(25-01-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक

Date:25-01-22

गणराज्य का स्वावलंबन
डॉ०विजय अग्रवाल, ( अध्यात्म व प्रेरक विषयों के लेखक )

भारतीय मनीषा ने कण-कण में ब्रहम को देखा है। ऐसे में स्वाभाविक ही था कि उसने लिखित शब्दों को ‘अक्षर’ कहा है। और जिसका क्षरण नहीं हो सकता, उसे ब्रहम माना-अक्षर ब्रहम। अक्षरों के अन्दर उपस्थित ब्रहम की इसी शक्ति को जाग्रत करके शब्दों को मंत्र में परिवर्तित करके उसे विलक्षण बना दिया। उसके लिए शब्द केवल सम्प्रेषण का माध्यम न बनकर जीवन के आधार बन गये। क्या हमें इसी कसौटी पर अपने ‘गणराज्य’ शब्द को नहीं समझना चाहिए ? आइये, अपने 72वें गणतंत्र दिवस पर इसके बारे में कुछ सोच-विचार कर इस पवित्र शब्द की शक्ति की साधना करके इसे अपने राष्ट्र-निर्माण एवं विकास के मंत्र के रूप में परिवर्तित कर दें।

‘गणराज्य’ के राजनीतिक अर्थ से प्रत्येक विद्यार्थी परिचित होता है। यह एक ऐसी शासन प्रणाली का संकेतक है, जिस राष्ट्र का प्रमुख वंशानुगत नहीं होता। दूसरे शब्दों में यह कि यह राष्ट्र प्रमुख (राष्ट्रपति) कोई भी बन सकता है। यह गणराज्य का भौतिक अर्थ है, जो रोम जैसे उन प्राचीन गणराज्यों के लिए ठीक है, जो अपनी प्रणाली में प्रजातांत्रिक थे ही नहीं। इसलिए बेहतर होगा कि हम अपने गणराज्य की आत्मा को टटोलें।

‘गण’ का सीधा-सीधा अर्थ है- समूह, यानी कि लोग। यदि अभिधा को ही लिया जाये, तो ‘गणराज्य’ का अर्थ होगा- लोगों का राज्य। यह अर्थ ‘लोगों के लिए’ राज्य से कई गुना अधिक ऊँचा है। तो यहाँ सवाल यह है कि यह ‘लोगों का राज्य’ संभव कैसे हो सकता है?

15 अगस्त 1947 की आधी रात को हुई शंख ध्वनि ने हमें अंग्रेजों की गुलामी से आजाद किया था। लेकिन अभी इसे सम्पूर्ण होना शेष था। सम्पूर्णता का यह अभियान 26 जनवरी 1950 को तब पूरा हुआ, जब हम अपनी आजादी की इस प्रतिमा में अपने द्वारा निर्मित संविधान की प्राण प्रतिष्ठा कर सके।

भले ही इस संविधान को बनाया संविधान सभा नाम की एक संस्था ने हो, लेकिन इसकी उद्देशिका में जिन शब्दों को उकेरा गया है, उनको आज विशेष रूप से याद करने की जरूरत है। इस उद्देशिका की शुरूआत ही इन शब्दों से होती है- “हम भारत के लोग”। ये शब्द अपने आप में भारतीय नागरिकों की व्यापकता तथा भारतीय जीवन मूल्यों की गहराई को धारण किये हुए हैं।

इस उद्देशिका के जिस उद्देश्य को पाने के लिए विश्व के सबसे बड़े लिखित संविधान की रचना की गई, का अंत इन तेजस्वी शब्दों के साथ होता है- ‘मनुष्य की गरिमा की रक्षा के लिए आत्मार्पित करते हैं।’ मनुष्य की गरिमा के लिए अंग्रेजी का शब्द है डिग्निटी ऑफ इंडिविजुअल, और आत्मार्पित अनुवाद है गिव टू अवरसेल्फ का। इंडिजुअल को ‘व्यक्ति’ कहना, तथा अवरसेल्फ के लिए ‘आत्मा’ शब्द का उपयोग करना अपने आप में अत्यंत गूढ़ सांकेतिक अर्थ रखता है। सच यही है कि यहीं से हमारे संविधान एवं राज-व्यवस्था की गणतंत्रात्मक प्रणाली के सही अर्थों की शुरूआत होती है। साथ ही शुरूआत होती है उस भारतीय स्वाभिमान की पुनर्यात्रा की, जिसे विशेषकर अंग्रेजों द्वारा विशेष रूप से धूमिल करने की हरसंभव कोशिशें की गई थीं।

अब, जबकि हम अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, पूर्णतः स्वावलम्बन पर आधारित अपने स्वाभिमान के उन मूल्यों का पुनर्स्मरण करना उपयुक्त होगा, और वह भी लंदन के एक इतिहासकार के लिखित अक्षरों के द्वारा। भारत पर लिखी अपनी पुस्तक ‘अद्भुत भारत’ की शुरुआत में ही वे अपना यह निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं कि ‘पुरातन संसार के किसी भी भाग में मनुष्य के मनुष्य से तथा मनुष्य के राज्य से ऐसे सुन्दर एवं मानवीय सम्बंध नहीं रहे हैं।—– ‘अर्थशास्त्र’ के समान किसी प्राचीन न्याय ग्रंथ ने मानवीय अधिकारों की इतनी सुरक्षा नहीं की।—– हमारे लिए प्राचीन भारतीय सभ्यता की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता उसकी मानवीयता है।”

वैश्विक भूखमरी सूचकांक में हमारी स्थिति अत्यंत दयनीय है। लेकिन जब पूरी दुनिया कोरोना की भयावह महामारी से त्रस्त थी, देश के करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी के साधन खत्म हो गये थे, उस लम्बे दौर में देश को भूख से मौत की खबर से शर्मसार नहीं होना पड़ा। यह राष्ट्रीय स्वावलम्बन का एक अदभुत साक्ष्य है। साथ ही स्वाभिमान का भी। सोचने की बात है कि ऐसा कैसे हो सका। उत्तर है, लोगों में मौजूद मानवीयता की उस भावना के कारण, जो हमारी संस्कृति के माध्यम से हमारे संस्कारों में रच-बस गया है। संकट के इस भयावह दौर में देश के प्रत्येक नागरिक तथा संगठनों ने पूरी मुस्तैदी के साथ आगे आकर जिस प्रकार लोगों की सहायता की, वह इस गणराज्य के इतिहास में दर्ज करने लायक है। आंगनवाड़ी कार्यकताओं के रूप में महिलाओं का योगदान अभिनंदनीय रहा है।

और अब; जबकि देश ने ‘वोकल फॉर लोकल’ के नारे के साथ स्थानीय ग्रामीण समुदायों के आर्थिक सशक्तिकरण का नया अभियान शुरू किया है, गाँवों में एक नई आर्थिक क्रांति की संभावना बनी है। कहना न होगा कि स्व सहायता समूहों की सफलताओं ने इसकी सफलता के लिए एक मजबूत भूमिका पहले से ही तैयार कर दी है।

लगभग एक शताब्दी के हमारे दीर्घ आधुनिक स्वतंत्रता आंदोलन के केन्द्र में देश के प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक क्षेत्र की भागीदारी रही है। सत्य और अहिंसा के प्रमुख मूल्यों पर आधारित हमारा आंदोलन मात्र राजनीतिक न होकर मानवीय भी था। इस संघर्ष के अमृत महोत्सव ने अब हमें अपने उन्हीं महान मूल्यों से राष्ट्र को परिचित कराने का बहुमूल्य अवसर प्रदान किया है।

इस अवसर पर मैं यहाँ ‘जनजातीय गौरव दिवस’ का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा, जो पिछले वर्ष से शुरू किया गया है। इसके कारण हमारा देश अपनी मूल एवं लोक-संस्कृति से परिचित हो सकेगा। जनजातीय संस्कृति राष्ट्र की मुख्यधारा में स्थापित हो सकेगी। इससे इस समुदाय के लोगों में स्वाभिमान की एक नई चेतना जागृत होगी। ‘जनजातीय गौरव दिवस’ की यह घोषणा एक प्रकार से देश के हाशिये पर रह रहे लोगों का अभिनंदन करने का एक राष्ट्रीय उपक्रम है।

सच बात यह है कि हम अपने लोगों की गरिमा को सम्मान देकर ही जहाँ स्वयं के सम्मान का मान बढ़ा सकेंगे, वहीं ‘भारत गणराज्य’ की आत्मा को सही अर्थ प्रदान कर सकेंगे। आइये, इस अवसर पर ऐसा करने का संकल्प लें।

Date:25-01-22

नफरती भाषण
संपादकीय

हिंदू संगठनों की ओर से इस शिकायत के साथ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने पर आश्चर्य नहीं कि हरिद्वार में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ नफरत भरे भाषण देने वालों के खिलाफ जैसी कार्रवाई हो रही है, वैसी ही हिंदू समाज के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने वालों के विरुद्ध क्यों नहीं हो रही है? नीति, नियम और कानून का तकाजा तो यही कहता है कि वैमनस्य पैदा करने वाले भाषण चाहे जिनकी ओर से दिए जाएं, उनके खिलाफ कार्रवाई में कहीं कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। दुर्भाग्य से भेदभाव न केवल होता है, बल्कि दिखता भी है। समझना कठिन है कि जैसे मामलों में यति नरसिंहानंद और कालीचरण की गिरफ्तारी हो सकती है, वैसे ही मामलों में तौकीर रजा या फिर असदुद्दीन ओवैसी के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं हो सकती? सुप्रीम कोर्ट में अनेक ऐसे मुस्लिम नेताओं और मौलानाओं के नफरती भाषणों का उल्लेख किया गया है, जिनके खिलाफ कुछ नहीं हुआ। पता नहीं हिंदू संगठनों की शिकायत पर सुप्रीम कोर्ट कितनी गंभीरता का परिचय देगा, लेकिन यह पहली बार नहीं दिख रहा, जब एक पक्ष के लोगों के नफरती बयानों पर कुछ होता नहीं नजर आया और दूसरे पक्ष के लोगों के खिलाफ न केवल कार्रवाई हुई, बल्कि उनकी चौतरफा निंदा भी हुई। इसमें कोई हर्ज नहीं। गलत बात की निंदा होनी ही चाहिए, लेकिन आखिर एक जैसे मामलों में अलग-अलग रवैया क्यों?

एक जैसे दो मामलों में मीडिया का एक बड़ा हिस्सा किस तरह दोहरा रवैया अपनाता है, इसका उदाहरण बरेली में तौकीर रजा के भड़काऊ भाषण की अनदेखी मात्र नहीं है। गत दिवस जब पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू के सलाहकार मोहम्मद मुस्तफा ने भड़काऊ भाषण दिया तो मीडिया के एक बड़े हिस्से ने उसकी अनदेखी करना ही बेहतर समझा। यह दोहरा रवैया भीड़ की हिंसा से जुड़ी घटनाओं में भी खूब दिखता है। इस पर भी गौर करें कि इंटरनेट मीडिया पर समुदाय विशेष की महिलाओं के खिलाफ ओछा अभियान चलाने वालों का न केवल संज्ञान लिया जा रहा है, बल्कि उनकी गिरफ्तारी भी हो रही है। यह उचित ही है, लेकिन आखिर अन्य समुदाय की महिलाओं के खिलाफ ऐसे ही अभियान चलाने वालों के खिलाफ कुछ होता क्यों नहीं दिखता? यही सवाल धोखा देकर विवाह करने से जुड़े मामलों को लेकर भी उठता है और छल-छद्म से किए जाने वाले मतांतरण के मामलों में भी। दोहरे रवैये के कारण न केवल सेक्युलरिच्म हेय शब्द बनकर रह गया है बल्कि एक देश में एक ही विधान दो तरह से काम करता हुआ दिखता है। यह स्थिति समानता के सिद्धांत और साथ ही विधि के शासन के खिलाफ है। इसके नतीजे अच्छे नहीं होंगे।

Date:25-01-22

सरकारी खजाने से खैरात बांटने की लगी होड़
भरत झुनझुनवाला, (लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)

चुनावों के इस दौर में विभिन्न दलों में होड़ लगी है कि कौन जनता को सरकारी खजाने से ज्यादा खैरात बांट सकता है। कांग्रेस ने 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले किसानों की कर्ज माफी से इसकी शुरुआत की थी। वर्तमान में मुफ्त शिक्षा, किसानों को मुफ्त बिजली आदि योजनाओं से जनता को लाभ पहुंचाने का उपक्रम किया जा रहा है। वास्तविक जनहित का उपाय है रोजगार, जिससे आय, स्वाभिमान और उद्यमिता का विकास हो। संप्रति रोबोट और आटोमेटिक मशीनों के कारण बड़े उद्योग सस्ते माल का उत्पादन कर रहे हैं और छोटे उद्योग पस्त हैं। मान्यता है कि आर्थिक विकास के लिए सस्ता उत्पादन आवश्यक है। इसीलिए बड़े उद्योगों द्वारा उत्पादन को बढ़ावा दिया जा रहा है। जीएसटी और नोटबंदी ने छोटे उद्योगों को प्रभावित किया है। इसीलिए रोजगार सृजन की राह मुश्किल हो गई है। यदि हम आर्थिक विकास के इस ढांचे को नहीं बदल सकते हैं तो द्वितीय श्रेणी के उपाय के रूप में मुफ्त वितरण को हमें अपनाना ही होगा। अन्यथा आम आदमी को न तो रोजगार मिलेगा न ही मुफ्त वितरण से कुछ मिल पाएगा। इसीलिए मुफ्त वितरण का दांव आजमाया जाता है।

मुफ्त वितरण के विरोध में तर्क दिया जाता है कि यह टिकाऊ नहीं है। सरकारी बजट, विशेषकर राज्य सरकारों के बजट में गुंजाइश नहीं है कि जनता को मुफ्त माल वितरित किया जा सके। हालांकि इसकी तह में विषय दूसरा है। सरकारी राजस्व का तीन तरह से उपयोग होता है। एक, निवेश के लिए जैसे हाईवे बनाने के लिए। दूसरा, जनता को मुफ्त वितरण के लिए जैसे मुक्त शिक्षा अथवा नकदी बांटने के लिए। तीसरा सरकारी खपत के लिए जैसे सरकारी अधिकारियों के लिए एसयूवी खरीदने के लिए। अत: यदि हम मुफ्त वितरण को बढ़ावा देंगे तो निवेश अथवा सरकारी खपत में कटौती करनी ही पड़ेगी। मुफ्त वितरण तब तक टिकाऊ नहीं होगा जब तक सरकारी खपत बनी रहे। मुफ्त वितरण तभी टिकाऊ होगा जब सरकारी खपत में कटौती की जाए और निवेश बनाए रखा जाए।

दूसरा तर्क करदाता द्वारा अदा किए गए टैक्स के दुरुपयोग का है। करदाता मुख्यत: अमीर अथवा बड़े उद्यमी होते हैं। इनकम टैक्स अमीरों द्वारा दिया जाता है। जीएसटी और कस्टम ड्यूटी भी अधिकांश उन लोगों द्वारा अदा की जाती है, जो बड़ी कंपनियों द्वारा बना हुआ अथवा आयातित माल की खपत करते हैं। इसलिए यदि करदाता द्वारा अदा किए गए टैक्स का उपयोग आम आदमी को मुफ्त वितरण के लिए किया जाता है तो यह अमीरों का गरीबों के प्रति दायित्व का निर्वाह मानना चाहिए। सरकार ने बड़ी कंपनियों पर कारपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी में लाभ का एक अंश समाज हित के लिए खर्च करने का नियम बनाया है। उसी प्रकार अमीरों द्वारा अदा किए गए टैक्स से सामान्य व्यक्ति को मुफ्त वितरण करना कल्याणकारी राज्य के समरूप दिखता है।

विद्वानों द्वारा विशेष सब्सिडी को मान्यता दी जाती है और मुफ्त वितरण का विरोध किया जाता है। सब्सिडी और मुफ्त वितरण में केवल प्रक्रियागत अंतर है। परिणाम एक ही है। जैसे उर्वरक सब्सिडी का उद्देश्य जनता को किसी विशेष दिशा में बढऩे के लिए प्रेरित करना होता है। एक वक्त देश में जब अकाल पड़ा तो उर्वरक पर सब्सिडी दी गई कि किसान उसके उपयोग से खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ाएं। इसके पीछे मान्यता है कि जनता समझदार नहीं है और वह स्वयं उर्वरक का उपयोग नहीं करेगी तो उसे प्रलोभन देकर उर्वरक का उपयोग बढ़ाने की जरूरत है। उर्वरक का उपयोग बढऩे से खाद्यान्न उत्पादन बढ़ेगा और जनकल्याण हासिल होगा। इसकी तुलना में मुफ्त बिजली-पानी में जनता को विशेष दिशा में प्रेरित करने का पुट नहीं होता है। इससे सीधे जन कल्याण होता है। अंतत: सब्सिडी और मुफ्त वितरण दोनों का परिणाम एक ही होता है। यानी जन कल्याण हासिल करना।

प्रश्न रहता है कि क्या वस्तुओं के माध्यम से यह मुफ्त वितरण करना चाहिए अथवा प्रत्यक्ष नकदी के रूप में। वस्तुओं के माध्यम से वितरण के पीछे सोच है कि जनता स्वयं अच्छी शिक्षा अथवा उर्वरक के प्रयोग को लेकर सही सोच नहीं रखती। जनता नहीं समझती कि बच्चों को शिक्षित करना कितना जरूरी है। इसलिए सरकार द्वारा मुफ्त शिक्षा दी जाती है। यह सोच लोकतंत्र के मूल विचार के विपरीत दिखती है। यदि जनता सक्षम है कि वह यह तय कर सके कि देश का प्रधानमंत्री कौन होगा तो वह यह भी समझ सकती है कि बच्चे को शिक्षा दिलाना जरूरी है अथवा नहीं? अत: यह विचार कि जनता को सब्सिडी देकर विशेष दिशा में इसलिए प्रेरित करना जरूरी है कि उसकी समझ पर्याप्त नहीं, गले नहीं उतरता है। लोकतंत्र में जनता ही संप्रभु है। राजनीतिक दल मुफ्त वस्तुओं के वितरण लाभ का प्रचार इसलिए करता है कि उसमें सरकारी अधिकारियों को नौकरी के अवसर मिलते हैं। यदि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से जनता को गेहूं दो रुपये प्रति किलो में मिलता है तो गेहूं की खरीद, वितरण, राशन कार्ड बनवाने इत्यादि में सरकारी कर्मियों को नौकरी भी मिलती है और भ्रष्टाचार के अवसर भी खुलते हैं। इसलिए यदि दूसरे स्तर के उपाय के रूप में जनता को मुफ्त वितरण करना ही है तो प्रत्यक्ष नकदी बेहतर विकल्प है। जनता अपने विवेक से उसका व्यय तय करे। जनता की इस संप्रभुता को सरकारी तंत्र की वेदी पर स्वाहा नहीं करना चाहिए।

मूल बात यह है कि जनता के लिए रोजगार, स्वाभिमान और उद्यमिता बढ़ाने का रास्ता प्रशस्त किया जाए। हालांकि इसमें हमारी आर्थिक विकास की मूल सोच आड़े आती है, जिसमें बड़ी कंपनियों और रोबोट से बने सस्ते माल को प्राथमिकता दी जाती है। तीसरे स्तर का उपाय यह है कि जनता को वस्तुओं जैसे सस्ता अनाज इत्यादि उपलब्ध कराकर जनहित हासिल किया जाए। मुफ्त वितरण के इन दोनों अंतिम विकल्पों में बाधा वित्तीय धन नहीं, बल्कि सरकारी खपत है। हमें तय करना है कि सरकारी खपत को बढ़ावा दिया जाएगा अथवा जनता की खपत को। यदि हम रोजगार के सर्वश्रेष्ठ उपाय नहीं अपना सकते तो फिर नकदी वितरण वाला उपाय ही आजमाना चाहिए। वहीं तीसरी श्रेणी की मुफ्त वस्तुओं के वितरण के उपाय से बचना चाहिए। यदि दूसरी श्रेणी के मुफ्त नकद वितरण का कार्य चुनाव के समय पार्टियों के माध्यम से किया जाता है तो इसे तात्कालिक राहत के तौर पर स्वीकार करना चाहिए और सरकार पर रोजगार बढ़ाने का दबाव बनाना चाहिए।

Date:25-01-22

करवट बदलती प्रकृति के बीच खेती का तरीका बदलना होगा
संपादकीय

प्रकृति के अति-दोहन का खामियाजा मिलना शुरू हो गया है। मौसम की असाधारण करवट, ऋतुओं में बदलाव और तापमान में अभूतपूर्व उतार-चढ़ाव आसन्न संकट का पहला संकेत है। उत्तरी पोल पर ग्लेशियर पिघलना शुरू है। अगर आज पूरा विश्व एक-स्वर और एक इरादे के साथ इस कार्य में लगे तो पांच दशक बाद ही हम इस प्रकृति के प्रतिशोध को फिर से रोक सकेंगे। सर्व-सहमति फिलहाल दिखाई नहीं देती। हाल में संपन्न हुए विश्व पर्यावरण सम्मलेन में मत-वैभिन्य इस बात का द्योतक है कि दीर्घकालिक हल के लिए हम आज भी सजग नहीं हैं। जब तक ऐसे समाधान के लिए पूरी दुनिया खासकर संपन्न देश तन-मन-धन से आगे नहीं आते, हमें अल्पकालिक समाधान तलाशने होंगे। इसका तत्काल नुकसान विकासशील और गरीब देशों को सबसे ज्यादा होने जा रहा है। भारत जैसे देशों के लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन आज भी कृषि है। उदाहरण के तौर पर अगर भारत में वर्तमान स्थिति दो साल और बनी रहे तो फसलों पर भारी असर पड़ने लगेगा। दिसंबर-जनवरी में जारी अति-वृष्टि या बारिश के मौसम में लू का चलना या फिर मार्च-अप्रैल माह में शीतलहर इस बात के संकेत हैं कि कृषि वैज्ञानिक इस बदलते तथ्यों का संज्ञान लें और खेती, क्रॉप-पैटर्न और सीड्स को इसी के अनुसार बदलें अन्यथा अचानक उत्पादन में भारी गिरावट को रोकना असम्भव होगा। अमेरिकी कृषि वैज्ञानिकों के एक अध्ययन के अनुसार अगर दुनिया में तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो गेहूं का उत्पादन 6 फीसदी, धान का 3.2 फीसदी, मक्के का 7.4 फीसदी और सोयाबीन का 3.1 फीसदी कम होगा। ये अनाज दुनिया में मानव-ऊर्जा का दो-तिहाई उपलब्ध कराते हैं। जाहिर है नीचे का तबका अनाज की कमी से सबसे ज्यादा प्रभावित होगा।

Date:25-01-22

युद्ध की घंटी
संपादकीय

दुनिया एक और युद्ध की तरफ बढ़ रही है। यूक्रेन के बहाने अमेरिका और रूस में खिंचे पालों में तनाव बढ़ता जा रहा है। यूक्रेन के पक्ष में नाटो की लामबंदी और अपने इरादों को लेकर रूस के रवैये से हालात विस्फोटक होते जा रहे हैं। कभी भी युद्ध छिड़ने की आशंका में यूक्रेन में मौजूद सभी अमेरिकी नागरिकों को तुरंत देश छोड़ने की हिदायत दे दी गई है। रूस अधिकृत क्रीमिया और रूसी नियंत्रण वाले पूर्वी यूक्रेन में हालात काफी नाजुक हैं। अमेरिका ने यूक्रेन को मदद जारी रखने का भरोसा दिया है। ब्रिटेन के इस दावे को कि रूस यूक्रेन में कठपुतली सरकार स्थापित करना चाहता है रूस ने गलत बताया है। जर्मनी ने सभी पक्षों से संयम बरतने और तनाव घटाने की अपील की है। एक लाख से ज्यादा रूसी सैनिकों ने यूक्रेन को तीन तरफ से घेरा हुआ है। अमेरिका और ब्रिटेन समेत कुछ देशों ने यूक्रेन को हथियार दिए हैं। रूस चाहता है कि पूर्वी यूरोप से नाटो की तैनाती वापस ली जाए। अगर नाटो की तैनाती का मामला नहीं सुलझा‚ तो रूस क्यूबा में फिर से मिसाइलें तैनात करने पर विचार कर सकता है। 1990 के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद से पूर्वी यूरोप में लगातार नाटो का विस्तार हुआ है। रूस के करीबी देशों पोलैंड और रोमानिया में नाटो ने अत्याधुनिक सैन्य सेटअप लगा रखा है। रूस चाहता है कि नाटो‚ उसकी सीमा से दूर रहे। उसकी यह मांग भी है कि 1990 के बाद मध्य और पूर्वी यूरोप के जिन देशों में नाटो की तैनाती हुई है‚ उसे वापस लिया जाए। अगर यूक्रेन में नाटो ने सैन्य स्टेशन बनाए‚ तो वहां से फायर की जाने वाली मिसाइल पांच मिनट में मॉस्को पहुंच जाएगी। पुतिन की चेतावनी है कि अगर ऐसा हुआ‚ तो वह भी पांच मिनट के भीतर अमेरिका तक पहुंचने वाली हाइपरसॉनिक मिसाइल तैनात करेंगे। रूसी हथियार कार्यक्रम से अमेरिका भी नाखुश है। अमेरिका को लगता है कि रूस नाटो के खिलाफ हथियार विकसित कर रहा है। इस सारे मामले का भारत पर भी असर पड़ना स्वाभाविक है। हालांकि कोई प्रतिक्रिया अभी नहीं आई है। भारत अमेरिका और रूस दोनों को साधने की नीति पर चल रहा है। चीन के खिलाफ क्वाड़ के गठन में भारत और अमेरिका साथ हैं तो रूस ने एस 400 मिसाइल रोधी प्रणाली देकर भारत की सीमाओं को अभेद्य बनाने में मदद की है। किसी संघर्ष की स्थिति में भारत के लिए स्थिति दुविधापूर्ण होगी।

Date:25-01-22

प्रदूषण और ठंड से बचकर नए ठिकाने बनाते लोग
अंबरीश कुमार, ( वरिष्ठ पत्रकार )

गोवा में पणजी से करीब 25 किलोमीटर दूर शहर पोंडा में एक सुपर मार्केट में राशन का सामान ले रहा था। सुपर मार्केट में गेहूं के आटे के साथ ज्वार, बाजरा, मक्का का भी आटा उपलब्ध था। पिछले चार दशक से गोवा आना-जाना रहा है, लेकिन इस तरह का बदलाव पहले कभी नहीं दिखा। ज्वार, बाजरा और मक्का तो उत्तर भारत में ज्यादा प्रचलित हैं। पता चला, करीब दो साल से यहां इनकी मांग बढ़ी है। दरअसल, उत्तर भारत के लोगों की आबादी गोवा में बढ़ रही है। खासकर कोरोना के दौर के बाद यह प्रवृत्ति और बढ़ी है। कामकाजी लोग गोवा की तरफ गए, तो घर के बुजुर्गों को भी साथ ले गए। कोरोना के बाद ऐसे लोगों की संख्या बढ़ी है, जिन्हें पोस्ट कोविड समस्या का सामना करना पड़ रहा है। यह गोवा के विभिन्न हिस्सों में दिखा भी। वैसे भी, ‘होम स्टे’ का प्रयोग सबसे पहले जिन राज्यों में हुआ, उनमें गोवा शामिल है। कम अवधि के सैलानियों की संख्या तेजी से घटी है, पर लंबी अवधि के लिए गोवा आने वालों की संख्या अब बढ़ रही है। कुछ समय पहले गोवा के लंबे प्रवास के दौरान यह महसूस भी हुआ था।

दिसंबर के अंतिम सप्ताह में पणजी से करीब 15 किलोमीटर दूर कैन्डोलिम के एक अपार्टमेंट में एक फ्लैट झाड़-पोंछकर तैयार किया जा रहा था, क्योंकि अगले तीन-चार महीने के लिए उसे दिल्ली के किसी सज्जन ने किराये पर ले लिया था। इसके बारे में पूछने पर पता चला कि कोई युवा जोड़ा है, जो ‘वर्क फ्रॉम होम’ के लिए यह फ्लैट ले रहा है। वजह दिल्ली, गुरुग्राम का प्रदूषण उन्हें बीमार बना रहा था। ठंड में उनकी समस्या और बढ़ जाती है। दिलचस्पी बढ़ी, तो कुछ और पड़ताल की। पणजी से लेकर मापुसा और अरेमबोल समुद्र तट तक जाने पर पता चला कि लॉकडाउन के बाद काफी संख्या में नौजवान यहां से ‘वर्क फ्रॉम होम’ कर रहे हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि मुंबई और दिल्ली जैसे महानगर रहने के लिहाज से महंगे हैं और अगर दफ्तर जाना जरूरी न हो, तो वे गोवा में रहना पसंद करते है। उन्हें जो फ्लैट मुंबई में 30-40 हजार रुपये का पड़ता है, वह गोवा में 15-17 हजार में मिल जाता है। फिर ये फ्लैट फर्निश होते हैं और इनमें इंटरनेट आदि की आधुनिक सुविधाएं भी रहती हैं। लेकिन यह सिर्फ आर्थिक पक्ष है। दो और खास वजहें हैं।

दरअसल, दिसंबर से लेकर फरवरी के मध्य तक जब उत्तर भारत में कड़ाके की ठंड पड़ती है, तब इसे बहुत से लोग बर्दाश्त नहीं कर पाते, जबकि गोवा में न तो ठंड पड़ती है, और न ही ज्यादा प्रदूषण होता है। गोवा शहरों के बजाय गांवों में ज्यादा बसा हुआ है। हरियाली ज्यादा है और प्रदूषण कम। इसी वजह से अब लोग इसे अपना दूसरा ठिकाना भी बना रहे हैं।

कानपुर के एक सज्जन, जो आईटी क्षेत्र के हैं, वह साल भर से यहीं हैं और ठंड के मौसम में अपने माता-पिता को भी ले आए हैं। दिसंबर और जनवरी की सर्दी उनके माता-पिता बर्दाश्त भी नहीं कर पाते थे और उन्हें अस्थमा की दिक्कत भी थी। गोवा के मौसम में वे आराम से रहते हैं। गोवा जैसे इलाके उत्तर भारत के उद्यानों से बहुत बेहतर हैं। साफ हवा, धूप की वजह से उन्हें यह जगह अच्छी लगती है। दरअसल, गोवा की बसाहट अभी भी बहुत घनी नहीं है और हरियाली ज्यादा है। हवा अन्य शहरों के मुकाबले साफ है। अन्य बड़े महानगरों की अपेक्षा यहां रहना सस्ता पड़ता है। यहां चिकित्सा सुविधा, आवास आदि भी बेहतर हैं।

कुछ नौजवान तो ऐसे भी मिले, जो बाकायदा अपना दफ्तर दिल्ली से गोवा के किसी गांव में शिफ्ट कर चुके हैं। इस वजह से उनका खर्च आधा हो गया है, खासकर आईटी क्षेत्र से जुड़े लोगों को बहुत सुविधा है। आज बड़े-बड़े उद्योग ऐसे छोटे और सुविधाजनक इलाकों या शहरों की तलाश में हैं, जहां काम करने की भी सुविधा हो और प्रदूषण से भी निजात मिले। काम की वजह से यहां लोग पहले भी आते रहे होंगे, लेकिन स्वास्थ्य की वजह से आने वाले लोग नए हैं। साफ है, ऐसी जगहों की मांग बढ़ रही है, जहां न ज्यादा गरमी पड़ती है और न सर्दी। यह उन महानगरों के लिए भी चिंता की बात है, जो रहने लायक बने रहने के लिए जूझ रहे हैं। जैसे-जैसे प्रदूषण में बढ़ोतरी होगी, वैसे-वैसे महानगरों का आकर्षण घटता जाएगा और शायद उनका मूल्य भी।

Date:25-01-22

Be Smart, Nato
Germany’s sacked navy chief was right when he said the biggest threat is China, not Russia
TOI Editorials

Germany’s navy chief, Vice-admiral Kay-Achim Schoenbach, has had to resign for comments he made at an event in India. With tensions once again rising between Ukraine and Russia, Schoenbach had said that Kiev would not regain the Crimean Peninsula Moscow had seized in 2014. In recent weeks Russia has amassed around 1 lakh troops along the Ukrainian border as part of what it says are winter exercises. Ukraine and the West fear this is preparation for a full-scale Russian invasion. Both the US and UK have pulled out some of their embassy staff and their dependants in Ukraine. Moscow has long objected to Nato’s eastward expansion and sees any moves to include Ukraine in the bloc as a red flag. Its seizure of Crimea and support for rebels in Ukraine’s eastern Donbas region show it is prepared to push the envelope.

While helping Ukraine defend its borders is necessary, provoking Russia into a confrontation will be counterproductive for Nato. Russia has enough military depth to seriously complicate security dynamics in Europe. Plus, it provides Europe with more than 40% of its natural gas supply. This supply can get severely disrupted in the event of conflict, pushing European economies into turmoil. Therefore, Nato needs to adopt a sophisticated strategy to deal with Russia at this juncture. Given this, Schoenbach’s analysis that it is important to have Russia on the same side against China is a pragmatic one.

For, China with its vast economic and technological prowess is the biggest threat to the global order. The Nato summit communique of June 2021 had specifically identified China as a systemic challenge to the rules-based international system. Hence, if Nato were to get bogged down in a conflict with Russia, it would take away from international efforts needed to push back against an alarmingly aggressive China.

Despite what strongmen like Putin may want to believe Russia, minus its military capability and its forays into alleged dodgy cyber interference in other nations’ affairs, isn’t a big enough power to seriously disrupt the world. The country is facing de-population, and without a substantive economy – it primarily relies on military and energy exports – its ability to influence matters are limited. A conflict started by Russia also hurts Russia. And its alleged cyber interference may hurt rivals but Moscow mostly gains more mistrust. But teamed with China, Russia can be a serious disruptor and further Beijing’s interests. Thus, a better approach will be to work out a modus vivendi with Russia in Europe and drive a wedge between Moscow and Beijing. Nato needs to play smart here.

Date:25-01-22

Rules For A Civil Service
Centre should address the fall in central deputation by consulting both states and IAS officers
KM Chandrasekhar is former Cabinet Secretary,TKA Nair served as Principal Secretary to PM Manmohan Singh

The Indian Administrative Service has been making big headlines with the chief minister of West Bengal and other states taking serious objections to the central government’s proposed amendments to the rules governing the deputation of IAS officers. For the sake of effective governance and in the spirit of cooperative federalism, any drastic changes in the rules should await a process of consultation with the states.

Recruited, appointed and trained by the central government and allotted to various state cadres, IAS officers are mandated to serve not only the state cadre to which they belong but also the central government whenever they are called upon to do so.

Senior positions in the central government from the level of deputy secretary/ director to secretary are expected to be manned by IAS officers on central deputation from different state cadres and officers from other services as well as others appointed for their domain knowledge.

Thus officers of the IAS are under the dual control of the state governments to which they belong and the central government which is their appointing authority. The scheme and structure of the IAS envisages this sharing of power in order to enable both the Centre and states to utilise the officers’ services for the effective governance of the country.

While the central government is vested with the ultimate authority in matters relating to their service conditions including postings, transfers and disciplinary actions, the state governments too have a participating role in these matters by way of the relevant rules.

The changes to the IAS cadre rules proposed by the central government should therefore be viewed in the context of the structure and functioning of the central and state governments within our quasi federal polity.

According to media reports the central government addressed two letters dated January 5 and 12, proposing changes and additions to the IAS cadre rules. The first proposes that the state governments “shall make available for deputation to the central government” eligible officers at various levels under the deputation reserve, calculated jointly by the central and state governments, with the former’s view prevailing in case of disagreement. Besides, it mandates state governments to carry out the direction of the central government within a specified period of time.

Going further through the subsequent letter of January 12, the Centre arrogates to itself the authority to seek the services of any IAS officer in a state for posting to any central post, where too “the state government shall give effect to the decision of the central government within the specified time. ” More drastically it states that if the state government ignores this direction within the period specified by the central government, “the officer(s) shall stand relieved from the cadre from the date as may be specified by the central government. ”

There is a suddenness to these moves and they are statedto have been occasioned by the steep fall in the number of officers going on central deputation, from 69% of the mandated reserves in 2014 to 30% in 2021, according to one estimate.

This is, of course, a serious shortfall, but instead of proposing drastic changes in the rules, GoI should first introspect and examine why central deputation is no longer as popular as it was in the past.

Have the conditions of service in the Centre deteriorated vis-à-vis the states, making central deputation a less attractive option for officers in the states? Have changes in the empanelment system at higher levels closed the door to officers who would have otherwise been available for service at the Centre? Has uncertainty crept into tenures of service for IAS officers on central deputation?

GoI should also be conscious of the fact that grassroots-level administration remains with the states. Even central schemes are largely implemented through state governments. Arbitrary and sudden transfers of officers from the states to the Centre can be highly disruptive, undermining governance in the state.

Moreover, non-BJP states are alarmed at what they, with some justification, perceive as serious infringement of their constitutionally sanctified right to govern through their institutions of governance of which the IAS is a critical part.

Against the backdrop of increasing points of difference and areas of confrontation between the central government and non-BJP state governments, controversy over the proposed amendments is avoidable.

It is therefore good that the central government has initiated a process of consultation with the states. They would be well-advised to widen and deepen the process to include the officers too and then decide whether the proposed amendments are in the right direction for ensuring timely availability of IAS officers at different levels for deputation to the Centre – without undermining the authority, responsibility and functional efficiency of the states and causing undue distress to the officers and disruption of their family lives.

At the end of the day, the solution lies in cooperative federalism. As Prime Minister Narendra Modi said at a function in Burnpur in 2015, “Our Constitution gave us a federal structure. Sadly, Centre-state relations were tense for a long time. I have been a chief minister, and I know this is not desirable. That is why we have brought change, keeping the focus on cooperative federalism … That is why I say Team India … The country cannot progress without a Team India attitude. ”