य पवन त्रिपाठी

खुलासा हो रहा है कि 2008 में महाराष्ट्र के मालेगांव कस्बे में हुए आतंकी विस्फोट के मामले में जांच एजेंसी एटीएस (आतंकवाद निरोधक दस्ता) योगी आदित्यनाथ सहित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चार अन्य वरिष्ठ नेताओं को फंसाने की साजिश रच रही थी। इन नेताओं का नाम लेने के लिए एटीएस ने गवाहों पर दबाव डाले। उन्हें और उनके परिवार को भी फंसाने की धमकियां दीं। इसी मामले में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और ले. कर्नल पुरोहित जैसों को आरोपी बनाया गया था। वे अभी भी इस मामले में आरोपी हैं। इन पर भारतीय दंड विधान एवं आतंकवाद से संबंधित ऐसी–ऐसी धाराओं में मामला दर्ज है कि आरोप सिद्ध हो जाने पर इन्हें आजीवन कारावास से लेकर मृत्युदंड तक की सजा हो सकती है।

संयोग ही है कि इस मामले की जांच अब एटीएस के हाथ से निकल कर एनआईए के हाथ में आ चुकी है। जांच एजेंसी में यह परिवर्तन होने बाद से अब तक 15 गवाह अदालत में अपने पूर्व बयान बदल चुके हैं। सांसद बन चुकीं साध्वी प्रज्ञा खुद कई बार खुद पर हुए एटीएस के जुल्म और जुल्म ढाने वाले अधिकारियों के नाम बयां कर चुकी हैं। समझा जा सकता है कि कोई भी जांच एजेंसी तब तक इस प्रकार की साजिशें रचने की हिम्मत नहीं जुटा सकती‚ जब तक कि उसके राजनीतिक आका ऐसा करने का निर्देश न दें। मालेगांव में हुए विस्फोट के समय महाराष्ट्र में कांग्रेस–राकांपा गठबंधन की सरकार थी। राज्य का गृह मंत्रालय राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी एवं केंद्र का गृह मंत्रालय कांग्रेस के हाथों में था।

यह वही दौर था‚जब हिंदू आतंकवाद का जुमला गढ़ा जा रहा था। यह वही गृह मंत्रालय था‚ जिसने गोधरा कांड के बाद भड़के गुजरात के दंगों में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को भी फंसाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। महाराष्ट्र में फिर गठबंधन सरकार है। फर्क इतना है कि इस गठबंधन में राकांपा और कांग्रेस के साथ शिवसेना भी शामिल हो गई है। गृह मंत्रालय फिर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के ही पास है। इस गृह मंत्रालय की एक बानगी अनिल देशमुख के नेतृत्व में हाल में देखी जा चुकी है। लेकिन इससे बड़े खेल भी हो रहे हैं‚ जो भविष्य में महाराष्ट्र को न जाने किस दिशा में ले जाएंगे। महाराष्ट्र विधानमंडल के इसी शीतकालीन सत्र के दौरान मुंबई भाजपा अध्यक्ष एवं विधायक मंगलप्रभात लोढ़ा ने खुलकर इस खेल के बारे में सदन को बताया। उन्होंने एक दिन पहले सदन में सनातन संस्था पर प्रतिबंध लगाने की मांग करने वालों को करारा जवाब देते हुए याद दिलाया कि त्रिपुरा में हुई एक घटना पर किस तरह मुंबई में जगह–जगह रजा अकादमी एवं जमात के लोगों द्वारा प्रदर्शन किए गए। याद दिलाया कि किस तरह कुछ वर्ष पहले रजा अकादमी के लोगों ने मुंबई महानगर पालिका के ठीक सामने स्थित शहीद स्तंभ को लात मारने की घटना को अंजाम दिया था। यह भी याद दिलाया कि 1993 में मुंबई में सिलसिलेवार विस्फोट कांड में जब एक आरोपी को मिली फांसी की सजा की पुष्टि सर्वोच्च न्यायालय ने की तो इस पर खुशी मनाने के बजाय उस दोषी को माफी के लिए राष्ट्रपति को पत्र लिखने वाले व्यक्ति आज विधायक बन कर महाराष्ट्र विधानसभा में बैठे हैं।

जब लोढ़ा सदन में ये बातें बता रहे थे तो सत्ता पक्ष की ओर से हंगामा किया जा रहा था। यहां तक कि लोढ़ा को अपनी बात कहते हुए पीठासीन अधिकारी से संरक्षण की मांग करनी पड़ी। लोढ़ा ने याद दिलाया कि कोरोना काल में अनेक हिंदू तीज–त्यौहारों पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है‚ लेकिन हर शुक्रवार को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद सड़कों पर जाम लगाकर नमाज अता करने पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जाता। लोढ़ा का कहना था कि संस्कृति बचेगी तो ही देश बचेगा। और देश बचेगा तो ही हम–आप बचेंगे। नहीं तो जो कश्मीर में हुआ और पश्चिम बंगाल में हो रहा है‚ उसे मुंबई में भी होने से रोका नहीं जा सकेगा। लोढ़ा का इस ओर इंगित करना गंभीर समस्या की ओर संकेत करता है कि आज मुंबई में कम से कम 15 व्यवसायों पर धर्म विशेष का कब्जा हो चुका है। मुंबई के मूल निवासी कोली समाज की महिलाओं के हाथ में रहे मछली व्यवसाय का 90 फीसद आज धर्म विशेष के हाथों में जा चुका है‚और कोली महिलाएं बेरोजगार हो चुकी हैं। याद दिलाना प्रासंगिक होगा कि लोढ़ा एक बार मुंबई के मालवणी इलाके में उत्तर प्रदेश के कैराना की तर्ज पर धर्म विशेष के लोगों द्वारा हिंदुओं के घर जबरन खरीदे जाने की बात उठा चुके हैं।

मसला चाहे हिंदू नेताओं को फंसाने के लिए एटीएस जैसी जांच एजेंसी के दुरुपयोग का हो‚चाहे सनातन संस्था पर प्रतिबंध लगाने की मांग एवं रजा अकादमी जैसी संस्थाओं को खुली छूट देने या सड़क जाम कर नमाज की अनुमति देने या मालवणी में चल रहे ‘कैराना पैटर्न’ का हो‚इन सारी समस्याओं की जड़ सरकार एवं प्रशासन के एक ओर झुकाव में ही नजर आती है। बड़ी चिंता का कारण यह भी है कि कभी इस तरह की समस्याओं के सामने तन कर खड़ी होने वाली शिवसेना अब खुद उस तिकड़ी का हिस्सा बन चुकी है‚जो ऐसी घातक संस्कृति को संरक्षण दे रही है। दरअसल‚ एक बात जो अक्सर देखी गई कि जहां समुदाय विशेष की जनसंख्या बढ़ती है‚ वहां हिंदुओं के खिलाफ उनकी दादागिरी शुरू हो जाती है। बात केवल मुंबई स्थित मालवणी या आजाद मैदान दंगे तक सीमित नहीं है।

पश्चिम बंगाल के चुनाव के दौरान हिंदुओं के दमन चक्र का नंगा नाच साफ देखने को मिला। वहां ममता बनर्जी के नेतृत्व में सरकार बनी और अब हिंदुओं का उत्पीड़न चरम पर पहुंच चुका है। अब तक का इतिहास है कि जब और जहां मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ती है तब और वहां हिंदुओं का दमन शुरू हो जाता है। ममता की सरकार का खुला समर्थन मुस्लिम समुदाय को है। इससे मुस्लमानों की हिम्मत बढ़ चुकी है। वे हिंदुओं का उत्पीड़़न की कोशिश करते हैं‚ जिसे नाकाम करने की जरूरत है। असम में भी हिंदुओं को दबाने का प्रयास किया गया। ज्ञात हो कि असम में 27 जिले हैं‚ जिनमें बारपेटा‚ करीमगंज‚ मोरीगांव‚ बोंगईगांव‚ नागांव‚ ढुबरी‚ हैलाकंडी‚ गोलपारा और डारंग 9 मुस्लिम बहुल हैं। यहां बांग्लादेशी मुस्लिमों की घुसपैठ के चलते राज्य के कई क्षेत्रों में स्थानीय लोगों की आबादी का संतुलन बिगड़ गया है।

 

Date:31-12-21

करवट बदलते दौर में कूटनीति
विवेक काटजू, ( पूर्व राजदूत )

यह साल कोविड-19 के साए में ही गुजरा। इस महामारी ने हर देश में उथल-पुथल मचाई। स्थिति यह है कि 2020 में बिगड़ चुका वैश्विक संतुलन इस वर्ष भी पटरी पर नहीं लौट सका। साल 2021 की मांग थी कि विश्व की महाशक्तियां आपसी सहयोग से कोविड-19 को खत्म करने की कोशिशें करतीं और हरेक देश की पर्याप्त मदद करतीं। हर महाशक्ति ने यह तो माना कि दुनिया में कोई भी देश महामारी से तब तक सुरक्षित नहीं है, जब तक कि हरेक देश सुरक्षित नहीं होगा, लेकिन इस सिद्धांत पर किसी ने अमल नहीं किया। महाशक्तियों के शीर्ष नेतृत्व ने प्राथमिकता अपने ही लोगों को दी, जिस कारण दुनिया भर में ‘टीका असमानता’ देखी गई।

भारत ने इसमें अलहदा रुख अपनाया। उसने वर्ष की शुरुआत में ही टीकों का निर्यात शुरू कर दिया, जबकि उसकी अपनी जनता को इनकी जरूरत थी। इससे हमने खुद को एक अच्छा वैश्विक नागरिक साबित किया। बाद में, जब टीकों की घरेलू आवश्यकता बढ़ गई और यह दबाव बना कि टीके निर्यात न किए जाएं, तो विदेशों में टीके न भेजने का अच्छा फैसला लिया गया, क्योंकि दूसरी लहर ने भारत में भयानक तबाही मचाई। वर्ष के अंत तक फिर टीकों को बाहर भेजना आरंभ किया गया, लेकिन ओमीक्रोन का खतरा बढ़ने के बाद एक बार फिर अपनी जनता को अधिक प्राथमिकता देने की जरूरत है।

बहरहाल, सामरिक दृष्टि से यह वर्ष काफी चुनौतीपूर्ण रहा। सबसे बड़ी चुनौती तो चीन के आक्रामक रवैये से मिली। उसने 2020 में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वह अब वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर शांति बनाए रखने के सिद्धांत को छोड़ने को तैयार है। इस साल एलएसी पर स्थिति कुछ सामान्य तो हुई, लेकिन 2020 के अतिक्रमण से पहले की यथास्थिति पर जाने को चीन तैयार नहीं था। भारत-चीन वार्ता में भारतीय प्रतिनिधियों ने यह साफ कर दिया कि जब तक वह एलएसी पर शांति बनाए रखने को प्राथमिकता नहीं देगा, तब तक स्थिति सामान्य नहीं हो सकती। नतीजतन, चीन के साथ तनाव चलता रहा, इसलिए एलएसी पर हमें ज्यादा सेना तैनात करनी पड़ी, आगे भी पड़ेगी। वैसे, इस बीच उसने हमारे पश्चिम पड़ोस के देशों के साथ-साथ अन्य करीबी राष्ट्रों में भी अपनी गतिविधियां तेज कर दी हैं।

इस साल अफगानिस्तान में तालिबान की जीत से भारत की अफगान नीति को क्षति पहुंची है। दुखद है कि जब ये संकेत दिख रहे थे कि गनी सरकार के हाथ से वक्त फिसलता जा रहा है और भारतीय हितों की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक हो गया है कि तालिबान से संबंध बनाए जाएं और बातचीत शुरू हो, तब भारत ने ऐसा करने से परहेज किया। अंत में, जब तालिबान ने सत्ता पर कब्जा कर लिया, तब भारतीय और तालिबानी प्रतिनिधियों में कुछ खुली बैठकें हुईं जरूर, लेकिन अफगानिस्तान में जिस त्वरित और लचीली नीति की दरकार थी, उसका अभाव रहा। इसका फायदा पाकिस्तान और चीन ने उठाया। पश्चिम एशिया में जरूर भारत ने इजरायल, संयुक्त अरब अमीरात के साथ नई पहल शुरू की, जिससे ऐसे संकेत मिले कि भारत इस महत्वपूर्ण क्षेत्र की अपनी नीतियों में बदलाव कर रहा है, लेकिन नई दिल्ली किस रास्ते पर आगे बढे़गी, यह अब भी साफ नहीं हो सका है।

साल 2021 जैसे-जैसे आगे बढ़ा, यह भी स्पष्ट होने लगा कि दुनिया एक नए शीत युग में प्रवेश कर गई है। एक तरफ विश्व की सबसे बड़ी शक्ति अमेरिका और उसके मित्र देश अपना प्रभाव कायम रखने की कोशिशों में जुटे रहे, तो दूसरी तरफ चीन ने राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में ऐसे-ऐसे कदम उठाए, जिनसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद से चल रही विश्व व्यवस्था बदली जा सके। बीते चार दशकों में चीन आर्थिक रूप से बहुत सफल रहा है। इसी बुनियाद पर उसने अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाई है, और अपनी सेनाओं का आधुनिकीकरण किया है। लेकिन जो सबसे बड़ी कामयाबी उसने हासिल की है, वह विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में है। अब वह अमेरिका, यूरोप और जापान को तकनीकी क्षेत्र में चुनौती देने लायक बनता जा रहा है। इसका एक उदाहरण 5जी कम्यूनिकेशन तकनीक है। इसी तरह, वह बेल्ट रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) के जरिये दुनिया के हर कोने में, खासतौर से हिंद प्रशांत क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। उसने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों को वह तभी तक मानेगा, जब तक उन कानूनों और उसके हितों में टकराव न हो।

नए शीत युग की वजह से इस साल भारत को बहुत नरम कूटनीति अपनानी पड़ी। एक तरफ उसने ‘क्वाड’, यानी अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर चीन और प्रशांत महासागर के अन्य देशों को यह संदेश दिया कि वह बीजिंग की आक्रामक गतिविधियों को मंजूर नहीं करता, तो दूसरी तरफ उसने रूस से अपने रिश्ते बनाए रखे, खासतौर पर रक्षा के क्षेत्र में। इन सबके जरिये चीन को भारत यह संकेत देने में सफल रहा कि नई दिल्ली एक संतुलित रिश्ते की हिमायती है, लेकिन वह अपने हितों को कतई नजरंदाज नहीं करेगी। दुनिया के लिए भी भारत का यही संदेश रहा कि वह अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ हर क्षेत्र में अपने रिश्ते बढ़ाना चाहता है, लेकिन वह अपनी स्वतंत्र विदेश नीति या सामरिक नीति का त्याग नहीं करेगा। यही वजह है कि अमेरिकी दबाव के बावजूद भारत रूस से एस 400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम की खरीदारी पर अटल रहा।

इस साल पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्ते हमेशा की तरह खराब ही रहे। इस बीच पाकिस्तान का दुष्प्रचार भी चलता रहा। वह मोदी सरकार, भारत की नीतियों और विशेषकर संघ परिवार की विचारधारा के खिलाफ मुखर रहा। हां, यह जरूर है कि वर्ष की शुरुआत में ही नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम पर सहमति बनी, जो कमोबेश पूरे साल कायम रहा। एक वक्त तो ऐसा लगा था कि संबंध अब सामान्य हो चले हैं, लेकिन ऐसा दीर्घावधि में हो नहीं सका, क्योंकि पाकिस्तान आतंकवाद का दामन छोड़ने को तैयार नहीं है। चीन के साथ उसके रिश्ते गहरे बने रहे, जिसके कारण उनका गठजोड़ भारत के लिए सामरिक समस्या बना रहा।

इन सबसे यही साफ हो रहा है कि इस साल सामरिक और कूटनीतिक मोर्चे पर भारत को कोई खास सफलता तो नहीं मिली, मगर अफगानिस्तान में छोड़कर उसे कहीं विशेष क्षति भी नहीं पहुंची।

(30-12-2021) समाचारपत्रों-के-संपादक

 

Date:30-12-21

Jarring Notes
Aviation ministry advisory on ‘Indian music’ is unnecessary & against free enterprise spirit
TOI Editorials

The civil aviation ministry’s advisory, inspired by a suggestion from ICCR, that domestic airlines and airports play ‘Indian music’ is exactly what the industry didn’t need. Sure, there is nothing wrong with playing ‘Indian music’ on flights or at airports. And it is perhaps true that airlines and airports of other nations often play local origin music. But that’s not the point. Other nations, at least those that are democratic and allow private enterprise a free hand to run their business, don’t issue advisories to private aviation players on what music they should play. That this is not an order from the ministry but a ‘request’ is little comfort. What happens if private airports and airlines don’t abide by the request? Aviation industry has been hit badly by the pandemic. At this vulnerable stage, airlines and airports may feel compliance is wiser – and that would set a terrible precedent for freedom of businesses to run their operations.

India’s aviation industry transformed itself on the back of private entrepreneurship. Private airlines and airport operators were able to provide far better services precisely because they were given a free hand. But one alarming consequence of the pandemic has been creeping government interference – authorities are deciding how many flights airlines can operate, price bands and capacity. We have argued, in fact, that price bands are unnecessary, and demand-supply should take over. Now, with this ministry ‘request’, it is entirely likely that another front for sarkari meddling will open. Will airlines and airports be told next to serve only ‘Indian food’? Or will airline staff be told to don only ‘Indian dress’?

The ministry should also think what such ‘requests’ do to the global image of Indian civil aviation. This is a sector that can really do with a healthy dose of foreign investment. But a narrative that the ministry is micromanaging service details is one sure turn-off for investors. And remember, Tatas turned the original, privately-run Air India into a symbol of Indian excellence without government ‘requests’ and interference. Now that AI is back with Tatas, why saddle it and others with sarkari ideas of cultural promotion?

There’s another point – what is ‘Indian’ music? In a richly diverse country that’s also open culturally to the outside, Indian music means different things to different people in different regions. Should aviation players have to sweat over such things when fighting to stay afloat in a pandemic?

 

Date:30-12-21

Haridwar’s hubris of hate must be stopped
A manic irrationality is being seeded in Indian society, with hate-filled words having an impact on the rights of all
Vasundhara Sirnate Drennan, [ Political scientist and journalist. She is also the creator of the India Violence Archive, a citizen’s data initiative aimed at recording collective public violence in India ]

Between December 17 and 19, 2021, a militant Hindu religious assembly was held at Haridwar, Uttarakhand where speakers amplified targeted hate messages. Organised by Yati Narsinghanand Saraswati, the head priest of the Dasna Devi temple and a high-ranking officer of the Juna Akhara (a sect of Hindu seers), the assembly had many speakers who raised the bogey of an Islamic threat to India and Hindus.

Carnival of hate

Swami Prabodhanand Giri, president of the Hindu Raksha Sena, a right-wing organisation, said, “… you have seen this at the Delhi border, they killed Hindus and hung them. There is no more time, the case now is that either you prepare to die now, or get ready to kill, there’s no other way. This is why, like in Myanmar, the police here, the politicians here, the army and every Hindu must pick up weapons and we will have to conduct this cleanliness drive. There is no solution apart from this.” Yati Narsinghanand, a repeat hate-speech offender, also offered ₹1 crore to any youth who would rise up to be a “Hindu Prabhakaran” (a reference to the leader of the Liberation Tigers of Tamil Eelam), in a clear incitement to violent behaviour. Swami Darshan Bharti, a proponent of the Hindu right, again called for restrictions on the buying of land by Muslims in Uttarakhand.

I do not want to further amplify the hateful words that were spoken in that carnival of hate at Haridwar. I will instead offer some trajectories of thought. How should we be thinking about these events and processes?

Mass indoctrination

First, let us recognise that there is a manic irrationality that is being carefully seeded in Indian society today and that hate-filled words have an impact on the rights and well-being of all. This process involves consistent and repetitive hate speech and fear speech against minority groups by Hindutva ideologues, which is resulting in a mass cult-like indoctrination aimed at making Hindus believe that they are under immediate threat by those that are not exactly like them. In doing so, a non-existent and unverified threat is manufactured and presented. The speakers at the Haridwar event, between their speeches, painted a picture of an India which is under threat of being taken over by Islamists, and therefore they reasoned, all Muslims must be treated with hate and suspicion. Then the purveyors of this hate speech offered a solution — Hindus must take up weapons against all Muslims in acts of self-preservation. What they effectively outlined for the followers is a fictitious reason for genocide followed by a call to engage in the genocide of Muslims.

Second, we need to think about why in India it has been so difficult to isolate and prosecute hate speech even when it so clearly, dangerously and imminently asks for the weaponisation of the majority and the murder of Muslims. Why do Indian policy-makers still not clearly recognise the extent to which hate-filled narratives lead to actual events that involve a loss of lives, injury to people, loss of dignity and the stripping away of rights of targeted groups?

No distinction

In India we do not make a distinction between hate speech and fear speech. Hate speech (speech that expresses threats, abuse, violence and prejudice) against any community works most effectively when the public sphere has first been saturated with fear speech. Fear speech expresses unknown and unverifiable threats that create a sense of anxiety and panic in individuals. It is purposefully vague. A classic example is the spread of the “satanic panic” in the United States in the 1980s, where the bogey of satanic cults committing ritual child abuse led to deep and widespread public fear.

In India, when Hindutva ideologues tell Hindus that they are under threat by Muslim others, the ideologues are creating mass fear and panic. Every time they re-articulate a trauma inflicted on the Hindu community in the past, they are mobilising an emotion of eternal hurt combined with presenting a targeted group in a negative stereotype. This has special purchase on people when societies are undergoing conditions of economic, social and political inequality and uncertainty. What such speech also encourages someone to do is simple — pick a side. Being in the middle of debates is no longer an option.

Third, what we have been witnessing in India is the sustained escalation of hate speech and fear speech towards an end goal which involves the violent expulsion of Muslims from the Indian body politic. The Bharatiya Janata Party (BJP) has managed to coalesce an electorally beneficial Hindu identity around itself and over time it has blessed the rise of extreme Hindu leaders, thereby creating incentives for other such militant religious careerists, many of whom were in attendance in Haridwar. All of them followed the communal formula that can benefit them, and the BJP, politically.

A transformation and support

Fourth, in over a century, Hindutva ideology has progressed from a loose-cluster of fringe organisations to a sustained grass-roots political movement that has electorally managed to capture state institutions. This capture is important. This is why Swami Prabodhanand Giri can confidently talk about enlisting the police and army in a safai abhiyaan (cleanliness drive). The attendees know that they have the support of the ruling party and its institutions. They are almost sure that they can beat prosecution under existing laws that criminalise hate speech. They also instinctively understand through repeat experimentation that hate speech can lead to violence by their followers against targeted groups and that fear speech can diminish the barriers to people engaging in violence.

Fifth, the display at Haridwar that was attended by at least two functionaries of the BJP, Ashwini Upadhyay and Udita Tyagi of the BJP’s Mahila Morcha, was in direct contravention of the rights of citizens that are clearly worded in the Indian Constitution. Speakers threatened of an 1857-style mutiny against Delhi, Uttarakhand, and Uttar Pradesh (sedition), incitement to arms and violence.

One speaker, Sindhu Sagar Swami, even bragged about entrapping 10 Muslims in fake cases under the Scheduled Castes and the Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act. All of these are offences under various sections of the Indian Penal Code.

Set in 2014

Finally, let us also acknowledge that the Haridwar hate conference has occurred in the broader context of the escalation of attacks on minority groups, attacks on churches and mosques and the disruption of prayers. The manner and tone for such events to occur was set in 2014. What is becoming clear is that the current Indian state seeks to turn common Hindu citizens into enforcers of its majoritarian vision at the neighbourhood level. The self-styled godmen at Haridwar are the facilitators of this process, allowing the BJP just the right amount of distance to allow for plausible deniability in domestic and international fora. This is most certainly a dangerous path for India because mass political and social radicalisation does not come with power-steering. Those in power would be well advised to start making the moves to check this growing radicalisation as effectively as they seem to move to check the fictitious anti-national activities of their fictitious domestic enemies.

 

Date:30-12-21

The efficiency myth of Aadhaar linking
The Government has made several dubious claims to push the Aadhaar project
Rajendran Narayanan, [ Teaches at Azim Premji University, Bengaluru and is affiliated with LibTech India ]

The Union Government hastily passed a Bill to link voter IDs with Aadhaar cards. Such arbitrary approaches without sufficient deliberation have become the norm, it seems. The Government claims that the move will prevent frauds and remove duplicate IDs. But as evidenced by a report by journalist Kumar Sambhav, such a move violates an individual’s Right to Privacy, enables voter profiling and excludes genuine voters — perils that have also been outlined in a statement issued by the Rethink Aadhaar campaign and endorsed by many organisations. Aadhaar was, among other things, purportedly meant to improve efficiency in welfare programmes. However, there are important lessons to learn from the dubious claims made by the Government in Aadhaar linking for welfare delivery which have a strong bearing on the new proposal.

Claims on shaky ground

Cash transfers in many welfare programmes, such as payment of MGNREGA wages, are done using the Aadhaar Payment Bridge System (APBS). For this to work, it is mandatory to link workers’ Aadhaar with their MGNREGA job cards and their bank accounts where the Aadhaar number of the worker becomes their financial address. The Union Government has repeatedly made claims on savings in welfare programmes due to Aadhaar. These have been methodically debunked by Jean Drèze and Reetika Khera, among others. But the Government continues claiming that “the estimated cumulative savings/benefits due to Aadhaar in MGNREGA till March, 2021 is Rs 33,475 crores.” Two Right to Information responses seeking the methodology used to arrive at such savings are relevant. In a recent response, the Government said the “Ministry has been reporting DBT Mission on the estimated DBT savings under the scheme on the assumption that 10% of the wages in the year could be saved.” In an earlier response, it had said: “Savings are in terms of increasing the efficiency and reducing the delay in payments etc.” The savings due to Aadhaar, therefore, appear to be an “assumption” while the other claims are also on shaky grounds.

Wage payment delays in MGNREGA have been persistent. An analysis of more than 18 lakh wage invoices for the first half of 2021-22 by LibTech India demonstrated that 71% of the payments were delayed (called stage 2 delays) beyond the mandated period by the Union Government. Nearly 7 lakh invoices in our sample were done through the APBS; 11.65 lakh were account-based payments where the workers’ name, account number, and the IFSC code of their bank were used to transfer money. Figure 1 compares the time taken by the Union Government (stage 2) in transferring wages for the two payment methods. The axes represent the number of days taken for two kinds of payments. The 45-degree line shows the percentiles of stage 2 for APBS and the dots represent the percentiles of stage 2 for account-based payments. When dots are below the line, the account-based payments are quicker. Barring a few cases, the dots are practically on or below the line. This is perhaps the first large sample empirical evidence demonstrating that the Government’s claim of Aadhaar having “reduced payment delays” is unfounded. Indeed, there is nothing inherent in the APBS that makes transfers faster.

The government’s claims on “increasing the efficiency” is also questionable. Efficiency for whom and how is such efficiency related to accountability? Between 2015 and 2019, there was intense pressure on field-level bureaucrats to increase Aadhaar linking. A recently completed study of nearly 3,000 MGNREGA workers by Anjor Bhaskar and Preeti Singh shows that 57% of job cards of genuine workers were deleted in a quest to show 100% linking of Aadhaar with job cards. Doing such plastic surgery on numbers to show efficiency gains is unethical and sets a harmful precedent.

Another key concern is the opacity surrounding APBS and the consequent dilution of accountability. Cash transfers through both the payment methods can fail. The most common reason for payment failures in account-based payments is when the account number of the worker in the system is incorrect. This can be rectified at the block. However, the most common reason for payment failures through the APBS is enigmatically called “Inactive Aadhaar.” This has nothing to do with an individual’s Aadhaar being inactive but happens when there is a software mapping failure with the centralised National Payments Corporation of India, the clearing house for APBS. Workers and officials alike are clueless on resolving these payment failures.

Moreover, there are several cases of misdirected payments in APBS when the Aadhaar number of one person gets linked to somebody else’s bank account so her money gets credited to somebody else’s account. These are very hard to detect as these will appear as successful transactions on the dashboard. As per UIDAI, its functions include “setting up of facilitation centres and grievance redressal mechanism for redressal for grievances of individuals.” However, no such mechanisms exist.

Beyond technological alibis

So, on at least three counts — timely payment of wages, efficiency gains and grievance resolution — there appears no basis to justify APBS in MGNREGA. These prompt us to move beyond technological alibis for good governance and emphasise the need for a push towards constitutional propriety and accountability for technologies. The mathematician Cathy O’Neil cautions us on how some algorithmic models and technologies for social policies can be at odds with fairness. She writes: “Fairness is squishy and hard to quantify. It is a concept. And computers for all their advances in language and logic still struggle with concepts… Programmers don’t know how to code for it…” Indeed, compromising on fairness, people were coerced into using Aadhaar which had no pilot or independent cost-benefit analysis. No feedback has been collected on the user experience of the recipients or from field-level bureaucrats. Further, it is time to overhaul the nomenclature for recipients of welfare measures. Calling them “beneficiaries” subtly transforms the state from being an institution meant to uphold constitutional rights to sounding more like a charitable institution. Instead, people should be referred to as “rights holders”. This will likely help us better interrogate whether technologies have imbibed democratic principles of transparency, accountability and participation.

When Aadhaar’s use in welfare — for which it was purportedly intended — is itself shrouded in opacity, unreliability, and exclusions, we must be very worried if it is linked to voter IDs as it will further hollow out government accountability. It will fundamentally alter the citizen-State relationship. This must concern everyone as thousands of crores of taxpayers’ money have been spent on it. The Law Minister said that linking Aadhaar with voter id is “voluntary”. But given the prior experience of Aadhaar in other spheres, this will be another example of what Cathy O’Neil refers to as the “authority of the inscrutable.”

 

Date:30-12-21

सामाजिक बदलाव का बेजा विरोध
डा. ऋतु सारस्वत, ( लेखिका समाजशास्त्र की प्रोफेसर हैं )

भारत में विवाह की न्यूनतम आयु खासकर महिलाओं के लिए विवाह की न्यूनतम आयु एक विवादास्पद विषय रही है। जब भी इस प्रकार के नियमों में परिवर्तन की बात उठी तो सामाजिक और धार्मिक रूढ़िवादियों का कड़ा प्रतिरोध देखने को मिला। ऐसा इस बार भी हो रहा है। शायद इसी कारण लड़कियों की शादी के लिए न्यूनतम आयु 18 से बढ़ाकर 21 साल करने संबंधी विधेयक को संसद की स्थाई समिति के पास भेजना पड़ा। जो भी हो, लड़कियों की विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाने के विरोध में जो तर्क दिए जा रहे हैं, उनका वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं है। विरोध में उठे तथ्यहीन तर्कों की चर्चा करने से पूर्व यह आवश्यक हो जाता है कि उस तस्वीर को देखा जाए, जो 1954 के पहले की थी। विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत लड़कियों की शादी के लिए न्यूनतम आयु 14 से बढ़ाकर 18 वर्ष की गई। इसका असर यह हुआ कि 1951 में देश में प्रति हजार शिशु मृत्यु दर 116 थी, वह 2019-21 में 35 पर आ गई। यह तर्क अचंभित करता है कि 18 साल की लड़की जब वोट डालकर अपना प्रतिनिधि चुन सकती है तो जीवन साथी क्यों नहीं चुन सकती? यहां प्रश्न जीवनसाथी के चुनाव के लिए मानसिक परिपक्वता का नहीं, अपितु उस शारीरिक परिपक्वता का है, जो एक लड़की को अपने गर्भ में संतान को पालने के लिए चाहिए। गर्भावस्था, प्रसव और उसके पश्चात मां और बच्चे के स्वास्थ्य एवं पोषण के स्तर के साथ विवाह की आयु और मातृत्व के मध्य गहरा संबंध है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, गर्भावस्था और प्रसव संबंधी जटिलताओं का विश्व स्तर पर 15-19 वर्ष के मध्य की किशोर माताओं को 20-24 वर्ष की आयु की महिलाओं की तुलना में गर्भाशय का संक्रमण और उच्च रक्तचाप के कारण दौरे पड़ने के अधिक जोखिम का सामना करना पड़ता है। दूसरा तर्क यह दिया जा रहा है कि जब लड़कियों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 18 होने पर भी बाल विवाह हो रहे हैं तो इसे 21 साल करने का क्या औचित्य? इसमें दो राय नहीं कि देश के विभिन्न हिस्सों में आज भी चोरी-छिपे बाल विवाह हो रहे हैं, परंतु हमें यह विस्मृत नहीं करना चाहिए कि विवाह की न्यूनतम 18 साल की कानूनी बाध्यता ने समाज में एक भय को अवश्य स्थापित किया है। अगर 67 साल पहले विवाह की न्यूनतम आयु में चार साल की बढ़ोतरी नहीं हुई होती और उसे 14 वर्ष यथावत रखा जाता तो आज मातृ और शिशु मृत्यु दर के आंकड़े डरावने होते।

सामाजिक बदलाव के लिए यह आवश्यक है कि समयानुसार कानून में परिवर्तन किए जाएं, परंतु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि कानून निर्मित होते ही मनुष्य की मानसिक जड़ताएं यकायक परिवर्तित हो जाएं। किशोरावस्था में विवाह व्यवस्थागत समस्या से कहीं अधिक समाज में व्याप्त उस सोच की परिणति है जहां लड़कियों के जीवन का अंततोगत्वा उद्देश्य विवाह को ही माना जाता है। यह स्थिति निर्धन परिवारों से लेकर मध्यमवर्गीय परिवारों में बदस्तूर कायम है। इस सोच में परिवर्तन शनै: शनै: ही संभव है, परंतु यह कानून उन बच्चियों के लिए राहत अवश्य लेकर आएगा, जिनके अभिभावक हर स्थिति में 18 साल के होते ही उनके विवाह के लिए आतुर हो जाते हैं।

देश का एक बड़ा तबका, जो कथित रूप से स्वयं को बुद्धिजीवी और समानता का प्रवर्तक मानता है, वह भी इस प्रस्ताव का विरोध कर रहा है। यह विरोध उनके दोहरे व्यक्तित्व को उजागर कर रहा है। लड़के और लड़कियों की वैवाहिक आयु में अंतर समानता के अधिकार (संविधान के अनुच्छेद 14) की अवहेलना है। यही वर्ग महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए पुरजोर आवाज भी उठाता है, परंतु क्या यह संभव है कि 18 वर्ष में विवाह हो जाने पर कोई युवती आर्थिक स्वावलंबन की ओर से सहजता से अपने कदम उठा पाए। इंटरनेशनल सेंटर फार रिसर्च आन विमेन तथा विश्व बैंक की रिपोर्ट बताती हैं कि किशोरावस्था में विवाह के चलते आई शिक्षा में रुकावट महिलाओं के अर्थ अर्जन में औसतन नौ प्रतिशत की कमी करती है, जिसका परिवार और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। विश्व बैंक की रिपोर्ट यह भी बताती है कि अगर दुनिया की प्रत्येक लड़की 12 वर्षों तक बिना किसी रुकावट गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पाए तो विश्व की कमाई 15 ट्रिलियन डालर से 30 ट्रिलियन डालर तक बढ़ सकती है। वर्कले इकोनामिक रिव्यू में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि किशोरावस्था में विवाह किसी देश की जीडीपी को कम से कम 1.7 प्रतिशत की क्षति पहुंचाता है। साथ ही महिलाओं की कुल प्रजनन क्षमता में 17 प्रतिशत की वृद्धि करता है, जो उच्च जनसंख्या वृद्धि से जूझ रहे विकासशील देशों को नुकसान पहुंचाती है। दुनिया भर में हुए अनेक अध्ययन बताते हैं कि किशोरवय विवाह लड़कियों और युवा महिलाओं को अशक्त बनाता है। उन्हें शिक्षा, बुनियादी स्वास्थ्य, शोषण और हिंसा से मुक्त रहने सहित कई मौलिक मानव अधिकारों से वंचित करता है।

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) की एक रिपोर्ट में किशोरावस्था में विवाह को रोकने के लिए त्वरित कार्रवाई की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। इस रिपोर्ट मुताबिक, दशकों के अनुभव और अनुसंधान से स्पष्ट है कि बिल्कुल निचले स्तर पर जमीनी दृष्टिकोण के जरिये स्थायी परिवर्तन लाने में अधिक मदद मिलती है। महिलाओं को समर्थन देती कानूनी प्रणालियां इस तरह निर्मित की जानी चाहिए कि हर महिला को समान अवसर अवश्य मिले। इस दिशा में विवाह की न्यूनतम आयु में बढ़ोतरी युवतियों को शिक्षा और जीवन कौशल सिखाने के अवसर उपलब्ध कराने में मील का पत्थर साबित होगी।

Date:30-12-21

सत्ता मौन क्यों ?
कृष्ण प्रताप सिंह

धर्म संसद के नाम पर इन दिनों कुछ संतवेशधारियों द्वारा हरिद्वार से रायपुर तक घृणा फैलाने की जैसी कवायदें की जा रही हैं‚ और उन्हें लेकर सत्ताधीशों ने बुद्धिमत्तापूर्वक जैसा मौन साध रखा है‚ उसके कारणों की तहें देखनी हों तो कुछ साल पीछे जाना पड़ेगा। 2014 के लोक सभा चुनाव में खुद को ‘विकास का महानायक’ प्रचारित कर शानदार जीत हासिल करने वाले नरेन्द्र मोदी ने 2019 के लोक सभा चुनाव में खुद को फिर से ‘शक्तिशाली और गौरवान्वित हिंदू’ की छवि का बंदी बना लिया और मुसलमान व पाकिस्तान विरोध पर निर्भर करने लगे थे। इसकी बिना पर 2014 से भी ज्यादा शानदार ढंग से सत्ता में वापस आ गए तो ‘सबका साथ‚ सबका विकास’ के नारे के बावजूद साफ था कि उनकी सत्ता के अगले पांच साल कम–से–कम अल्पसंख्यकों के लिए बहुत कठिन सिद्ध होने वाले हैं।

यह आशंका पहले उनकी सरकार के ‘राजनीति के हिंदूकरण और हिंदुओं के सैन्यीकरण’ के सावरकर मार्का कदमों के रास्ते नागरिकता कानून में किए गए संशोधन में सच्ची होती दिखी‚ फिर एक क्रोनोलॉजी के तहत राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाने के इरादे में। क्या आश्चर्य कि वह आशंका कई मोड़ से गुजर कर अब उन संतवेशधारियों‚ जिनको गुमान है कि मोदी सरकार तो उनके ही आशीर्वाद से चुनकर आई है और उनका बाल भी बांका नहीं कर सकती‚ द्वारा अल्पसंख्यकों के संहार के आह्वान तक पहुंच गई है। इसमें भी चकित होने जैसा कुछ नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय से इसका संज्ञान लेने की मांगों के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी‚ खुद को सांस्कृतिक बताने वाला उनका राजनीतिक परिवार और उनकी शुभचिंतक कतारें‚ इसका संज्ञान लेने को उत्सुक नहीं हैं।

प्रधानमंत्री की चुप्पी को लेकर कुछ लोग चकित हैं। विश्वास नहीं कर पा रहे कि यह वही प्रधानमंत्री हैं‚ जिन्होंने सत्ता में आते ही ‘स्वच्छ भारत’ समेत कई अभियानों को महात्मा का बता कर आगे बढ़ाया और उनके चश्मे को ‘स्वच्छ भारत’ का प्रतीक बनाया था। एकबारगी लगा था कि सत्ता के मोह और दबाव में ही सही‚ प्रधानमंत्री‚ उनका अब परिवार और समर्थक व शुभचिंतक कतारें‚ महात्मा के प्रति पुराने दुराग्रहों को पीछे छोड़ देंगी‚ लेकिन विडम्बना देखिएः उसके समर्थक संतवेशधारी महात्मा के हत्यारे का मन्दिर बनाने और उनके पुतले पर गोली चलाने वालों को शह–समर्थन का पुराना मार्ग ‘प्रशस्त’ करते हुए उन दुराग्रहों को नये रूप में प्रकट कर रहे हैं तो एक तो उनकी ‘अभिव्यक्ति’ की आजादी को असीम कर दिया गया है‚ और दूसरे प्रधानमंत्री अपनी सरकार व परिवार के साथ उनका मूक समर्थन कर रहे हैं। यह भी याद नहीं रख पा रहे कि सर्वोच्च न्यायालय ने 2015 में 16 अप्रैल को व्यवस्था दी थी कि महात्मा गांधी को अपशब्द नहीं कहे जा सकते। कहा था कि कलात्मक स्वतंत्रता के नाम पर भी महात्मा को लक्ष्य कर कहे गए अपशब्दों को सही नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि ‘विचारों की आजादी’ और’ शब्दों की आजादी’ में अंतर है और राष्ट्रपिता का सम्मान करना देश की सामूहिक जिम्मेदारी है।

इतना ही नहीं‚ 8 मई‚ 2018 को दिल्ली की रोहिणी अदालत ने उन दिनों आम आदमी पार्टी की राजनीति कर रहे वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष के खिलाफ 2016 के आप नेता संदीप कुमार के अश्लील सीडी कांड़ में महात्मा गांधी‚ नेहरू और बाजपेयी के खिलाफ अभद्र टिप्पणियों को लेकर केस दर्ज करने का आदेश दिया था क्योंकि उसकी नजर में यह गंभीर बात थी। अब सोचिए‚ इन नजीरों के बावजूद महात्मा को गालियां देने वालों को अभय किए रखने का क्या अर्थ हैॽ क्या यही नहीं कि भले ही महात्मा के जीवन से हमारे स्वतंत्रता आंदोलन का बड़ा हिस्सा अनुप्राणित होता रहा और स्वातंत्र्योत्तर राष्ट्रीय जीवन प्रेरणा पाता रहा है‚ यह सरकार और उसके हिमायती मिलकर उनका पूरी तरह अवमूल्यन कर देना चाहते हैंॽ अन्यायी सत्ताओं के प्रतिरोध के लिए उन्होंने सत्य–अहिंसा जैसे अप्रतिम औजारों का जैसा अनूठा प्रयोग हमें सिखाया और जो अभी भी नाना प्रतिरोधों में हमारे काम आता है‚ संभवतः इस सरकार की निगाह में आउटडेटेड हो चले हैंॽ वैसे ही‚ जैसे कई लोग हमारे समय को उत्तर सत्य का युग कहकर सत्य की अप्रतिष्ठा को जायज ठहराते रहते हैं। क्या यह रवैया सिर्फ इसलिए नहीं है कि जब महात्मा ब्रिटिश साम्राज्य के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए उक्त हथियारों का प्रयोग कर रहे थे‚ इस सरकार का नेतृत्व कर रही भाजपा के पूर्वपुरुष उसी साम्राज्य का हुक्का भर रहे थे और महात्मा को अवमूल्यित किए बिना उन्हें ‘राष्ट्रनायक’ बनाना संभव नहीं हैॽ इसीलिए हिंदुत्व की पैरोकारी का दावा करते हुए भी वह और उसके लोग महात्मा जैसे सदी के सर्वश्रेष्ठ हिंदू को भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे और उनकी चरित्रहत्या पर आमादा हैंॽ

आज की तारीख में कोई नहीं कहता‚ यहां तक कि महात्मा के अनुयायी भी नहीं‚ कि वे सर्वथा अनालोच्य हैं‚ या स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान उनकी भूमिका पर उंगलियां ही नहीं उठाई जा सकतीं। उंगलियां तो उनके रहते भी उठती थीं। स्वतंत्रता आन्दोलन की क्रांतिकारी धारा तो उनकी अहिंसा की नीति की मुखर आलोचक थी ही‚ उनके कई कार्यक्रमों को लेकर वामपंथियों और अंबेडकर द्वारा की जाने वाली आलोचनाएं भी कम न थीं। लेकिन अफसोस ही जताया जा सकता है कि हत्यारे को भी मात करते हुए मन के बजाय कपड़े रंगाने वाले लोग इस तरह हमारी सभ्यता व लोकतांत्रिकता तक को चुनौती पेश कर रहे हैं‚ फिर भी एक अपवाद को छोड़कर उन पर कार्रवाई नहीं की जा रहीॽ क्योंॽ जवाब तलाशें तो सत्ताधीशों का अपराध इन कुवाचियों से भी बड़ा दिखता है क्योंकि उन्होंने संविधान के तहत चुनाव लड़ा‚ शासन चलाने की शपथ ले रखी है। इस नाते राष्ट्र के नायकों के मान की रक्षा उनका प्राथमिक कर्त्तव्य है। सत्ताधीशों को लगता है कि इस तरह वे महात्मा या उनके विचारों से हिसाब–किताब बराबर कर लेंगे तो उन्हें याद रखना चाहिए कि अतीत में खुद को महात्मा का अनुयायी कहने वाले कई महानुभाव भी ऐसे हिसाब–किताब की कोशिशें कर चुके हैं–उनके रास्ते को कठिन‚ अव्यावहारिक या अप्रासंगिक बताकर और छोड़कर। लेकिन ऐसे हर हिसाब–किताब के बाद‚एक फिल्मी गीत के शब्द उधार लेकर कहें तो यही सिद्ध हुआ है कि ‘बंदे में था दम’। दम नहीं होता तो उसके जाने के इतने दशकों बाद भी उसके निंदकों को यह हिसाब–किताब अधूरा क्यों लगता और वे उसे निपटाने की इतनी हड़बड़ी में क्यों होतेॽ

 

Date:30-12-21

प्रकृति के कमजोर मोर्चे पर आपदाओं का सिलसिला
सुनीता नारायण, ( पर्यावरणविद और महानिदेशक, सीएसई )

हमारी बेहद अनिश्चित दुनिया में एक निश्चितता यह है कि प्रकृति अब बताने लगी है, बहुत हो गया। हमें परेशान करने में कोरोना वायरस अकेला नहीं है। पिछले एक साल में, एवियन इन्फ्लुएंजा का विषाणु प्रकोप हुआ है, पक्षियों और मुरगों को मारने वाले वायरस सक्रिय हैं। अफ्रीकी स्वाइन इन्फ्लुएंजा, निपा (चमगादड़ से) और जीका (मच्छरों से) का खतरा बना हुआ है। डर यह है कि क्या इनमें से कोई या अन्य जूनोटिक वायरस कोविड-19 से अधिक घातक हो सकता है। हम नहीं जानते, लेकिन हम यह जरूर जानते हैं कि हम प्रकृति के साथ शांतिपूर्वक नहीं रह रहे हैं, विडंबना यह है कि हम यह मानने से भी इनकार करते आ रहे हैं।

वर्ष 2021 भी जलवायु बदलाव से उपजे प्रभावों का वर्ष रहा है। हर साल जब हम बीते हुए समय को याद करते हैं, तो यह साफ होता है कि चरम मौसम की घटनाएं बद से बदतर होती जा रही हैं, और ऐसा हर जगह हो रहा है। यह लिखते समय, मैं मलेशिया और बोलीविया में जल तबाही के दर्दनाक दृश्य देख रही हूं। हर आने वाला साल पिछले साल से अधिक गरम होने लगा है। हर साल उष्णकटिबंधीय चक्रवात अधिक अप्रत्याशित होते जा रहे हैं। मानव जीवन के लिए ये अधिक तीव्र और विनाशकारी होते जा रहे हैं।

भारत में मानसून भी अनिश्चित होता जा रहा है। हमें नहीं पता कि मानसून के आने पर खुशी मनानी चाहिए या रोना चाहिए। ऐसा लगता है कि एक आपदा के खत्म होते ही दूसरी शुरू हो जाती है। हम इन भयावह घटनाओं के इतने आदी हो गए हैं कि ये अब अखबारों में मुख्य पृष्ठ का विषय भी नहीं रहीं। ऐसी घटनाएं अब इतनी बार होती हैं कि लोगों के पास सामना करने का कोई तरीका नहीं है। प्राकृतिक आपदाओं का असर किसी एक फसल पर नहीं, बल्कि सभी फसलों पर पड़ने लगा है। परिवारों को आर्थिक तबाही का सामना करना पड़ रहा है। आजीविका, स्वास्थ्य और संपत्ति को नुकसान पहुंच रहा है। यह ठीक नहीं है, यह तबाही का एक चक्र है, जो नियंत्रण से बाहर होता जा रहा है। यह तो साफ है कि 2021 अच्छी खबरों वाला वर्ष नहीं था। यह हमारी खामियों या कमियों का नतीजा था। यह वह वर्ष था, जिसने हमें आईना दिखा दिया, प्रकृति के साथ काम करने की हमारी अक्षमता खुलकर सामने आ गई।

अब हमारा अगला साल बेहतर होना चाहिए। बेहतरी के लिए काम करना नए साल में हमारा संकल्प होना चाहिए। समय आ गया है कि हम कमी को कमी कहें। हम जो कर रहे हैं, उससे हम कतई आगे नहीं जाएंगे। आने वाले वर्ष में हमें प्रकृति की पुकार सुननी चाहिए। हमें बाधाओं से सीखना चाहिए, लेकिन हम कठिन बदलावों से बचते हैं। जलवायु बदलाव को ही लीजिए। नेट जीरो की जरूरत पर चर्चा करते हुए बहुत समय बर्बाद किया गया है, जबकि देशों के पास यह योजना भी नहीं है कि वे इसे कैसे प्राप्त करेंगे? सुधार की कल्पना इस आधार पर है कि ऐसी प्रौद्योगिकियां सामने आएंगी, जो उत्सर्जन को दूर कर देंगी। एक असुविधाजनक सवाल, जिसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहता है कि ये जंगल कहां उगाए जाएंगे? किसकी भूमि पर? क्या पेड़ लगाकर हम उत्सर्जन को आधा भी कम कर पाएंगे?

हम यह नहीं बोलना चाहते कि बाजार कैसे समस्या बनता जा रहा है, जबकि उसे समाधान का हिस्सा होना चाहिए और सार्वजनिक नीति के तहत काम करना चाहिए। आजकल पर्यावरण सुधार की किसी भी कार्रवाई को पटरी से उतारने का एकमात्र प्रयास है कि लोगों का ध्यान वास्तविक मुद्दों से हटा दिया जाए या किसी को दोषी ठहरा दिया जाए। बदलाव का बोझ धूल या किसानों या किसी ऐसे व्यक्ति पर चला जाता है, जो शोर नहीं मचा सकता। हम यह जानते हैं कि प्रकृति के साथ हमारे बिगड़े संबंधों के कारण जूनोटिक रोग बढ़ रहे हैं और हम इसे सिर्फ तभी ठीक कर सकते हैं, जब हम अपनी खाद्य व्यवस्था को फिर से तैयार करेंगे।

वर्ष 2022 में हमें बस यह जानने की जरूरत है कि ये हथकंडे न तो कल काम आए थे और न कल आएंगे। हमने ऐसे जवाबों को खोजने में वक्त गंवाया है, जो मौजूद ही नहीं थे। हमें धरातल पर आने की जरूरत है, नहीं तो समझ लेना चाहिए, प्रकृति हमें याद दिलाती रहेगी कि आने वाला कल बीते हुए कल से भी बुरा होगा।

(SANSAD TV ) Mudda Aapka : न्यायिक व्यवस्था भारतीयकरण जरूरी | 30 December 2021


उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस ए नजीर ने कहा कि न्यायिक व्यवस्था का भारतीयकरण करने की जरूरत है। उन्होंने ये बात हैदराबाद में आयोजित अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद की छठी राष्ट्रीय परिषद की बैठक के दौरान कही। न्यायिक व्यवस्था के भारतीयकरण की पहल से कई बदलाव हो सकते हैं जो कागजी कार्रवाई को सरल बनाएंगे, प्रक्रियाओं को स्थानीय भाषाओं में सुलभ बनाया जाएगा और प्रक्रिया अब की तुलना में कम खर्चीली होगी। देश की न्यायिक व्यवस्था का भारतीयकरण का मुद्दा क्यों जरूरी है और इससे क्या लाभ होगा इसे जानना समझना जरूरी है।

Guest:
1-Geeta Luthra, Senior Advocate, Supreme Court
2-Suresh Chandra, Former Law Secretary, GoI
3-Dr Justice Satish Chandra, Former Judge, Allahabad High Court

(29-12-2021) समाचारपत्रों-के-संपादक

 

Date:29-12-21

Step Motherly?
Is the denial of FCRA renewal for the Mother Teresa founded NGO at all justified?
TOI Editorials

This Christmas Day the Missionaries of Charity (MoC) got a painful shock, as the Union home ministry refused its application for renewal of FCRA registration. MoC’s shock is shared by many across the world who support the NGO either in kind or spirit. The specific foreign funding law is intended to check “activities detrimental to the national interest” and if one of India’s most venerable NGOs is indeed being accused of this, evidence must be provided. So far the government has only made a sketchy reference to some “adverse inputs”.

This of course comes on the heels of Amnesty International exiting the country last year as a result of its finances getting choked, and other prominent civil liberty, human rights and charitable groups facing similar straits. Last year the Foreign Contribution (Regulation) Act, 2010 was further amended, so that at a time when India needed the non-profit sector more than ever both its funding and functioning were put under fresh restraints. Yet, from food to education, oxygen to plasma, their service remains invaluable in a country where the state isn’t always there for everyone.

Set up as far back as in 1950, MoC, like Bharat Ratna Mother Teresa herself, has had plenty of critics over the years, even as its work among the sick and poor also won its vast share of admirers. A key suspicion it confronts today can be seen in the FIR filed against one of MoC’s children’s homes in Vadodara earlier this month. This followed allegations of religious conversions. This will be independently debated and litigated. But no matter how politically volatile such accusations have become, they cannot be the touchstone for funding of important services, certainly not for axing a global supply chain serving the most needy.

Even when they are not explicitly speaking truth to power, by its very nature the work of civil society organisations highlights shortfalls of the state. In the best-case scenario their critical commentary feeds a virtuous cycle, improving governance delivery to citizens. It’s not about what governments like to hear but what they need to hear. Of course, no, misuse of funding should not get a free pass. But the nature of misuse must be completely clear. “Adverse inputs” or FIRs on allegations of conversion do not really constitute activities “detrimental to national interest”. On currently known facts, MoC shouldn’t be denied FCRA renewal.

 

Date:29-12-21

Falling short
Perpetrators of violence in the name of religion must be brought to justice
Editorial

To overlook the orgy of communal hatred at a recent event in Haridwar that was labelled a Hindu religious congregation as an inconsequential derangement of a fringe group may be a convenient pretext for the inaction by the police and the silence of the ruling Bharatiya Janata Party (BJP), but the reality is scary. The passivity of the BJP is a signifier and eloquent admission of the pernicious mainstreaming of bigotry. The Uttarakhand police have betrayed a cavalier attitude in their investigation by not naming any of the ringleaders, initially, and not showing the urgency the case requires, subsequently. Speakers at the event openly called for genocide and violence. Such bigotry is not the monopoly of adherents of any particular religion, and law enforcement authorities should be eternally vigilant. The murder of two people at Sikh places of worship in Punjab in separate incidents in recent days showed how matters of religion can inflame irrational passion. In one case in Punjab, a person has been arrested and charged with murder. The shameful lynchings were followed by responses from organisations ranging from the Congress to the Rashtriya Swayamsevak Sangh, but none unequivocally condemned the violence. Most reactions appeared to justify the violence, privileging abstract religious sentiments over the fundamental right to life. The Congress chief in Punjab, Navjot Singh Sidhu, spoke for many politicians seeking to exploit religion for electoral purposes when he said those who offended the faith must be hanged publicly.

That mainstream parties are unable to take an unambiguous and universal position that violence and the call for violence, in the name of faith, are unacceptable is unsettling and bodes ill for Indian democracy. Despite sporadic bursts of communal violence, India, unlike its neighbours in South Asia, has survived and thrived as a multicultural and multi-religious nation till date. Keeping it that way requires vigilance and vision. Violence originates in thought, transmits itself through speech and manifests itself in action. Targets in the recent past have ranged from interfaith couples to carol singers to cattle traders to teachers setting question papers. New laws appear to reinforce and institutionalise prejudice and intolerance. The heavy hand of the state that falls too frequently on the critics of the Government has left the mobs that threaten national unity untouched. Those who committed murder in Punjab, those who called for mass murder from Haridwar and those who vandalised Christian institutions in different places must all be brought to justice as per the law. Political parties must rise above their narrow interests during the current election cycle and unite against hate. Later may be too late.

 

Date:29-12-21

उत्तर-दक्षिण राज्यों के गवर्नेंस में इतना फर्क क्यों है
संपादकीय

नीति-आयोग की ताजा रिपोर्ट बताती है कि 43 पैरामीटर्स के आधार पर बने समग्र-स्वास्थ्य सूचकांक में फिर सबसे ऊपर दक्षिण भारत के चार राज्य केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश हैं, जबकि सबसे नीचे उत्तर भारत के उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, और राजस्थान हैं। दोनों क्षेत्रों के ये राज्य भारत का ही अंग हैं, उसी संघीय ढांचे में 70 साल से स्व-शासन में हैं और अलग-अलग भाषा, पोशाक और खानपान के बावजूद समान व्यापक सांस्कृतिक-आध्यात्मिक विरासत में फले-फूले हैं। उत्तर भारत ने सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री दिए, देश की राजनीति में अधिक आबादी के कारण इस क्षेत्र का हमेशा दबदबा भी रहा। पर क्यों इनमें आज भी चिकित्सा और दवा के अभाव में नवजात और प्रसूति माताएं सबसे ज्यादा दम तोड़ रही हैं? इस इंडेक्स स्कोर में सबसे नीचे के राज्य यूपी (31) और सबसे ऊपर के राज्य केरल (82) के बीच लगभग तीन गुने का अंतर क्यों पिछले चार साल से है। अगर यूपी ने 2018-19 और 2019-20 के बीच छह अंक की उछाल ली भी है तो उसका कारण तुलनात्मक वर्ष के बेहद नीचे का आधार अंक है। विकास के अभाव में सात दशकों से कराह रहे उत्तर भारत के इन राज्यों में मुख्य मुद्दे ‘वो-बनाम-हम’, मंदिर, जिन्ना, गाय, लव-जेहाद और जातिवाद रहा है। सन 2018 में यूके और यूएस की दो यूनिवर्सिटीज ने दुनिया के 106 देशों की 100 वर्षों की स्थिति पर एक चौंकाने वाले अध्ययन में पाया कि पूर्ण वैचारिक-धार्मिक सहिष्णुता विकास की पूर्व शर्त है।

Date:29-12-21

वायु प्रदूषण रोकने के लिएऔद्योगिक स्तर पर सुधार जरूरी
आरती खोसला, ( निदेशक क्लाइमेट ट्रेंड्स )

सर्दियां पीक पर हैं, नतीजतन वायु प्रदूषण भी बढ़ा हुआ है। इस मौसम में ना केवल उच्च पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) का स्तर बढ़ जाता है, बल्कि यह नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी प्रदूषणकारी गैसों को भी प्रभावित करता है। भारत में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड व सल्फर डाइऑक्साइड जैसी गैसों के पीएम 2.5 में तेजी से रूपांतरण के लिए मौसम संबंधी स्थितियां बहुत अनुकूल हैं। इसलिए पीएम 2.5 को नियंत्रित करने के लिए इन गैसों का उत्सर्जन नियंत्रित करना जरूरी है। स्थानीय स्तर पर नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के संपर्क में आने से पर्यावरण व स्वास्थ्य पर कई तरह के प्रभाव पड़ते हैं।

नाइट्रोजन डाइऑक्साइड उत्तेजक गैस है, जो ज्यादा मात्रा में होने पर श्वासनली की सूजन का कारण बनती है। वहीं, नाइट्रोजन ऑक्साइड स्मॉग व एसिड रेन बनाने के लिए प्रतिक्रिया करता है। हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि राज्यों में परिवहन में जीवाश्म ईंधन की खपत के कारण, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड की वार्षिक औसत सांद्रता, सड़कों पर कमज़ोर लोगों को जैसे फेरीवाले, विक्रेता और बेघर लोगों में कोविड का जोखिम बढ़ा रही है।

नाइट्रोजन ऑक्साइड जहरीली और अत्यधिक प्रतिक्रियाशील गैसों का एक परिवार है, जो उच्च तापमान पर ईंधन जलाने पर बनती है। यह प्रदूषण ऑटोमोबाइल, ट्रक और विभिन्न गैर-सड़क वाहनों जैसे निर्माण उपकरण, नाव आदि द्वारा उत्सर्जित होता है। इसकेे औद्योगिक स्रोत अनिवार्य रूप से जीवाश्म-ईंधन आधारित बिजली संयंत्र, भस्मीकरण संयंत्र, अपशिष्ट जल उपचार सुविधाएं, कांच और सीमेंट उत्पादन सुविधाएं और तेल रिफाइनरी हैं। नाइट्रोजन ऑक्साइड न केवल दहन प्रक्रियाओं के दौरान जारी होता है, बल्कि नाइट्रिक एसिड के साथ काम करते समय भी। वातावरण में बढ़ रही नाइट्रस ऑक्साइड के पीछे कृषि का बहुत बड़ा हाथ है।

सबसे ज्यादा मुसीबत उत्तर प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली में है। नाइट्रोजन डाइऑक्साइड केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा राष्ट्रव्यापी निगरानी किए जाने वाले वायु प्रदूषकों में से एक है। राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) में सूचीबद्ध सभी 23 राज्यों में इस एनसीएपी ट्रैकर द्वारा किए गए एक विश्लेषण से पता चला है कि इन तीन राज्यों में औसत स्तर ने सुरक्षा सीमा का उल्लंघन किया है।

आईआईटी दिल्ली के सेंटर फॉर क्लीन एयर द्वारा 2021 के एक अध्ययन में दुनिया की सबसे प्रदूषित मेगासिटी, दिल्ली के नौ थर्मल पावर प्लांट से नाइट्रोजन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का विश्लेषण किया गया है। अध्ययन स्थापित करता है कि विशिष्ट स्रोतों से, जैसे थर्मल पावर प्लांट, और दिल्ली भर में और आसपास के उपग्रह शहरों में भी, जहां परिवहन अन्य महत्वपूर्ण उत्सर्जक क्षेत्र है, उत्सर्जित अकेले नाइट्रोजन डाइऑक्साइड को अलग करना आसान है।

सेंटर फॉर रिसर्च फॉर एनर्जी एंड क्लीन एयर के एक हालिया विश्लेषण में अनुमान लगाया गया है कि वातावरण में घुलने वाली खतरनाक गैस रोकने के लिए लगाए जाने वाले फ्यूल गैस डी-सल्फराइजेशन सिस्टम (एफजीडी) से युक्त बिजली संयंत्रों (महात्मा गांधी और दादरी पावर प्लांट) को 85 प्रतिशत प्लांट लोड फैक्टर पर संचालित किया जाता है, तो अकेले ये दो संयंत्र, अन्य स्रोतों और आयातों सहित, लगभग 314 मिलियन यूनिट दिन पैदा करेंगे, जिससे सर्दियों के मौसम में 300 किमी के भीतर बिजली संयंत्रों को बंद करने का मामला बनता है।

जबकि विश्लेषण सल्फर डाइऑक्साइड उत्सर्जन को नियंत्रित करने पर केंद्रित है, दिल्ली के आसपास थर्मल पावर प्लांट बंद करने का मामला नाइट्रोजन डाइऑक्साइड सहित सभी प्रदूषकों को नियंत्रित करने में मदद करेगा।

 

Date:29-12-21

मुश्किल है चीनी उत्पादों का बहिष्कार
सतीश कु. सिंह

जनवरी‚ 2021 से नवम्बर‚ 2021 के दौरान भारत और चीन के बीच कुल 8.57 लाख करोड़ रुपये का कारोबार हुआ जो अब तक उच्चतम स्तर है। पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले यह 46.4 प्रतिशत अधिक है। इस दौरान भारत ने चीन से 6.59 लाख करोड़ रुपये के विविध उत्पाद आयात किए जो पिछले साल के इसी अवधि की तुलना में 49 प्रतिशत अधिक है। हालांकि इस अवधि में चीन ने भी भारत से रिकॉर्ड आयात किया। इस दौरान‚ चीन ने कुल 1.98 लाख करोड़ रुपये के उत्पाद भारत से आयात किए जो पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 38.5 प्रतिशत अधिक है। बावजूद इसके भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा बढ़कर 4.61 लाख करोड़ हो गया‚ जो अब तक का उच्चतम स्तर है।

भारत और चीन के बीच कारोबार तब बढ़ रहा है‚ जब दोनों के बीच लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) पर तनाव बना हुआ है। लेकिन मौजूदा स्थिति दो देशों के बीच द्विपक्षीय कारोबार की महत्ता की तस्दीक करती है। आज युद्ध से ज्यादा जरूरी कारोबार हो गया है। अगर दूसरे देशों से कारोबारी रिश्ते अच्छे नहीं हों तो देश बर्बाद भी हो सकता है। इसके लिए किसी युद्ध की कदापि जरूरत नहीं है। इसलिए बदली परिस्थितियों को आश्चर्य की नजर से नहीं देखा जाना चाहिए। भारत आज भी आत्मनिर्भर नहीं है। चीन के उत्पादों का बहिष्कार करना भारत और आमजन का उठाया गया भावनात्मक कदम हो सकता है‚ लेकिन वास्तविकता में भारत के बाजारों पर चीनी उत्पादों का कब्जा है। भारत के गांव–देहात में हर ग्रामीण चीन में बने उत्पादों का इस्तेमाल कर रहा है। नाई द्वारा कटिंग के लिए इस्तेमाल की जाने वाली चादर‚ कैंची‚ उस्तरा‚ बच्चों द्वारा खेले जाने वाले खिलौने‚ दीवाली के दीये‚ देवी–देवता‚ सजावट के समान‚ मोबाइल‚ टीवी‚ लैपटॉप‚ गांव के किराने के दुकान पर अधिकांश सामान आदि चीन के बने हुए हैं। ऐसे में क्या चीन के उत्पादों का बहिष्कार हम कर सकते हैंॽ

भारत अपनी घरेलू जरूरतें पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर चीन निर्मित उत्पादों का आयात करता है। इलेक्ट्रॉनिक हार्डवेयर बाजार के मामले में भी चीन का भारत के बाजारों पर कब्जा है। किसी भी देश की निर्यात से अर्जित राशि यदि आयात में खर्च की गई राशि से अधिक होती है‚ तो उसे व्यापार मुनाफा कहा जाता है‚ वहीं‚ जब आयात में खर्च की गई राशि यदि निर्यात से अर्जित राशि से अधिक होती है‚ तो उसे व्यापार घाटा कहते हैं। चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा लगातार बढ़ा है अर्थात भारत चीन से विविध उत्पादों का आयात ज्यादा करता है‚ जबकि निर्यात कम। 2014 में भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा 3.36 लाख करोड़ रुपये था‚ तो 2021 में 4.61 करोड़ रुपये रहा। आंकड़ों से साफ हो जाता है कि चाहे हम चीन के उत्पादों का बहिष्कार करने के लाख दावे करें‚ लेकिन हकीकत में ऐसा करना हमारे लिए संभव नहीं है। हम आज भी और आगामी सालों में भी अपनी घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए चीनी उत्पादों पर निर्भर रहेंगे। इतना ही नहीं‚ आज भी हम कई उत्पादों के निर्माण के लिए चीन से कच्चे माल का आयात करते हैं‚ और हमारी यह निर्भरता आने वाले सालों में भी बनी रहेगी। वित्त वर्ष 2014–15 से वित्त वर्ष 2019–20 के दौरान के भारत और चीन के बीच हुए कारोबार के आंकड़े बताते हैं कि भारत ने चीन को कम मूल्य के कच्चे उत्पादों का ज्यादा निर्यात किया था‚ जबकि वह विनिर्माण से जुड़े उत्पादों का चीन से आयात कर रहा था। इस अवधि में भारत से चीन मुख्य रूप से लौह अयस्क‚ पेट्रोलियम आधारित ईंधन ‚ कार्बिनक रसायन‚ परिष्कृत कॉपर‚ कॉटनयार्न आदि का आयात कर रहा था। खाद्य वस्तुओं में मछली एवं समुद्री खाद्य पदार्थ‚ काली मिर्च‚ वनस्पति तेल‚ वसा आदि भी भारत‚ चीन को निर्यात कर रहा था। साथ ही‚ भारत ग्रेनाइट के ब्लॉक एवं रियल एस्टेट में इस्तेमाल किए जाने वाले स्टोन और कच्चे कपास का निर्यात भी चीन को कर रहा था।

चीन में ऑटोमोबाइल‚ मोबाइल और कंप्यूूटर के कलपुर्जों का बड़ी मात्रा में निर्माण किया जाता है। चीन से भारत आयातित उत्पादों में इलेक्ट्रॉनिक्स का 20.6 प्रतिशत‚ मशीनरी का 13.4 प्रतिशत‚ ऑर्गेनिक केमिकल्स का 8.6 प्रतिशत और प्लास्टिक उत्पादों का 2.7 प्रतिशत योगदान है‚ जबकि भारत से चीन को निर्यातित उत्पादों में ऑर्गेनिक केमिकल्स का 3.2 प्रतिशत और सूती कपड़ों का 1.8 प्रतिशत का योगदान है। भारत इले्ट्रिरकल मशीनरी‚ मैकेनिकल उपकरण‚ ऑर्गेनिक केमिकल‚ प्लास्टिक और ऑप्टिकल सÌजकल उपकरणों का सबसे अधिक आयात करता है‚ जो भारत के कुल आयात का 28 प्रतिशत है। भारत में भले ही चीन में बने सामानों के बहिष्कार की बात कही जाती है‚ लेकिन भारत के बहुत सारे उद्योग कच्चे माल एवं कलपुर्जों के लिए चीन पर निर्भर हैं। भारत भी कई तैयार उत्पादों के लिए चीन पर निर्भर है। ऐसे में हमें चाइनीज उत्पादों का बहिष्कार करने का ढकोसला करने की जगह ‘मेड इन इंडिया’ सामानों की संख्या को बढ़ाने पर जोर देना चाहिए।