20-05-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक

Date:20-05-22

Objection Milords
SC’s GST Council ruling is an overreach and can be hugely disruptive. GoI should file review petition
TOI Editorials

India’s indirect tax architecture received a massive jolt yesterday when a three-judge Supreme Court verdict overturned the commonly understood remit of a critical constitutional body: GST Council. In the five years since GST has been rolled out, the GST Council chaired by the Union finance minister and having representatives of all states, has been the decision-making body on all key matters such as tax rates. Decisions of the Council are put to vote and seen to be binding on both GoI and states. SC’s verdict now says the Council’s decision is merely recommendatory.

It’s a tectonic shift, unsettling India’s indirect tax architecture. “To regard them as binding edicts would disrupt fiscal federalism,” said the judgment of GST Council’s decisions. In practice, it’s the other way around. To now regard the GST Council’s decisions as just recommendatory in nature will undermine the current fiscal order which was painstakingly created across governments. For economic agents, including firms and individuals, it introduces a level of uncertainty which is bound to undermine confidence. This, in turn, will act as a drag on economic activity. This is why SC’s judgment is such an unwelcome intervention.

The origin of this verdict goes back to a decision handed by a division bench of the Gujarat high court in January 2020. Companies that import coal for domestic industries challenged a tax levied by GoI under two statutory laws that are a part of the GST architecture. Gujarat HC ruled against GoI, which subsequently brought the matter to the apex court. In the apex court, GoI did categorically state that GST Council’s decisions are binding on both legislature and the executive. This argument was rejected by the apex court, thereby overturning the well-established hierarchy of decision making in GST.

The situation is now untenable. If the GST Council’s decisions are not binding it opens the door to states cherry picking. That will defeat the whole purpose of transitioning to GST that aimed to createa common market in India by dismantling fiscal barriers between states. States voluntarily subsumed their unilateral powers over indirect taxation to usher in GST. For sure, there have been disagreements within the GST Council but the binding nature of its decisions have never been in question. This verdict is clearly one of judicial overreach and intrudes into the domain of the legislature. GoI should file a review petition right away.

Date:20-05-22

देश तो आगे जा रहा है पर महिलाएं पिछड़ रही हैं
नीरज कौशल, ( कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर )

अधिकतर भारतीयों को लगता है कि स्त्रियों के बारे में हमारे जो मानदंड हैं, वे उदारवाद और पारम्परिकता के बीच सही संतुलन बनाते हैं। वे कहेंगे कि भारतीय महिलाएं पश्चिमी दुनिया की स्त्रियों की तरह स्वच्छंद नहीं, लेकिन अरब दुनिया की तरह बंधनों में जकड़ी हुई भी नहीं हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि आज भारतीय महिलाओं की कामकाज में सहभागिता की दर अनेक अरब देशों से भी कम हो गई है। दरअसल, बहुतेरे अरब देशों में यह दर बढ़ रही है, वहीं भारत में घट रही है। मिसाल के तौर पर सऊदी अरब की स्त्रियों का वर्क पार्टिसिपेशन रेट भारतीय महिलाओं से अधिक है। हाल के वर्षों में सऊदी अरब में अनेक सुधार हुए हैं, जिससे लैंगिक विभेद में कमी आई है। 2016 में सऊदी महिलाओं की श्रमशक्ति में सहभागिता 18% थी, वहीं 2020 में वह 33% हो गई थी। भारत में स्थिति विपरीत है। सरकारी आंकड़ों की मानें तो 2012 में यह दर 31% थी, जो 2021 में घटकर 21% हो गई। सेंटर फॉर मानिटरिंग द इंडियन इकोनॉमी का डाटा तो और कम आंकड़े बताता है।

आप इससे इस निष्कर्ष पर पहुंचने की जल्दबाजी कर सकते हैं कि भारत में लैंगिक विषमता बढ़ रही है और उच्च विकासदर के बावजूद महिलाओं को पर्याप्त अवसर नहीं मिले। लेकिन वास्तविकता थोड़ी जटिल है, जैसा कि मैंने हाल ही की कुछ फील्ड विजिट्स में पाया। जो तथ्य उभरकर सामने आए, उनका संबंध बाजार से कम और सांस्कृतिक और सामाजिक मानकों से अधिक था। परम्परागत रूप से हमारे यहां महिलाओं के नौकरी करने को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। इसमें जातिगत विभाजन और प्रवासियों की बढ़ती संख्या को जोड़ें तो एक पेचीदा तस्वीर उभरती है। अपनी फील्ड विजिट्स के दौरान मैंने महिलाओं के अनेक समूहों से पूछा कि ग्रामीण भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या क्यों घट रही है। पूर्वी उत्तरप्रदेश के एक दलित बहुल गांव में एक समूह ने बताया कि इसका मुख्य कारण यौन उत्पीड़न है। एक महिला ने कहा कि अतीत में यौन उत्पीड़न सामान्य बात थी और हमारे पूर्वजों ने इसे स्वीकार कर लिया था, लेकिन हमें ये मंजूर नहीं इसलिए काम छोड़ दिया। हमारी यह बातचीत सुन रहे एक पुरुष ने कहा कि बिरादरी में उन घरों की इज्जत नहीं की जाती है, जिनकी औरतें बाहर जाकर काम करती हैं। लोग उनके यहां अपने बेटे-बेटियों का विवाह करने से हिचकते हैं। यह पूछे जाने पर कि क्या आप अपनी बेटियों की पढ़ाई करवाना पसंद करेंगी, अधिकतर महिलाओं ने हां कहा। लेकिन इसका कारण उन्होंने बताया कि इससे लड़कियों की शादी आसानी से हो जाती है, क्योंकि कोई भी अनपढ़ लड़की से अपने बेटों की शादी नहीं करवाना चाहता। एक अन्य समूह में एक महिला के हाथ में स्मार्टफोन था, लेकिन वह घूंघट में थी। उसने मेरी बात काटते हुए कहा, घर में ही इतना काम होता है कि हमें बाहर जाकर काम करने का मौका नहीं मिल पाता।

बाद में एक एनजीओ की प्रतिनिधि ने मुझे बताया कि जब पूरा परिवार गांव छोड़कर काम की तलाश में शहर चला जाता है तो पुरुषों के साथ ही महिलाएं और बच्चे तक फैक्टरियों में काम करते हैं। लेकिन अगर पुरुष ही शहर जाता है तो उनकी स्त्रियां कामकाज नहीं करतीं। शायद पति के बिना वे असुरक्षित महसूस करती हैं। पूर्वी उत्तरप्रदेश के एक अन्य गांव में मेरी भेंट 16 से 25 वर्ष उम्र की युवा लड़कियों के दो समूहों से हुई, जिनका एक एनजीओ से सम्पर्क था। एक लड़की ने कहा, हमें परिवार के दबाव का सामना करना पड़ता है। हमें मीटिंग्स में जाने और अपने भविष्य के बारे में बात करने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। एक अन्य लड़की ने बताया, हम पर शादी करने का दबाव बनाया जाता है और शादी होते ही बच्चों की मांग होने लगती है। शादी के एक साल बाद बच्चा न हो तो परिवार के लोग चिंतित होने लगते हैं। तीसरी लड़की ने कहा, अगर हमें समय पर काम नहीं मिला तो हमारे माता-पिता हमारी शादी कर देंगे और हमारे कॅरियर का अंत हो जाएगा। हरियाणा के करनाल में 18 से 25 वर्ष उम्र की दो दर्जन लड़कियों के एक समूह से मेरी भेंट हुई, जो एक कीटनाशक कम्पनी के लिए कृषि साथी के रूप में काम कर रही थीं। वह कम्पनी स्त्रियों को ही नौकरी देती थी। ऐसी लैंगिक संवेदनशीलता दुर्लभ है। कॉर्पोरेट्स भी इसमें ज्यादा कुछ नहीं कर सकते। महिलाओं का वर्क पार्टिसिपेशन बढ़ाने के लिए हमें अपने मानदंडों को बदलना होगा।

Date:20-05-22

वैचारिक लड़ाई
संपादकीय

दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना के सौ वर्ष पूरे होने के अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अनेक विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते हुए यह जो कहा कि विश्वविद्यालय वैचारिक लड़ाई का अखाड़ा न बनने पाएं, उस पर गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है। यह आवश्यकता इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि देश के कई विश्वविद्यालय वैचारिक लड़ाई के साथ ही हिंसक टकराव का मैदान बनने लगे हैं। इनमें से कुछ तो सरकारी अनुदान से संचालित होने वाले विश्वविद्यालय भी हैं। आखिर कौन नहीं जानता कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में किस तरह एक खास विचारधारा का पोषण इस हद तक होता है कि विपरीत विचार वालों को अपनी बात कहने का अवसर तक नहीं दिया जाता। यह एक किस्म के बौद्धिक अतिवाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस विश्वविद्यालय में किस तरह देश विरोधी नारे गूंजते रहे हैं और किस प्रकार आतंकियों, नक्सलियों का महिमामंडन होता रहा है।

विश्वविद्यालय तो हर तरह के विचार विनिमय का केंद्र बनने चाहिए, क्योंकि यही भारत की परंपरा है। यह देखना दुखद है कि जब इस परंपरा को पोषित किया जाना चाहिए, तब उस पर प्रहार किया जा रहा है और इस क्रम में विपरीत विचार वालों को हेय दृष्टि से देखने के साथ ही उन्हें लांछित और अपमानित भी किया जाता है। ऐसा किया जाना भारत की ज्ञान परंपरा का अनादर ही है। स्वस्थ संवाद का जैसा अभाव जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में दिखता है, वैसा ही देश के कई अन्य शिक्षा संस्थानों में भी। किसी भी शिक्षा संस्थान में किसी खास विचारधारा को अंतिम सत्य के रूप में प्रोत्साहित करने की नीति ज्ञानार्जन के मूल उद्देश्य के विरुद्ध है। कुछ शिक्षा संस्थान तो ऐसे हैं, जहां अधिकारों की लड़ाई के नाम पर असंतोष भड़काया जाता है और व्यवस्था को चुनौती देने के नाम पर अराजकता तक का सहारा लेने में संकोच नहीं किया जाता। यह बीमारी कुछ निजी शिक्षा संस्थानों में भी देखने को मिलने लगी है। क्या यह किसी से छिपा है कि अभी हाल में एक निजी विश्वविद्यालय में किस तरह फासीवाद और हिंदुत्व में समानता संबंधी प्रश्न पूछा गया? कुछ शिक्षा संस्थानों में विपरीत विचार वालों के प्रति दुराग्रह ने घनघोर असहिष्णुता का कैसा रूप ले लिया है, इसे इससे समझा जा सकता है कि छात्रों को ऐसे विद्वानों को व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित करने से रोका जाता है, जो किसी विषय पर विपरीत विचार रखते हैं अथवा प्रचलित मान्यताओं का तर्कों और तथ्यों के साथ खंडन करते हैं। दुर्भाग्य से यह काम दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ महाविद्यालयों में भी हो चुका है।

Date:20-05-22

सहकारी संघवाद
संपादकीय

न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाले सर्वोच्च न्यायालय के एक पीठ ने गुरुवार को एक निर्णय में कहा कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) परिषद की अनुशंसाएं केंद्र और राज्य सरकारों पर बाध्यकारी नहीं हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि संसद और राज्य विधानसभाओं के पास यह शक्ति है कि वे जीएसटी से संबंधित विषयों पर कानून बनाएं। निर्णय के माध्यम से भारतीय संघवाद के ढांचे को स्पष्ट किया गया और सहयोग की आवश्यकता को भी रेखांकित किया गया। राज्यों और केंद्र सरकार के बीच वर्षों के मशविरे के बाद जीएसटी क्रियान्वयन को सहकारी संघवाद के बेहतरीन उदाहरणों में से एक माना जाता है। केंद्र और राज्य सरकार दोनों ने अपनी शक्तियां वस्तुओं और सेवाओं पर कर लगाने के लिए एकत्रित कीं ताकि देश में एक कर प्रणाली हो सके। विभिन्न राज्यों में विभिन्न स्तरों पर लगने वाला कर कारोबारों के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा था। मोहित मिनरल्स के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात उच्च न्यायालय के निर्णय को लागू रखा जिसके मुताबिक केंद्र सरकार समुद्री मालवहन पर एकीकृत जीएसटी नहीं वसूल सकती। इस संदर्भ में किसी भी विधायी कमी को परिषद के साथ चर्चा करके ही दूर किया जा सकता है। संसद के पास आईजीएसटी के मामलों में कानून बनाने का अधिकार है। बहरहाल, जीएसटी परिषद की स्थिति पर न्यायालय के पर्यवेक्षण ने चिंता बढ़ा दी है। यह कहा जा रहा है कि राज्य शायद परिषद के निर्णयों को लागू न करें और एक देश एक कर का लाभ गंवा दिया जाए। यह बात ध्यान देने लायक है कि न्यायालय ने संवैधानिक स्थिति को ही दोहराया है। अनुच्छेद 279ए में कहा गया है कि जीएसटी परिषद ‘केंद्र और राज्यों को कर के विभिन्न पहलुओं के बारे में अनुशंसाएं कर सकती है।’ परंतु अनुच्छेद में यह भी कहा गया है कि परिषद वस्तु एवं सेवा कर के लिए एक सुसंगत ढांचे की जरूरत के मुताबिक काम करेगी और साथ ही वह वस्तुओं एवं सेवाओं के समन्वित राष्ट्रीय बाजार के विकास की दिशा में काम करेगी।

यह बात अहम है क्योंकि अनुच्छेद 246ए हर राज्य की विधायिका को यह अधिकार देता है कि वह वस्तुओं एवं सेवाओं से संबंधित कानून बनाए। ध्यान रहे कि संविधान परिषद को यह अधिकार भी देता है कि वह अपने कामकाज में प्रदर्शन प्रक्रिया निर्धारित कर सके। यदि जीएसटी के कामकाज में कुछ अंतर आता है जो कि व्यवस्था की परिपक्वता के बीच हमेशा संभव है, तो परिषद उन्हें पाटने में सक्षम है। यानी निर्णय ने जीएसटी व्यवस्था के लिए अनिश्चितता नहीं बढ़ाई है। व्यवस्था इस तरह बनी है कि सहमति बनायी जा सके। कानून में दो तिहाई वजन राज्यों के पास है जबकि एक तिहाई केंद्र के पास। चूंकि सभी राज्य परिषद की प्रक्रिया का हिस्सा हैं इसलिए सैद्धांतिक तौर पर ऐसी कोई वजह नहीं है कि कुछ राज्य अलग व्यवहार करें। इसके अलावा परिषद को सुसंगत बाजार भी विकसित करना है।

ऐसे कई मौके आए हैं जब राज्यों और केंद्र के बीच मतभेद पैदा हुए लेकिन उन्हें हल कर लिया गया। शायद सबसे बड़ी चुनौती यही है कि राजस्व का समायोजन कैसे किया जाए। क्रियान्वयन के पांच वर्ष पूरे होने के बाद राज्यों को 1 जुलाई से राजस्व कमी की क्षतिपूर्ति नहीं मिलेगी। परिषद दरों को तार्किक बनाने में लगी है ताकि राजस्व संग्रह में सुधार हो। आशा है यह काम जल्दी होगा। एक बार व्यवस्था के स्थिर हो जाने तथा बदलाव की जरूरत कम होने के बाद परिषद के मतभेद स्वत: कम हो जाएंगे। निर्णय में इस बात को रेखांकित किया गया कि सहयोग बढ़ाने की जरूरत है। केंद्र को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी राज्यों की चिंताएं हल की जा सकें। इससे यह भी तय होता है कि शुल्कों और प्रावधानों को सफलतापूर्वक चुनौती दी जा सकती है। केंद्र सरकार और परिषद को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कानून के अनुसार करों को कड़ाई से लागू किया जाए।

Date:20-05-22

भारतीय इस्लाम
संपादकीय

भारत में इस्लाम का जो रूप है, उसकी तारीफ नई नहीं है। इसी कड़ी में अब संयुक्त अरब अमीरात में एक किताब प्रकाशित हुई है, जिसमें भारतीय इस्लाम या इस्लाम के भारतीयकरण की तारीफ की गई है। विश्व मुस्लिम समुदाय परिषद के तहत प्रकाशित इस पुस्तक में इस्लाम के किसी एक ही रूप को न मानते हुए उसके क्षेत्रीय रूपों को भी स्वीकार करने की बात कही गई है। चूंकि इस्लाम के अरबीकरण की कोशिश नई नहीं है, इसलिए भी भारतीय इस्लाम पर लिखी गई इस किताब धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र और समकालीन परंपरा : इस्लाम का भारतीयकरण का विशेष स्वागत होना चाहिए। जो लोग या देश आदतन कह देते हैं कि भारत में इस्लाम खतरे में है, उन्हें इस किताब पर जरूर गौर करना चाहिए। इस किताब का प्रकाशन यूएई के उभरते बहुसांस्कृतिक स्वरूप को भी सामने रखता है। यूएई एक उदार समावेशी मुस्लिम बहुल देश के रूप में खुद को खड़ा कर रहा है। भारतीय इस्लाम की तारीफ या स्वीकारोक्ति में ऐसी किताब का आना यूएई और भारत के रिश्तों को और मजबूत बनाने का काम करेगा।

यूएई की इस मुस्लिम परिषद के विद्वान शोधकर्ता डॉक्टर अब्बास पनक्कल ने उचित ही कहा है कि मात्र अरब संस्कृति को इस्लाम के रूप में बढ़ावा देने और इस्लाम के सिर्फ एक स्वरूप को मानने में कई तरह की समस्याएं हैं। अलग-अलग क्षेत्रों व देशों में सक्रिय मुस्लिम विद्वानों की मेहनत से प्रकाशित इस पुस्तक की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। पुस्तक में विद्वानों ने लिखा है कि कैसे इस्लाम हिन्दुस्तानी जमीन पर पहुंचा और वहीं की संस्कृति व कला के साथ घुल-मिल गया। मस्जिदों की वास्तुकला में भी हिन्दुस्तान का असर हुआ। ऐसा अक्सर कह दिया जाता है कि यवन हमलावरों के साथ ही इस्लाम भारत आया था, पर वास्तव में इस्लाम तो उन व्यापारियों के साथ भी आया था, जो न धर्म के आधिकारिक प्रतिनिधि थे और न सरकारी अधिकारी थे। ऐसे में, सहजता के साथ, विशेष रूप से केरल में इस्लाम फैला। सदियों से केरल में इस्लाम का अलग ही रूप है। हां, इधर वहां भी मजहब के अरबीकरण की कोशिश दिखने लगी है, अत: इस किताब की जरूरत और बढ़ गई है। यह पुस्तक एक तरह से यह संदेश देना चाहती है कि अरब का इस्लाम अपनी जगह है और केरल का अपनी जगह। जब हम दुनिया में इस्लाम के विविध रूपों को देखते हैं, तो आश्चर्य नहीं होता। एक खलीफा वाला कट्टर इस्लाम भी था और एक अतातुर्क वाला आधुनिक इस्लाम भी रहा, और एक भारतीय इस्लाम भी है, जिसके स्वरूप की ज्यादा चर्चा होनी चाहिए।

यह किताब स्वीकार करती है कि ऐसे मुस्लिम शासक भी हुए हैं, जिन्होंने मंदिरों को अनुदान देकर, गोहत्या पर प्रतिबंध लगाकर और हिंदुओं को अहम पदों पर बिठाकर सांस्कृतिक मेल-जोल को बढ़ावा दिया। मुसलमानों ने भी ईसाइयों और यहूदियों की तरह हिंदुओं को अपनापन दिया। कुछ मुस्लिम शासकों ने अपनी मुद्राओं पर देवी लक्ष्मी और नंदी की आकृतियों को भी मंजूर किया। यूएई के अबू धाबी स्थित मुस्लिम परिषद का मानना है कि भारतीय इस्लाम मॉडल दुनिया भर में कई मुस्लिम समुदायों के लिए एक बेहतरीन मिसाल के रूप में कारगर हो सकता है। ऐसी किताब पूरे भारतीय समाज के लिए उपयोगी हो सकती है। भारत ने ज्यादातर इतिहास में अरब की दिशा से आते हमलावरों का सिलसिला ही देखा है, लेकिन संयुक्त अरब अमीरात से आती यह किताब उज्ज्वल भविष्य की ओर इशारा है।

Date:20-05-22

अब तीन बड़ी आपदाओं से रूबरू है हमारी दुनिया
कर्ण सिंह, ( वरिष्ठ कांग्रेस नेता )

अंग्रेजी के मशहूर नाटककार और कवि शेक्सफ्यिर से कुछ शब्द उधार लेकर कहें, तो दुनिया अभी पूरी तरह से अस्त- व्यस्त हो गई है। बेशक, पिछले कुछ दशकों कई अहम तकनीकी व वैज्ञानिक उपलब्धियां हासिल की गई हैं और तमाम ग्रहों तक हम पहुंच रहे हैं, लेकिन यह धरती तीन बड़े संकटों का सामना कर रही है, पहली आपदा है, जलवायु संकट और ग्लोबल वार्मिंग ( वैश्विक गर्मी )। दुनिया भर में चरम मौसम की घटनाएं बढ़ गई हैं, जिनमें तूफान व सुनामी आना व जंगलों में बड़े पैमाने पर आगजनी महत्वपूर्ण हैं। ग्लेशियर आशंका से कहीं अधिक तेजी से पिघल रहे हैं और अगले दशक में कई द्वीप समुद्र में समा सकते हैं। पेड़-पौधों की अनियोजित कटाई से हर साल जीव-जंतुओं की हजारों प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। पेरिस जलवायु सम्मेलन में घोषित 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल करने की उम्मीद बहुत कम है, जिसका अर्थ है कि जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभाव हरेक जगह दिखेंगे। अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस और संकल्प-पत्र जलवायु संकट के बारे में जनमत बनाने में उपयोगी जरूर होते हैं, पर वे अपने आप में तब तक पर्याप्त नहीं होते, जब तक कि उन पर अलग-अलग राष्ट्र ठोस व प्रभावी कदम नहीं उठाते।

दूसरा संकट है, वैश्विक महामारी । इसमें अब तक लाखों लोगों की जान जा चुकी है, और मौतें उन देशों में भी हुई हैं, जो यह मानते थे की उन्होंने अपनी चिकित्सा सुविधाओं को अत्याधुनिक बना लिया है। यह एक चेतावनी है कि यदि हम जंगली मांस खाने या अखाद्य पदार्थों का सेवन करने जैसे अप्राकृतिक एवं जोखिमपूर्ण व्यवहार नहीं बदलते, तो इस तरह के संक्रमण बढ़ सकते हैं, जो इंसानों को घातक रूप से प्रभावित कर सकते हैं। जाहिर है, हमें अपने स्वास्थ्य और चिकित्सा ढांचे को बेहतर बनाना होगा, और रिकॉर्ड समय में टीका बनाने के लिए तैयार रहना होगा। इस क्षेत्र में भारत की हैसियत ठीक है, क्योंकि टीका-निर्माण की इसकी क्षमता अच्छी है, जिसका हमें अब विस्तार करना चाहिए।

तीसरा संकट है, परमाणु विस्फोट का खतरा। 1945 के बाद से, जब पहली बार परमाणु हथियारों का इस्तेमाल हुआ था, भारतीय उप-महाद्वीप सहित पूरी दुनिया में इसका खतरनाक प्रसार हुआ है। अमेरिका, रूस और चीन तो इसमें सबसे आगे हैं। हमारी मान्यता थी कि परमाणु युद्ध का खतरा उत्तर कोरिया तक ही सीमित है, लेकिन युक्रेन संकट का सच यही है कि रूस, अमेरिका और यूरोप में परमाणु हथियार पूरी तरह से अलर्ट कर दिए गए हैं। यह शुभ संकेत नहीं है। किसी भी तरफ से जरा सी चूक हुई, तो परमाणु संघर्ष का जन्म हो सकता है, जिसके तात्कालिक और दीर्घकालिक परिणाम भयानक होंगे।

साफ है, ये सब मानव जाति के भविष्य पर संदेह बढ़ाते हैं। हम आज भले ही कृत्रिम बुद्धिमत्ता, यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की तरफ धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं, लेकिन अन्य नकारात्मक कारक कहीं ज्यादा भारी प्रतीत हो रहे हैं। आर्थर कोएस्टलर ने अपनी किताब जेनस-अ समिंग अप में लिखा है, मानव कॉर्टेक्स (मस्तिष्क के बाहरी हिस्से का तंत्रिका ऊतक, जहां इंसानी सोच व भावनाओं के तमाम पहलू एक आकार लेते हैं) में एक इंजीनियरिंग दोष के कारण मानव जाति को अपना विनाश खुद करने के लिए प्रोग्राम किया जाता है। नतीजतन, यह जानते हुए भी कि हमें क्या करना चाहिए, हम वैसा नहीं करते। जैसा कि महाभारत में दुर्योधन कहते भी हैं, जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः। यानी, मैं धर्म के बारे में जानता हूं, किंतु उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है, और मैं अधर्म के बारे में भी जानता हूं, लेकिन उससे मेरी निवृत्ति (छुटकारा) नहीं है। इस परिदृश्य में कोएस्टलर को लगता है कि भविष्य में किसी समय ऐसा होना निश्चित है, जब हम कुछ विनाशकारी हालात का सामना करेंगे।

इसके बरक्स, महान विकासवादी दार्शनिक श्री अरबिंदो का मानना है कि मानव जाति का विकास दरअसल उन्नति की दौड़ है। उनके अनुसार, अभी हम पशु और परमात्मा के बीच कहीं आधे रास्ते में हैं। मानव चेतना के विकास के साथ यह दौड़ खत्म नहीं होगी, बल्कि यह मन से अंतस मानस की ओर बढ़ेगी। इसके माध्यम से ही मानवता के सामने आने वाली समस्याओं का हल निकल सकता है। यह निश्चय ही कहीं अधिक आशावादी सोच है, लेकिन मुश्किल यह है कि इसकी अवधि इतनी लंबी है कि ऐसा जान पड़ता है, यह कुछ ऐसा नहीं है, जो निकट भविष्य में हासिल किया जा सके। साफ है, इन दोनों में से हालात किस करवट लेंगे, यह अभी हमें नहीं पता है, लेकिन इतना तय है कि कहानी का अंत परमपिता का महाम्त्य ही स्थापित करेगा।