28-12-2021 समाचारपत्रों-के-संपादक

Date:28-12-21

नयी चेतना का आह्वान
डॉ० विजय अग्रवाल, ( अध्यात्म व प्रेरक विषयों के लेखक )

31 दिसम्‍बर की दहलीज पर खड़े होकर जब आप पीछे देखेंगे, तो ‘कल’ और जब अपने आगे की ओर देखेंगे, तब भी आप कहेंगे- ‘कल’। अंग्रेजी में जो यसटरडे और टूमॉरो है, उनके लिये हिन्‍दी में एक ही शब्‍द है-‘कल’। तो क्‍या इसके पीछे हमारे दार्शनिकों की कोई सोची-समझी अवधारणा रही है? गहराई से सोचने पर लगता है कि ऐसा करके भारतीय चिन्‍तन ने समय के एक अविछिन्‍न प्रवाह के सिद्धांत को स्‍थापित किया है। इसके लिये अतीत और भविष्‍य; दोनों एक ही हैं और वर्तमान है – इन दोनों को जोड़ने वाला एक सेतु।

अब, जबकि हम कुछ ही दिनों बाद अचानक एक साल की छलांग लगाकर नये वर्ष में प्रवेश करने जा रहे हैं, आइये, थोड़ी गहराई से इस पर कुछ विचार करते हैं।

भारतीय चिन्‍तन की परम्‍परा ‘चरैवेति-चरैवेति’, चलते रहो, चलते रहो की रही है। यदि हम भौतिकशास्‍त्र की दृष्टि से समय के व्‍यावहारिक पक्ष को महसूस करना चाहें, तो यह हमें गति का आभास कराता है। गति यानी कि अनवरत प्रवाह, जिसे हम समय में उसी तरह से देखते हैं, जैसे कि नदी के उद्गम से लेकर किसी अन्‍य में विलीन हो जाने की उसकी सम्‍पूर्ण यात्रा को। यह यात्रा एक ही होती है, यात्रा में बहने वाला जल भी एक ही होता है, लेकिन उसके स्‍थान एक नहीं होते।

समय के साथ भी ठीक यही है। दरअसल, चाहे वह 2021 का 31 दिसम्‍बर हो या 2022 की पहली जनवरी, फर्क केवल आकड़ों का ही है। अन्‍यथा हैं ये दोनों एक ही, जिसे हमारे मनीषियों ने ‘कल’ के माध्‍यम से अभिव्‍यक्‍त किया है। यह ‘कल’ मुख्‍यत: ‘काल’ से बना है, जो समय का द्योतक है। जो भी इस काल के प्रभाव से परे हो जाता है, उसे ‘महाकाल’ (भगवान शिव) कहा गया। इसी से जुड़ा शब्‍द है- ‘सत् श्री अकाल’। वाह! क्‍या बात है। समय के बारे में कितनी सुन्‍दर, गजब की और गहरी अवधारणा है यह।

कृषि प्रधान देश होने के नाते भारत के अधिकांश उत्‍सव एवं पर्व कृषि तथा प्रकृति की अनुकूलता के समानान्‍तर चलते हैं। इसलिये इस विशाल उपमहाद्वीप के अलग-अलग खंडों के समुदाय नव-वर्ष को अपनी-अपनी अनुकूलता के अनुसार मनाते हैं।

भारतीय दर्शनशास्‍त्र में वसंत जैसे उत्सवों का तो उल्‍लेख है, लेकिन नववर्ष का नहीं। फिर भी इस दृष्टि से हम भगवान कृष्‍ण द्वारा गीता के 10वें अध्‍याय के 35वें श्‍लोक को याद कर सकते हैं। इसमें उन्‍होंने कहा है ‘मांसानां मार्गशीर्षोअहमृतुनां कुसुमाकर:’ अर्थात महीनों मैं में अगहन (नवम्‍बर-दिसम्‍बर) एवं ऋतुओं में पुष्‍पों के खिलने की ऋतु वसंत हूँ। इसमें अगहन खरीफ की फसल के खलिहान में आने का अवसर है। और वसंत ऋतु की तो बात ही क्‍या है, जिसका डंका पूरी दुनिया में बजता है। यदि हम चाहें तो इसमें नववर्ष मनाने के ठोस कारण ढूंढ सकते हैं। निश्चित रूप से यह नये वर्ष का पहला दिन कहीं न कहीं मन को उत्‍साह और संकल्‍प लेने के उछाह से तो भरता ही है। ऐसा करना निश्चित तौर पर अपने जीवन को बेहतर बनाने की दिशा में उठाया गया एक बेहतरीन कदम होता है, जो उठाया ही जाना चाहिये। आइये, थोड़ी सी बात उन कदमों के बारे में करते हैं, जिनमे हमारे जीवन में मूलभूत सकारात्‍मक परिवर्तन लाने की जबर्दस्‍त और निर्णायक ऊर्जा होती है।

हमारा जीवन निरन्‍तर कर्म एवं अनुभवों के विभिन्‍न पड़ावों से गुजरता रहता है। यहाँ सवाल यह है कि वह कौन-सी धूरी है, जो इन दोनों के स्‍वरूप का निर्धारण करती है और उनका नियंत्रण भी। वह धूरी होती है- हमारी अपनी-अपनी चेतना। यह कोई नई बात नहीं है। वृहदारण्‍यक उपनिषद् के उस अत्‍यंत लोकप्रिय एवं ज्ञात प्रार्थना से आप परिचित ही हैं, जिसे भारतीय चेतना सदियों से दोहराती आ रही है। यह प्रार्थना है – असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्‍योतिर्गमय’। इसके ‘गमय’ शब्‍द पर ध्‍यान दीजिये। गमन करना। चलते रहना। चलने की यह दिशा कौन-सी है? असत्‍य से सत्‍य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, जिसे हम अज्ञानता से ज्ञान की ओर कहते हैं।

वस्‍तुत: जब हम सत्‍य की तलाश करने के लिये अज्ञानता से ज्ञान की यात्रा करते हैं, तो इससे अपने-आप ही प्राचीन नवीन का रूप धारण कर लेता है। पिछला नष्‍ट तो नहीं होता, लेकिन वह नवीनता में परिवर्तित अवश्य हो जाता है। यहाँ यह कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय चेतना ने अपने विकास के लिये इस सूत्र को अपनाया, जिसके कारण उसके विचार और परम्‍परायें सनातन हो सके। और इसी सनातनता पर भारतीयों का स्‍वाभिमान स्थिर रह सका। साथ ही यह भी कि जब कोई राष्‍ट्र या समुदाय समय के अनुरूप अपनी चेतना को नित नूतन रूप ग्रहण करने का अवसर देता है, तो उसके स्‍वावलंबन की संभावनाएं उतनी ही मजबूत होती जाती हैं। वह पिछड़ता नहीं है, बल्कि समय की जरूरत के अनुकूल नये को गढ़कर अपने पैरों पर पहले की तुलना में और अधिक मजबूती से खड़ा हो जाता है।

जो बात एक राष्‍ट्र और एक समुदाय के लिए सत्‍य है, वही बात एक व्‍यक्ति के लिये भी उतनी ही सत्‍य है। इस दृष्टि से यहाँ कवि महाप्राण निराला की मां वीणावादिनी से की गई प्रार्थना के उन शब्‍दों को याद करना उपयुक्‍त होगा, जिसके कुल 29 शब्‍दों में वे 9 बार ‘नव’ शब्‍द का प्रयोग करते हैं। प्रार्थना है – ‘वर दे वीणावादिनी वर दे।’ इसमें निराला जी अपनी गति, लय, ताल, छंद से लेकर नभ तक में नवीनता के लिये प्रार्थना करते हुये पूरे विश्‍व में नये स्‍वरों की मांग करते हैं। यह नया स्‍वर मूलत: चेतना की नवीनता ही है।

अब हम सभी सन् 2021 के भयावह और क्रूर दौर से गुजरकर उसकी टीस को लिये हुये नये वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। इस नये वर्ष की अपनी चुनौतियां होंगी। आइंस्‍टीन ने कहा था कि ‘मनुष्‍य की सबसे बड़ी विडम्‍बना यह है कि उसके सामने समस्याएं नई हैं, किन्‍तु वह पुरानी चेतना के द्वारा उन्हें हल करने की कोशिश करता है। ऐसा कभी नहीं हो सकता।’ जाहिर है कि भविष्‍य उन्‍हीं के कदमों को चूमेगा, जो निरन्‍तर अपने अन्‍दर नई चेतना का आव्‍हान कर अपने को नया रूप देता रहेगा। यही चेतना हमारी दृष्टि को बदलेगी और जैसे ही दृष्टि बदलती है, वैसे ही दृश्‍य भी बदल जाते हैं। हालांकि वे होते तो पहले जैसे ही हैं, लेकिन हमारा उन्हें देखने का कोण बदल जाता है। यदि हम थोड़ा भी ऐसा करेंगे, तो इसके प्रभाव बहुत व्यापक होंगे।

Date:28-12-21

आर्थिक चुनौतियों का मुकाबला
डा. भरत झुनझुनवाला, ( लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं )

वर्ष 2021 के अंत में देश की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ दिख रही है। जीएसटी की वसूली बढ़ी हुई है। शेयर बाजार उछल रहा है। रुपये का मूल्य स्थिर है। तमाम वैश्विक आकलन के अनुसार भारत विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तीव्र आर्थिक विकास हासिल करने वाली अर्थव्यवस्था बन चुका है, लेकिन साथ-साथ इसके सामने नई चुनौतियां भी उभर कर सामने आ रही हैं। जनता द्वारा कुल खपत अभी भी कोविड पूर्व के स्तर पर नहीं पहुंची है। ग्रामीण बेरोजगारी बढ़ रही है। वेतन की दरें गिर रही हैं। असमानता में वृद्धि हो रही है। प्रधानमंत्री ने स्वयं रोजगार को प्रमुख चुनौती बताया है। तीव्र विकास और घटते रोजगार के विरोधाभास की जड़ें हमारे आर्थिक विकास के माडल में हैं। नीति आयोग द्वारा 2018 में रोजगार के संबंध में दो उद्देश्य सामने रखे गए थे। पहला, श्रम प्रधान उत्पादन को बढ़ावा दिया जाए। दूसरा, औपचारिक रोजगार को बढ़ाया जाए। इन दोनों उद्देश्यों में परस्पर अंतरविरोध है। जब हम रिक्शा चालक अथवा रेहड़ीवाले को औपचारिक रोजगार में ले जाते हैं तो उनके माल की लगत बढ़ती है। जैसे यदि हम नुक्कड़ पर चना भूजने वाले का पंजीकरण करके उसे फूड प्रोडक्ट आर्डर के अंतर्गत पंजीकृत चना बेचने को प्रेरित करते हैं तो उसे अच्छी क्वालिटी का लिफाफा लगाना होगा, दुकान का किराया देना होगा होगा। इससे उसके चने की लागत बढ़ेगी।

यदि छोटे उद्योग अपने कर्मियों का औपचारीकरण करते हैं तो उन पर न्यूनतम वेतन कानून लागू हो जाता है। श्रमिक का वेतन बढ़ता है तो उत्पादन लागत में वृद्धि होती है। अत: यदि हम औपचारिक रोजगार को बढ़ावा देंगे तो रोजगार समाप्त होंगे। रोजगार में वृद्धि हासिल करने के लिए उन्हें अनौपचारिक रखना ही जरूरी है। तब उनकी जीविका न्यून स्तर पर ही सही, परंतु चलती रहेगी। जैसे मान लीजिए नुक्कड़ पर मोमो बेचने वाले पांच ठेले वालों का औपचारीकरण करके इन्हें एक दुकान में ला दिया गया, जहां आटोमेटिक मशीन से मोमो बनाए जाते हैं। अब पांच के स्थान पर केवल दो रोजगार उत्पन्न होंगे। इन दो को वेतन अच्छे मिल सकते हैं, परंतु संख्या तो कम होगी ही। जो शेष तीन कर्मी बेरोजगार हो जाएंगे उनकी आय कम होगी ही। वे दूसरे स्थानों पर कम वेतन में अपना जीविकोपार्जन करने को मजबूर होंगे। इसलिए हम देख रहे हैं कि एक साथ शेयर बाजार बढ़ रहा है और बेरोजगारी भी बढ़ रही है। इसलिए हम औपचारीकरण का मोह छोड़ें और रोजगार की संख्या में वृद्धि हासिल करें। औपचारिक मृत्यु की तुलना में अनौपचारिक जीवन ही अच्छा है। नीति आयोग को यह बात समझाई जाए।

दूसरी चुनौती महंगाई की है। वर्तमान में ग्लोबल वार्मिंग के कारण तमाम प्राकृतिक परिवर्तन हो रहे हैं। कहीं सूखा तो कहीं अति वर्षा की मार पड़ रही है। इससे कई कृषि उत्पाद खराब हो रहे हैं। फलस्वरूप उत्पादन प्रभावित होने से महंगाई बढ़ी है। यहां भी आर्थिक विकास का माडल दोषी है। वर्तमान माडल में हमारा प्रयास रहता है कि हम सस्ता उत्पादन करें। जैसे थर्मल बिजली संयंत्रों को वायु प्रदूषित करने के मानकों में सरकार ने ढील दी है। उनके द्वारा आज सस्ती बिजली बनाई जा रही है। संपूर्ण उद्योगों में उत्पादन लागत कम आ रही है। बिजली संयंत्रों को वायु प्रदूषित करने की छूट न देते तो बिजली महंगी होती और उद्योगों में उत्पादन लागत ज्यादा आती। लिहाजा महंगाई बढ़ती, लेकिन उसी वायु प्रदूषण के कारण जलवायु में परिवर्तन आया है। सूखे तथा बाढ़ जैसी समस्याएं पैदा हुई हैं और टमाटर आदि के दाम बढ़ रहे हैं। इसलिए आर्थिक विकास के साथ महंगाई बढ़ रही है और आम आदमी मुश्किल में है। कारण यह है कि वर्तमान माडल में हम केवल सीधे लाभ को देखते हैं।

हाल में महाराष्ट्र के एक मंत्री ने कहा कि पर्यावरणीय आपदाओं के कारण जनता की क्षतिपूर्ति करने में सरकार को भारी व्यय करने पड़ रहे हैं। कहने का आशय यह है कि जब हम थर्मल संयंत्रों को प्रदूषण करने की छूट देकर सस्ती बिजली बनाकर आर्थिक विकास हासिल करते हैं तो उसी छूट के कारण प्राकृतिक आपदाएं आती हैं और हमें उसका मूल्य अदा करना पड़ता है, लेकिन अर्थशास्त्रियों द्वारा केवल सस्ती बिजली के लाभ को देखा जाता है और पर्यावरण के कारण जो अप्रत्यक्ष हानि होती है, उसे नजरंदाज किया जाता है। परिणामस्वरूप सस्ती बिजली के बावजूद आर्थिक विकास की दर पिछले सात वर्षों में लगातार घट रही है। कृषि उत्पादन में अनिश्चितता और महंगाई बढ़ रही है। 2022 की चुनौती है कि पर्यावरण रक्षा के उन उपायों को लागू किया जाए, जिनसे आर्थिक विकास की हानि कम और कृषि उत्पादन की हानि शून्य हो जाए। तब हम आर्थिक विकास के साथ-साथ महंगाई पर नियंत्रण कर सकेंगे और किसानों की आय में भी सुधार हासिल कर सकते हैं।

तीसरी चुनौती वैश्विक पूंजी के पलायन की है। वर्तमान में अपने देश के साथ-साथ अमेरिका में भी महंगाई दर बढ़ रही है। बीते समय में अपने रिजर्व बैंक की तर्ज पर अमेरिका के फेडरल रिजर्व बोर्ड ने भी मुद्रा की तरलता बनाए रखी है, जिसके कारण दोनों देशों में महंगाई बढ़ रही है। पर्यावरण के बाद महंगाई बढ़ने का यह दूसरा कारण है। अमेरिका में महंगाई पर नियंत्रण पाने के लिए फेडरल रिजर्व द्वारा तरल मुद्रा नीति को वापस लेने के संकेत मिल रहे हैं। यदि फेडरल रिजर्व ने मुद्रा का प्रचलन कम किया तो अमेरिका में ब्याज दरों में वृद्धि होगी। इन ऊंचे ब्याज के लालच में भारत समेत अन्य विकासशील देशों से पूंजी का पलायन अमेरिका को हो सकता है। हम अमेरिका में ब्याज दरों की वृद्धि को नहीं रोक सकते, लेकिन अपने देश में निवेश को और आकर्षक बना सकते हैं, जिससे अमेरिका के ऊंचे ब्याज के लालच में हमारी पूंजी पलायन न करे। 2022 की चुनौती यह भी है कि देश अपने को विदेशी पूंजी के लिए आकर्षक बनाए रखे, जिससे पूंजी का पलायन न हो। यदि समय रहते हम इन चुनौतियों का सामना करने की रणनीति नहीं बनाएंगे तो जीएसटी की वसूली, शेयर बाजार में उछाल और सबसे तीव्र आर्थिक विकास के बावजूद हम पीछे रह जाएंगे।

 

Date:28-12-21

अफस्पा और सवाल
संपादकीय

नगालैंड से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) हटाया जाए या नहीं, इस पर विचार पांच सदस्यों की समिति करेगी। समिति पैंतालीस दिन के भीतर रिपोर्ट देगी। नगालैंड के मोन जिले में इस महीने के शुरू में सेना के हाथों चौदह निर्दोष नागरिकों की हत्या और इसके प्रतिकार में भड़की हिंसा ने एक बार फिर इस कानून की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। साथ ही सशस्त्र बलों की भूमिका भी घेरे में है। अफस्पा हटाने की मांग को लेकर राज्य में हिंसक प्रदर्शन हुए। हालात की गंभीरता को देखते हुए पिछले हफ्ते नगालैंड विधानसभा ने भी अफस्पा हटाने का प्रस्ताव पास करके केंद्र को भेज दिया था। हाल की घटना के बाद नगालैंड में जिस तरह की अशांति पैदा हुई, उससे केंद्र भी सकते में है। केंद्र की मुश्किल यह है कि नगालैंड में भाजपा की सहयोगी नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी की सरकार है। राज्य से अफस्पा हटाने के प्रस्ताव का भाजपा विधायकों ने भी पुरजोर समर्थन किया है। ऐसे में केंद्र के पास इस अतिसंवेदनशील मुद्दे को तत्काल किसी समिति के हवाले करने के अलावा और चारा था भी नहीं।

इस हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता कि अफस्पा का इस्तेमाल एक दमनकारी कानून के रूप में ज्यादा हुआ है। इस कानून के तहत सशस्त्र बलों को बेलगाम शक्तियां दे दी गईं। इसीलिए बेजा इस्तेमाल तो बढ़ना ही था। इस विशेष कानून को बनाने के पीछे मूल भावना तो यह थी कि अशांत क्षेत्रों में उग्रवादी गतिविधियों से निपटने के लिए इसका सहारा लिया जाएगा। इसीलिए सशस्त्र बलों को खुल कर सारे अधिकार दिए गए। अफस्पा के तहत सशस्त्र बलों को बिना अनुमति किसी भी घर की तलाशी लेने, किसी को गिरफ्तार कर लेने और यहां तक कि कानून तोड़ने वाले व्यक्ति पर गोली चला देने जैसे अधिकार हासिल हैं। अगर सशस्त्र बलों की कार्रवाई के विरोध में लोग हिंसा करते हैं और उस सूरत में सशस्त्र बलों की गोली से लोग मारे जाते हैं तब भी गोली चलाने वालेबलों के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई की इजाजत यह कानून नहीं देता। इसीलिए अक्सर ऐसी घटनाएं सामने आती रही हैं जब निर्दोष नागरिक सशस्त्र बलों की ज्यादती का शिकार होते रहे हैं। याद किया जाना चाहिए कि मणिपुर में वर्ष 2000 में असम राइफल्स के जवानों ने दस निर्दोष लोगों को मार डाला था। उसके बाद मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला ने इस कानून को खत्म करने की मांग को लेकर सोलह साल तक अनशन किया।

देश की आतंरिक और बाहरी सुरक्षा की जिम्मेदारी केंद्र और राज्य सरकारों की है। इसे सुनिश्चित करने के लिए ही अफस्पा जैसा कठोर कानून जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में लागू किया गया। पूर्वोत्तर के राज्य भी उग्रवाद के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। पड़ोसी देशों से उग्रवादी संगठनों को मदद, हथियारों और मादक पदार्थों की तस्करी यहां के लिए बड़ा संकट है। लेकिन इस आंतरिक सुरक्षा की आड़ में सशस्त्र बल स्थानीय नागरिकों का जिस तरह से दमन करते रहे हैं, उससे इन राज्यों के लोगों में इन बलों के प्रति नफरत और आक्रोश भर गया है। अगर आजादी के सात दशक बाद भी पूर्वोत्तर के राज्यों में हालात इतने खराब हैं कि वहां बिना अफस्पा के काम नहीं चल पा रहा, तो इसके लिए दोषी हमारी नीतियां ही हैं। अगर सरकारें बार-बार अफस्पा की अवधि बढ़ाती हैं तो इसका मतलब क्या यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि वे अक्षम हैं और इसीलिए सशस्त्र बलों के दमन से ही सत्ता चलाना पसंद करती हैं? बदलते वक्त के साथ अफस्पा में भी बदलाव वक्त की मांग है।

 

Date:28-12-21

जोड़ के मायने
अवधेश कुमार

मतदाता पहचान पत्र को आधार कार्ड से लिंक करना अब कानून का रूप ले चुका है। यह जिस तरह विवाद और राजनीतिक बहस का मुद्दा बन गया है उससे साफ है कि लंबे समय तक इस पर बहस होती रहेगी। हमारे देश में आधार कार्ड या ऐसे सभी पहचान पत्रों से संबंधित कारणों को लेकर विवाद हमेशा से रहे हैं। जो पार्टी विपक्ष में होती है वह प्रश्न उठाती है और सत्तारूढ़ पार्टी सही ठहराती है।

जब चुनाव आयोग ने मतदाता पहचान पत्र का प्रस्ताव सामने लाया तो अनेक राजनीतिक दल ही नहीं मजहबी आधार पर भी उसका विरोध हुआ। पैन कार्ड आरंभ करने का भी विरोध हुआ। आधार कार्ड को लेकर तो इसके आरंभ से अभी तक लगातार विवाद बना हुआ है। नीचे से ऊपर तक के न्यायालयों में कई मामले गए। इससे संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसले आ चुके हैं। इन सब विवादों और विरोधों के बावजूद देश के ज्यादातर लोगों ने ये सारे पहचान पत्र बनवा लिये हैं और जिनके पास नहीं है वो इसकी कोशिश कर रहे हैं। इसका अर्थ यही है कि भले राजनीति और एक्टिविज्म के स्तर पर आशंकाओं और विरोध किए जाएं देश का बहुमत पर इसका असर न के बराबर है। यही इस मामले में भी होगा। इस समय भी करीब 20 करोड़ के आसपास ऐसे मतदाता हैं, जिनका मतदाता पहचान पत्र आधार कार्ड से जुड़ चुका है।

अगर आदर्श सिद्धांतों की बात करें तो किसी भी व्यवस्था में समाज के आम आदमी के लिए हमेशा सरलता, सुगमता और सहजता की स्थिति होनी चाहिए। जितना हम पहचान पत्रों के लिए कार्ड बनाते हैं, आम आदमी की समस्याएं उतनी बढ़ती हैं। दुर्भाग्य से इन ज्यादातर कार्ड में अंग्रेजी नाम को प्रमुखता दी जाती है। इस कारण अनेक भारतीय नाम बिगड़ जाते हैं। एक ही व्यक्ति के अलग-अलग पहचान पत्रों में नाम के स्पेलिंग में अंतर हो जाते हैं और इस कारण उसे भारी परेशानियां उठानी पड़ती हैं। इस मूल विषय को छोड़ कर हम अगर आधार कार्ड और मतदाता पहचान पत्र पर लौटे तो सारे विवादों का पहला निष्कर्ष यही होगा कि ज्यादातर मुद्दे राजनीतिक तौर पर और विरोध के लिए विरोध करने की मानसिकता से उठाए जा रहे हैं। हर प्रकार के कार्ड का दुरुपयोग उसको मांगने वाली एजेंसियों द्वारा किए जाने की संभावना रहती है और रहेगी, लेकिन यह न भूलें कि भारत में मतदाता पहचान पत्रों की सुरक्षा का चुनाव आयोग का वादा अभी तक संतोषजनक रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में पिछली बार मतदाताओं के पहचान पत्रों के व्यापक गड़बड़ी की शिकायत हुई। यहां तक आरोप लगा कि किसी दूसरे देश ने सारे डेटा लेकर चुनाव में हस्तक्षेप किया। चुनाव आयोग यह वचन दे रहा है कि आधार कार्ड से पहचान पत्र को लिंक करने के बावजूद सभी व्यक्तियों की पूरी जानकारी सुरक्षित रहेगी तो इस पर विश्वास किया जाना चाहिए। हां, इस पर नजर रखने की आवश्यकता अवश्य है। सरकार ने विपक्ष के साथ विचार-विमर्श नहीं किया या वह इस पर बहस नहीं होने देना चाहती इस विषय पर दो राय हो सकते हैं।

इस संदर्भ में भी यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि आज से तीन दशक पहले तत्कालीन कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अध्यक्षता में चुनाव सुधार संबंधी एक समिति बनी। तब से अभी तक स्वयं चुनाव आयोग चुनाव सुधारों को लेकर न जाने कितने प्रस्ताव दे चुका है। वह सरकार सहित सभी राजनीतिक दलों की अनेक बैठकर बुला चुका है। इन बैठकों में मतदाता पहचान पत्र को आधार कार्ड से जोड़े जाने का प्रस्ताव भी शामिल रहा है। 2012 में जब इसका प्रस्ताव आया तब से 9 वर्ष बीत चुके हैं। कोई कहे कि इस पर विचार-विमर्श बहस नहीं हुआ तो यह उसकी मान्यता होगी चुनाव आयोग और चुनाव सुधार संबंधी प्रस्तावों पर दृष्टि रखने वालों के लिए इस तर्क में कोई दम नहीं है। संसद में स्थाई समिति के पास किसी विषय को भेजना वैधानिक रूप से मान्य हो सकता है पर कुछ ऐसे मामले हैं जिन पर तत्काल निर्णय किया जाना चाहिए। मूल बात यह नहीं है कि इस पर बहस हुई या नहीं हुई, महत्त्वपूर्ण यह है कि इसकी आवश्यकता थी या नहीं। मार्च, 2015 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एचएस ब्रह्मा ने राष्ट्रीय मतदाता सूची शुद्धिकरण और प्रमाणीकरण कार्यक्रम ‘एनईआरपीएपी’ नामक एक कार्यक्रम शुरू किया था। इसका एक लक्ष्य आधार और मतदान पहचान पत्र को लिंक करना भी था।

उसी समय एक जनहित याचिका पर शीर्ष न्यायालय ने अंतरिम आदेश पारित किया था। इसमें कहा था कि आधार का इस्तेमाल राज्य द्वारा खाद्यान्न और रसोई बनाने के ईधन के वितरण की सुविधा प्रदान करने के अलावा किसी और उद्देश्य नहीं किया जा सकता है। इस समय भी उस फैसले को उद्धृत करके कहा जा रहा है कि वर्तमान कदम उसके विरुद्ध है। यह तर्क दिया जा सकता है, लेकिन ध्यान रखिए कि तब न्यायालय के सामने मतदाता पहचान पत्र के साथ इसे लिंक करने का मामला सामने नहीं आया था। चुनाव आयोग ने इसके पक्ष में जो तर्क दिए हैं, उसके अनुसार इससे मतदाताओं की पहचान सत्यापित होगी और फर्जी मतदान रोका जा सकेगा।

राजनीतिक पार्टयिां ही मतदाता सूचियों में गड़बड़ी का प्रश्न उठाते रही हैं। उसे रोकने के कई तरीके हो सकते हैं, जिसमें वर्तमान ढांचे में आधार कार्ड से उसको लिंक करना शायद सर्वाधिक सुरक्षित रास्ता है। दूसरे, इससे चुनाव प्रक्रिया आसान होगी और भविष्य में इलेक्ट्रॉनिक और इंटरनेट आधारित मतदान प्रक्रिया लागू करने में सहायता मिलेगी। तीसरे, प्रवासी मतदाताओं को मतदान करने का अवसर मिलेगा और प्रॉक्सी मतदान को आसान बनाने के लिए मतदान का सत्यापन करना आसान हो जाएगा। निजता से जुड़े प्रश्न आधार कार्ड के साथ हमेशा जुड़े रहे हैं। हालांकि इसकी सच्चाई यही है कि देश के ज्यादातर लोग मोबाइल का सिम लेने में भी बिना किसी संकोच के आधार कार्ड दे देते हैं। देश में इसका आंकड़ा निकाला जाए तो भारत में ज्यादातर मोबाइल प्रयोग करने वालों ने अपना आधार कार्ड कंपनी को दिया हुआ है। बहुत सारे लोगों का तर्क होता है कि मेरा डाटा या मेरी जानकारी किसी के पास पहुंची ही जाए तो उससे समस्या क्या है? निजता की रक्षा का तर्क देने वाले लोग भारत के आम व्यक्ति को ही इसकी जरूरत ठीक से समझा नहीं सके।

 

Date:28-12-21

पैमाने पर चिकित्सा
संपादकीय

स्वास्थ्य सेवाओं के मोर्चे पर सुधार के लिए अभी युद्धस्तर पर प्रयास की जरूरत है। विशेष रूप से कोरोना महामारी के समय हमने स्वास्थ्य सेवाओं को घुटने टेकते देखा है। अत: नीति आयोग द्वारा सोमवार को जारी चौथे स्वास्थ्य सूचकांक की प्रासंगिकता बढ़ गई है। सूचकांक के अनुसार, स्वास्थ्य सेवा देने के मोर्चे पर केरल सबसे आगे है। देश के 19 बड़े सूबों में केरल की विकासशीलता सबके लिए प्रेरणादायी है। कोरोना महामारी को ही अगर हम लें, तो जांच से लेकर इलाज तक यह राज्य सबसे आगे रहा है, इसलिए वहां महामारी के भयंकर प्रकोप के बावजूद स्थितियां बेकाबू नहीं हुई हैं। वैसे इस स्वास्थ्य सूचकांक का संदर्भ वर्ष 2019-20 है और देश की चिकित्सा व्यवस्था का असली परीक्षण वर्ष 2020-21 और उसके बाद हुआ है। जब पांचवां स्वास्थ्य सूचकांक जारी होगा, तो स्थिति और भी स्पष्ट होकर सामने आएगी।

स्वास्थ्य सूचकांक राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों को मजबूत स्वास्थ्य प्रणाली विकसित करने, स्वास्थ्य परिणामों पर प्रगति की निगरानी करने, स्वस्थ प्रतिस्पद्र्धा बनाने और परस्पर एक-दूसरे से सीखने को प्रोत्साहित करने की दिशा में एक कारगर कदम है। तमिलनाडु व तेलंगाना स्वास्थ्य मानकों पर क्रमश: दूसरे और तीसरे सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले राज्य के रूप में उभरे हैं। विश्व बैंक की तकनीकी सहायता से स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के सहयोग से तैयार इस रिपोर्ट में छोटे राज्यों या केंद्रशासित प्रदेशों के मोर्चे पर अगर देखें, तो मिजोरम सबसे बेहतर है, पर यहां दिल्ली का पिछड़ना विशेष रूप से चिंतनीय है। ऐसे किसी भी सूचकांक में राष्ट्रीय राजधानी को सबसे ऊपर और सबसे बेहतर होना ही चाहिए। अगर ऐसा नहीं है, तो तमाम जिम्मेदार लोगों को चिंतित अवश्य होना चाहिए। अफसोस की बात है कि बेहतरी के पैमानों पर दिल्ली पिछड़ रही है। सबसे ज्यादा भीड़, सबसे ज्यादा प्रदूषण, गरीबों की दृष्टि से सबसे ज्यादा अभाव दिल्ली में क्यों है? लॉकडाउन व पलायन के समय भी दिल्ली ने गरीबों को निराश ही किया था।

बहरहाल, केरल को सर्वोच्च स्थान पर देखकर ज्यादातर लोगों को आश्चर्य नहीं होगा, लेकिन क्या उत्तर प्रदेश बड़े राज्यों में वाकई सबसे पीछे है? क्या उत्तर प्रदेश इस मामले में बिहार और झारखंड से भी पीछे है? राष्ट्रीय राजधानी के बगल में स्थित उत्तर प्रदेश में स्थितियां बेहतर होनी चाहिए। चिकित्सा का ढांचा अचानक से नहीं सुधरता है। केरल ने इसके लिए सिलसिलेवार काम किए हैं, तमिलनाडु में लोग आगे बढ़कर स्वास्थ्य सेवाएं मांगते हैं, डॉक्टर व अस्पताल मांगते हैं, लेकिन स्वास्थ्य सूचकांक में जो प्रदेश पिछड़ गए हैं, क्या वहां के लोग भी आगे आकर यथोचित सेवाओं की मांग करते हैं? क्या उत्तर भारत के राज्यों में स्वास्थ्य सुधार या चिकित्सा विकास को चुनावी मुद्दा माना जाता है? स्वास्थ्य सूचकांक में सबसे ऊपर स्थित केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र से अन्य तमाम राज्यों को सीखना चाहिए? जो राज्य आज चिकित्सा सेवाओं में बेहतर स्थिति में हैं, वहां दूसरी लहर के समय भी हाहाकार नहीं मचा था। लोगों को जांच या इलाज के लिए ज्यादा भागना नहीं पड़ रहा था। हमें लक्ष्य निर्धारित करते हुए चलना होगा, ताकि आने वाले वर्षों में तुलनात्मक रूप से पिछड़े प्रदेशों में भी केरल जैसी सुविधाएं हासिल हों।

 

Date:28-12-21

Mobs, Faith & Us
Why aren’t netas taking on Dharm Sansad’s rhetoric & mob actions around the country?
TOI Editorials

Around 10 days have passed since a so-called religious enclave in Haridwar challenged constitutionally guaranteed religious freedoms as well the rule of law. But, in a country where UAPA is applied by cops for the most trivial actions and critical posts on political leaders can lead to arrest, neither has the Uttarakhand police deemed such outrageous statements fit for arrest, and nor has governing BJP responded. Even Congress’s Nehru-Gandhis have made anodyne statements.

The Dharm Sansad saw participants taking an oath to “fight, die and kill” to make this country into a “Hindu rashtra”, called for every Hindu to bear arms to “finish off their (non-Hindus’) population”, and for a Myanmar-style “safai abhiyaan”, sanitation drive. Some will argue this is a fringe, not worthy of taking seriously. To that the response should be this is a democratic, secular country and politicians cannot ignore calls for community cleansing by a group claiming to represent the majority.

The other point is that the Sansad’s chilling rhetoric should be read with reports of dozens of disturbing incidents across the country. To name just a recent few: regular obstruction of Friday namaz in Gurgaon, disrupted Christmas celebrations from Assam to Karnataka, forcibly shutting a shop that carried the word Sai in its name and was run by a Muslim. One thing common in most such incidents is the apparent unwillingness of police and many politicians to take these groups on. That inaction encourages these groups. It is anyone’s guess how this may develop, as mobs feel increasingly confident that no lawless action or even violence will get punished as long as they claim to act for the religion of the majority. Politicians who say ad nauseam they love India dearly should know the country will bear the highest cost should today’s small fires turn into a communal conflagration.

 

Date:28-12-21

A progressive step
Formation of a panel to look into withdrawal of AFSPA from Nagaland is a welcome move
Editorial

The announcement by the Nagaland government that a high-powered panel will be set up to look into the withdrawal of the Armed Forces (Special Powers) Act in the State addresses a key concern in the Northeast following the Mon massacre where a botched ambush by an armed forces unit led to the deaths of 15 civilians earlier this month. As is typical of how the Union government has dealt with issues concerning Nagaland in the recent past, the Ministry of Home Affairs (MHA) — whose Additional Secretary (Northeast) is to head the committee — has been tight-lipped about the proposed panel with the information about it emanating only from the Nagaland government. Nevertheless, the gesture to set up a panel, even if it is acknowledged only by the Nagaland government, should help in assuaging some concerns of citizens of the State who had immediately associated the massacre with the impunity afforded by the unpopular Act. The Indian Army has also reiterated that it deeply regretted the loss of lives and that a probe into the incident was progressing, even as the Nagaland government in its statement mentioned that a court of inquiry will initiate disciplinary proceedings against the Army unit and personnel involved in the incident. The Act is in place in Assam, Nagaland, Manipur, three districts of Arunachal Pradesh, and areas falling within the jurisdiction of eight police stations of the State bordering Assam, with the authority to use force or open fire to maintain public order in “disturbed areas”. The Meghalaya Chief Minister has already sought its revocation in the Northeast, while Manipur is also set to discuss the demand for its repeal.

People in the Northeast associate the series of civilian killings in the region over a number of years with the Act being in effect. The Justice Jeevan Reddy Committee set up by the previous UPA-led government at the Centre in 2005 had recommended the repeal of the Act calling it “highly undesirable” and that it created an impression that civilians in the Northeast were being targeted for hostile treatment. But the Act has remained in place because of the resolute opposition to its repeal by the Army. The panel can take recourse to studying precedents — Tripura revoked the Act in May 2015 after noticing an improvement on the ground in the State while Meghalaya did the same on April 1, 2018. Both States did so after the Act was in force for decades. A clear-cut understanding on the definition and the extent of “disturbed areas” in Nagaland following discussions among the State, the MHA and armed forces’ representatives will go a long way in working towards a rethink on the Act’s relevance in the entire region.

Date:28-12-21

The cold truth about India’s income inequality
Far from pushing for social and economic equality, the state is fanning systems and principles to strengthen the divide
Seema Chishti, [ Journalist-writer based in Delhi ]

The latest edition of the World Inequality Report (https://bit.ly/3Fx8vv4 and https://bit.ly/3EvazlY) has confirmed that the world continues to sprint down the path of inequality. “Global multimillionaires have captured a disproportionate share of global wealth growth over the past several decades: the top 1% took 38% of all additional wealth accumulated since the mid-1990s, whereas the bottom 50% captured just 2% of it.” India’s case is particularly stark. The foreword by Nobel laureate economists, Abhijit Banerjee and Esther Duflo, says, “India is now among the most unequal countries in the world.” This means that the gap between the top 1% and the bottom 50% is widest for India among the major economies in the world. The gap is wider in India than the United States, the United Kingdom, China, Russia and France.

Poverty has persisted

The journey of this inequality over time reveals that “socialist-inspired Five Year plans contributed” to reducing the share of the top 10% who had 50% of the income under colonial rule, to 35%-40% in the early decades after Independence. However, since the mid-1980s, deregulation and liberalisation policies have led to “one of the most extreme increases in income and wealth inequality observed in the world”. While the top 1% has majorly profited from economic reforms, growth among low- and middle-income groups has been relatively slow, and poverty has persisted.

In recent years, on the economic front, India, post-2014, seems to have got into a phase of an even greater reliance on big business and privatisation to fix economics and the result has been to beget even more inequality. The latest World Inequality Report firmly concludes that the “bottom 50% share has gone down to 13%. India stands out as a poor and very unequal country, with an affluent elite”.

Static growth rate

But beyond all this, what bears emphasis is the observation by Aunindyo Chakravarty, in The Tribune, about what was happening to the income of the bottom 50% in India since 1951. This grew at the rate of 2.2% per year between 1951 and 1981, but what is telling is that “the growth rate remained exactly the same over the past 40 years”. This makes it clear that irrespective of the economics or politics at play, the state of the bottom half of India barely changed, with an abysmal rate of income growth. That inequality in terms of the immobility of those at the bottom (at least one half of India) stood, irrespective of the economic policies adopted, is an irrefutable fact. It was because of the social conditions and constraints in India.

Clearly, the very social structure that underpinned India, encouraged and fanned this inequality. Plenty changed after India’s Constitution was adopted. In the Nehruvian years — and after that too — a bid was made to battle the basic absence of social democracy in India, but it remained confined to States and regions. Therefore, one sees a little more mobility and well-being in States such as Tamil Nadu and Kerala. Parts of Karnataka and Andhra also recorded attempts at smashing social structures that had pushed those at the bottom to a life in perpetual poverty and deprivation, and those attempts showed in better economic prospects. So, beyond these economic policies which have been fanning inequality, it is the ruling party tying faith directly into politics and backing of old social structures – far from getting rid of them, strengthening them each day – that should set alarm bells ringing. The linkages between our social structures and income inequality and poverty must be faced up to.

Survey and data

Globally, the economic transformation of people and particularly the lessening of inequality has never happened unless socially regressive mores have been challenged. Path-breaking research across 106 countries in 2018 tackled the elephant in the room when researchers from the Universities of Bristol in the U.K. and Tennessee in the U.S. used data from the World Values Survey to get a measure of the importance of religion spanning the entire 20th century (1900 to 2000) and found “that secularisation precedes economic development”.

Furthermore, the findings show that secularisation only predicts future economic development when it is accompanied by a respect and tolerance for individual rights. That can only happen when beyond sufferance of diversity or tolerance, a society is able to see all shades of humans, of varying castes, creeds, faith, colour, gender and choices as equal. The central aspect of secularisation is delinking of religion from public life. It leads to respect for each citizen irrespective of their faith and for science and rationalism. This is clear from the European experience over centuries or of Asian countries such as China, Vietnam, South Korea and others — the old social structures need to be smashed and not resurrected.

‘One size nation’ is flawed

The rapid movement of India in the reverse direction of secularisation, with the Union government’s now-stated policy to prioritise members of one religion and one language, has severe economic consequences too and the widening income inequality only reflects that. The quick descent into a ‘One size nation’, does not fit its many diversities. The avenues available for all kinds of citizens to make a life, informal if not formal, is deeply inhibited by India’s social fabric being torn by the Government’s new priorities and policies. Far from pushing for social and economic equality, which can be done by dismantling old shibboleths in which India’s rank social and economic inequalities are anchored, the state is now fanning systems and principles to further them. This fundamentally distorts the hard wiring that had made modern India possible.

Criminalising the freedom of religion and choices, which is what the Indian compact is based on, by hunting out the diverse, mixed or cosmopolitan as inauthentic has consequences, both social and economic. It was exactly this that B.R. Ambedkar had warned of: “In politics we will be recognising the principle of one man one vote and one vote one value. In our social and economic life, we shall, by reason of our social and economic structure, continue to deny the principle of one man one value. How long shall we continue to live this life of contradictions? How long shall we continue to deny equality in our social and economic life?”

B.R. Ambedkar had issued a grim warning in 1949 that if we continue to deny social and economic inequality for long, we could “blow up the structure of political democracy”. We risk much more. There is no ‘destiny’ of nations foretold. Choices are made and destinies created. By choosing to reverse the idea of modernisation, linking religion firmly into the public sphere, trying to unmake the modernity India had tried to set for itself as an ideal, we may be already setting ourselves on a narrow path which ends in places that scores of nations in the world and several in our neighbourhood have already arrived at, only to their peril and dismay.

Date:28-12-21

Why the Aadhaar-voter ID link must be stopped
Aadhaar use to construct elector databases has resulted in exclusion and will help in profiling the voter
Kiran Chandra Yarlagadda & Srinivas Kodali, [ Kiran Chandra Yarlagadda is General Secretary, Free Software Movement of India (FSMI). Srinivas Kodali is Researcher, FSMI ]

The Election Laws (Amendment) Bill, 2021 that was passed in haste in the winter session in the Lok Sabha, and which facilitates amendment to the Representation of People’s Act, is a step toward implementing online-based remote e-voting for which the use of Aadhaar will be the primary identity. The linking of Aadhaar with one’s voter ID was primarily to build a biometric dependent voting system from the very beginning. The tall claim made to support this change was to fight “fraud and duplicates” in the electoral rolls. At the same time, in practice, in places where it was used — done by the mashing of Electors Photo Identity Card (EPIC) data with surveillance databases — it facilitated a selective removal of voters from the lists. In the 2018 Telangana Assembly elections for instance, the consequence of such a measure led to the deletion of an estimated two million voters.

The case of two States

In 2014, the Election Commission of India (ECI) conducted two pilot programmes on linking the voter id with Aadhaar in the districts of Nizamabad and Hyderabad. Using the claim of effectiveness in removing duplicate voters, the ECI called for a National Consultation on Aadhaar and voter id linking, organised in Hyderabad in February 2015. The ECI launched the National Electoral Roll Purification and Authentication Programme (NERPAP) on April 1, 2015, which had to be completed by August 31, 2015. After a Supreme Court of India order on August 11, 2015, it was announced that this NERPAP would be shut down. But as Telangana and Andhra Pradesh were early adopters of this programme since 2014, both States have nearly completed linking Aadhaar and voter id for all residents. Though the composite State of Andhra Pradesh was bifurcated in 2014, there was only one office of Chief Electoral Officer (CEO) Telangana and Andhra Pradesh as the bifurcation procedure was not yet complete in 2015.

Database integration

The methodology followed by the ECI to find duplicate voters using Aadhaar is unknown to the general public. Nor is the information available in the public domain. Several applications under the Right to Information Act to the Chief Electoral Officer, Telangana asking for this information have been in vain. In 2018, the ECI wrote back to the CEOs asking for the methodology used in NERPAP for Aadhaar data collection after questions were raised about the ECI collecting Aadhaar data without the consent of voters. In a letter (No. 1471/Elecs.B/A1/2018-3, April 25, 2018), from the CEO Andhra Pradesh (then for Telangana and Andhra Pradesh) to the ECI, it is clear that the State Resident Data Hub (SRDH) application of the Government of Telangana and Andhra Pradesh was used to curate electoral rolls.

The SRDH has data on residents of the State which is supplied by the Unique Identification Authority of India (UIDAI) or collected further by the State governments. The UIDAI initially created the SRDH to give States information on residents — similar to the Aadhaar database without biometrics. Private parties now maintain the SRDH. While the UIDAI was constrained not to collect data on caste, religion and other sensitive information data for Aadhaar, it recommended to the States to collect this information, if required, as part of Aadhaar data collection; it termed the process as Know Your Resident (KYR) and Know Your Resident Plus (KYR+).

In Telangana and Andhra Pradesh, the State governments also conducted State census where voter data, Aadhaar data, 360-degree profiling with details such as caste, religion, bank accounts and other sensitive personal information were also collected. These State Census surveys were called the Samagra Kutumba Survey 2014 and the Smart Pulse Survey 2016.

The SRDHs are now a part of the State surveillance architecture targeted at the civilian populace. It is these SRDH applications that the ECI used to curate electoral rolls which resulted in the deletion of a sizeable number of voters from the list in Telangana in 2018. It is not just Telangana but across India; the ECI has already linked Aadhaar and voter IDs of close to 30 crore people resulting in voter deletions (Unstarred question 2673, Rajya Sabha of January 2019).

Disenfranchisement

The role of the ECI to verify voters using door-to-door verification (in 2015) has been subsumed (based on RTI replies from the ECI, and widely reported in 2018, after the Telangana Assembly elections in December); a software algorithm commissioned by the Government for purposes unknown to the public and maintained by a private IT company is in control now. While the role and autonomy of the ECI itself is speculative, subjecting key electoral rolls to surveillance software damages the concept of universal adult suffrage. What the experience in Telangana and Andhra Pradesh highlights is voter suppression and disenfranchisement.

A mock election (in October 2021) was conducted in Telangana by the State Election Commission with smartphones using facial recognition, voter ID, Aadhaar number and phone number for authentication while voting (this was tweeted by the Collector, Khammam). This method kills the “secret ballot”. In a situation where the role of money makes a mockery of the democratic process, linking Aadhaar will be futile. Electronic Voting Machines (EVMs), if foolproof, put an end to the days of booth capturing prevalent in the days of paper ballots. But these manifestations are about to bring the age back. E-voting can also be gamed using malware to change the outcome of an election. While the Bill does not look into large-scale e-voting, there is an issue of ensuring electoral integrity.

An Aadhaar-voter ID linkage will also help political parties create voter profiles and influence the voting process. Online trends on the day of voting and micro-targeting voters using their data will make it easier for political parties in power to use data for elections. A ruling coalition will always have an advantage with the data it possesses. An example is of the Chief Ministers from certain States being asked to get the data of the beneficiaries of welfare schemes. How this data was used in the 2019 elections is a pointer. The way Aadhaar has been pushed across the country has been undemocratic and unconstitutional since its inception. Aadhaar itself has several fake and duplicate names, which has been widely documented. The linking of Aadhaar with voter ID will create complexities in the voter databases that will be hard to fix. This process will introduce errors in electoral rolls and vastly impact India’s electoral democracy.