(18-07-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक

 

Date:18-07-22

Biden in West Asia

Neither the Palestine question nor the Iran deal appear to be the U.S.’s priorities

Editorial

In his first visit to West Asia as President, Joe Biden sought to strengthen America’s traditional partnerships and alliances in the region, involving Israel and Sunni Arab countries. In Israel, he promised that the U.S. would do everything it could to stop Iran from getting a nuclear bomb. In his brief visit to the Palestinian West Bank, he was careful not to criticise the Israeli occupation of the Palestinian territories. He promised aid, but said the ground situation was not ready for reviving the peace process. In Saudi Arabia, Mr. Biden met Mohammed bin Salman, the Crown Prince who, according to the CIA, ordered the 2018 killing of Saudi dissident journalist Jamal Khashoggi. The visit practically brought to an end Washington’s early attempts to punish and isolate Prince Mohammed. Later, in a summit with Arab leaders in Jeddah, he said the U.S. would not walk away from West Asia, leaving a vacuum which China, Russia or Iran would try to fill. President Biden may have said that “human rights will be the centre of our foreign policy”, but in West Asia, neither Israel’s violent occupation of Palestinian territories nor the abysmal rights records of the Sunni Arab dictators and monarchs stopped the American President from pursuing his administration’s foreign policy objectives.

Gone are the days when the Israel-Palestine issue dominated an American President’s foreign policy agenda towards West Asia. Barack Obama, after his initial peace plan failed, focused his energy on the Iran nuclear talks. Donald Trump’s proposal ignored the Palestinians and his focus was on the Abraham Accords, which saw the normalisation of ties between Israel and Sunni Arabs. Mr. Biden did not even touch upon the Palestine question. He has two clear objectives — regional balance and energy security. As the Iran nuclear talks have hit an impasse, he seeks to accelerate cooperation between Israel and Sunni Arabs, the pillars of America’s West Asia policy. Mr. Trump launched this policy through the Abraham Accords, and Mr. Biden has wholeheartedly embraced it. Second, as the Biden administration seeks to punish Russia’s Vladimir Putin for his Ukraine invasion, it needs Saudi Arabia to pump more oil into the international market, disrupted by the western oil sanctions on Russia. But it remains an uncertain bet. Saudi Arabia, with its warm ties with Russia, has spare capacity, but it is not clear whether a Saudi production rise alone would stabilise the energy market if Russia prolonged the war. More importantly, building a bloc against Iran would not resolve the Iran problem. It would only worsen the security competition in West Asia. Meaningful solutions to Mr. Biden’s problems lie in ending the war in Ukraine and reviving the Iran nuclear deal, forcing the Islamic Republic and its rivals into a cold peace. The first is not in Mr. Biden’s hands and the second does not seem to be his priority.


 

Date:18-07-22

स्वागतयोग्य कदम

संपादकीय

सरकार के गेहूं भंडार में इस वर्ष भारी कमी की गई है जो ना तो अनपे​क्षित है और ना ही किसी तरह की चिंता का विषय है। हालांकि सरकार के आ​धिकारिक भंडार में गेहूं की मात्रा कम होकर 2.85 करोड़ टन रह गई है जो सन 2008 के बाद का न्यूनतम स्तर है लेकिन यह अभी भी खाद्य सुरक्षा के लिए जरूरी मात्रा और बफर स्टॉक से 10 लाख टन अ​धिक है। इसके अलावा रिकॉर्ड निर्यात और मानवीय आधार पर अन्य देशों को भेजे जाने के बावजूद बाजार में गेहूं की कोई कमी नहीं है। करीब 18 लाख टन गेहूं बांग्लादेश और अफगानिस्तान समेत अन्य देशों को भेजा गया। यह गेहूं मई में गेहूं निर्यात पर प्रतिबंध लगने के बाद भेजा गया। खुले बाजार में गेहूं की कीमत भी अपेक्षाकृत ​स्थिर रही और यह भी इस बात का संकेत है कि आपूर्ति की ​स्थिति सहज है।

गेहूं के भंडार में कमी की कई वजह हैं। इनमें सबसे अहम वजह है मार्च के महीने में भीषण गर्मी की वजह से फसल उत्पादन में कमी। गर्मी की वजह से अनाज समय से पहले पक गया और पूरी तरह परिपक्व नहीं हो सका। पहले अनुमान था कि देश में कुल मिलाकर 10.90 करोड़ टन गेहूं का उत्पादन होगा लेकिन वह केवल 10.64 करोड़ टन रह गया। इसके अलावा सरकार के मूल्य समर्थन के जरिये गेहूं की खरीद भी 60 फीसदी कम हुई क्योंकि बाजार में गेहूं की आवक कम रही तथा निजी कारोबारियों ने मंडी के बाहर काफी गेहूं खरीद लिया। इससे किसानों को फायदा ही पहुंचा। गेहूं निर्यात इस वर्ष अ​धिक आकर्षक रहा क्योंकि रूस और यूक्रेन के ​बीच छिड़ी लड़ाई के कारण आपूर्ति क्षेत्र में समस्याएं उत्पन्न हुईं और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों में तेजी आई। प्रमुख अनाज आपूर्तिकर्ताओं द्वारा घरेलू खाद्य सुरक्षा की चिंता के चलते निर्यात कम करने के कारण भी इसमें मदद मिली।

आ​र्थिक नजरिये से देखें तो सरकार के अनाज भंडार में कमी एक स्वागतयोग्य कदम है। इससे भारतीय खाद्य निगम को वह लागत वहन नहीं करनी पड़ेगी जो उसे अ​धिशेष खाद्यान्न के भंडारण और रखरखाव के चलते उठानी पड़ती है। ब​ल्कि जरूरत तो यह है कि चावल के भंडारण में भी कमी की जाए। फिलहाल देश में चावल का भंडार सार्वजनिक वितरण प्रणाली और खाद्यान्न आधारित कल्याण योजनाओं के तहत पड़ने वाली जरूरत की तुलना में लगभग दोगुना है। इसमें दो राय नहीं कि विश्व व्यापार संगठन के नियमों के तहत सार्वजनिक खाद्यान्न भंडार से निर्यात की इजाजत नहीं है लेकिन सरकार अपना भंडार कम करने के लिए उन्हें घरेलू बाजारों में उतारने के लिए स्वतंत्र है। वास्तव में विश्व व्यापार संगठन के लिए भी बेहतर यही होगा कि वह भारत तथा अन्य देशों की मांग पर विचार करे और मौजूदा वै​श्विक खाद्यान्न संकट को देखते हुए इस नियम को ​शि​थिल करे। भारत ने रिकॉर्ड 2.1 करोड़ टन चावल का निर्यात किया और इसके बावजूद उसके पास अ​नाज का अ​धिशेष भंडार मौजूद है जिससे वह जरूरतमंद देशों की मदद कर सकता है।

हाल के दिनों में एक सवाल जो प्रासंगिक हुआ है वह यह है कि क्या धान के रकबे में अन्य फसलों की बुआई करके खेती में विविधता लाने का उचित समय आ चुका है। खासतौर से क्या तिलहन की बुआई की जा सकती है जिसके लिए हमारा देश अभी भी आयात पर निर्भर है। पंजाब और हरियाणा समेत कुछ राज्यों ने पहले ही धान की जगह दूसरी फसल बोने वाले किसानों को नकद प्रोत्साहन देना शुरू कर दिया है। अन्य राज्यों में भी ऐसे कदम उठाए जा सकते हैं लेकिन गेहूं की खेती के लिए जरूरी परि​स्थितियां कुछ ऐसी हैं कि उसे केवल उत्तर भारत में उगाया जा सकता है। ऐसे में उसका उत्पादन जारी रखा जा सकता है।


Date:18-07-22

रक्षा में सहयोग

संपादकीय

रूस से एस 400 मिसाइल प्रणाली खरीदने के मुद्दे पर भारत को अब अमेरिकी विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा। अमेरिकी प्रतिनिधि सभा ने एक कानूनी संशोधन करके भारत को उस प्रतिबंधित कानून से छूट दे दी है जो रूस के साथ रक्षा सौदे में बड़ी अड़चन बना हुआ था। इसे लेकर जब-तब भारत और अमेरिका के रिश्तों में तल्खी भी देखने को मिलती रही। लेकिन अब अगर अमेरिका ने भारत के लिए खासतौर पर कानून में संशोधन कर कोई रास्ता निकाला है तो इसका मतलब साफ है कि वह किसी भी कीमत पर भारत को नाराज नहीं करना चाहता। उसका यह फैसला इस बात को भी रेखांकित करता है कि वह भारत की रक्षा संबंधी जरूरतों को भी समझ रहा है। बीते शुक्रवार को सांसद रो खन्ना ने भारत को काटसा कानून से अलग रखने का प्रस्ताव रखा था और उसे सदन ने ध्वनिमत से मंजूरी दे दी थी। हालांकि अभी इस प्रस्ताव को एक व्यापक कानूनी प्रक्रिया से गुजरना होगा। अब यह सीनेट के पास जाएगा। उसके बाद फिर से प्रतिनिधि सभा में संशोधन के लिए आएगा और तब जाकर राष्ट्रपति जो बाइडेन इसे हरी झंडी देंगे। वैसे लगता नहीं है कि सीनेट प्रतिनिधि सभा के इस प्रस्ताव में कोई अड़चन खड़ी करेगी।

दरअसल, रूस, ईरान और उत्तर कोरिया जैसे देशों से निपटने के लिए अमेरिका कड़े कदम उठाता रहा है। परमाणु हथियार बनाने को लेकर ईरान और उत्तर कोरिया से उसका टकराव चल रहा है। इन दोनों देशों पर उसने कड़े आर्थिक प्रतिबंध भी लगा रखे हैं। रूस से अमेरिका इसलिए खफा है कि उसने क्रीमिया को अपने साथ मिला लिया था। अब यूक्रेन पर हमला अशांति का बड़ा कारण बन गया है। इसलिए अमेरिका ने 2017 में काउंटर अमेरिकन एडवरसरीज थ्रू सैंक्शन एक्ट यानी काटसा बनाया था। इस कानून के मुताबिक अमेरिका उन सभी देशों पर कार्रवाई करने को स्वतंत्र है जो इन देशों के साथ कारोबार करते हैं। इसीलिए वह भारत पर भी लंबे समय दबाव बनाता रहा कि वह रूस हथियार सौदे न करे। हाल में रूस से कच्चा तेल नहीं खरीदने को लेकर दबाव बनाया। इससे पहले ईरान से तेल नहीं खरीदने को लेकर भारत को मजबूर किया गया था। लेकिन सवाल इस बात का है कि राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दों पर अमेरिका दूसरे देशों पर इस तरह के जो दबाव बनाता रहता है, क्या वह उचित है?

इस मुद्दे पर भारत का रुख शुरू से ही स्पष्ट और कड़ा रहा है। भारत ने अमेरिका से दो टूक कह भी दिया था कि राष्ट्रहित उसके लिए सर्वोपरि हैं और इसके लिए वह रूस सहित किसी भी देश से कोई भी रक्षा सौदा करने के लिए स्वतंत्र है और इस मामले में किसी के दबाव में नहीं आएगा। भारत के इस सख्त रवैए का ही नतीजा है कि आज अमेरिका झुकने को मजबूर हुआ। हालांकि मौजूदा वैश्विक परिदृश्य में भारत और अमेरिका के रिश्ते जिस तरह प्रगाढ़ हो रहे हैं, उसे देखते हुए अमेरिका भी नहीं चाहता कि रूस के साथ भारत के कारोबारी रिश्तों को टकराव का मुद्दा बनाया जाए। फिर, भारत अमेरिका के नेतृत्व वाले क्वाड समूह का सदस्य भी है। हिंद प्रशांत क्षेत्र में चीन के विस्तारवाद को रोकना भारत और अमेरिका दोनों की जरूरत है। जाहिर है, भारत की अपनी सुरक्षा चिंताएं हैं। रूस से खरीदी जा रही एस 400 मिसाइल प्रणाली पाकिस्तान और चीन की सीमा पर तैनात की जानी है। ऐसे में अमेरिका के इस कदम से एक बड़ा गतिरोध तो दूर हुआ है।


 

Date:18-07-22

न्यूटन से आगे

संपादकीय

महान वैज्ञानिक सर आइजक न्यूटन को गुजरे हुए 295 बरस हो गए हैं। तकरीबन तीन सदी पहले उन्होंने गुरुत्वाकर्षण और गति के जो नियम हमें दिए थे, पूरी दुनिया में भौतिक विज्ञान की पढ़ाई आज भी उन्हीं से शुरू होती है। फलों के गिरने, पत्तों के झड़ने से लेकर दुनिया के बहुत बडे़ हिम-स्खलन भी इन्हीं नियमों से समझे जा सकते हैं। हमारे आसमान में मंडराते सूरज, चांद, सितारे और ग्रह-उपग्रह तक आज उन्हीं नियमों का पालन करते दिखाई देते हैं। न्यूटन के इन्हीं नियमों से वैज्ञानिक और खगोलशास्त्री हमारे सौरमंडल की हरेक गतिविधि की सटीक गणना कर लेते हैं। मगर जब हम पूरे अंतरिक्ष के विस्तार में जाते हैं, तो कुछ जगह ये नियम गड़बड़ाते हुए दिखाई देते हैं। खासकर उन सितारों, ग्रहों और उपग्रहों के मामले में, जो हमारी आकाश गंगा के बाहरी सिरे पर हैं। उनकी गति अपवाद रूप से कुछ ज्यादा ही तेज दिखाई देती है। वे इतना तेज क्यों भागते हैं, इस सवाल ने खगोल वैज्ञानिकों को लंबे समय तक उलझाए रखा। एक मत यह था कि गुरुत्वाकर्षण वहां तक जाते-जाते कमजोर हो जाता है, इसलिए वहां सितारों की गति बढ़ जाती है। पहेली सुलझाने की इसी कोशिश ने वैज्ञानिकों को एक नई परिकल्पना तक पहुंचा दिया, जो आज भी विज्ञान के लिए सबसे बड़ी पहेली है।

वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे कि जरूर वहां पर कोई ऐसा अदृश्य पदार्थ है, जिसका दबाव सितारों की गति बदल रहा है। यहीं से शुरू हुई ‘डार्क मैटर’ की परिकल्पना, यानी एक ऐसा पदार्थ, जिसे न देखा जा सकता है, न महसूस किया जा सकता है, न उसका कोई भार अथवा वजन है, न वह किसी प्रकाश को सोखता है, न वह किसी प्रकाश को उत्सर्जित करता है, किसी भी तरह के विकिरण से भी उसका कोई लेना-देना नहीं है। पांच दशक पहले दी गई इस परिकल्पना में कहा गया कि यह डार्क मैटर ही है, जिसकी वजह से बहुत सारे आकाशीय पिंड न्यूटन के नियमों का उल्लंघन करते हुए दिखाई देते हैं। तब से अब तक यह डार्क मैटर दिखा तो कहीं नहीं, लेकिन भौतिक विज्ञान की गणना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा जरूर बन गया। वैज्ञानिक इस नतीजे पर भी पहुंचा गए कि इस पूरी सृष्टि में 85 प्रतिशत डार्क मैटर ही है। इस तथ्य को लेकर सारे वैज्ञानिक करीब-करीब एकमत दिखते हैं, लेकिन दूरस्थ सितारों के विचलन की पहेली इससे भी पूरी तरह नहीं सुलझी।

इस पहेली को अलग तरह से सुलझाने की कोशिश की इजरायल के वैज्ञानिक मोर्दहाई मिलग्रोम ने। वह उसी पुरानी राय पर लौटे, जो कहती थी कि गुरुत्वाकर्षण की ताकत कमजोर पड़ने से सितारों की गति बदल जाती है। इसके साथ ही उन्होंने गुरुत्वाकर्षण का एक ऐसा नियम दिया, जिसके लिए किसी अदृश्य पदार्थ की कोई जरूरत नहीं थी। उन्होंने यह बताया है कि कैसे इन स्थितियों में सितारों की चाल का वक्र बदल जाता है, जिससे उनकी गति तेज हो जाती है। अपने सिद्धांत से वह यह व्याख्या करने में भी कामयाब रहे कि किन स्थितियों में कोई सितारा या आकाशीय पिंड किस गति से चलेगा। इस नए सिद्धांत को ‘मिलग्रोमियन डायनेमिक्स’ का नाम दिया गया है। यह दरअसल आइजक न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत का ही एक नया विस्तार है, जो आकाशगंगा के दूरस्थ सितारों और उपग्रहों की गति पर लागू होता है। हमारे आसपास की दुनिया तो आज भी उसी गति विज्ञान से चल रही है, जिसकी व्याख्या न्यूटन ने तीन सदी पहले की थी।