22-03-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक

 

Date:22-03-22

जल समस्या का समाधान सही प्रबंधन में है
डॉ. अनिल प्रकाश जोशी, ( पद्मश्री से सम्मानित पर्यावरणविद् )

आज पानी को हम दो ही रूप में देख रहे हैं एक जब सूखा पड़ता है और इसको लेकर देशभर में हो-हल्ला मचता है और दूसरा फिर जब देश बाढ़ की चपेट में आता है। ये दो ही पानी के सबसे बड़े पहलू हैं, जिन्हें आज हम सब भुगत रहे हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि ये दोनों ही हमारे प्रबंधन के अभाव के कारण है। क्योंकि अगर हम चार सौ साल पहले जाएं तो प्रकृति के प्रबंधन का लोहा मानना पड़ेगा। निश्चित रूप से तब जनसंख्या कम रही होगी और खपत भी उतनी नहीं रही होगी, पर फिर भी प्रबंधन सटीक किस्म का था।

पहली बड़ी बात यह है कि हमने पानी को लेकर प्रकृति के प्रबंधन की तरफ तवज्जो नहीं दिया, जिसने पानी हम तक पहुंचाया। हमने पहुंचे हुए पानी को ही अपने वर्तमान प्रबंधनों से बहुमंजिला इमारतों व उद्योगों में धकेल दिया। हम यह बात नकार गए कि पानी की बहुतायत ही या पानी की बेहतर उपस्थिति ही हमारे प्रबंधन का सबसे बड़ा आधार है। हम जल वितरण पर इस तरह उतारू हो गए कि उपलब्धता दरकिनार कर दी। पानी की तंगी की बड़ी चर्चा के बाद भी देश भर में बनने वाले तमाम ढांचागत विकास में पानी की समझ व सोच नदारद रहती है। मसलन हम पहले बहुमंजिला इमारतें व उद्योग खड़ा करते हैं और पानी के लिए भूमिगत पानी हड़पना शुरू कर देते हैं। यह नहीं समझ पाते कि हम एक सीमा तक ही भूमिगत पानी का उपयोग कर सकते हैं।

देश में बारिश अथाह है। सिर्फ अंतर यह है कि हमने उसके दोहन के रास्तों को ना बनाया और ना ही समझा। उल्टा दूसरी तरफ तमाम जलाशयों को भी समाप्त कर दिया। कुओं की बात करें या हजारों से ज्यादा वर्षाजनित नदियों की, सब गंभीर हालत में हैं। खासतौर से वर्षाजनित नदियों का घटता जल स्तर यही इशारा करता है कि हम कहीं प्रकृति के प्रबंधन को समझने में चूके हैं। इन नदियों के मरने का मतलब भूमिगत जलस्तर का घट जाना और साथ में कुंओं का सूखा पड़ जाना भी होता है। जहां एक तरफ हर तरह के जल भंडार हम खो रहे हैं वहीं दूसरी तरफ इनमें आने वाले पानी के रास्तों को भी तबाह कर दिया। उदाहरण के लिए आज देश-दुनिया के जलागम (वाटरशेड) बहुत अच्छे स्तर पर नहीं कहे जा सकते। ऐसे में हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती वाटर बॉडीज़ को बेहतर बनाने की होनी चाहिए। ये सिर्फ प्रकृति के प्रति समझ से ही सम्भव होगा। प्रकृति ने ही तो हमें पानी परोसा और ये जलागम ही हैं, जिनसे नदियां बनती है और इनसे सब कुछ सींचा जाता है।

आज जरूरी है कि अब पानी की बात सूखे व बाढ़ को जोड़कर करें। सबसे बड़ा कदम पानी को जोड़ने का है। ये प्रकृति के ही माध्यम से ही सम्भव होंगे। पानी अब किसी सरकार का ही सवाल नहीं है यह सामूहिक चिंता का सवाल है। अब हमारे पास मात्र एक रास्ता बचा है वो ये कि हम किस तरह से अपने देश, राज्य व गांव में पानी को रिचार्ज करने के रास्ते खोजें और वो भी प्रकृति के माध्यम से। वैसे प्रकृति ने सब बताया-सिखाया है, पर हमने मुंह फेर रखा है। जहां भी हम कालांतर में बसे या फिर आज बसे हैं, उनके पानी के स्रोत सब पुनर्जीवित हो सकते हैं बशर्ते हम प्रकृति को ना समझने की जिद छोड़ दें। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हम और प्रकृति दोनों ही प्रभु के उत्पाद हैं। किसी भी एक के भटक जाने से दूसरे पर प्रतिकूल असर पड़ना ही है।

Date:22-03-22

बचाना होगा भूजल को
अतुल कनक

इस बार संयुक्त राष्ट्र ने विश्व जल दिवस की विषय वस्तु के रूप में भूगर्भीय जल को चुना है। यानी इस वर्ष दुनिया भर में भूगर्भीय जल को बचाने और उसका स्तर बढ़ाने के लिए विभिन्न उपाय करने के संदर्भ में लोगों को जागरूक बनाने के प्रयास किए जाएंगे। यह महत्त्वपूर्ण है कि भूगर्भीय जल पृथ्वी पर मानव जीवन की जरूरतों का सबसे बड़ा सहारा है। जब बरसाती बादल किसी कारण से रूठ जाते हैं तो भूगर्भीय जल ही मानव की जरूरतों को पूरा करता है। दुर्भाग्य से दुनिया में आधुनिक जीवनशैली ने भूगर्भीय जल के दोहन को तो बेलगाम तरीके से बढ़ा दिया है, लेकिन उन तमाम जल संसाधनों के संरक्षण के प्रति भी उदासीन कर दिया है जो भूगर्भीय जल का स्तर बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। भारत में तो इस संदर्भ में कुंओं, तालाबों और जोहड़ों का विशेष योगदान था, जो वर्षा जल संग्रहित करके रखते थे और इस तरह इलाके के भूगर्भ जल स्तर को बनाए रखने में मदद करते थे।

राजस्थान के मरुस्थलीय इलाकों में इतने गहरे कुंए पाए जाते हैं कि उन्हें पातालतोड़ कुंआ कहा जाता है। दुर्भाग्य से जिन इलाकों में नलों के माध्यम से पानी पहुंच गया, वहां नागरिक और प्रशासन दोनों प्राचीन जल संसाधनों के संरक्षण के प्रति उदासीन हो गए। रही-सही कसर पूरी कर दी बिना नियंत्रण के खुदते नलकूपों ने, जो धरती के अंदर का पानी तो बाहर उलीच देते हैं, लेकिन धरती के अंदर पानी का स्तर बचाए रखने में कोई भूमिका नहीं निभा पाते। मिसाल के तौर पर, कुछ समय पहले राजस्थान सरकार ने शहरी क्षेत्रों में भी भूगर्भीय जल के दोहन की प्रक्रिया प्रारंभ करने के पूर्व स्वीकृति के उपबंध को समाप्त कर दिया। इससे जगह-जगह जमीन में नलकूप खोदने और अनियंत्रित तरीके से कुंए खोदने का काम शुरू हो गया। जो लोग मानवता के भविष्य के लिए जल संरक्षण के प्रति प्रतिबद्ध हैं, उन्हें यह स्थिति डराती है क्योंकि भूगर्भीय जल के अनियंत्रित दोहन ने प्रदेश के बहुत सारे हिस्सों में पहले ही उपलब्ध जल भंडारण की स्थिति को भयावह कर दिया है।

हर साल गर्मी के मौसम में देश के विविध हिस्सों से जल-संकट की विविध डरावनी तस्वीरें सामने आती हैं। साल 2020 और 2021 में जल-संकट की चर्चा कम रही, क्योंकि सारी मनुष्यता के सामने कोरोना महामारी का संकट था। वरना याद करिए कि उसके पिछले वर्षों में शिमला में लोगों ने जल संकट के कारण पर्यटकों की आवाजाही भी बंद करने की अपील की थी और चेन्नई जैसे महानगर में लोगों को सलाह दी गई थी कि वे घर से काम करें, क्योंकि दफ्तरों में सबके लिए पीने का पानी भी नसीब नहीं हो पा रहा था। बुंदेलखंड में हर वर्ष पानी का संकट सामान्य जीवन को अस्त-व्यस्त कर देता है। पानी के लिए हिंसक झड़पों की खबरें तो 2020 की ग्रीष्म ऋतु में भी सामने आईं, लेकिन मीडिया में उनकी चर्चा कम हुई।

जल संकट की खबरें भले ही पार्श्व में चली गई हों, लेकिन मनुष्यता के लिए पानी के संरक्षण की चिंता सबसे ज्वलंत मुद्दों में एक है। इसका बड़ा कारण यह है कि अपनी जल संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य आज भी या तो प्रकृति पर निर्भर है या भूजल पर। ऐसे में जरूरी है कि हम प्राकृतिक जल भंडारण के स्रोतों के संरक्षण के प्रति संवेदनशील होते। लेकिन हमने परंपरागत जल स्रोतों के साथ बहुत सौतेला और स्वार्थ भरा बर्ताव किया। पुराने तालाबों, कुंओं, झीलों, बावड़ियों और कुंडों को उपेक्षित छोड़ दिया। नदियों को प्रदूषित कर दिया। स्थिति यह है कि देश की अधिकांश नदियों का पानी कई जगहों पर पीने योग्य तक नहीं पाया गया है। इस सूची में पवित्र गंगा नदी भी शामिल है। ये प्राचीन जल-स्रोत न केवल अपने अस्तित्व में पर्याप्त मात्रा में जल भंडारण करते थे, बल्कि भू गर्भ के जल स्तर को बनाए रखने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे। लेकिन दुर्भाग्य से तरक्की के आधुनिक मानदंडों ने प्रकृति की इस संपदा पर दोहरा प्रहार किया। न केवल परंपरागत जलस्रोतों को नष्ट किया गया, बल्कि मनमाने तरीके से भू-गर्भीय जल का दोहन भी किया गया। 1970 के दशक में हालात तब और खराब हुए जब सरकारों ने बिना भविष्य की संभावनाओं पर विचार किया देश भर में बड़े पैमाने पर नलकूप खुदवा डाले। इससे लोगों की त्वरित जरूरत तो पूरी हो गई, लेकिन भविष्य के लिए भंडारण की स्थिति भयावह हो गई। एक आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार 1975 में जो भूजल दोहन साठ प्रतिशत था, वह 1995 में बढ़ कर चार सौ प्रतिशत हो गया।

पानी को लेकर होने वाले संघर्षों की हर कहानी कतिपय वैज्ञानिकों की इस आशंका को बल देती है कि कहीं अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर नहीं हो। वह भी तब जबकि पृथ्वी का दो तिहाई हिस्सा पानी से घिरा हुआ है। पर हम जब यह तथ्य जानते हैं कि पृथ्वी पर कुल उपलब्ध जल का 97.2 प्रतिशत पानी समुद्रीय है और उसका पीने में उपयोग संभव नहीं है, तो हम सावचेत होते हैं। वर्ष 1989 में पानी की उपलब्धता नौ हजार घन मीटर थी, जो सन 2025 तक पांच हजार एक सौ घन मीटर रह जाने की संभावना है। बढ़ते जल संकट का बड़ा कारण भूगर्भ जल का अंधाधुंध दोहन भी है।

केंद्रीय भू-जल बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में सन 2007 से 2017 के बीच भूगर्भ जल के स्तर में इकसठ प्रतिशत की गिरावट आई। हालत यह हो गई कि कई नदियों के किनारे बसे गांवों में भी लोगों को पेयजल की किल्लत का सामना करना पड़ रहा है। महत्त्वपूर्ण यह है कि सारी दुनिया में भूगर्भ जल का प्रयोग करने के मामले में भारत अव्वल है। चीन और अमेरिका का स्थान क्रमश: दूसरा और तीसरा है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी)-खड़गुपर और कनाडा के अथाबास्का विश्वविद्यालय की एक संयुक्त शोध रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय औसतन प्रतिवर्ष दो सौ तीस घन किलोलीटर जल का उपयोग करते हैं। यह आंकड़ा वैश्विक एजेंसियों द्वारा मनुष्य समुदाय के लिए आवश्यक माने गए जल उपयोग के मानदंडों से अधिक है। माना यह भी जाता है कि एक निश्चित सीमा के बाद यदि जल का उपयोग किया जाता है, तो वह वस्तुत: उपयोग नहीं होता, बल्कि दुरुपयोग होता है। हम हमारे दुरुपयोग को तार्किकता की कसौटी पर सही बताने के तरीके भले निकाल लें, लेकिन यह स्थिति डराती है। खासकर तब, जब नीति आयोग की जल प्रबंधन सूचिका का यह आंकड़ा पढ़ते हैं कि देश के पचहत्तर प्रतिशत घरों में आज भी जलापूर्ति की समुचित व्यवस्था नहीं है। स्पष्ट है कि इसमें अधिक संख्या वंचित तबके की है। संपन्न वर्ग की सुविधाभोगी आदतों से जन्में संकट का सामना इसी वर्ग को करना होता है।

कहते हैं कि प्रकृति के पास सब प्राणियों की आवश्यकता को पूरा करने योग्य संसाधन हैं, लेकिन वह लालच किसी का भी पूरा नहीं कर सकती। दुर्भाग्य से जल उपयोग के संदर्भ में मनुष्य जाति का व्यवहार लालची भी हुआ और लापरवाह भी। नदियों की शुचिता को प्रदूषण ने चुनौती दी तो कुंए, बावड़ी, कुंड, जोहड़ और तालाब जैसे परंपरागत जलस्रोत जमीन की लगातार बढ़ती भूख या अनदेखी के शिकार होते चले गए। वर्षा जल संग्रहण के जो परंपरागत साधन थे, आधुनिक जीवनशैली ने उन्हें भी अप्रासंगित मान लिया। ऐसे में आवश्यकता है कि हम जल के उपलब्ध भंडारण के संरक्षण के प्रति सचेत हों और वर्षाजल के संग्रहण के प्रति सजग रहें। यह सजगता ही हमें भविष्य की परेशानियों से बचा सकती है।

 

Date:22-03-22

क्वाड देश और भारत
संपादकीय

हर देश के अन्य देशों से अपने द्विपक्षीय संबंध होते हैं, अंतरराष्ट्रीय बाध्यताओं को निभाते समय उसे अपने परस्पर संबंधों को भी निभाना होता है। इसी मान्यता के आधार पर क्वॉड देशों ने रूस पर भारत के रु ख को स्वीकारते हुए किसी भी नाराजगी से इनकार किया है। ऑस्ट्रेलिया का कहना है कि रूस पर भारत के रु ख को क्वॉड सदस्यों ने स्वीकार किया है और कोई भारत के रुख से नाखुश नहीं है। भारत के साथ ही ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और जापान क्वॉड के सदस्य हैं। भारत में ऑस्ट्रेलिया के उच्चायुक्त बैरी ओ फैरल ने पुष्टि की कि क्वॉड सदस्य जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया इस बात को स्वीकार करते हैं कि रूस को लेकर भारत की राय उनसे अलग है, लेकिन इस बात से कोई नाराज नहीं है। इन सभी देशों का मानना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और विदेश मंत्रालय यूक्रेन में जारी युद्ध को खत्म करने के लिए अपनी तरफ से भरपूर कोशिशें कर रहे हैं। क्वॉड सदस्यों में भारत एकमात्र देश है, जिसने यूक्रेन पर हमले को लेकर रूस की निंदा नहीं की है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में रूस विरोधी प्रस्तावों पर मतदान में हिस्सा नहीं लिया, जिसकी रूस ने तारीफ की थी। कई देशों ने भारत पर रूस के खिलाफ रु ख अपनाने के लिए दबाव बनाने का भी प्रयास किया, मगर भारत रूस के साथ अपने आपसी संबंधों को कायम रखे हुए है व उससे तेल खरीद का समझौता भी कर चुका है। जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के नेताओं ने इस महीने की शुरुआत में प्रधानमंत्री मोदी के साथ एक बैठक की थी। बैठक में तीनों नेताओं ने मोदी को अपने जैसा रु ख अपनाने के लिए मनाने की कोशिश की थी, जिसमें वे नाकाम रहे। अब ये नेता भी इस बात को महसूस कर रहे हैं कि यूक्रेन पर रूसी हमलों को लेकर भारत का रुख 1957 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की अपनाई उस नीति से प्रेरित नजर आता है कि भारत निंदा करने का काम नहीं करता है और टकराव के समाधान की गुंजाइश बनाने पर ध्यान केंद्रित करता है। रूस-यूक्रेन विवाद में भी भारत का यही कहना है कि संकट का समाधान वार्ता और कूटनीति के जरिए किया जाना चाहिए। भारत अपनी सैन्य और अन्य जरूरतों के लिए काफी हद तक रूस पर निर्भर है। भारत की कुल हथियार खरीद का 60 प्रतिशत से ज्यादा रूस से आता है। वर्तमान में जिस समय भारत चीन के साथ संबंधों में ऐतिहासिक तनाव झेल रहा है और उसकी हथियारों की जरूरत और बढ़ रही है। ऐसे में रूस के साथ संबंधों में खिंचाव की स्थिति भारत की सामरिक स्थिति को दबाव में ला सकती है। भारत अपने नये दोस्तों को खुश करने के लिए पुराने को नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकता।

Date:22-03-22

सतर्क करने वाला फैसला
अवधेश कुमार

शिक्षालयों में हिजाब पहनने का विवाद इतनी आसानी से नहीं निपटेगा यह स्पष्ट था। कर्नाटक उच्च न्यायालय का फैसला आया नहीं कि सर्वोच्च अदालत में याचिकाएं दायर हो गई। जाहिर है पहले से इसकी तैयारी हो चुकी थी और उच्च न्यायालय के आदेश का अनुमान भी लगा लिया गया था। किंतु कर्नाटक उच्च न्यायालय कह रहा है इस्लाम मजहब में हिजाब पहनना मजहब प्रथा का अनिवार्य हिस्सा नहीं है तो उसने उसका आधार भी दिया है। जब यह धार्मिंक प्रथा का अनिवार्य अंग नहीं है तो संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत संरक्षित नहीं हो सकता। इस तरह उच्च न्यायालय ने विद्यालयों, महाविद्यालयों समेत शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पहनने पर रोक के आदेश को सही ठहरा दिया है।

जो लोग इसे जबरन मजहबी अधिकार मनवाने पर तुले हैं, वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते। वे इसे मजहबी स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन साबित कर रहे थे और उच्च न्यायालय कह रहा है कि नहीं यह धार्मिंक मामला है ही नहीं तो मौलिक अधिकार का उल्लंघन कैसे हो गया। उच्च न्यायालय ने स्पष्ट लिखा है कि राज्य सरकार द्वारा विद्यालयों में ड्रेस का निर्धारण संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत छात्रों के अधिकारों पर तर्कसंगत नियंत्रण है और 5 फरवरी का कर्नाटक सरकार का आदेश अधिकारों का उल्लंघन नहीं है।

इस्लाम के जानकारों में भी ऐसे लोग थे जो बता रहे थे कि हिजाब कभी भी मजहब के आईने में इस्लाम की अनिवार्य व्यवस्था रही नहीं, लेकिन देश में ऐसा बहुत बड़ा वर्ग पैदा हो गया जो किसी सामान्य आदेश को भी अपने मजहब अधिकारों पर उल्लंघन मानकर इस्लाम के विरुद्ध साबित करने पर तुल जाता है। कितना तनाव कर्नाटक में पैदा हुआ और उसका असर अलग-अलग राज्यों में कैसा हुआ इसे याद करिए तो आपके सामने इसके पीछे की चिंताजनक इरादे स्पष्ट हो जाएंगे। कट्टरपंथी तत्व मुस्लिमों के बहुत बड़े समूह के अंदर यह बात गहरे बिठा चुके हैं कि जिस तरह भाजपा सरकारें काम कर रही हैं और न्यायालयें फैसला दे रही हैं, उससे देश में मुसलमानों के लिए मजहबी रीति-रिवाजों, परंपराओं का पालन करना कठिन हो जाएगा। इस झूठ ने आम मुसलमानों के अंदर गहरी शंका पैदा की है और वे उनके आह्वान पर सड़कों पर उतर उग्र बन जाते हैं। इससे केवल कट्टरता बढ़ रहा है। ये बार-बार पराजित होते हैं, लेकिन इन पर असर नहीं है। उच्च न्यायालय के सामने इस्लामिक आस्था या धार्मिंक प्रथा के प्रश्न के साथ यह भी था कि छात्रों को इस पर आपत्ति करने का अधिकार है या नहीं। उसने साफ कहा है कि नहीं है। उसने इस प्रश्न का भी उत्तर दिया है कि सरकार का 5 फरवरी का आदेश गलत, मनमाना और संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 यानी मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। वास्तव में पूरे फैसले को गहराई से देखें तो यह कई मायनों में दूरगामी महत्व वाला तथा इस्लाम के नाम पर लादी गई प्रथाओं को गलत साबित कर हर वर्ग के जागरूक और सच्चे आस्थावान लोगों की आंखें खोलने वाला है।

उदाहरण के लिए मजहबी स्वतंत्रता के अधिकार पर न्यायालय की टिप्पणी है कि संविधान के अनुच्छेद 25 के संरक्षण का सहारा लेने वाले को न केवल अनिवार्य मजहबी प्रथा साबित करनी होती है बल्कि संवैधानिक मूल्यों के साथ अपना जुड़ाव भी दर्शाना होता है। यदि प्रथा मजहब का अभिन्न हिस्सा साबित नहीं होती तो मामला संवैधानिक मूल्यों के क्षेत्र में नहीं जाता। यह ऐसी टिप्पणी है, जिसका आने वाले समय में बार-बार उल्लेख किया जाएगा। हालांकि हमें सर्वोच्च अदालत के फैसले की प्रतीक्षा करनी चाहिए, लेकिन अगर उच्च न्यायालय को यह प्रमाण मिल जाता कि हिजाब इस्लाम का अभिन्न हिस्सा है और छात्राएं न पहनने के बाद मजहब से खारिज हो जाएंगी तो वह ऐसा फैसला कतई नहीं देता। ऐसा है ही नहीं और स्वयं इस्लामी देशों में भी इसके प्रमाण हैं तो कोई न्यायालय अलग फैसला कैसे दे सकता है। आम मुसलमानों और देश को यह बताया जाना आवश्यक है कि न्यायालय ने फैसले में स्पष्ट कहा है कि प्रथम दृष्टया रिकॉर्ड पर ऐसी कोई सामग्री पेश नहीं की गई, जिससे साबित होता है कि हिजाब पहनना इस्लाम में मजहब का अभिन्न हिस्सा है और याचिकाकर्ता छात्राएं शुरू से ही पहन रही हैं। उन छात्राओं की तस्वीरें आ चुकी हैं, जिसमें वो पहले कॉलेज यूनिफॉर्म में जाती थी। अनेक मुस्लिम छात्राएं यूनिफॉर्म में जातीं रहीं। अचानक उन्होंने हिजाब पहन लिया और इसे भी न्यायालय ने उद्धृत किया है।

न्यायालय की टिप्पणी है कि ऐसा नहीं है कि अगर हिजाब पहनने की परंपरा नहीं निभाई गई या जिन्होंने हिजाब नहीं पहना वे गुनाहगार होंगी, इस्लाम अपना गौरव खो देगा और मजहब के तौर पर उसका अस्तित्व खत्म हो जाएगा। जरा सोचिए, तर्क यही दिया जाता था और है कि महिलाएं मजहब के अनुसार गुनाहगार साबित हो जाएंगी, इस्लाम पर खतरा उत्पन्न हो जाएगा और इसका अस्तित्व मिट सकता है। जाहिर है, कट्टरपंथी समाज में विद्वेष पैदा करने के इरादे से झूठ फैला रहे थे। न्यायालय ने फैसला इससे जुड़े सभी पहलुओं को ध्यान रखते हुए दिया है, जिसमें शिक्षा, विद्यालय, शिक्षक, वस्त्र आदि की अवधारणा, महत्त्व आदि का विश्लेषण है। विद्यालय की अवधारणा शिक्षक, शिक्षा और यूनिफार्म के बगैर अपूर्ण है और यह सब मिलकर एकीकरण करते हैं। स्कूल में यूनिफार्म की अवधारणा नई नहीं है।

अनेक मुस्लिम देशों में भी इस तरह के स्कूल चलते हैं और वहां मुस्लिम लड़कियां हिजाब पहनकर नहीं जाती। एक याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि यूनिफॉर्म पहली बार अंग्रेजों के समय लाया गया था। न्यायालय ने तथ्यों के आधार पर स्पष्ट कर दिया है कि यह अवधारणा पुराने गुरुकुल काल से चली आ रही है। भारतीय ग्रंथों में समवस्त्र, शुभ्रवेश आदि का जिक्र है, उसके विवरण हैं। एक याचिकाकर्ता ने बड़ी चालाकी से अपील की थी कि यूनिफार्म के रंग की हिजाब की इजाजत दे दी जाए। जाहिर है, न्यायालय ऐसा कर देता तो स्कूल के यूनिफॉर्म का कोई मतलब नहीं रह जाता। न्यायालय की इन पंक्तियों पर ध्यान दीजिए-नियम का उद्देश्य एक सुरक्षित स्थान बनाना है जहां ऐसी विभाजन कारी रेखाओं का कोई स्थान नहीं होना चाहिए सर्वोच्च अदालत का फैसला भी आने दीजिए, पर ऐसे तत्वों के प्रति सतर्क रहना और इनका तार्किक विरोध करना प्रत्येक भारतीय नागरिक का दायित्व बन जाता है।