(28-06-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक

Date:28-06-22

G7 Infra Ginseng To China’s BRI
Selling PGII on democratic values not easy
ET Editorials

A plan by the Group of 7 (G7) rich nations to raise $600 billion over five years to fund specific infrastructure projects in developing countries could offer some respite to economies that have piled on Chinese debt to fund ports, highways and railways. Although China denies its terms of financing are harsh, it has not escaped suspicions of furthering its political and economic agenda through Xi Jinping’s flagship Belt and Road Initiative (BRI) to build manufacturing and logistics capacity in low-income nations. By some accounts, 40 countries have exposure to Chinese credit that is over a tenth of their GDP. China has not joined the Paris Club, a grouping of advanced economies that offers loans to the developing world. But it is owed much more than all the club members combined. Most of China’s development lending is at rates well above those of the World Bank.

The Partnership for Global Infrastructure and Investment (PGII) commits the US to raising $200 billion and the EU to a further €300 billion (about $317 billion) in areas of climate change, digital infrastructure, healthcare and gender equality. This should tilt development lending away from supply chain infrastructure, and from China. Delivered a year after it was first announced, the lending initiative follows US efforts to revive a trade arrangement in the Asia-Pacific to rival a China-led patchwork of free trade agreements (FTAs) in the region. The Indo-Pacific Economic Framework (IPEF) focuses on supply chain resilience, harmonised ecommerce rules, clean energy and anti-corruption, elements missing in the China-backed Regional Comprehensive Economic Partnership (RCEP).

The development financing and trade initiatives are welcome, but to the extent that these are in reaction to widening of the Chinese sphere of influence, outcomes may be muted. IPEF keeps China out by design while inviting all the other members of the bloc. And, BRI, unveiled in 2013, has a decade’s head start over the G7 plan. Selling either on democratic values is not going to be easy.

Date:28-06-22

वर्कफोर्स में स्त्रियों की संख्या बढ़ाए बिना सच्चा विकास नहीं
नीतू मुकुल, ( लेखिका )

हाल ही में यूपीएससी रिजल्ट में शीर्ष पर लड़कियों को देखना और मध्य प्रदेश में हुए पंचायत चुनावों में 171 महिलाओं का चुना जाना ऐसी खबरें रहीं, जिन्हें सुखद की श्रेणी में रखा जा सकता है। इससे एक भिन्न समाज की परिकल्पना का मार्ग प्रशस्त होगा, क्योंकि स्त्री और समाज एक-दूसरे से जटिल रूप से गुंथे हुए हैं।

विश्व बैंक की रिपोर्ट बताती है कि अन्य एशियाई देशों की तुलना में हमारे देश में 27 फीसदी महिलाएं ही कामकाजी हैं। इनमें भी एक बड़ी संख्या झाड़ू-पोछा और कृषि संबंधी कार्यों को करने वाली स्त्रियों की है। हालांकि महिलाओं की साक्षरता निरंतर बढ़ रही है और रोजगार के जोखिम वाले क्षेत्रों में भी महिलाओं का प्रवेश हुआ है, किंतु अपेक्षा से कम। इंजीनियरिंग और ऑटोमोबाइल जैसे क्षेत्रों में उनकी भागीदारी 16 से 18% तक की ही है। इसका मतलब महिलाओं का एक वर्ग अच्छी शिक्षा और रोजगारपरक प्रशिक्षण में अभी भी पीछे है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार भारत में पुरुषों के बराबर महिला कर्मचारी हो जाएं तो जीडीपी के प्रतिशत में बढ़ोतरी हो जाएगी। लेकिन आज 50% पढ़ी-लिखी महिलाएं चौके-चूल्हे तक ही सीमित हैं। यदि वे नौकरी कर भी रही हैं तो उन्हें पुरुषों की तुलना में कम वेतनमान पर रखा जा रहा है।

जिनेवा के वर्ल्ड इकोनामी फोरम व सालाना जेंडर गैप इंडेक्स के पिछले साल के आंकड़े बताते हैं कि भारतीय महिलाएं स्वास्थ्य व शिक्षा के क्षेत्र में विषमता की शिकार हैं। महिलाओं को लेकर योजनाएं तो खूब चल रही हैं पर महिला-पुरुष की समानता उनमें नहीं दिखती। महिलाएं पिछड़ी हैं, इसीलिए देश पिछड़ रहा है। जिन देशों में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत अधिक है, वे मानवीय विकास के उच्च पायदान पर हैं। जहां महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है, वे देश निचले पायदान पर हैं।

विकास के सभी मानकों को स्त्री-पुरुष दोनों की जरूरत है। जरूरत इसी बात की है कि व्यवस्था या तंत्र लिंगभेद न करे। इसे जान लेना चाहिए कि स्त्री-पुरुष की शारीरिक व सामाजिक स्थिति में काफी फर्क है, इसलिए हर क्षेत्र में उनके मानदण्ड भी भिन्न होंगे। स्त्री के सामने माहवारी और गर्भधारण की चुनौतियां होती हैं। सार्वजनिक रूप से सुरक्षा की उसकी जरूरत पुरुष से अधिक है। ऐसे में उसे लैंगिक-विशिष्टता के परिप्रेक्ष्य में लैंगिक-समानता को देखना होता है और समाज में शामिल होने की जद्दोजहद करनी पड़ती है। दंगे, हिंसा आदि में किसी समुदाय को दंडित करने का आसान निमित्त औरतें ऐतिहासिक रूप से बनती रही हैं। इसका ताजा उदाहरण यूक्रेन युद्ध में महिलाओं के साथ हुई यातनाएं हैं। यह इतिहास में पहली बार नहीं हुआ।

भारत में गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और केरल की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी अधिक है। देश के विकास में भी ये राज्य विशिष्ट स्थान रखते हैं। पंचायती राज में महिलाओं को 50% आरक्षण मिलने के बाद इसके सकारात्मक प्रभाव सामने आने लगे हैं। उनके भीतर आत्मविश्वास जन्म ले रहा है। वे भी पुरुषों के समान नेतृत्व कर सकती हैं। जहां स्त्री-पुरुष समानता के मानदण्डों को सामने रखकर प्रशासनिक प्रक्रिया चल रही है, वहां अच्छे परिणाम आए हैं। विकास की प्रक्रिया से स्त्री-पुरुष समानता के लक्ष्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती। किसी भी देश की संपन्नता देखना हो तो पहले वहां की स्त्रियों की दशा देख लेना चाहिए।

Date:28-06-22

ब्रिक्स के भीतरी विरोधाभास
सतीश कुमार

हाल में ब्रिक्स देशों की चौदहवीं शिखर बैठक में सदस्य देशों ने अलग-अलग बातें कहीं। रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन ने अमेरिका और पश्चिमी देशों पर निशाना साधा और रूस पर आर्थिक प्रतिबंध थोपने की निंदा की। साथ उन्होंने मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट के लिए इन देशों को दोषी ठहराया। दूसरी तरफ सकारात्मक पहलू को रेखांकित करते हुए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विश्व आर्थिक व्यवस्था को बेहतर और लोकतांत्रिक बनाने पर जोर दिया और महामारी से निपटने के लिए बेहतर स्वास्थय व्यवस्था को भी अपने भाषण का हिस्सा बनाया। जबकि चीन ने दुनिया को शीत युद्ध से बचने की नसीहत दी। दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील ने भी महामारी और उससे निपटने में ब्रिक्स के योगदान का जिक्र किया। इससे यह साफ हो गया कि ब्रिक्स के सदस्य देशों की प्राथमिकताएं क्या हैं।

अगर संक्षेप में ब्रिक्स की सार्थकता और गतिशीलता को देखा जाए तो कई विसंगतियां और विरोधाभास सामने आते दिखाई देते हैं। भारत और चीन के बीच जिस तरह का गतिरोध बना हुआ है और भारत को लेकर चीन का जो आक्रामक रुख कायम है, उससे ब्रिक्स की एकता कहीं न कहीं प्रभावित होती है। ताजा विवादों को लेकर चीन अपनी जिद पर अड़ा है। भारत ने 1950 से लेकर 2019 तक चीन की हर मुसीबत में साथ दिया। इसके बावजूद चीन की नजर में भारत एक सहयोगी नहीं, बल्कि विरोधी है, इस सोच ने दोनों देशों के बीच तल्खी पैदा कर दी।

आज भारत को ब्रिक्स और पश्चिमी कूटनीति के बीच जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है, वैसी स्थिति पहले शायद ही कभी बनी हो। लेकिन जिस कुशलता के साथ भारत ने क्वाड और ब्रिक्स में संतुलन साधा है, वह विदेश नीति के मोर्चे पर कम बड़ी बात नहीं है। जर्मनी में जी-7 देशों की बैठक में भी ब्रिक्स के दो सदस्य भारत और दक्षिण अफ्रीका मौजूद हैं। यह भी कि यूक्रेन युद्ध के मसले पर संयुक्त राष्ट्र में तटस्थ नीति छोड़ने के लिए भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका पर दबाव भी बनेगा। जबकि भारत पहले भी अपनी बात स्पष्ट कर चुका है।

ब्रिक्स की प्रासंगिकता का को लेकर भी सवाल उठ ही रहे हैं। दरअसल चीन ब्रिक्स का विस्तार करने की कोशिश में लगा है। ब्रिक्स प्लस बनाने के पीछे चीन की योजना यही है कि वह अमेरिकी और पश्चिमी ताकतों के समांतर नया समूह खड़ा कर सके। लेकिन उसकी यह कोशिश क्या सिरे चढ़ पाएगी, यह बड़ा सवाल है। अगर ब्रिक्स का विस्तार होता है तो भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका की क्या भूमिका होगी, यह स्पष्ट नहीं है। गौरतलब है कि भारत अमेरिका के नेतृत्व वाले क्वाड समूह का भी महत्त्वपूर्ण सदस्य है।

ब्रिक्स के गठन की नींव बीस साल पहले पड़ी थी। तब इसके पीछे मकसद अमेरिकी जनित आर्थिक ढांचे से हट कर एक वैकल्पिक आर्थिक व्यवस्था का निर्माण करना था। यह विचार अच्छा था, पर इस पर ढंग से काम नहीं हो पाया। इसलिए 2009 के बाद से ब्रिक्स के औचित्य पर ही सवाल खड़े किए जाने लगे। अब इस बात की आशंकाएं गहराती जा रही हैं कि कहीं ब्रिक्स के विस्तार की आड़ में इसके विघटन की शुरूआत न होने लगे। इसके कारण हैं।

पहला कारण यह कि ब्रिक्स का विस्तार चीन अपने नक्शे कदम पर करना चाहता है। उसकी कोशिश जी-20 संगठन से कुछ देशों को ब्रिक्स में शामिल करने की है। इसमें इंडोनेशिया भी है। गौरतलब है कि इंडोनेशिया को लेकर भारत के रिश्ते अच्छे हैं। चीन अफ्रीका के दो महत्त्वपूर्ण देशों- नाइजीरिया और सेनेगल को भी ब्रिक्स में शामिल करने की कोशिश करेगा। इनके शामिल होते ही संगठन में दक्षिण अफ्रीका की अहमियत घटने लगेगी। दक्षिण अफ्रीका की सहमति के बिना इनको खेमे में लेना ब्रिक्स के विघटन का कारण बन सकता है। इसी तरह अर्जेंटीना के ब्राजील से अच्छे रिश्ते नहीं है। अगर ब्राजील की सहमति के बिना अर्जेंटीना को ब्रिक्स में लिया गया तो यह भी कम पेचीदा स्थिति नहीं होगी। चीन की सूची में कई और भी देश हैं। चीन की पूरी कोशिश एक ऐसा नया खेमा खड़ने की है जो अमेरिका और उसके वर्चस्व वाले खेमे को चुनौती दे सके।

दूसरा कारण यह है कि ब्रिक्स का आर्थिक आधार अभी भी बहुत कमजोर है। अभी पांचों देशों की कुल आबादी तकरीबन दुनिया की चालीस फीसद के करीब है। पांचों देशों की जीडीपी वैश्विक जीडीपी का एक चौथाई है। पच्चीस लाख करोड़ डालर की अर्थव्यवस्था अठारह लाख करोड़ तो केवल चीन का हिस्सा है, जबकि भारत साढ़े तीन लाख करोड़ के साथ दूसरे स्थान पर है। बाकी तीन देशों की स्थिति बेहद नाजुक है। वैश्विक महामारी में ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका काफी पीछे रह गए हैं। ब्रिक्स का आपसी व्यापार मुश्किल से बीस फीसद रह गया है। ऐसे हालात में इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि ब्रिक्स यूरोपियन महासंघ या जी-7 की बराबरी कर पाएगा?

तीसरी वजह यूक्रेन युद्ध ने एक नई मुसीबत खड़ी कर दी है। एक बार फिर से दुनिया दो खेमों में बंट गई है। नए शीत युद्ध का आगाज होता दिख रहा है। यूक्रेन युद्ध के कारण कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के दामों में भारी इजाफा हुआ है। दरअसल चीन इस युद्ध को लेकर अपनी चौकड़ी बनाने की कवायद में लगा है। सैन्य रूप से मजबूत रूस आर्थिक रूप से पूरी तरह से कमजोर पड़ता जा रहा है। युद्ध ने उसकी हालत और जर्जर बना दी है। इसलिए चीन रूस को लेकर एक ऐसा गुट बनाना चाहता है जो दुनिया का मठाधीश बनने के उसके सपने को पूरा कर सके। इसके लिए वह ताइवान पर हमले का पत्ता भी चलने को तैयार दिखता है।

चौथा कारण यह कि चीन तेजी से विस्तारवादी नीति पर चल रहा है। श्रीलंका, पाकिस्तान, मलेशिया, आस्ट्रेलिया और कई अफ्रीकी देश चीन की इस कुटिलता का दंश झेल रहे हैं। जहां तक सवाल है भारत का, तो भारत और चीन के बीच दो साल से गंभीर टकराव चल रहा है। हालांकि चीन इसे गंभीर सीमा विवाद के रूप में नहीं देख रहा, पर भारत के लिए यह बेहद नाजुक मसला बन गया है। भारत ने साफ कर दिया है कि विवादित स्थलों से पहले चीनी सेना की वापसी हो तभी और बातचीत संभव होगी। चीन ने पिछले कुछ वर्षो में जिस तरीके से वैश्विक व्यवस्था को अपने तरीके से संचालित करने की साजिश रची है, उससे दुनिया के तमाम देशों का चिंतित होना स्वाभाविक है। दुनिया के सामने कभी भी इतना डर और संशय नहीं रहा जितना कि आज इस बात को लेकर है कि अगर चीन दुनिया का मुखिया बन गया तो क्या होगा?

अब यूक्रेन युद्ध की वजह से वैश्विक राजनीति के समीकरण तेजी से बदल रहे हैं। चीन भारत पर इस बात के लिए दबाव बनाने की कोशिश करेगा कि वह यूक्रेन के मुद्दे पर रूस और चीन के साथ खड़ा हो। लेकिन भारत जिस तरह से तटस्थता की नीति पर चल रहा है, उसमें यह आसान नहीं है। ऐसे में अगर ब्रिक्स में चीन और रूस के दबाव में कुछ ऐसे निर्णय लिए जाते हैं जो दूसरे सदस्यों की सोच सके विपरीत होंगे, तो इससे ब्रिक्स में एक तरह की फूट पड़ सकती है और इसकी प्रासंगिकता पर सवाल खड़े हो सकते हैं। अभी दुनियाभर के प्रमुख देशों की नजर भारत पर टिकी है। भारतीय कूटनीति के लिए यह भी अग्निपरीक्षा का समय है। हालांकि, भारत ने शुरू से साफ कर दिया है कि यूक्रेन के मुद्दे पर उसकी विदेश नीति तटस्थता की है और रहेगी।