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31-05-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक

 

Date:31-05-22

जन-जन में स्वावलंबन

डॉ. विजय अग्रवाल, ( आध्यात्मिक विषयों के लेखक व वक्ता )

कल पदारथ एहि जग माहीं।
करमहीन नर पावत नाहीं।।

इस दोहे में महाकवि ने दो सर्वाधिक शाश्वत सिद्धांतों की स्थापना की है। इनमें पहला है कि प्रकृति स्वयं में पूर्ण रूप से समृद्ध है। व्यक्ति जो चाहता है और भविष्य में चाह सकता है, वह सब इस प्रकृति के पास है। किसी अन्य दुनिया में भटकने की आवश्यकता नहीं है। ज्ञातव्य हो कि ‘गीता’ में श्रीकृष्ण ने स्वयं के स्वरूप को प्रकृतिगत बताया है। तुलसीदासजी ने भी ‘सियाराम मय सब जग जानी’ कहकर यही बात कही है। लेकिन सवाल यह है कि इस रत्न एवं स्वर्णगर्भा प्रकृति को मानवजाति स्वयं की समृद्धि में कैसे परिवर्तित करे? उसके लिए तुलसीदास जी ने दूसरे सिद्धांत का प्रतिपादन किया है कि ‘कर्म के द्वारा’। कवि ने यहां जो ‘करमहीन’ शब्द का प्रयोग किया है, उसे गलती से ‘भाग्यहीन’ नहीं समझा जाना चाहिए। कवि ने यहां नकारात्मक वाक्य की रचना की है कि, कर्म न करने वाला व्यक्ति प्रकृति के इस खजाने से कुछ भी नहीं पा सकता। यहां उनका ध्यान समाज और राष्ट्र से अधिक उसमें रहने वाले व्यक्ति के प्रति है।

‘कर्म’ के प्रति यह अवधारणा आरंभ से भारतीय जीवन के केंद्र में रही है। ऋग्वेद में एक व्यक्ति है, जो जुआ खेलता है। हारने के बाद पछताता है, लेकिन वह फिर से जुआ खेलता है। ऐसे में उस काल के एक ऋषि उससे कहते हैं, ‘कृषि कृष्स्य’ अर्थात खेती करो। यह भाग्य के विरोध में श्रम का उद्घोष है।

हमारे दार्शनिक गुरु बृहस्पति कुआं खोदते हैं – ‘ब्रह्यणस्पति:’। यहां तक कि देवों के राजा इंद्र वज्र से भूमि को काटकर नदियों के लिए मार्ग बनाते हैं – वज्रेण खानि अतृणत नदीनाम। सच यह है कि हाथ; जिससे कर्म किये जाते हैं, का जितना महत्व ऋग्वेद में प्रतिपादित है, उतना शायद ही संसार के किसी ग्रंथ में हो। अगस्त्य एक अत्यंत श्रद्धेय ऋषि हैं। वे शक्ति चाहते हैं। वे संतान चाहते हैं और अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिए कुदाल लेकर जमीन खोदते हैं।

हमें इस सत्य को आत्मसात कर लेना चाहिए कि हमारे ऋषि-मुनियों को किसी भी तरह के श्रम से किसी भी तरह का परहेज नहीं था। तभी तो ऋग्वैदिक ऋषि ने एक श्लोक रचा कि ‘न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवा:’ अर्थात् श्रम किये बिना देवता मनुष्यों के मित्र नहीं होते।

श्रम के माध्यम से ‘स्वावलंबन’ के उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त करने की यह यथार्थवादी स्वर्णिम परंपरा भक्तिकाल में हमें अपने चरम पर दिखाई देती है। संत कबीर कपड़ा बुनते हैं। उन्हें किसी के भी सहारे की जरूरत नहीं है। यहां तक कि तत्कालीन सुल्तान मुहम्मद तुगलक तक के आमंत्रण को ठुकराने में उन्हें एक क्षण भी नहीं लगा। अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि कुंभनदास खेती-बाड़ी करते थे। सम्राट अकबर के बुलावे पर वे एक बार राजधानी फतेहपुर सीकरी चले गये, जिसका पछतावा उन्हें जीवनभर रहा। तब उन्होंने अपने समकालीनों को स्वावलंबन का यह संदेश दिया-

संतन सो कहां सीकरी सो काम।
आवत-जात पनहियां टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।।

हमारे भक्तिकालीन कवियों ने अपने जीवन जीने के तौर-तरीकों के जरिये हम सबको स्वावलंबन के तीन मूल्यवान सूत्र दिए। पहला यह कि कहीं भी मांगने मत जाओ। भिक्षा तक मत मांगो। कवि रहीम ने तो साफ तौर पर कहा कि, ‘रहिमन वे नर मर चुके, जो कहि मांगन जाएं’। मांगना मर जाने जैसा है। तो फिर क्या करें? इसके लिए उन्होंने अगले दो उपाय सुझाए। उन्होंने कहा, श्रम करो, कमाओ और अपनी जरूरतें पूरी करो। महान भक्त-संत कवियों ने ‘कर्म’ को भक्ति में बदल कर एक नया आदर्श प्रस्तुत किया। तीसरी बात इन्होंने कही कि अपनी जरूरतों को सीमित रखो। इसके लिए एक मुहावरा प्रचलन में आया, ‘उत्ते पांव पसारिये, जित्ती लंबी सौर’ अपनी चादर की लंबाई के अनुसार ही अपने पैर फैलाओ। इस विचार ने समाज में सादे और सरल जीवन को गरिमा प्रदान की। यहां तक कि इस सरल जीवन को ईश्वर तक पहुंचने के एक सुगम मार्ग के रूप में देखा जाने लगा। यह आज के उपभोक्तावादी जीवन-दर्शन के बिल्कुल विपरीत है। जाहिर है कि जब इच्छाएं ही सीमित हैं, तो दूसरों पर अवलंबित रहने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है।

संस्कृत और हिंदी में अनेक ऐसे नीतिपरक दोहे रचे गए, जिनकी आत्मा में स्वावलंबन की धड़कनें मौजूद हैं। इनमें से यहां मैं संस्कृत के उस एक श्लोक का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा, जो मेरे दिल और दिमाग में रच-बस गया है, जिसका मुझे स्वावलंबी बनाने में बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस श्लोक को मैंने अपनी पांचवीं कक्षा की संस्कृत विषय की किताब से पढ़कर कंठस्थ कर लिया था :

उद्यमेन हि सिद्धन्ति कार्याणि न मनोरथै:।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।

अर्थात कोई भी कार्य परिश्रम करने से ही पूरा होता है, इच्छा कर लेने मात्र से नहीं। यह ठीक वैसे ही है, जैसे कि सोये हुए शेर के मुंह में हिरण स्वयं प्रवेश नहीं करता है। इसे लेकर अपने यहां कुछ रोचक उपदेशयुक्त कहानियां भी लिखी गईं। खरगोश और कछुए की कहानी बताती है कि गति भले ही धीमी हो, लेकिन यदि उसमें निरंतरता है, तो वह तेज दौडऩे वाले खरगोश तक को परास्त कर सकता है। पंचतंत्र की एक कथा है, ‘प्यासा कौआ’। इसमें एक कौआ थोड़े से जल वाले घड़े में कंकड़ डाल-डालकर तल में स्थित पानी को ऊपर लाकर अपनी प्यास बुझाता है। वर्षा हो रही है। चिड़िया अपने घोंसले में सुरक्षित है, लेकिन पास में ही डाल पर बैठा एक बंदर वर्षा से भीगकर कुड़कुड़ा रहा है। बंदर को ठंड से कांपता देखकर चिडिय़ा उससे कहती है कि जब मैं एक छोटी सी चिड़िया तिनका-तिनका इकठ्ठा करके अपना घर (घोंसला) बना सकती हूं, तो तुम क्यों नहीं। आखिर वह कोई तो वजह होगी कि एक समय में भारत दुनिया का सिरमौर था। पौने तीन सौ साल पहले तक विश्व-बाजार में भारत की भागीदारी 23 प्रतिशत थी। इसकी वजह है-भारत का स्वावलंबी होना, जो उसकी चेतना में नैसर्गिक रूप से मौजूद है। हम फिर स्वावलंबन के साथ दुनिया का सिरमौर होने की राह पर बढ़ रहे हैं।


Date:31-05-22

निर्धारित हो न्यायिक लक्ष्मण रेखा

अभिषेक मिश्रा, ( लेखक जर्मनी के हैंबर्ग विश्वविद्यालय में विधिशास्त्र के प्राध्यापक हैं )

पिछले दिनों दिल्ली में मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों के 39 वें सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमणा भी शामिल हुए। इससे पहले इस तरह का सम्मेलन अप्रैल, 2016 को आयोजित हुआ था। लंबे अंतराल के बाद आयोजित इस सम्मलेन में कई प्रमुख मुद्दों पर चर्चा हुई, जिनमें से एक महत्वपूर्ण मुद्दा था भारत की स्वतंत्रता के सौ वर्ष पूरे होने के समय संघीय कार्यपालिका और उच्चतर न्यायपालिका के बीच रिश्तों का आकलन। विधायिका और कार्यपालिका के बीच संबंधों के बारे यह मान्यता है कि कार्यपालिका संसद द्वारा पारित किसी कानून के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठा सकती। अनुच्छेद 256 यह व्यवस्था देता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति संघीय कार्यपालिका या कहें कि राष्ट्रपति द्वारा ही होती है। संघीय कार्यपालिका संवैधानिक दायित्व निर्वहन से बंधी है और उसे उच्चतर न्यायपालिका के फैसले को मानना ही होगा। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि सुप्रीम कोर्ट देश का सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय होने के साथ ही एक संवैधानिक अदालत भी है। अमूमन संवैधानिक लोकतांत्रिक देशों में सर्वोच्च संघीय अपीलीय अदालत और संवैधानिक न्यायालय अलग-अलग होते हैं। अपीलीय अदालतें विधायिका द्वारा पारित कानून को न तो खारिज कर सकती हैं और न उसे निष्प्रभावी बना सकती हैं। वहीं संवैधानिक अदालत ऐसा कर सकती है। इसीलिए उसे ‘संविधान की रक्षा’ भी कहा जाता है। यहां अनुच्छेद 50 का उल्लेख भी आवश्यक है, जो लोक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने में राज्य की भूमिका को रेखांकित करता है।

भारत में यह प्रश्न बार-बार उठता है कि सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्तियां लोक सेवा के दायरे में आएंगी या नहीं? वास्तव में जजों की नियुक्ति का मसला ऐसा है, जिसने पिछले कुछ अर्से से टकराव की स्थिति पैदा कर दी है। अनुच्छेद-124 के तहत सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति होती है। इस अनुच्छेद का सरोकार मुख्य रूप से तीन संस्थानों से है। एक सुप्रीम कोर्ट, दूसरा सुप्रीम कोर्ट के जज और तीसरे भारत के मुख्य न्यायाधीश यानी सीजेआइ। साथ ही यह न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया भी निर्धारित करता है। इसमें एक प्रक्रिया न्यायाधीशों के लिए है तो दूसरी मुख्य न्यायाधीश के लिए। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मुद्दे पर कोई पेच नहीं, क्योंकि उसमें वरिष्ठता के क्रम का ही ध्यान रखा जाता है। टकराव अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर होता है।

यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि अनुच्छेद 124 का संबंध न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया से न होकर, उनकी नियुक्ति से है। असल में नियुक्ति और चयन दो अलग-अलग पहलू हैं। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में राष्ट्रपति के लिए मुख्य न्यायाधीश से परामर्श आवश्यक है। राष्ट्रपति चाहें तो वह हाई कोर्ट के न्यायाधीशों से भी मंत्रणा कर सकते हैं। एसपी गुप्ता (1980) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरण से जुड़ी प्रक्रिया को परखा एवं उसकी पड़ताल की। वास्तव में यही वह मामला था जब पहली बार कालेजियम शब्द का उल्लेख किया गया। कालेजियम की संकल्पना असल में इस उद्देश्य से की गई थी कि कि मुख्य न्यायाधीश किसी प्रकार अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न करें। हालांकि तब यह तय नहीं हो पाया कि कोलेजियम का ढांचा और प्रवृत्ति कैसी होगी? ऐसे में जनता को कभी यह पता ही नहीं चलता कि जजों की नियुक्ति या स्थानांतरण कैसे होता है और इस प्रक्रिया में किन नियमों एवं प्रविधानों का पालन किया जाता है? परिणामस्वरूप समूची प्रक्रिया कुछ लोगों के हाथ में सिमटकर गई है। सरकार ने इस प्रक्रिया में परिवर्तन के उद्देश्य से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी बनाया, परंतु सुप्रीम कोर्ट ने उसके विरुद्ध वीटो कर उसकी राह रोक दी। न्यायपालिका की यह दलील थी कि एनजेएसी न्यायिक स्वतंत्रता में बाधक बन सकता है।

कृषि सुधार संबंधी तीन कानून और नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के अनुभव यही बताते हैं कि लोकतंत्र वास्तव में एक दोधारी तलवार है। यह पारंपरिक संवैधानिकता के लिए एक बड़ी बाधा बन सकता है। हमने देखा कि कृषि कानूनों और सीएए को लागू करने में लोकतांत्रिक अधिकार किस प्रकार बाधक बने। हमें अभी तक यह नहीं पता चल पाया कि ये कानून संविधान-विरोधी अथवा गैर-कानूनी थे या फिर वे विरोध-प्रदर्शन, जिसने महीनों तक लोगों की आवाजाही रोके रखकर उनकी परेशानियां बढ़ाईं। सुप्रीम कोर्ट में रास्ते खाली कराने के लिए दायर की गई याचिकाओं को अनदेखा कर दिया गया। इसके बजाय उसने इन कानूनों की संवैधानिक वैधता की पड़ताल करने को प्राथमिकता दी। सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के धरने से परेशान लोगों को राहत देने के बजाय उसने मध्यस्थ तय कर दिए।

कुछ ऐसे मामले होते हैं, जहां सुप्रीम कोर्ट की भूमिका संवैधानिक अदालत की होती है। एक संवैधानिक अदालत के रूप में सुप्रीम कोर्ट मध्यस्थ या न्यायिक भूमिका नहीं निभा सकता, क्योंकि संवैधानिक अदालत कोई पारंपरिक अदालत नहीं, जो विवादों का निपटारा करे। उसे तो कानूनों की व्याख्या ही करनी होती है। वास्तविकता यह है कि कानूनों की संवैधानिक वैधता मध्यस्थता का मसला नहीं है। यदि ऐसा होता है तो वह असंवैधानिक होगा। आशा करें कि ऐसी स्थितियां उत्पन्न नहीं होंगी और सुप्रीम कोर्ट अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप पहल करके भारत की जनता को आश्वस्त करेगा, जिनकी इस संस्थान में गहन आस्था है। यह तभी संभव है जब वह शक्ति के पृथक्करण संबंधी अलिखित नियमों की लक्ष्मण रेखा का पालन करे। ऐसा इसलिए, क्योंकि अंतत: अदालतें ही तय करती हैं कि लक्ष्मण रेखा क्या है और कब उसका उल्लंघन किया गया ?


 

Date:31-05-22

निश्चित आय की नीति से आर्थिक भेद मिटेगा

संपादकीय

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने वर्तमान परिदृश्य और राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट्स के मद्देनजर दो सबसे अहम सिफारिशें की हैं- पहला शहरों में भी मनरेगा की तरह रोजगार गारंटी योजना और दूसरा सबको एक न्यूनतम बेसिक आय। परिषद का मानना है कि गरीब-अमीर की खाई लगातार बढ़ रही है और इसे कम करने का एक ही उपाय है- सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में सरकारी खर्च बढ़ाना ताकि कमजोर तबके आर्थिक उतार-चढ़ाव से और नीचे न फिसलें। यूएनडीपी के अनुसार स्वास्थ्य के बढ़ते खर्च के बीच अगर परिवार का कोई सदस्य गंभीर बीमार हो जाए तो परिवार गरीबी की गर्त में चला जाता है। महंगी शिक्षा के लिए परिवार कई बार जीवन-यापन का एक मात्र साधन खेत बेच देता है। परिषद ने गरीबी-अमीरी की खाई पर आंकड़े देते हुए कहा कि देश में असली गरीबी की तीव्रता और गरीबों की वास्तविक संख्या का आकलन पिछले 11 वर्षों से नहीं हुआ है। जो भी सरकारी या निजी आंकड़े दिए जाते हैं वे सभी सन् 2011-12 के एनएसओ के उपभोग के आंकड़ों के प्रोजेक्शन पर निर्भर हैं। जरूरत है कि आय असंतुलन के इस दौर में गरीबी का सही आकलन करने के लिए उसके द्वारा खपत की स्थिति का जायजा लिया जाए। परिषद ने पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे की तीन रिपोर्ट्स के आधार पर अनुशंसाएंं की हैं। लांसेट की ताजा रिपोर्ट कहती है कि दुनिया में सबसे ज्यादा लोग भारत में वायु प्रदूषण से (16.70 लाख) और जल प्रदूषण से (13.60 लाख) मरते हैं। इनमें से अधिकांश गरीब होते हैं। भारत जैसे देश के लिए यह हानि गरीबी और बढ़ाने वाली है। ऐसे में निश्चित आय की नीति सही होगी।


Date:31-05-22

व्यापार विरोधी कदम

संपादकीय

केंद्रीय उद्योग एवं वाणिज्य मंत्रालय ने गत सप्ताह एक वक्तव्य जारी करके कहा कि अखबारी कागज समेत किसी भी प्रकार के कागज के आयात के पहले पूर्व पंजीयन कराना जरूरी होगा। नई व्यवस्था के मुताबिक 1 अक्टूबर से कागज का आयात कागज आयात निगरानी प्रणाली के अधीन होगा जिसके तहत आयातकों को खुद को उसी तरह पंजीकृत करना होगा जैसे कि अतीत में कोयला और इस्पात क्षेत्र में करना होता था। एक और उद्योग में लाइसेंस कोटा राज की वापसी को कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता। देश में यह एक और ऐसा कदम है जो उदारीकरण के पहले की दिशा में बढ़ रहा है, खासतौर पर मंत्रालय ने जो विशिष्ट स्पष्टीकरण मुहैया कराया है उसकी प्रकृति संरक्षणवादी है। संबंधित वक्तव्य में कहा गया है, ‘यह इस श्रेणी में मेक इन इंडिया तथा आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने की दिशा में दूरगामी कदम साबित होगा।’ मेक इन इंडिया की अवधारणा भारतीय उद्योग जगत को विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाने की थी लेकिन उसका लगातार दुरुपयोग जारी है।

क्या भारतीय पेपर मिलों के पास यह शिकायत करने की उचित वजह है कि इस क्षेत्र में भारत के कुछ कारोबारी साझेदार देश डंपिंग कर रहे हैं? शायद। डंपिंग एक तकनीकी शब्द है जो यह संकेत देता है कि किसी वस्तु को किसी खास देश में उसके मूल देश की उत्पादन लागत से भी कम दाम पर बेचा जा रहा है। क्या हाल के महीनों में कागज उद्योग के सामने ऐसी स्थिति बनी है? यह सही है कि 2020 में की गई जांच में यह अनुशंसा की गई थी कि कागज से संबंधित कुछ उत्पादों पर पांच वर्ष के लिए ऐंटी डंपिंग शुल्क लगाया जाए। यह स्पष्ट नहीं है कि इसके लिए क्या अनुमान और मॉडल इस्तेमाल किए गए। चाहे जो भी हो, यदि वास्तविक चिंता डंपिंग की है तो मंत्रालय को एक लक्षित, समुचित ऐंटी डंपिंग शुल्क लागू करना चाहिए, न कि आयात लाइसेंस की वापसी करनी चाहिए। यह बात भी ध्यान देने लायक है कि न्यूजप्रिंट के आयात पर पहले ही 5 प्रतिशत सीमा शुल्क लागू है। क्या ऐसा कोई प्रमाण है कि यह डंपिंग को रोकने में नाकाफी है? यदि ऐसा है तो जनता के समक्ष भी इसका प्रमाण प्रस्तुत किया जाना चाहिए। कई परिपक्व अर्थव्यवस्थाओं में ऐसे स्वतंत्र प्राधिकार हैं जो उत्पादकों, आयातकों तथा उपभोक्ताओं की बात को सुनने के बाद यह तय करते हैं कि आयात से क्या नुकसान हो रहा है। इसके पश्चात स्वतंत्र बोर्ड नियामक उनके निष्कर्षों पर मतदान करते हैं और इस मतदान को भी सार्वजनिक किया जाता है। भारत में भी ऐसी व्यवस्था लागू करने की आवश्यकता है।

खासतौर पर विचित्र बात यह है कि सरकार का यह कदम ऐसे समय पर आया है जब वैश्विक न्यूजप्रिंट कीमतों में तेज इजाफा हो रहा है। न्यूजप्रिंट की कीमत 2020 के निचले स्तर से तीन गुनी हो चुकी है। घरेलू कीमतें भी उसी अनुरूप बढ़ी हैं। यदि भारतीय कागज उद्योग इन हालात में भी अपनी क्षमता का इस्तेमाल कर पाने में नाकाम है तो विदेशी उत्पादकों को क्या दोष देना। समस्या तो आंतरिक है। परंतु जब अफसरशाही में संरक्षणवादी भावना प्रबल हो तो ऐसा होता ही है। औद्योगिक लॉबी अधिकारियों और राजनेताओं को यह विश्वास दिलाने का प्रयास करती हैं कि भावी संरक्षण की कोई वैकल्पिक नीति है ही नहीं। इस प्रक्रिया में वृद्धि, उत्पादकता और उपभोक्ता कल्याण आदि सभी प्रभावित होते हैं। लाइसेंस राज में भारत की यही स्थिति थी। कागज के उत्पादों के आयात पर लगने वाली सीमाओं को हालिया निर्यात प्रतिबंधों, शुल्क वृद्धि और अन्य व्यापार विरोधी कदमों के साथ रखा जाना चाहिए जो बताते हैं कि राजनीतिक नेतृत्व ने वृद्धि के स्रोत के रूप में बुनियादी आर्थिक सिद्धांत के बजाय शंकालु व्यवहार को पनपने दिया है।


Date:31-05-22

भारत के सामने टिकाऊ विकास के अवसर

जैमिनी भगवती, ( लेखक भारत के पूर्व राजदूत एवं वर्तमान में सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस के फेलो हैं )

पश्चिमी मीडिया ने 24 फरवरी को यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के बाद भारत में और भारत से होने वाली उच्चस्तरीय यात्राओं का समाचार जमकर प्रसारित किया। इनमें गत 14 मई को द इकनॉमिस्ट में प्रकाशित एक असामान्य रूप से अनुकूल रिपोर्ट शामिल थी। तात्पर्य यह है कि रूस और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के बीच जर्मनी में लड़े जा रहे अघोषित युद्ध ने भारत के लिए अवसरों की भरमार कर दी है। भारत अब पश्चिम के साथ अपने सामरिक और आर्थिक हितों में अधिक समायोजन चाह सकता है क्योंकि पश्चिमी धड़े की भारत जैसे देश को अपने पक्ष में करने की चाह होगी। इस आलेख में इसी विचार की पड़ताल की गई है।

क्राइमिया को कैथरीन द ग्रेट ने 18वीं सदी के अंत में रूसी साम्राज्य में शामिल किया था और वह सोवियत संघ का हिस्सा था। ऐसे में व्लादीमिर पुतिन के पास 2014 में क्राइमिया को वापस लेने की उचित ऐतिहासिक, सामरिक और आर्थिक वजहें थीं। तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के पीछे आर्थिक या सैन्य दृष्टिकोण से पर्याप्त तर्क नहीं हैं। यहां तक कि यूक्रेन के मारियूपोल बंदरगाह पर 18 मार्च को किया गया कब्जा भी अति थी।

18 मई को फिनलैंड और स्वीडन ने औपचारिक रूप से नाटो की सदस्यता के लिए आवेदन किया। तुर्की की आपत्ति के बावजूद लगता है कि ये दोनों देश नाटो के सदस्य बन ही जाएंगे। इसके दो दिन पूर्व 16 मई को पुतिन ने रूस के नेतृत्व वाले सुरक्षा संधि संगठन में खामोश प्रतिक्रिया दी थी। उन्होंने बस यह कहा कि रूस नहीं चाहता कि इन दोनों देशों में नाटो का कोई सैन्य बुनियादी ढांचा स्थापित हो।

देखा जाए तो रूस एक क्षमता संपन्न सैन्य और परमाणु हथियार वाला देश है और यूक्रेन के नाटो में शामिल होने से उसकी क्षेत्रीय अखंडता और सुरक्षा को कोई खतरा नहीं हो सकता। पूर्व सोवियत संघ किसी बाहरी सशस्त्र हस्तक्षेप से नहीं टूटा। यकीनन अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी देशों ने सोवियत साम्राज्य को क्षति पहुंचाने का हरसंभव प्रयास किया। सोवियत संघ के विभाजन की दो प्रमुख वजहों में से एक तो यह थी कि समाजवादी गणराज्य रूस से आजादी और बेहतर जीवन चाहते थे। यूक्रेन पर रूस के इस हमले के कई कारणों में से एक पुतिन और उनके इर्दगिर्द के लोगों को उन लोगों के संभावित खतरे से बचाना भी हो सकता है जो इस बात से असंतुष्ट हैं कि उनके देश की प्रति व्यक्ति आय यूरोपीय संघ के देशों के समान नहीं है।

जी 7 और नाटो देशों के साथ चीन की आर्थिक और आपूर्ति शृंखला संबंधी संबद्धता रूस की तुलना में बहुत गहरी है। हालांकि चीन ने काफी आर्थिक प्रगति की है लेकिन एकदलीय चीन का नेतृत्व पश्चिम को लेकर रूस की चिंताओं का साझेदार हो सकता है। उदाहरण के लिए अमेरिका-यूरोपीय संघ और यूनाइटेड किंगडम चीन में बहुदलीय लोकतंत्र का उभार चाहेंगे जो पश्चिम की आर्थिक और सामरिक प्राथमिकताओं के अनुरूप हो। इस संदर्भ में पश्चिम का राजनीतिक-सैन्य प्रतिष्ठान शायद रूस और चीन को एक साथ रखने के बजाय त्रिकोणीय स्थिति में रखना चाहता है।

यूक्रेन में अघोषित युद्ध ने यूरोप की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं जर्मनी, फ्रांस और यूनाइटेड किंगडम तथा नीदरलैंड को रूस के विरुद्ध एकजुट किया। यूरोपीय संघ के लिए चीन रूस की तुलना में अधिक अहम कारोबारी और निवेश साझेदार है। बहरहाल, ऐसा प्रतीत होता है कि यूरोपीय संघ की व्यापक अर्थव्यवस्थाएं चीन के साथ समग्र संंबंध को लेकर पुनर्विचार कर रही हैं। इस बदलाव का एक लक्षण यह है कि दिसंबर 2020 का यूरोपीय संघ-चीन निवेश समझौता अब तक यूरोपीय संसद में अटका हुआ है।

भारत के आर्थिक पहलुओं की बात करें तो अभी भी कई कारक हमारे अनुकूल हैं। उदाहरण के लिए युवा बढ़ती तादाद में सूचना प्रौद्योगिकी ऐप्लीकेशन का इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत चीनी वस्तुओं पर उच्च अमेरिकी शुल्कों का फायदा उठा सकता है और निर्यात को बढ़ावा दे सकता है जैसा कि वियतनाम ने किया और नाभिकीय ऊर्जा समेत नवीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन बढ़ा सकता है। पश्चिम शायद अब अपने निजी क्षेत्र को वे तकनीक साझा करने को कह सके जो अब तक पहुंच से बाहर थीं। इसके अलावा भारत समग्र अर्थव्यवस्था में औपचारिक क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ा सकता है और प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों के संग्रह में तेजी से इजाफा किया जा सकता है। भारत को जो सबसे कठिन बदलाव करने होंगे उनमें भारतीय राजनीतिक दलों द्वारा बिजली और खाद्य सब्सिडी तथा रोजगार-शिक्षा कोटा व्यवस्था शामिल हैं।

भारत के लिए ये आर्थिक चुनौतियां नयी नहीं हैं। लेकिन भारत के पक्ष में हालिया रणनीतिक बदलाव के कारण बाहरी माहौल में जो सुधार आया है वह एक बड़ा अंतर है। भारत को पश्चिम के साथ अपेक्षाकृत अनुकूल परिस्थितियों का लाभ उठाना चाहिए। यह लाभ व्यापार, निवेश और खासतौर पर तकनीक संबंधित समझौतों में लिया जा सकता है। भारत को रूस के मामले में भी अमेरिका, यूरोपीय संघ और यूनाइटेड किंगडम के साथ संबंधों को संभालना चाहिए, वह भी बिना किसी पक्ष को नाराज किए।

भारत को लेकर चीन की शत्रुता निरंतर जारी है। मई1998 में भारत के परमाणु परीक्षण के समय भी यह प्रत्यक्ष नजर आई थी और अक्टूबर 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के संदर्भ में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के भीतर भी यह नजर आई। चीन के साथ गहन आर्थिक संबंधों के बावजूद अमेरिका अब उसे पश्चिम के लिए गंभीर चुनौती की तरह देखता है। इस संदर्भ में टोक्यो में 23-24 मई को अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया (क्वाड) के प्रमुखों की बैठक में इंडो-पैसिफिक इकनॉमिक फ्रेमवर्क फॉर प्रॉस्पैरिटी (आईपीईएफ) के गठन की घोषणा हुई जिसमें सभी प्रमुख आसियान देश, दक्षिण कोरिया और न्यूजीलैंड शामिल होंगे। कुछ दिन पहले अमेरिका ने चीन की अपेक्षित नाराजगी को दरकिनार कर दिया था जब अमेरिकी उप मंत्री और तिब्बती मामलों की विशेष समन्वयक उजरा जेया ने 19 मई को धर्मशाला में दलाई लामा से मुलाकात की थी।

गर्म तपते रेतीले इलाकों में यात्रा कर रहे लोगों को अक्सर कुछ दूरी पर पानी के होने का आभास होता है जो दरअसल कुछ और नहीं बल्कि मृग मरीचिका होती है। ऐसी मरीचिकाओं के उलट भारत अगर सही कदम उठाता है तो वह टिकाऊ उच्च आर्थिक वृद्धि हासिल कर सकता है और चीन के बरअक्स अपने क्षेत्रीय तथा अन्य जोखिमों को कम कर सकता है।


 

Date:31-05-22

बच्चों के लिए

संपादकीय

सरकार का लोक कल्याणकारी स्वरूप सदैव स्वागत योग्य है। नरेंद्र मोदी सरकार की आठवीं वर्ष गांठ पर कोरोना के समय अनाथ हुए बच्चों के बारे में जो योजना या राहत घोषित हुई है, वह बहुप्रतिक्षित और अनिवार्य है। इससे सरकार के लोकल्याणकारी स्वरूप को बल मिलेगा, साथ ही, दूसरी योजनाओं के लिए भी सकारात्मक प्रेरणा मिलेगी। पीएम केयर्स फॉर चिल्ड्रन स्कीम के जरिये कोगेना से अनाथ हुडबच्यं के लिए स्कॉलरशिप और अन्य आर्थिक सहायता की हुई है। प्रधानमंत्री ने सोमवार को वीडियो कांफ्रेंसिंग के जर्यि बच्चों के लिए पीएम केयर योजना के तहत अनेक लाभ की घोषणा की है। उन्होंने स्कूल जाने वाले बच्चों को छात्रवृत्ति दी है। पीएम केयर फॉर चिल्ड्रन की पासबुक और आयुष्मान भारत-प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना का स्वास्थ्य कार्ड भी भेंट किया है। वैसे यह पिछले वर्ष ही स्पष्ट हो गया था कि केंद्र सरकार अनाथ हुए बच्चों को सहारा देने के लिए अनेक उपाय करेगी। बेशक, आज ऐसे बच्चों को अधिकतम देखभाल व मदद की जरूरत है, केंद्र ही नहीं, राज्य सरकारों को भी ऐसे बच्चों के साथ खड़ा होना चाहिए। दुनिया में दूसरी सरकारों ने भी अपने यहां अनाथ हुए बच्चों के हित में कदम उठाए हैं। सरकारें होती ही इसलिए हैं कि जरूरतमंदों को भरपूर सहारा दें।

प्रधानमंत्री ने रहत-मदद की घोषणा करते हुए उचित ही यह कह्य है कि मैं प्रधानमंत्री के रूप में नहीं, बल्कि परिवार के सदस्य के रूप में संबोधित कर रहा हूं। जरूरी है, सरकार के सभी अंग प्रधानमंत्री की मंशा के अनुरूप ही जरूरतमंद बच्चों को अपने परिवार का सदस्य मानकर चलें। ऐसे बच्चों की शिक्षा से लेकर रोजगार तक की चिंता सरकार को करनी चाहिए बच्चे स्वास्थ्य कार्ड से पांच लाख रुपये तक की युसत फ्त सेवाओं का लाभ उठ सकते हैं। सरकार ने ऐसे बच्चों के नामांकन के लिए ऑनलाइन पोर्टल शुरू किया है, जिसके माध्यम से बच्चों के नाम अनुमोदन की प्रक्रिया व अन्य कार्य आसानी से किए जा सकेंगे। सभी सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि जरूरतमंद बच्चों तक मदद आसानी से पहुंच सके। एक भी बच्चा वंचित नहीं रहना चाहिए। साथ ही, यदि हो के! तो उन सभी बच्चों को मदद दी जाए, जो मां या पिता में से किसी एक को भी खो चुके हैं। दोनों अभिभावकों के कोरोना से निधन की अनिवार्यता को मानवीय व व्यावहारिक दृष्टि से देखना चाहिए। बच्चों के आवेदनों में तकनीकी खामियों या कमियों को भी उदारता से दूर करना चाहिए। एक-एक बच्चे तक मदद पहुंचाने की प्रधानमंत्री की कोशिश तभी कामयाब होगी, जब अधिकारी भी पूरी ईमानदारी से अनाथ बच्चों का सहारा बनेंगे। सबसे जरूरी है कि ऐसे बच्चों का सही डाय एकत्र किया जाए। यहां केवल सरकार ही नहीं, स्थानीय सामाजिक संगठनों की भी जिम्मेदारी बनती है। आखिर ऐसे कितने बच्चे हैं ? चूंकि सरकार के पास अभी स्पष्ट डाटा नहीं है, इसलिए तरह-तरह के अध्ययन सामने आए हैं। द लैंसेट के अध्ययन के अनुसार, भारत में लगभग 9 लाख बच्चों ने कोविड-49 के चलते माता-पिता या दोनों में से किसी एक को खोया है। दूसरी ओर, इस साल 5 फरवरी तक महिला और बाल विकास मंत्रालय के पास कुल 3,890 कोविड अनाथों का डाटा पंजीकृत था। मतलब, आधिकारिक रूप से डाय दुरुस्त करने का अहम कार्य शेष है। योजना की सफलता इसी में है कि हर जरूरतमंद बच्चे तक जल्द से जल्द मदद पहुंचे।


Date:31-05-22

Fuelling Federal Fights

Bitter Centre-state disputes over tax cuts, GST role show huge trust deficit

Duvvuri Subbarao, [ The writer is a former finance secretary, GoI and former RBI governor. ]

The Supreme Court’s recent ruling that GST Council decisions are not binding on states can at one level be seen as a reiteration of the constitutional provision – there is nothing in constitutional amendments relating to GST to force compliance with GST Council decisions. It’s just a healthy convention that has developed that the Centre and states have decided to fall in line with the Council’s collective decisions.

All governments still go back to their respective legislatures to give statutory sanction to GST Council decisions, which means the ultimate power continues to reside with legislatures.

But the ruling can also be interpreted as giving a free pass to states to defy the Council, implement their own rates and jeopardise the ‘one nation, one tax’ principle. That will potentially set off a race to the bottom and re-balkanise the common market that we sought to create with a nationwide GST.

What is certain though is that the SC decision is bound to ignite tensions around fiscal federalism, which has come under repeated assault of late.

Take for instance the PM’s conference with CMs last month where he is reported to have chided non-BJP governed states for not cutting VAT on petrol and diesel. He urged they should follow the tax-cutting example of BJP CMs. Predictably, non-BJP CMs hit back. Another round of accusations and counters followed after recent fuel tax cuts by the Centre.

Centre-state disputes are not new, but the high trust deficit we now see is new.

As finance secretary of undivided Andhra Pradesh in the 1990s, I attended a meeting of the Inter-State Council in Delhi, during the tenure of the HD Deve Gowda-led government. The meeting was presided over by the then home minister, Indrajit Gupta, and at issue was the minimum share of Centre’s revenues states should get as plan and non-plan transfers.

There were over a dozen CMs in attendance and each of them made a high decibel intervention, typically asking for the moon. Over three hours into the meeting, we were nowhere close to a meeting point. In despair, Gupta took the mike and earnestly appealed for states to understand the Centre’s pressing expenditure commitments.

There was total silence, possibly for about 20 seconds. Then, Jyoti Basu spoke, addressing fellow CMs rather than the chair, and said something approximately as follows: “Look, we’ve all made our point. We’ve also heard the home minister saying the Centre has financial constraints and can’t give away so much. As much as we speak for states, we should also see the national perspective. ”

Two minutes later, a consensus was reached. It’s a different matter that that consensus got lost in some files as the Deve Gowda government fell within weeks after that.

It’s the type of constructive understanding Basu had argued for that we desperately need today.

The Centre must realise that structural and governance reforms necessary to get to a $5 trillion economy require not just states’ consent but also their active involvement. It must also realise that the fiscal centre of gravity has slowly but decisively shifted in states’ favour. Ballpark estimates suggest that the Centre collects about 60% of the combined revenue but gets to spend only about 40% of the total. States collect 40% of the combined revenue but have the pleasure of spending 60% of it.

What this implies at a big picture level is that our macroeconomic stability, and hence our ability to generate investment and growth, will depend on collective fiscal responsibility by the Centre and states.

States on their part must acknowledge that our arrangements of fiscal federalism – even if not yet the best practice – are not necessarily skewed against them as is commonly believed.

First, as indicated above, fiscal aggregates have shifted in their favour and are likely to continue to do so. Second, not only do states get to spend a higher share of the combined expenditure but, with the abolition of the Planning Commission, they also enjoy greater autonomy on how to spend that money.

Finally, notwithstanding the SC order, it’s short-sighted for states to see GST as a central initiative that required forced compromises on their part. Sure, states have surrendered some of their autonomy in raising taxes but so has the Centre. Some give and take is inevitable in a national project like this. Eventually though, as GST expands the tax base and arrests tax leakage, all parties stand to benefit.

The PM called for cooperative federalism. Ironically, he did that in the same meeting where he gave a partisan BJP vs non-BJP colour to fuel tax cuts. That was hardly the right start. The path to cooperative fiscal federalism lies in following Basu’s exhortation to jettison politics when it comes to national goals.


Date:31-05-22

India-US Tread Firm On the Trade Front

Ample scope to deepen manufacturing trade

ET Editorials

The US became India’s largest trading partner in the previous fiscal year as the former’s economy recovered faster from the pandemic than China’s. Exports grew by 47% and imports by 49% from the prior year to take twoway trade to $119. 42 billion. This is a whisker ahead of the $115. 42 billion bilateral trade with China, which grew entirely due to a 44% rise in imports as exports remained flat. Trade with the US is more equitable for India, which ran up a surplus of $32. 8 billion, as opposed to a $72. 91 billion deficit with China. This is a stupendous 62% of India’s trade with China, and these terms are less favourable than the US-China trade where the deficit to Washington and the surplus to Beijing is 46% of the bilateral value. It makes sense for the US and India to deepen ties from the perspective of terms of trade.

On the face of it, the reordering of India’s trade partners could be a blip till global supply chains that have China at their core revive from coronavirus lockdowns, and trade disruptions caused by the Russia-Ukraine conflict. Yet, there is reason to believe this signifies a longer-term shift. India’s merchandise trade with the US is principally in commodities like mineral oil, diamonds, generic drugs and shrimp. There is ample scope to deepen manufacturing trade as supply chain resilience gains traction among policymakers. India, too, has been pushing domestic manufacturing through production incentives and tariff hikes. The two nations earlier this month became signatories to the Indo-Pacific Economic Framework (IPEF) that has as its key underpinning a ‘China Plus One’ supply diversification strategy.

Also working for India are its technology services exports, half of which are destined to the US. Essentially, a quarter of the country’s services exports are headed to the US, and the scope for scaling up has improved with the growth of cloud services and enterprise digitisation. This is a longer trend that will outlast a surge in merchandise trade caused in part by Washington’s fiscal stimulus for the pandemic.


Date:31-05-22

NITI Needs a New Plan

Ajay Chhibber, [ The writer is senior visiting professor, Indian Council for Research on International Economic Relations (ICRIER), New Delhi. ]

With a new deputy chairman of NITI (National Institution for Transforming India) Aayog taking over earlier this month, it may be time to rethink its role. For India, the experiment with ‘no planning’ has not worked. India still needs some form of new planning —or, at least, a framework to guide it to achieve shared and sustainable prosperity over the next 25 years, but with flexibility to deal with uncertainties. To achieve and help guide this, NITI Aayog needs a revamp.

India has a long and a chequered history of planning, with some success but many failures. It has tried three distinct types of planning: directed planning, indicative planning, and now ‘a strategy, but no planning’. It needed to replace the Planning Commission, but not give up on planning altogether. In doing so in August 2014, India may have thrown the baby out with the bathwater.

It is difficult to disentangle the role of planning and planning systems from broader economic policy choices in determining socioeconomic outcomes. India followed a policy of import substitution with state-led development during 1950-90. As a result, its economy grew slowly at around 3-4% GDP and poverty increased. India’s economy started to do better from 1980 when there was some internal liberalisation. But the more sustained jump in economic growth came from the 1991 reforms that allowed the private sector to invest and grow.

It also shifted from more directed planning to indicative planning starting with the 8th 5-Year Plan (1992-97), but went on to prepare 5-year plans without levers to achieve announced plan targets. As a result, planning, as practised, lost relevance. In addition, planning remained heavily top-down with GoI controlling many levers, financial and otherwise. This lack of ‘cooperative federalism’ was highlighted by inadequate consultative processes in preparing plans by the Planning Commission, and by proliferation of prescriptive onesize-fits-all central schemes in areas considered largely state subjects.

In 2014, with the creation of the thinktank NITI Aayog, India went away from planning at a time when the number of countries with a national development plan has more than doubled — from about 62 in 2006 to 134 in 2018. More than 80% of the global population now lives in a country with a national development plan of one form or another. This is a stunning recovery of a practice that had been discredited in the 1980s-90s as a relic of directed economies and state-led development.

Several factors have fostered this ‘new national planning’. But from about 2015, the momentum for producing plans has accelerated, driven in part by a need to plan for Sustainable Development Goals (SDGs). NITI Aayog should also prepare a National Investment Financing Framework to outline how best to achieve that vision and, in the interim phase, to achieve SDGs.

NITI Aayog should be preparing a long-term perspective vision, possibly all the way to 2047, with an interim target of 2030 to dovetail that vision to the agreed SDGs and 3-5-year frameworks to move towards that vision. Without such a compass, and with rising inequalities and looming climate change challenges, it is not clear what direction India is headed towards and how it should try and get there. Antoine de Saint-Exupéry in his 1943 book, The Little Prince, said it best, ‘A goal without a plan is just a wish. ’

It need not be given financial powers, especially as the distinction between plan and non-plan expenditures does not exist any more. But it should have the power to sign off on capital and recurrent expenditure allocations to central ministries, states and local administrations. Without such a sign-off power, it can be easily bypassed and ignored.

NITI Aayog should be given a much clearer and vital role with a leadership team that has the requisite political backing and technical skills. It should be a cabinet minister — a minister of economic development — who should be at all cabinet meetings, a voice for long-term sustainable development. The institution should be authorised through an Act of Parliament so that it can have the required legitimacy and be answerable to Parliament.

The technical skills and sectoral expertise should also include expertise in economic systems and behavioural modelling, critical to understanding how market forces react to policy changes under indicative planning, and how development outcomes are affected by a variety of interventions, to achieve the SDGs. It should have the expertise to be a systems reform commission to address intersectoral linkages and future challenges such as climate change and meeting SDG targets, as well as ensure greater horizontal equity between states through a few core central schemes and lead the way forward. What it must not be is just a reactive body, tasked with piecemeal special projects.

The current NITI Aayog needs a legitimised authorising environment, perhaps working through the constitutionally mandated Inter-State Council in the spirit of cooperative federalism.

30-05-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक

Date:30-05-22

NREG For Cities
A national urban job guarantee is needed. Efficiently designed, it won’t stress the budget
TOI Editorials

Shortly after a report from the Prime Minister’s Economic Advisory Council (PMEAC) that recommended the rollout of an urban employment guarantee programme, Rajasthan launched its own version of the scheme. India is not new to statelevel urban jobs programmes as Kerala launched one over a decade ago. The advent of the pandemic built up cross-party support for it and a few other states followed suit. At the Union level, this idea gained momentum last year when the parliamentary standing committee on labour recommended it. Besides Kerala, Tamil Nadu, Odisha, Himachal Pradesh have a shorter experience in the area.

There’s a case for GoI to join in for two key reasons. In India, CMIE jobs data shows that monthly unemployment has fluctuated between 6. 56% and 11. 84% over a year, with urban employment exceeding rural in 10 of those months. At India’s stage of development, this is relatively high, particularly in urban centres. Second, state-level initiatives are geographically limited and also at a nascent stage. It is difficult to gauge how useful they are for workers from UP, Bihar, Rajasthan and West Bengal – states that were destinations for more than 60% of the 11. 4 million returning migrant workers during the first lockdown. As in the case of GoI’s health insurance scheme that was synchronised with similar state-level initiatives, it’s possible to design an overarching national urban employment guarantee programme.

That leaves two key questions, on cost and design. One estimate by researchers at Azim Premji University showed that 100 days of guaranteed work for 20 million workers with wages fixed at Rs 300 a day, and the overall wage bill capped at 50% of the total outlay, would cost GoI Rs 1 lakh crore. For perspective, the latest GoI annual budgetis pegged at Rs 39. 4 lakh crore. GoI’s existing urban employment schemes can be subsumed into an urban job guarantee scheme to control costs. As for design, it’s prudent to take an intermediate step such as ‘Duet’ (decentralised urban employment and training) proposed by economist Jean Dreze. It envisages using public institutions initially to introduce the scheme. Instead of going all out, it will allow GoI a chance to observe its working in smaller settings as urban governance capacity across India is uneven. But it’s worth sorting out these details because an urban employment guarantee plan can help those most hit by recent economic shocks.

 

Date:30-05-22

Absolution
India needs a law to make compensation for unlawful arrest a statutory right
Editorial

Shoddy investigation is one thing, but a malicious and motivated probe is quite another. The probe conducted by former Narcotics Control Bureau (NCB) official Sameer Wankhede into a purported tip-off about consumption of drugs on board a cruise ship, in October 2021, seems to fall in the latter category. The raid on the vessel resulted in seizure of narcotic substances and the arrest of several people, including Aryan Khan, son of Bollywood star Shah Rukh Khan. Even though nothing was seized from Mr. Khan, the agency made sensational claims in court about his being part of an international drug trafficking network and, quite strangely, cited messages purportedly exchanged on WhatsApp as ‘evidence’. By the time he obtained bail weeks later, the case had all the makings of a witch-hunt. A special investigation team from Delhi, which took over the case after allegations of extortion surfaced against Mr. Wankhede, has now cited lapses in the initial investigation and the lack of prosecutable evidence, and absolved Mr. Khan and five others and excluded them from the charge sheet filed recently. The lapses include failure to video-graph the search of the ship, not conducting a medical examination to prove consumption, and examining Mr. Khan’s phone and reading messages on it without any legal basis.

It is good that the agency made amends for the mischief done by the initial set of investigators by applying the standard of ‘proof beyond reasonable doubt’ while presenting its final report. At the same time, the NCB has to re-examine its priorities. It is an elite agency in the fight against international trafficking in narcotic and psychotropic substances. Its primary focus ought to be on trans-national smuggling networks, while the job of pursuing drug peddlers and raiding rave parties must be left to the local police. While strict disciplinary action is warranted if any officer is found involved in ‘fixing’ someone, it is also time that the Government came out with a legal framework for compensating those jailed without proof. The country does not have a law on the grant of compensation to those maliciously prosecuted. However, constitutional courts do exercise their vast powers sometimes to award monetary recompense; the remedy of a civil suit is also available in law, but it is time-consuming. The Law Commission of India has recommended enactment of a law to make compensation in such cases an enforceable right. Currently, Section 358 of the Cr.P.C. provides for a paltry fine to be imposed on a person on whose complaint a person is arrested without sufficient grounds. Such provisions should be expanded to cover just compensation by the state for unnecessary arrests. It is a sobering thought to note that even people with celebrity status and vast resources are not insulated from the misuse of police powers, even while recognising that it is still possible to vindicate one’s innocence and force the establishment to adopt a course correction.

Date:30-05-22

दुनिया को राह दिखाता नया भारत
अमित शाह, ( लेखक केंद्रीय गृहमंत्री हैं )

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राजग सरकार ने केंद्र में अपने आठ वर्ष पूरे कर लिए हैं। इस अवधि को मैं नए भारत के निर्माण की यात्रा के रूप में देखता हूं। नए भारत का अर्थ एक सशक्त, सक्षम, समर्थ और आत्मनिर्भरता की भावना युक्त भारत है। यह सुखद है कि पिछले आठ वर्षों में इस भारत की आधारशिला रखने का काम मोदी जी ने किया है। इस दौरान देश के समक्ष कोविड संकट सहित अनेक बाधाएं और चुनौतियां आईं, लेकिन मोदी जी के कुशल नेतृत्व में देश ने मजबूती से उनका सामना किया और नए भारत के निर्माण की यात्रा सतत जारी रही। कोविड महामारी ने पूरी दुनिया को नुकसान पहुंचाया और अभी भी तमाम देश उससे उबरने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन मोदी सरकार की नीतियों के चलते यह महामारी हमारी अर्थव्यवस्था को अधिक प्रभावित नहीं कर पाई। जब दुनिया के बड़े-बड़े देश कोविड के समक्ष घुटने टेक चुके थे, तब मोदी जी ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ का आह्वान करते हुए स्पष्ट किया कि यदि संकल्प दृढ़ हो तो आपदा को भी अवसर में बदला जा सकता है।

आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा से जहां हताश हो रहे भारतीय जनमानस में आशा का संचार हुआ, वहीं इसके तहत घोषित बीस लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज ने अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने का काम किया। सरकार के इन्हीं प्रयासों का परिणाम है कि कोविड संकट के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेजी से बढऩे वाली अर्थव्यवस्था बनी हुई है। भारत आज छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। ‘ईज आफ डूइंग बिजनेस’ में भारत 2015 में जहां 142वें स्थान पर था, वहीं अब 63वें स्थान पर है। भारत दुनिया का इन्वेस्ट डेस्टिनेशन बन गया है। मोदी जी के नेतृत्व में आत्मनिर्भरता की राह पर चलता भारत विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनने की दिशा में तेजी से अग्रसर है।

जनधन योजना के माध्यम से करोड़ों गरीबों के बैंक खाते खुलवाकर उन्हें देश के अर्थतंत्र में शामिल करते हुए मोदी जी ने यह प्रकट किया कि उनकी सरकार समावेशी विकास के माडल को लेकर आगे बढ़ने वाली है। मोदी शासन का मूलमंत्र ‘सबका साथ-सबका विकास’ ही सर्वस्पर्शी एवं सर्वसमावेशी माडल को लेकर आगे बढ़ने वाला है। इसका उद्देश्य देश के अंतिम व्यक्ति तक सरकार की योजनाओं का लाभ पहुंचाते हुए उसके जीवन स्तर को ऊपर उठाना है। उज्ज्वला, आयुष्मान भारत, मुद्रा, पीएम किसान सम्मान निधि, स्वच्छ भारत, सौभाग्य, आवास, डीबीटी इत्यादि योजनाओं के माध्यम से मोदी सरकार ने गरीबों का न सिर्फ आर्थिक सशक्तीकरण किया, बल्कि उन्हें सम्मान से जीने का अवसर देने का सफल भी प्रयास किया है। योजनाएं पिछली सरकारों में भी बनती थीं, लेकिन उनके क्रियान्वयन की गति मोदी सरकार की विशेषता रही है। अब योजनाओं को किसी सीमा में बांधे बिना सभी के लिए बनाया जाता है। पिछले आठ वर्षो में स्वतंत्रता के बाद पहली बार गरीब और पिछड़े सरकार में हितधारक (स्टेकहोल्डर) बने और अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा से जुड़े।

मोदी जी के शासन में राष्ट्रीय सुरक्षा को भी अभूतपूर्व मजबूती मिली है। आतंकवाद के प्रति यह सरकार जीरो टालरेंस का रवैया अपनाते हुए आगे बढ़ रही है। अब आतंकी हमलों पर कांग्रेस सरकारों की तरह केवल निंदा-भर्त्सना करके ही कर्तव्यों की इतिश्री नहीं की जाती, बल्कि सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक द्वारा आतंकियों को उनके घर में घुसकर मुंहतोड़ जवाब दिया जाता है। यह परिवर्तन देश के नेतृत्व की मजबूती के कारण ही संभव हुआ। कांग्रेस सरकारों के समय अक्सर ऐसा भी सुनने को मिलता था कि भारतीय सेना के पास गोला-बारूद की कमी हो गई है, लेकिन अब सैन्य बलों को सभी अत्याधुनिक संसाधनों एवं उपकरणों से लैस रखने के लिए सरकार लगातार काम कर रही है। आज देश की वायु सीमा की रक्षा राफेल जैसा अत्याधुनिक लड़ाकू विमान कर रहा है तो एस-400 जैसी सर्वश्रेष्ठ मिसाइल रक्षा प्रणाली देश का कवच बनकर तैनात हो चुकी है। रक्षा सामग्री के लिए विदेशी निर्भरता वाले भारत ने 2019 में 10 हजार करोड़ रुपये के रक्षा उत्पादों का निर्यात किया और 2025 तक इसका लक्ष्य 35 हजार करोड़ रुपये करने का है। यह सब इसीलिए संभव हुआ, क्योंकि मोदी सरकार के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा राजनीति नहीं, राष्ट्रहित का विषय है। हमारी सरकार इससे कोई समझौता नहीं कर सकती।

प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय स्तर पर तो देश को सुदृढ़ किया ही है, विश्व पटल पर भारत के गौरव को बढ़ाने का भी काम किया है। जलवायु संकट पर दुनिया को राह दिखाना हो या कोविड के विरुद्ध भारत की लड़ाई को विश्व के लिए मिसाल बनाना हो, उन्होंने विश्व पटल पर भारत की प्रतिष्ठा को बढ़ाया है। प्रधानमंत्री जब किसी भी देश या वैश्विक मंच पर जाते हैं, तो उनके वक्तव्यों में भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का भरपूर उल्लेख होता है। इससे वह विश्व को भारत के प्रति एक नई दृष्टि देते हैं। अब भारत किसी महाशक्ति के सामने झुके बिना देशहित में अपना मत स्वतंत्रतापूर्वक रखता है। मोदी जी को संयुक्त राष्ट्र सहित विश्व के कई मंच और देश सम्मानित कर चुके हैं। यह भी विश्व में भारत की बढ़ती प्रतिष्ठा का ही द्योतक है। पिछले आठ वर्षों में भारत की महान संस्कृति और परंपराओं को पुनस्र्थापित किया गया है। प्रधानमंत्री के प्रयासों से भारतीय संस्कृति को वैश्विक सम्मान भी मिला है। योग को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलना इसका एक उदाहरण है।

यदि मोदी जी देशहित में बड़े और कड़े निर्णय लेते हैं तो इसका एक प्रमुख कारण उनके प्रति जनता का अपार विश्वास है। आज उनके नेतृत्व पर जनता का ऐसा विश्वास है कि लोग उनके निर्णयों को स्वयं आगे बढ़ाने में लग जाते हैं। स्वच्छ भारत अभियान का आह्वान हो, गैस सब्सिडी छोड़ने की अपील हो, नोटबंदी का निर्णय हो या कोविड के दौरान लाकडाउन की घोषणा, इन सभी मामलों में मोदी जी के आह्वान पर जनता ने जिस तरह से सरकार का सहयोग किया वह उनके प्रति लोगों के विराट विश्वास को ही दर्शाता है। मोदी सरकार एक ऐसे समय अपने कार्यकाल के आठ वर्ष पूरी कर रही है, जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। ये आठ वर्ष अगले 25 वर्षों के लिए देश को आगे ले जाने की दशा-दिशा तैयार करने वाले हैं। मुझे विश्वास है कि प्रधानमंत्री मोदी ने इन आठ वर्षों में नए भारत की जो मजबूत आधारशिला तैयार की है, उस पर विश्व का नेतृत्व करने वाला एक सक्षम, सशक्त और आत्मनिर्भर भारत आकार लेगा।

Date:30-05-22

दोषी कौन
संपादकीय

अभिनेता शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान को आखिरकार स्वापक नियंत्रण ब्यूरो यानी एनसीबी ने बेदाग घोषित कर दिया। अब फिर से सवाल उठने लगे हैं कि आखिर किस मकसद से आर्यन और उसके साथियों को गिरफ्तार किया गया। क्या वास्तव में एनसीबी के अधिकारी मादक पदार्थ पर रोक लगाने के मकसद से कड़ा संदेश देना चाहते थे, या उनका इरादा कुछ और था। खुद एनसीबी ने इस मामले की जांच में स्वीकार किया है कि कुछ गंभीर अनियमितताएं हुई हैं। वे अनियमितताएं क्या केवल अधिकारियों की रिश्वतखोरी तक सीमित हैं या उसके दूसरे पहलू भी हैं। पिछले साल एक क्रूज पर चल रहे जलसे में एनसीबी ने अन्य संबंधित महकमों के साथ मिल कर छापेमारी की थी। उन्हें सूचना मिली थी कि वहां मादक पदार्थों का सेवन हो रहा है। उसमें आर्यन खान के अलावा उन्नीस अन्य लोगों को गिरफ्तार किया गया था। उनमें महाराष्ट्र सरकार में मंत्री नवाब मलिक का दामाद भी था। बताया गया कि उन सबके पास मादक पदार्थ पाए गए थे। सबको जेल भेज दिया गया। मगर नवाब मलिक ने उस गिरफ्तारी पर सवाल उठाते हुए एनसीबी के अधिकारियों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। उनका कहना था कि गलत इरादे से आर्यन और उनके दामाद को गिरफ्तार किया गया है, उनके पास कोई मादक पदार्थ नहीं था।

इस मामले में गिरफ्तार करने वाले एनसीबी के अधिकारी समीर वानखेड़े के इरादे पर सवाल उठाए गए। नवाब मलिक ने उसकी अनेक अनियमितताओं के सबूत सार्वजनिक किए थे, जिसमें फर्जी प्रमाण पत्र के आधार पर नौकरी पाने का भी आरोप था। फिर यह भी आरोप लगा कि वानखेड़े ने शाहरुख खान से मोटी रकम रिश्वत में मांगी थी और कुछ रकम उसे पहुंचा भी दी गई थी। क्रूज पर छापेमारी में जो लोग शामिल थे, उनमें कुछ बाहरी लोग भी थे और उनका संबंध विपक्षी दल से बताया गया। इस तरह इस मामले को खासा सियासी रंग भी दिया गया था। उस गिरफ्तारी में बदले की भावना तलाशी जाने लगी थी। चूंकि उस मामले में रसूखदार लोगों के बच्चे गिरफ्तार थे, इसलिए उसकी जांच आदि के लिए उच्च स्तरीय पहल हुई और अब वह एक नतीजे पर पहुंच गई है। मगर यह सवाल अब भी अनुत्तरित है कि एनसीबी अधिकारियों के ऐसे रवैए से भला मादक पदार्थों की बिक्री पर रोक लगने का भरोसा कहां तक बन सकता है।

हमारे देश में मादक पदार्थों की बढ़ती खपत गंभीर चिंता का विषय है। पिछले कुछ सालों में अकेले गुजरात के बंदरगाहों से हजारों किलो नशीले पदार्थों की खेप पकड़ी जा चुकी है। जो नहीं पकड़ी जा सकी, उसका कोई हिसाब नहीं है। मादक पदार्थ के धंधे में लगे लोगों के तार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जुड़े होते हैं। एनसीबी के हाथ उनकी गर्दन तक नहीं पहुंच पाते। छोटे-मोटे मामलों में लोगों को पकड़ कर वह अपनी सक्रियता और चौकसी साबित करती रहती है। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद भी इसी तरह सक्रिय होकर उसने नाहक बहुत सारे लोगों को परेशान किया था, पर उसके हाथ कुछ नहीं लगा। एनसीबी केवल छिटपुट तरीके से कुछ लोगों पर शिकंजा कस कर देश में नशीले पदार्थों के बढ़ते कारोबार को रोकने में सफल नहीं हो सकती। उसे उस कड़ी को तोड़ने की कोशिश करनी चाहिए, जिसके जरिए मादक पदार्थ देश में फैल और युवाओं की जिंदगी बर्बाद कर रहा है। आर्यन खान मामले से उसे सीख लेने की जरूरत है।

Date:30-05-22

यौनकर्म गुनाह नहीं
संपादकीय

सर्वोच्च न्यायालय का सेक्स वर्कर्स को लेकर दिया गया हाल ही का आदेश दूरगामी परिणामों वाला है। वेश्यावृत्ति पर अपने आदेश में अदालत ने कहा है कि सेक्स वर्कर्स को भी सम्मान से जीने का अधिकार है और पुलिस को बेवजह उन्हें परेशान नहीं करना चाहिए। देश के प्रत्येक व्यक्ति को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सम्मानजनक जीवन का अधिकार है। यौनकर्मी भी कानून के तहत समान सुरक्षा की हकदार हैं। यह आदेश देकर सुप्रीम कोर्ट ने वेश्यावृत्ति को ‘पेशे’ के रूप में भी मान्यता दे दी है। लाखों लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाला यह एक ऐतिहासिक फैसला है। सुप्रीम कोर्ट से नियुक्त एक पैनल ने विभिन्न दिशा-निर्देशों की सिफारिश की है, जिनमें कहा गया है कि जब भी किसी वेश्यालय पर छापा मारा जाता है तो संबंधित यौनकर्मिंयों को गिरफ्तार या दंडित या परेशान नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि स्वैच्छिक यौन कार्य अवैध नहीं है और केवल वेश्यालय चलाना गैरकानूनी है। अदालत ने मीडिया को भी इस बारे में संवेदनशील रुख अपनाने को कहा है। छापे और रेस्क्यू के दौरान यौनकर्मिंयों की तस्वीरें प्रकाशित न करने की हिदायत दी गई है। पुलिस बलों को यौनकर्मिंयों के साथ सम्मान से पेश आने और शोषण न करने की बात कही गई है। अदालत ने ये निर्देश संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत शक्ति का इस्तेमाल करते हुए जारी किए हैं। ये निर्देश तब तक लागू रहेंगे जब तक केंद्र सरकार कानून लेकर नहीं आती है। यही नहीं यौनकर्मियों के बच्चों को लेकर भी अदालत ने संवेदनशील रुख अपनाते हुए ऐसे बच्चों को भी मानवीय गरिमा और सम्मान की बुनियादी सुरक्षा मिलने की बात कही। अदालत के अनुसार अगर कोई सेक्स वर्कर अपना बच्चा होने का दावा करती है, तो यह पुष्टि करने के लिए परीक्षण किया जा सकता है। कहा जा सकता है कि यह आदेश बेहद दूरगामी असर रखने वाला है। एक अध्ययन के मुताबिक भारत में 11 सौ के करीब रेड लाइट एरिया हैं, और 28 लाख महिलाएं सेक्स वर्कर के तौर पर काम करती हैं। ये भूख, गरीबी, बहलाने या फुसलाए जाने या अवैध व्यापार के कारण यह काम करने को मजबूर हैं। उन पर माफिया और पुलिस का गहरा शिंकजा रहता है। उनकी अरबों रुपए की अवैध कमाई का ये आसान जरिया हैं। यौन कर्म को मान्यता देने से पहले इस गठजोड़ को तोड़ना ज्यादा जरूरी है अन्यथा इन्हें भी अपने धंधे को वैध बताने का जरिया मिल जाएगा।

28-05-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक

 

Date:28-05-22

The Aryan Lesson

Cops can’t defame, courts must follow evidence

TOI Editorials

 

Date:28-05-22

Sex as work

Laws should free consenting sex workers from stigma, and grant them rights

Editorial

A long-standing demand of sex workers that their work be decriminalised has been partially fulfilled with the Supreme Court passing an order on May 19 that adult sex workers are entitled to dignity and equal protection under law. Directing the police to respect the rights of consenting sex workers, the Court observed that “… notwithstanding the profession, every individual … has a right to a dignified life under Article 21 of the Constitution”. It reiterated what the Court had ruled in Budhadev Karmaskar (2011), that sex workers are also entitled to a “life of dignity”. With the Trafficking of Persons (Prevention, Protection and Rehabilitation) Bill yet to see the light of day, the Court invoked powers under Article 142 to issue guidelines till the legislation is in force. In 2011, it had set up a panel to look at prevention of trafficking; rehabilitation; and conditions conducive for sex workers who wish to continue work. As the Court awaits the Government’s response to the panel’s recommendations that adult sex workers should not be “arrested or penalised or harassed or victimised,” a three-judge Bench led by Justice L. Nageswara Rao did well to direct the police to treat “all sex workers with dignity and should not abuse them, … verbally and physically, subject them to violence or coerce them into any sexual activity”. During the hearings, the Additional Solicitor General Jayant Sud had conveyed to the Court that the Government has “certain reservations” on some of the panel’s recommendations.

The Court has asked the Government to respond to the panel’s suggestions in six weeks. By holding that basic protection of human decency and dignity extends to sex workers and their children, the Court has struck a blow for the rights of an exploited, vulnerable section. Coming down heavily on the brutal and violent “attitude” of the police toward sex workers, the Court said “it is as if they are a class whose rights are not recognised”. It has asked State governments to do a survey of protective homes under the Immoral Traffic (Prevention) Act, the legislation governing sex work in India, to review the cases of “adult women” detained there and process their release in a time-bound manner. The ITP Act penalises acts such as running a brothel, soliciting in a public place, living off the earnings of a sex worker and living with or habitually being in the company of one. The Court’s general observations should help sensitise the police, media and society toward sex workers, who have generally been invisible and voiceless. The ball is in the Government’s court to draw up appropriate legislation to free consenting sex workers from stigma, and grant them workers’ rights. In that too, the Court suggested the Centre and States involve sex workers or their representatives to reform laws.


 

Date:28-05-22

रूस के बाद अब चीन पर भी हमारी कूटनीति सटीक

डॉ. वेदप्रताप वैदिक, ( भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष )

टोक्यो में क्वाड (चौगुटे) की बैठक में अमेरिका, भारत, ऑस्ट्रेलिया और जापान के नेता शामिल क्या हुए, चीन के नेता बौखला उठे। उन्होंने कहा अमेरिका की कोशिश है कि चीन के विरुद्ध वैसा सैन्य-गठबंधन खड़ा कर ले, जैसा उसने रूस के विरुद्ध शीतयुद्ध के काल में किया था। चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने यहां तक कह दिया कि यह संगठन समुद्री झाग की तरह शीघ्र ही गायब हो जाएगा। लेकिन ऐसा लग रहा है कि यह चौगुटा गायब होने के बजाय धीरे-धीरे मजबूत होता जा रहा है। यह ठीक है कि क्वाड के जो बीज डोनाल्ड ट्रंप ने डाले थे, वे अंकुरित होने के पहले ही झर गए थे लेकिन जो बाइडन ने अपनी इस टोक्यो-यात्रा के दौरान उन्हें पुष्पित-पल्लवित करने की पूरी तैयारी कर ली है।

इस बैठक में तय किया गया है कि ये चारों राष्ट्र मिलकर 50 अरब डॉलर खर्च करेंगे, ताकि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में जल-मार्गों की सुविधाएं जारी रह सकें और विभिन्न निर्माण-कार्यों को संपन्न किया जा सके। क्वाड के राष्ट्र संयुक्त वक्तव्य में चीन का नाम तो नहीं लेते हैं लेकिन वे यह कह देते हैं कि वे चीनी समुद्र में मुक्त आवागमन व परिवहन का समर्थन करेंगे। इस मामले में वे किसी की दादागीरी व अड़ंगेबाजी के खिलाफ हैं। यह चीन को दी गई चुनौती है। चारों राष्ट्रों के नेताओं ने यूएन घोषणा पत्र का हवाला देते हुए किसी भी राष्ट्र की सम्प्रभुता के उल्लंघन की निंदा की है। इशारा यूक्रेन और ताइवान की तरफ था। बाइडन ने ताइवान की रक्षा का जो बयान अलग से दिया था, वह चीन को खुली चेतावनी था लेकिन बाद में अमेरिकी प्रवक्ता ने उस पर लीपापोती कर दी। जैसे यूक्रेन को नाटो की सदस्यता के लिए पहले उकसाकर आज अकेला छोड़ दिया गया है, वैसे ही अमेरिका ताइवान पर भी कोरी गीदड़-भभकियां देता हुआ रह सकता है, हालांकि ताइवान दुनिया की 92 प्रतिशत सेमिकंडक्टर चिप्स बनाता है, जिसके रुकने पर सारे विश्व की अर्थव्यवस्था पर भारी कुप्रभाव हो सकता है।

अपने संयुक्त वक्तव्य में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान ने रूस का नाम नहीं लिया, यह भारत की कूटनीतिक विजय है। इन तीनों देशों के नेता जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले तब क्या उन्होंने जोर नहीं दिया होगा कि यूक्रेन पर हमले के लिए भारत रूस की भर्त्सना करे? लेकिन यह भारत की सफलता है कि वह इन तीनों राष्ट्रों के रूस-विरोधी शाब्दिक-युद्ध में शामिल नहीं हुआ। सारे नाटो राष्ट्र यूक्रेन की रक्षा के लिए कुछ क्यों नहीं करते? अमेरिका समेत सभी नाटो राष्ट्र रूस पर शब्दबाण चला रहे हैं लेकिन भारत उनका पिछलग्गू नहीं बना है।

यह ठीक है कि पिछले 2-3 साल में भारत-चीन सीमा-विवाद ने छुटपुट सैन्य मुठभेड़ का रूप ले लिया लेकिन दोनों देशों के बीच व्यापार निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। चीन के साथ भारत की हजारों मीलों की सीमा लगी हुई है जबकि क्वाड के तीनों देशों में से किसी की भी सीमा चीन को नहीं छूती है। इसके अलावा चीन के साथ भारत के जैसे संबंध हैं, उनकी तुलना में इन राष्ट्रों के संबंध कहीं अधिक घनिष्ठ हैं। चीन के साथ भारत का व्यापार इधर बढ़कर 120 अरब डॉलर का हो गया है लेकिन जापान का 317 अरब, ऑस्ट्रेलिया का 250 और अमेरिका का 151 अरब डॉलर का है। जब चीन से शेष तीनों राष्ट्र इतना फायदा उठा रहे हैं, तब भारत इनके उकसावे पर चीन से क्यों भिड़ने लगे?

इसीलिए भारत ने बार-बार कहा है कि वह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सर्वसमावेशी संबंध चाहता है। वह किसी देश के विरुद्ध सैन्य गठबंधन में शामिल नहीं हो रहा है। उस क्षेत्र को हिंद-प्रशांत क्षेत्र कहकर उसमें ‘हिंद’ इसीलिए जोड़ा गया है कि भारत को चीन के प्रतिद्वंद्वी की तरह इस्तेमाल किया जा सके। वरना इस क्षेत्र को या तो सुदूर-पूर्व या पूर्व एशिया ही कहते थे। जिसे किसी जमाने में ‘इंडियन सब-कांटिनेंट’ कहा जाता था, उसे आजकल ‘दक्षिण एशिया’ क्यों कहा जाता है? इसीलिए कि अमेरिका ने शीतयुद्ध के दौरान यह नाम बदला, क्योंकि पाकिस्तान को यह पसंद नहीं था।

बाइडेन ने टोक्यो में नए आर्थिक संगठन की घोषणा की है, जो इस क्वाड को मजबूत कर सकता है। 13 राष्ट्रों के इस क्षेत्रीय संगठन में वे 11 राष्ट्र भी शामिल हैं, जो उस ‘विशाल क्षेत्रीय भागीदारी मंच’ (आरसीईपी) के सदस्य हैं, जिसका सबसे प्रमुख देश चीन है। भारत भी इसका सदस्य था लेकिन भारत ने सदस्यता छोड़ दी है। चीन के बिना बन रहे इस नए संगठन में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है।


Date:28-05-22

पर्यटन विकास की संभावना

संपादकीय

उत्तराखंड में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार दीर्घकालिक योजनाओं की दिशा में काम करती दिख रही है। निश्चित तौर पर यह अच्छा सोच है, बशत्तें कि ईमानदारी के साथ इन प्रयासों को आगे बढ़ाया जाए। इस आशंका को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है क्योंकि पर्यटन को लेकर राज्य सरकारों का अभी तक का दृष्टिकोण रहा, उसमें यह सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है। खैर, अब फिर से पर्यटन चर्चा का विषय बन रहा है। राज्य सरकार पर्यटन को लेकर न केवल उत्साहित है, बल्कि इस दिशा में गंभीरता के साथ आगे बढ़ते का इरादा जाहिर कर रही है। कोई शक नहीं कि पर्यटन के लिहाज से उत्तराखंड में संभावनाएं बहुत हैं। तीर्थाटन को देखें तो इसका अपने आप में बड़ा आकर्षण है। साहसिक पर्यटन के लिए देश-विदेश के लोग उत्तराखंड आना ज्यादा पसंद करते हैं। यहां की सुरम्य वादियां पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। स्थिति यह कि राज्य में अब परे साल पर्यटकों की आवाजाही रहने लगी है। सप्ताहांत पर्यटन (वीकेंड टूरिज्म) की नई अवधारणा तेजी से विकसित हो रही है। अच्छी बात यह कि राज्य सरकार इन स्थितियों को समझ रही है और पर्यटन विकास की योजनाओं का ताना-बाना इनके इर्द-गिर्द बुन रही है। देवभूमि में हेली सेवाओं के विस्तार को इससे जोड़कर देखा जा सकता है। प्रदेश में 31 नए हेलीपड बनाए जा रहे हैं। 51 हेलीपेंड पहले से मौजूद हैं| चूंकि अभी प्रदेश के भीतर हवाई सेवाएं सेवाएं सीमित हैं। उड़ान योजना के तहत ही छह शहरों के लिए हेली सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है। तीर्थाटन के लिहाज से देखें तो केदारनाथ और हेमकुंड साहिब के लिए ही हेली सेवा संचालित हो रही हैं। नए हेलीपैड बनने के बाद हवाई सेवाओं को विस्तार मिलेगा। राज्य ज्य सरकार उच्च हिमालवयी क्षेत्रों में साहसिक खेलों को बढ़ावा देकर पर्यटन के नए द्वार खोलने की प्रतिबद्धता जाहिर कर रही है। सरकार की मंशा में कोई खोट नजर नहीं आता है, लेकिन किंतु-परंतु की गुंजाइश बनी हुई है। क्योंकि राज्य गठन के बाद से अब तक पर्यटन विकास को लेकर जितनी बातें सरकारों के स्तर पर हुईं, उनका क्रियान्वयन उस रूप में होता नहीं दिखा। उम्मीद है कि सरकार पिछले अनुभवों से सीख लेगी, विफलता के कारणों की तह में जाएगी और इसमें सुधार करते हुए भावी योजनाओं के लिए प्रभावी व्यवस्था करेगी।


 

Date:28-05-22

चौटाला को सजा

संपादकीय

आय से अधिक संपत्ति के मामले में हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला को चार साल की कैद की सजा हुई है। साथ ही पचास लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया गया है। चौटाला को मिली सजा इस बात का कड़ा संदेश है कि भ्रष्टाचार के मामलों में चाहे कोई कितना ही बड़ा और ताकतवर क्यों न हो, कानून सबके लिए समान है। यह भी कि भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में नरमी के लिए कोई जगह नहीं है। गौरतलब है कि इससे पहले भी चौटाला शिक्षक भर्ती घोटाले में भी लंबी सजा काट चुके हैं। जैसा कि आरोपपत्र में सीबीआइ ने बताया, चौटाला ने अपनी आय से एक सौ नवासी गुना से भी ज्यादा ज्यादा संपत्ति हासिल कर ली थी। यह हैरानी पैदा करने वाली बात है। निश्चित ही ये संपत्तियां चौटाला ने अपने पद पर रहते हुए बनाई होंगी और इन्हें हासिल करने के लिए उन्होंने वह सब कुछ किया होगा जो सिर्फ नैतिक रूप से ही नहीं, कानूनी तौर पर भी गलत था। लेकिन तब वे सत्ता के मद में थे और यह भूल बैठे थे कि उनके ऊपर कानून का शासन है। हालांकि चौटाला अकेले ऐसे नेता नहीं हैं जिन्हें भ्रष्टाचार के मामले में सजा मिली है। तमिलनाडु की पूर्व और दिवंगत मुख्यमंत्री जयललिता, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव और जगन्नाथ मिश्र, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा आदि भी भ्रष्टाचार के मामले में जेल काट चुके हैं।

भारत में बड़े पदों पर भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है। चाहे राजनीति हो या प्रशासन, ऐसे मामले उजागर होते ही रहते हैं। सीबाआइ, प्रवर्तन निदेशालय जैसी सरकारी एजंसियों से लेकर राज्यों के अपने भ्रष्टाचार निरोधक विभाग तक मामले दर्ज करते रहते हैं। लेकिन देखने में यह आता है कि भ्रष्टाचार के मामले तार्किक नतीजों तक कम ही पहुंच पाते हैं। ज्यादातर मामलों में नेताओं-अधिकारियों के रसूख की वजह से ऐसे मामले दबा दिए जाते हैं। कई मामलों में पर्याप्त सबूत नहीं होने की वजह से आरोपी दोषी साबित नहीं हो पाते। ऐसा भी देखने में आता रहा है कि जांच एजंसियां भी उतनी तत्परता के साथ आगे नहीं बढ़ पातीं, जितनी उनसे उम्मीद की जाती है। चौटाला का ही उदाहरण लें। सीबीआइ ने 2005 में मामला दर्ज किया था और आरोपपत्र दाखिल हुआ 2010 में। अगर किसी मामले में आरोपपत्र दाखिल होने में ही पांच साल लग जाएं तो यह व्यवस्था पर कम बड़ा सवाल नहीं है।

भ्रष्टाचार को लेकर पिछले कुछ सालों में केंद्र और राज्य सरकारें कड़ा रुख अपनाने का दावा करती दिखी हैं। भ्रष्टाचार से त्रस्त लोगों में भी जागरूकता बढ़ी है। फिर भी ऐसे मामलों का बढ़ना गंभीर बात है। इससे तो लगता है कि हमारी व्यवस्था इस समस्या के आगे हाथ खड़े कर चुकी है। वैश्विक भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत की स्थिति हालात बताने के लिए काफी है। भ्रष्टाचार चाहे नौकरशाही में हो या राजनीति में, उसकी कीमत आम जनता को ही चुकानी पड़ती है। भ्रष्टाचार के मामले तो आए दिन सामने आते रहते हैं, लेकिन विडंबना यह है कि इनमें से ज्यादातर तो औपचारिक तौर पर दर्ज भी नहीं होते। फिर भ्रष्ट मानसिकता से ग्रस्त सेवकों के भीतर यह दंभ भी भरा होता है कि वे कानून से ऊपर हैं और चाहे जो कर सकते हैं। हाल में पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने भ्रष्टाचार के मामले में अपने स्वास्थ्य मंत्री को बर्खास्त कर मिसाल पेश की है। दूसरे राज्यों में भी मुख्यमंत्री ऐसा ही साहस दिखाएं तो निश्चित तौर पर इस समस्या से पार पाया जा सकता है।


Date:28-05-22

अमेरिका की बंदूक संस्कृति

अभिषेक कुमार सिंह

दुनिया का सबसे ताकतवर और विकसित राष्ट्र होने का दावा करने वाला अमेरिका इन दिनों घरेलू हिंसा से जूझ रहा है। वैसे तो इस मुल्क में नस्लीय हिंसा और स्कूलों व धार्मिक स्थलों से लेकर सार्वजनिक जगहों पर गोलीबारी की घटनाएं आम हैं, लेकिन पिछले कुछ समय में इनमें जिस तेजी से इजाफा होता जा रहा है, उसने अमेरिकी प्रशासन और समाज दोनों को हिला दिया है। हाल में टेक्सास प्रांत के एक स्कूल में अठारह वर्षीय किशोर ने गोलियां बरसा कर उन्नीस बच्चों और दो शिक्षकों को मार डाला। ऐसे में एक बार फिर यह सवाल सामने है कि आखिर यह हिंसा क्यों हो रही है? क्या इसीलिए कि संवैधानिक प्रावधानों के तहत जनता को हथियार रखने की इजाजत मिली हुई है? अगर ऐसा है तो क्यों नहीं इस कानून को खत्म कर दिया जाए? आखिर कैसे मुक्ति पाई जाए इस बंदूक संस्कृति से?

अमेरिका में बंदूक संस्कृति की नींव सन 1791 में ही पड़ गई थी। उस वर्ष किए गए संविधान के दूसरे संशोधन में नागरिकों को छोटे हथियार खरीदने और रखने का अधिकार दिया गया था। तब अमेरिका ब्रिटिश शासन के अधीन था और वहां कोई स्थायी सुरक्षाबल नहीं था। इसलिए सरकार और प्रशासन ने तय किया कि आम लोगों को अपनी और परिवार की सुरक्षा के लिए हथियार रखने का अधिकार दिया जाए। लेकिन इस अधिकार ने वहां कितनी समस्याएं पैदा कर दी हैं, इसका अंदाजा पचपन साल पहले तत्कालीन राष्ट्रपति लिंडन बेंस जानसन के दौर में लग गया था। तब अमेरिका में करीब नौ करोड़ बंदूकें आम लोगों के पास थीं। हथियार के मामले में आत्मनिर्भर लोगों के कारण समाज में पैदा हो रही समस्याओं के मद्देनजर ही लिंडन बेंस को यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा था कि अमेरिकी समाज में बंदूकों के कारण हो रही मौतों के पीछे विरासत और संस्कृति का लापरवाह रवैया है। बंदूकों, राइफलों और रिवाल्वर जैसे छोटे हथियारों की यह आत्मनिर्भरता कितना घातक रूप धारण कर चुकी है, इसका उदाहरण सिर्फ इसी वर्ष (2022) में अब तक ऐसी सत्ताईस घटनाओं का घटित होना है।

कानून के तहत छोटे हथियार रखने के इस अधिकार के तहत अमेरिका में प्रत्येक सौ नागरिकों के पास एक सौ बीस से ज्यादा हथियार हैं। स्विटजरलैंड की संस्था स्माल आर्म्स सर्वे ने चार साल पहले आकलन पेश किया था कि अमेरिका की तेंतीस करोड़ की आबादी में नागरिकों के पास मौजूद छोटे हथियारों की संख्या करीब चालीस करोड़ तक पहुंच चुकी है। इसी से जुड़ा एक आकलन यह भी है कि दुनिया की छियालिस फीसद बंदूकें तो अकेले अमेरिकियों के पास हैं, जबकि आबादी के मामले में अमेरिका का योगदान सिर्फ पांच फीसद है। उल्लेखनीय यह भी है कि अमेरिका के सिवाय ग्वाटेमाला और मैक्सिको दो और देश हैं जहां जनता को संवैधानिक अधिकार के तहत बंदूकें रखने का हक दिया गया था। हालांकि इन दोनों देशों में भी कम ही नागरिकों के पास हथियार हैं। ऐसा इसलिए है कि ग्वाटेमाला और मैक्सिको में छोटे हथियार खुलेआम नहीं बेचे जाते। मैक्सिको में तो बंदूक बेचने वाली ऐसी सिर्फ एक ही दुकान है और उस पर भी सेना का नियंत्रण है। जबकि अमेरिका में तो ऐसी सैकड़ों दुकानें हैं जहां से बंदूकें फल-सब्जी की तरह खरीदी जा सकती हैं। हथियार खरीदने के लिए वहां लोगों को अपने नाम, पते, जन्मतिथि और नागरिकता की जानकारी देनी होती है। ये हथियार किसने खरीदे, इस जानकारी को संघीय जांच ब्यूरो से साझा किया जाता है जो खरीदार की पृष्ठभूमि जांचने के अलावा सिर्फ यह सुनिश्चित करता है कि कोई खतरनाक अपराधी, नशेड़ी या भगोड़ा अथवा मानसिक रोगी व्यक्ति ऐसा हथियार न खरीद ले।

गौरतलब है कि कोरोना काल में समाज में पैदा हुए खौफ के कारण अमेरिकियों ने ऐसे हथियार और भी ज्यादा संख्या में खरीदे। एक रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी 2019 से अप्रैल 2021 के बीच वहां पचहत्तर लाख वयस्कों ने पहली बार बंदूक खरीदी। हाल के दो-ढाई वर्षों में अमेरिका में और एक करोड़ दस लाख लोगों के पास बंदूकें आ गईं, जिनमें करीब पचास लाख खरीदार तो नाबालिग ही थे। ऐसे हथियार खरीदारों में से आधी संख्या महिलाओं की भी रही, जो यह दर्शाता है कि महिलाएं अपनी सुरक्षा के लिए वहां की पुलिस और कानून पर ज्यादा भरोसा नहीं कर पा रही हैं।

लेकिन हथियारों की यह खरीदारी अमेरिकी समाज और सरकार के लिए कितनी गंभीर समस्या बन गई है, इसे 1968 से 2017 के बीच गोलीबारी में हुई पंद्रह लाख मौतों के संदर्भ से समझा जा सकता है। ये बंदूकें दूसरों की जान लेने के काम ही नहीं आ रहीं, बल्कि आत्महत्याओं के इजाफे का सबब भी बन रही हैं। यूएस सेंटर्स फार डिजीज कंट्रोल एंड प्रीवेंशन (सीडीसी) का आकलन बताता है कि वर्ष 2020 में अमेरिका में जो पैंतालीस हजार मौतें बंदूकों से हुई गोलीबारी की वजह से हुईं, उनमें आधे से ज्यादा यानी चौवन फीसद मामले आत्महत्या के थे। इस चिंता को अमेरिका में वर्ष 2016 में कराए गए एक अध्ययन में पहले ही प्रकट कर दिया था कि वहां आत्महत्या की बढ़ती दर के पीछे अहम कारण हर घर में बंदूक की मौजूदगी है। स्पष्ट है, जब हथियारों का इतना बड़ा जखीरा किसी देश और समाज में खुलेआम मौजूद होगा, तो उससे जुड़े खतरे भी उतने ही बड़े होंगे।

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने भले ही ऐसी घटनाओं पर चिंता जताई है और सवाल उठाए हैं, पर इसका एक सच यह है कि वहां मौजूद इस बंदूक संस्कृति को बड़े पैमाने पर राजनीतिक संरक्षण हासिल है। अमेरिकी राजनीति में ऐसे कुछ गुट सक्रिय हैं जो बंदूकों की खुलेआम खरीद-फरोख्त जारी रखने के लिए भारी राजनीतिक दबाव बनाए रखते हैं। नेशनल राइफल एसोसिएशन नामक यह समूह इतना ताकतवर है कि पैसे के बल पर अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों को प्रभावित करने में कामयाब हो जाता है। कहा तो यह भी जाता है कि यह समूह अमेरिकी चुनावों तक में भारी पैसा झोंकता है। यही वजह है कि संबंधित कानून में फेरबदल की इच्छा और ऐसी कोशिशें सिरे नहीं चढ़ पाती हैं, जबकि खुद अमेरिकी जनता इससे जुड़े कानून में बदलाव की हिमायती है। गौरतलब है कि दो साल पहले वहां कराए गए एक सर्वे में बावन फीसद लोगों ने बंदूकों की खरीद-फरोख्त संबंधी कानून में सख्ती अपनाने के पक्ष में वोट किया था। राजनीतिक दल डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थकों में से इनक्यानवे फीसद ने भी ऐसी सख्ती की हिमायत की थी, जबकि रिपब्लिकन पार्टी की ओर से सिर्फ चौबीस फीसद ही ऐसी सख्ती के समर्थन में थे। कानून में कोई तब्दीली नहीं चाहने वालों का प्रतिशत सिर्फ पैंतीस था।

एक अहम प्रश्न यह है कि अमेरिका में आखिर लोग पुलिस-प्रशासन पर भरोसा क्यों नहीं करते? उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि किसी भी अपराध से खुद को सुरक्षित रखने का सबसे अच्छा उपाय खुद के पास हथियार रखना ही है? एक साल पहले प्यू रिसर्च सेंटर ने इस सवाल का जवाब पाने के लिए जो सर्वेक्षण कराया था, उसमें सामने आया था कि यह समस्या खुद अमेरिकियों को भी काफी परेशान कर रही है। बंदूक से जुड़ी हिंसा देश के बजट घाटे (49 फीसदी), हिंसक अपराधों की दर (48 फीसदी) और कोरोना वायरस संकट (47 फीसदी) जितनी ही बड़ी है। चूंकि इन सभी समस्याओं से पार पाने में सरकारें निरंतर विफल हो रही हैं, इसलिए जनता का भरोसा प्रशासन और सरकार से उठता जा रहा है। इसी वजह से वे बंदूकों की शरण में जा रहे हैं।


 

Date:28-05-22

हिंदी साहित्य की एक दमदार वैश्विक दस्तक

वीरेंद्र यादव, ( प्रसिद्ध आलोचक )

गीतांजलि श्री के उपन्यास रेत समाधि के अंग्रेजी अनुवाद टूम ऑफ सैंड को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार दिया जाना हिंदी सहित समूचे भारतीय साहित्य के लिए गौरव का क्षण है। यह पहली बार है कि मूल रूप से भारतीय भाषा में लिखे गए एक उपन्यास को यह अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। अपने कहन व कथन में गीतांजलि श्री मौलिक मुहावरे की कथाकार हैं। उनका विषय-विस्तार कस्बे की देशजता के साथ-साथ वैश्विक सरोकारों से युक्त है। देश में सांप्रदायिकता की विभाजक मनोदशा, स्त्री-नियति से लेकर विश्वस्तरीय आतंकवाद, सब कुछ उनकी रचनात्मक चिंता में शामिल रहा है।

पुरस्कृत उपन्यास रेत समाधि की कथा मां-बेटी के जिस स्त्री-युग्म के माध्यम से रची गई है, वह उत्तर भारतीय हिंदी समाज की पुरुष-सत्ता का विलोम है। स्त्री-युग्म का इस्तेमाल गीतांजलि ने पहले भी अपने उपन्यास माई और तिरोहित में किया है। रेत समाधि में वह अपनी कथायुक्ति के माध्यम से सहज रूप से स्वीकृत पुरुष आधिपत्य और स्त्री की अदृश्यता को दृश्यमान करती हैं। पति के न रहने पर जिस वृद्धा मां को परिवार की मुखिया होना था, उसकी ओर परिवार द्वारा पीठ दिखाने के विरुद्ध मां का दीवार की ओर मुंह कर लेना और फिर ‘नहीं उठूंगीं’ से लेकर ‘नई उठूंगीं’ तक का रूपांतरण यथार्थ और कला का खिलंदड़ा सहमेल है। मां का इस नई स्त्री में तब्दील होना और बेटी का इस प्रक्रिया में निमित्त होना पुरुषप्रधान समाज की सरहद का अतिक्रमण है। सरहद इस उपन्यास का बीजपद है। उपन्यास कथा में मां परिवार की सरहद ही नहीं, देश की सरहद के पार जाकर भी विभाजन पूर्व के दिनों को नाटकीय घटनाक्रम के रूप में जीती है।

दरअसल, यह उपन्यास कथावस्तु में कई सरहदों को तोड़ता है। ये सरहदें घर, परिवार, समाज, धर्म, परंपरा, लिंग से लेकर देश की सरहद के पार तक विस्तृत है। आधुनिक मध्यवर्गीय परिवार के मूल्यगत विघटन की कथा कहते हुए वह अपने वर्ग की रक्षक की भूमिका में न होकर उसकी निर्मम आलोचना करती हैं। वह औपनिवेशिक आधुनिकता की आलोचना के बरक्स देशज आधुनिकता का औपन्यासिक विमर्श न रचकर भारतीय सामंती समाज की आधुनिकता की फांक को उजागर करती हैं। वह अपनी कथा-प्रविधि में दीवार और दरवाजा सरीखी निर्जीव वस्तुओं को भी जिन कथा उपादानों में तब्दील कर देती हैं। इस कथा में किन्नर भी शामिल है और हाशिये का सामाज भी अपनी विविधता और बहुलता के साथ।

वह अपनी कथा का जो मौलिक मुहावरा रचती हैं, वह अभ्यस्त रुचि के पाठकों से किंचित मशक्कत की चाहत रखता है। दो राय नहीं कि गीतांजलि सरल मुहावरे की कथाकार नहीं हैं। उनकी कथा जितनी मुखर है, उसमें शब्दों के बीच उतने ही मौन और संकेत हैं। यह साहित्य का भिन्न आस्वाद है। इन्हें न ग्रहण कर पाना अभिव्यक्ति की दुरूहता न होकर पाठकीय अधैर्य अधिक है। दरअसल, अब वैश्विक स्तर पर उपन्यास जिन प्रविधियों को अपना रहा है, उसमें यथार्थ और कला का जो नया रूप उभर रहा है, वह गंभीर पाठ की चाहत रखता है।

बुकर पुरस्कार की ज्यूरी ने इसे उचित ही भारत का बेहतरीन उपन्यास बताते हुए देश-विभाजन से जोड़ा। इसकी बहुस्वरता और बहुस्तरीयता का स्वीकार हिंदी कथा संरचना के नवोन्मेष की स्वीकृति है। वर्तमान विभाजनकारी समय में रेत समाधि विघटन के विरुद्ध एक रचनात्मक हस्तक्षेप है। यह भी सुखद है कि सत्ता संरचना का यह प्रति-विमर्श जिस उल्लास और उम्मीद के मुहावरे में अभिव्यक्त हुआ है, वह हिंदी उपन्यास की नई सामर्थ्य का द्योतक है। गीतंजलि श्री द्वारा पुरस्कार स्वीकार करते हुए यह कहना कि इस पुरस्कार का मिलना ‘उदासी और अवसादयुक्त’ भी है, उपन्यास के निहितार्थ को उजागर करता है। रेत समाधि एक ऐसे शोकगीत सरीखा है, जहां अवसाद के बीच उम्मीद की किरण भी है। यह जिस समाज का उपन्यास है, वह एकरंगी न होकर बहुरंगी है। यहां हर्ष-विषाद, संपन्नता और विपन्नता का सहमेल है।

यह पुरस्कार हिंदी के साथ-साथ समूचे दक्षिण एशिया के साहित्य के लिए एक अच्छी शुरुआत इसलिए भी है कि इस समूचे भूभाग का जीवन, संस्कृति और उसका साहित्य अभी तक वृहत्तर दुनिया से ओझल रहा है। अपने इस उपन्यास के माध्यम से गीतांजलि श्री ने इस सरहद का भी विस्तार किया है।