(18-01-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक

Date:18-01-22

A mandate for Governors
The case of the T.N. Bill to dispense with NEET highlights the issue of the Governor’s key role
D. Suresh Kumar

The demand to constitutionally mandate Governors to act within a time frame on files including legislations sent to Raj Bhavan by an elected government is being given a consistent push by Tamil Nadu in recent months. Flagging the issue at the 82nd All India Presiding Officers Conference in Shimla last November, Legislative Assembly Speaker M. Appavu, pointed out that Governors sometimes sit on Bills without giving assent or returning it “for an indefinite period”.

The underlying context was clear. The ruling DMK has been unable to fulfil its electoral promise of abolishing NEET. The T.N. Admission to Undergraduate Medical Degree Courses Bill, adopted by the Assembly in September 2021 to dispense with NEET and facilitate admissions based on Plus Two marks, remains under the consideration of Governor R.N. Ravi. As NEET comes under the Centre’s purview, it is required that the Governor forward the Bill for Presidential assent. This delay has upset Chief Minister M.K. Stalin, who has argued that it was the basic principle of a democracy that when the Assembly invoked its right and enacted a law, the Governor “should respect it and give it his approval”. Governors, though heads of the State Executive, are appointed by the Union Government. “Therefore, when they stall the assent to a Bill, they are virtually overruling the will of the people of the State,” Mr. Appavu said. He called for setting a “binding time frame” within which Bills must receive assent, be returned, or reserved for the consideration of the President by the Governors.

The issue echoed in the Rajya Sabha last month when DMK MP P. Wilson called for amending the Constitution to fix time limits for Governors to act on Bills. He said it should be inferred that the Constitution places a “fiduciary duty” on the Governor “to act within a reasonable time frame”. Undue delay in performance of constitutional functions is ex-facie unconstitutional. “The Governor ultimately owes a responsibility to the people on whose behalf, and for whose welfare, the Legislatures, which carry the people’s mandate, enact laws.”

The NEET exemption Bill being held up is not an isolated one. The previous AIADMK government, despite being a BJP ally, could not get then Governor Banwarlilal Purohit to do its bidding. For nearly 45 days, he did not grant assent to a 2020 Bill providing for 7.5% horizontal reservation for NEET-qualified government school students in medical colleges. Pushed to a corner by the DMK, the erstwhile Edappadi K. Palaniswami government hastily took the executive route to issue a G.O. giving effect to its decision. Mr. Purohit granted assent to the Bill the next day but justified the delay saying he was awaiting the Solicitor General’s opinion.

Curiously, Mr. Purohit did not adopt the same legal yardstick for another legislation of a sensitive nature. He almost instantly granted assent to a Bill providing for 10.5% internal reservation for Vanniakula Kshatriyas within the quota for the MBCs, which was adopted by the House hours before the Election Commission notified the Assembly election schedule. The quota has been quashed by the Madras High Court and is under appeal before the Supreme Court. A related aspect of this conundrum flagged by Mr. Appavu is of significance. If the President withholds the assent and returns any Bill, should he not give reasons, Mr. Appavu asked. This would enable the Assembly to enact another Bill, correcting the shortcomings. In 2017, the President had withheld consent for two NEET exemption Bills passed by the Assembly, the reasons for which remain unknown. There is a need to take T.N.’s demand forward to ensure Governors and Presidents act on legislative actions.

Date:18-01-22

दोषपूर्ण चुनाव पद्धति में ब्लैकमेल होते बड़े दल
संपादकीय

भारत में ब्रितानी चुनाव पद्धति अपनाई गई, जिसे फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (एफपीटीपी) कहते हैं। इसमें अगर व्यक्ति कुल मतदाताओं का बेहद कम प्रतिशत भी पाता है लेकिन अन्य तमाम प्रत्याशी उससे एक वोट कम पाते हैं तो वह विजयी घोषित होता है। लिहाजा अगले चुनाव में बाकी सभी प्रत्याशी इस जुगाड़ में लग जाते हैं कि एक वोट कैसे अपने पाले में करें। यहीं से शुरू होती है पहचान समूह की राजनीति यानी छोटी-छोटी जातियों और उपजातियों का उभार और सौदेबाजी। भारत में सामाजिक पहचान समूह दुनिया में सबसे ज्यादा है, जिसे जाति और उपजाति कहते हैं। इसके अलावा धार्मिक, पांथिक, भाषाई और क्षेत्रीय पहचान समूह भी हैं। यूपी में एक ओबीसी उपजाति के नेता ने पांच साल मंत्री रहने के बाद चुनाव तिथियों की घोषणा होते ही आरोप लगाया कि उसे सीएम न बनाकर उसके साथ धोखा हुआ और अब वह अपने पुराने दल को बर्बाद कर देगा। सत्ताधारी दल को पिछले चुनाव में करीब 40% वोट मिले थे जबकि यह नेता जिस उपजाति-मौर्य-के वोटों का दावा करते हैं वह 3% से भी कम है। कुछ ऐसे ही दावे शाक्य, कुशवाहा, सैनी के स्वयं-भू नेता भी करते हैं। इसी तरह का एक युवा एससी नेता सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी से समझौता करना चाहता था लेकिन सीटें ज्यादा मांग रहा था। जब उतनी सीटें नहीं मिलीं तो उसने उस विपक्षी दल को ‘एससी विरोधी’ घोषित कर दिया। आप जरा सोचें। लगभग छह लाख करोड़ रुपये के बजट और 24 करोड़ की आबादी वाले यूपी का भविष्य उन लोगों के हाथ में सौंपा जा सकता है, जो मात्र कुछ लोगों के रहनुमा बन सौदेबाजी करते हैं? उत्तर भारत में जाति और उपजाति की राजनीति अपनी चरम पर है। क्या इस खामी को जल्द दूर करना जरूरी नहीं है? लेकिन यह तभी होगा जब मतदाताओं की सोच बदले।

Date:18-01-22

दलबदल की बीमारी
संपादकीय

चुनाव वाले राज्यों में दलबदल का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा है। ऐसा लगता है कि नामांकन पत्र दाखिल करने की अंतिम तिथियों तक यह सिलसिला कायम ही रहने वाला है। आमतौर पर दलबदल करने वाले इसी थोथे तर्क का सहारा लेने में लगे हुए हैं कि वे अभी तक जिस दल में थे, वह या तो अपने उद्देश्य से भटक गया है या फिर उसमें अमुक समुदायों और वर्गो अथवा इलाकों की उपेक्षा हो रही है। हैरानी यह है कि उन्हें यह ज्ञान अचानक प्राप्त हो रहा है। पांच साल तक वे जिस दल का गुणगान करते रहते हैं, अचानक उसमें उन्हें खामियां दिखने लगती हैं। इसी तरह जिस विरोधी दल में वे हजार खामियां गिनाते होते थे, उसे ही यकायक सबसे बेहतर बताने लगते हैं। यह राजनीतिक छल के अलावा और कुछ नहीं। इससे केवल जनतंत्र का उपहास ही नहीं उड़ता, बल्कि इसकी पुष्टि भी होती है कि दलबदलू नेता यह मानकर चलने लगे हैं कि वे बहुत आसानी से अपने समर्थकों के साथ-साथ अपने क्षेत्र के मतदाताओं को भी बहकाने में सफल हो जाएंगे। विडंबना यह है कि जनता भी उनके झांसे में आ जाती है। वह कभी जाति के नाम पर दलबदलू नेताओं के पीछे खड़ी हो जाती है तो कभी मजहब के नाम पर।

हालांकि यह साफ है कि दलबदल करने वाले नेता अपने निजी फायदे अथवा अपने सगे संबंधियों को मनचाही जगह से टिकट दिलाने के फेर में पालाबदल रहे हैं, लेकिन कोई भी समझ सकता है कि वे जिन दलीलों की आड़ लेते हैं, उसका मकसद लोगों की आंखों में धूल झोंकना होता है। कई मामले तो ऐसे भी सामने आ रहे हैं जिनमें पाला बदलने वाले नेता प्रत्याशी न बनाए जाने के कारण किसी अन्य राजनीतिक दल की ओर रुख कर रहे हैं या फिर अपने मूल दल में लौटने की कोशिश कर रहे हैं। दलबदल की इस कसरत से यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो यही कि नेताओं के लिए विचारधारा कपड़ों की तरह हो गई है। वे जिस तरह नए-नए वस्त्र धारण करते हैं, उसी तरह राजनीतिक विचारधारा। यह हास्यास्पद सिलसिला तब तक चलते रहने वाला है जब तक राजनीतिक दल दलबदलुओं को प्रोत्साहित करते रहेंगे। जितना जरूरी यह है कि राजनीतिक दल दलबदलू नेताओं को हतोत्साहित करें, उतना ही यह भी कि जनता भी ऐसे नेताओं से दूरी बनाए। यदि बार-बार दल बदलने वाले नेता राजनीतिक दलों और मतदाताओं की ओर से पुरस्कृत होते रहे तो इससे न केवल सिद्धांतविहीन राजनीति को बल मिलेगा, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं को गंभीर क्षति भी पहुंचेगी। अच्छा होगा कि निर्वाचन आयोग इस पर विचार करे कि चुनाव के मौके पर थोक रूप में होने वाले दलबदल पर लगाम कैसे लगाई जाए?

Date:18-01-22

आसान करनी होगी उघमों की राह
जयजित भट्टाचार्य, ( लेखक सेंटर फार डिजिटल इकोनामी पालिसी रिसर्च के प्रेसिडेंट हैं )

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नवउद्यम यानी स्टार्टअप संस्कृति विकसित करने के उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रत्येक वर्ष 16 जनवरी को नेशनल स्टार्टअप डे मनाने की घोषणा की है। इस अवसर पर उन्होंने स्टार्टअप्स को सरकारी प्रक्रियाओं के जाल से मुक्त कराने का आह्वान किया। हालांकि यह इतना आसान नहीं है। नए उद्यमों की राह में मुश्किलें केवल भारत तक सीमित नहीं। उबर जैसा दिग्गज वैश्विक स्टार्टअप इसकी बड़ी मिसाल है। आज उबर का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है, किंतु शुरुआत में उबर को अधिकांश देशों में अवैध माना गया। अमेरिका के कुछ राज्यों ने उबर को नियामकीय गुंजाइश प्रदान की, जिससे उसे वहां पैर जमाने में मदद मिली। यदि ऐसा न हुआ होता तो उबर जैसे कारोबारी विचार की भ्रूण हत्या हो गई होती। अमेरिकी राज्यों में मिली पैठ से उबर को अन्य देशों में नियामकीय मोर्चे पर बदलाव की क्षमता प्राप्त हुई। इस प्रकार वह एक वैश्विक बहुराष्ट्रीय रुझान के रूप में उभरी।

भारत में भी ऐसे स्टार्टअप्स हैं, जिनकी राह मौजूदा नियामकीय ढांचे के कारण अवरुद्ध बनी हुई है। इस ढांचे के सृजन का सरोकार अलग टेक ईकोसिस्टम से है। समूचा ड्रोन स्टार्टअप ईकोसिस्टम इसका उम्दा उदाहरण है। जब तक सरकार ने ड्रोन को लेकर सुविचारित नीति को आकार देकर अस्पष्टताओं को स्पष्ट नहीं किया तब तक ड्रोन वैध और अवैध के बीच झूलते रहे। स्पष्ट नीतियों के अभाव का ही नतीजा था कि सैन्य ड्रोन की आपूर्ति करने वाले आपूर्तिकर्ता भी अवैध गतिविधियों में लिप्त रहते। समस्या केवल इतनी ही नहीं। हमारे घरेलू वाणिज्यिक वाहनों से जुड़ी नीतियों में भी लचीलेपन का अभाव है। मसलन आटोरिक्शा से किसी सामान की आपूर्ति में आपके लिए मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी। यदि कोई आटोरिक्शा चालक सामान ढुलाई से अपनी आमदनी और अर्थव्यवस्था की क्षमता बढ़ाने की जुगत करे तो आखिर इसमें क्या अवैध है? परंतु नियमों के अनुसार आटोरिक्शा में सवारियों के स्थान पर सामान की ढुलाई गैर-कानूनी है। हैरानी इस पर होती है कि ऐसे कानून पहले-पहल बनाए ही क्यों गए? वर्तमान में जब लगभग हर चीज एप के माध्यम से उपलब्ध है तब आटोरिक्शा के माध्यम से किसी सामान की ढुलाई में अड़चनें सालती हैं। इस कारण यथास्थिति में परिवर्तन के प्रयास में लगे स्टार्टअप्स को मदद नहीं मिल पाती, जो बाजार के विस्तार, निवेश जुटाने, प्रतिभाओं को लुभाने और देश में मौजूद नियमों के साथ ताल मिलाने में लगे होते हैं।

ई-लर्निंग के रूप में मैं अगला उदाहरण सामने रखता हूं। महामारी के दौर में हम साक्षी हैं कि पिछले कुछ समय के दौरान आनलाइन शिक्षा ने लाखों-करोड़ों विद्यार्थियों का भला किया है। यदि ऐसा है तो हम उच्च शिक्षा के कम से कम उन पाठ्यक्रमों में आनलाइन शिक्षा को बढ़ावा क्यों नहीं देते, जहां प्रयोगशाला और भौतिक उपस्थिति उतनी आवश्यक नहीं। आखिर हमारे यहां पूर्ण रूप से डिजिटल विश्वविद्यालय क्यों नहीं हो सकते, जो इतने बड़े देश को निरंतर रूप से उच्च गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान कर सकें? इसमें बड़े पैमाने पर इमारतों की उपलब्धता एवं बड़ी संख्या में योग्य अध्यापकों की भर्तियों जैसे पहलुओं से पार पाया जा सकता है। भारत अगर अपने कार्यबल की शैक्षणिक योग्यता और उनकी उत्पादकता में कम समय में अधिक से अधिक वृद्धि चाहता है तो डिजिटल विश्वविद्यालय उसे संभव बनाने का सबसे सशक्त विकल्प होंगे। समस्या यह है कि भारत में डिजिटल विवि जैसी कोई अवधारणा ही नहीं है। चूंकि ऐसी संकल्पना ही नहीं तो कोई डिजिटल विवि के लिए आवेदन भी नहीं कर सकता।

अब मैं तीसरे उदाहरण पर आता हूं। स्कूटर, कारों और बस इत्यादि जैसे वाहनों को आटोमोटिव रिसर्च एसोसिएशन आफ इंडिया से प्रमाणन मिलता है। अगर कोई उसकी परिभाषा पर खरा नहीं उतरता तो उसे भारत में अपना वाहन बेचने के लिए आवश्यक प्रमाण पत्र ही नहीं मिलेगा। अगर कोई स्टार्टअप वाहन के अगले हिस्से में दो और पीछे एक पहिये वाला तिपहिया वाहन ट्राइक पेश करे तो संभव है कि उसका उत्पाद बाजार का मुंह ही न देख सके, क्योंकि भारत में ऐसे वाहन के लिए कोई श्रेणी ही नहीं है। इसकी तुलना में यूरोपीय बाजार को देखें तो वहां इस पर पेटेंट युद्ध छिड़ा हुआ है। इतालवी स्कूटर निर्माता पियाजियो ने फ्रांसीसी विनिर्माता प्यूजो को ऐसा ही ट्राइक वाहन बनाने के लिए बाध्य किया। पियाजियो ने दावा किया है कि ऐसे वाहन का पेटेंट उसके पास है। यह भी दिलचस्प है कि पियाजियो ने पेटेंट को लेकर यह कवायद तभी की जब प्यूजो के इस उत्पाद का स्वामित्व महिंद्रा एंड महिंद्रा के पास आ गया। वहीं भारतीय ईकोसिस्टम में ट्राइक जैसी ‘अद्भुत’ संकल्पना का सिरे चढऩा आसान नहीं, क्योंकि नियामकीय बाधाओं ने इसकी इजाजत नहीं दी होगी। यह स्थिति हमें डा. सुभाष मुखोपाध्याय के मामले को स्मरण कराती है। डा. मुखोपाध्याय ने स्वतंत्र रूप से इन विट्रो फर्टिलाइजेशन यानी आइवीएफ का आविष्कार किया। वह अपने नवाचार से जरूरतमंदों की मदद करना चाहते थे, परंतु तत्कालीन सरकार और नियामक के रवैये के कारण उन्हें आत्महत्या पर मजबूर होना पड़ा। भारत में आइवीएफ को तभी अनुमति मिली, जब विदेशी कंपनियां इस अवधारणा को देश में लेकर आईं।

वास्तव में भारतीय नियामकीय ढांचा ऐसा है जो आटोरिक्शा को सामान ढुलाई जैसे आय बढ़ाने वाले विकल्प या डिजिटल विश्वविद्यालय की स्थापना को सुगम नहीं बनाता। भारत के बारे में यह आम धारणा है कि देश में ऐसे नवाचार को तभी मान्यता मिलती है जब वह किसी अन्य देश में हुआ हो या कोई विदेशी कंपनी उसे भारत लेकर आए।

नए भारत में जहां सरकार, समाज और उद्योग जगत द्वारा तमाम परिवर्तनों को मूर्त रूप दिया जा रहा हो वहां एक ऐसे माध्यम की मौजूदगी अनिवार्य है, जो स्टार्टअप को नियामकीय बाधाओं से त्वरित आधार पर मुक्ति दिला सके। स्टार्टअप्स नवाचार के साथ ही समृद्धि के वाहक बनते हैं और इस प्रक्रिया में समग्र राष्ट्र को समृद्ध करते हैं। ड्रोन के मामले में सरकार पहले ही ऐसा कर चुकी है। क्या हमारे पास ऐसी कोई ढांचागत प्रक्रिया हो सकती है, जहां सभी क्षेत्रों के लिए ऐसा संभव हो सके।

Date:18-01-22

आखिर गांव आदर्श बनें कैसे
प्रमोद भार्गव

ग्राम स्वराज की अवधारणा महात्मा गांधी ने दी थी। इसके मूल में श्रम और रोजगार आधारित शिक्षा थी। लेकिन कालांतर में हमारे शासकों ने शिक्षा का अंग्रेजीकरण करने और बाल श्रम को अपराधीकरण में बदलने का काम किया। नतीजा सामने है कि शिक्षा बेरोजगारी उत्पादन का कारखाना बन गई और बच्चे किशोरावस्था से ही अपराध व नशे के आदी हो रहे हैं। सरकारों के पास इन समस्याओं से निदान के कोई सार्थक उपाय नहीं हैं। इसलिए या तो अर्थ आधारित विकास के कथित प्रावधान किए जाते हैं या फिर जागरूकता के थोथे अभियान चलाए जाते हैं। सरकार ने प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना के तहत देश के नौ हजार ग्रामों का कायाकल्प करने का संकल्प किया है। इससे पहले सांसद आदर्श ग्राम योजना भी शुरू हुई थी, जिसके अपेक्षित परिणाम नहीं रहे। प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना के तहत 2014 से 2019 के दौरान हर सांसद को चरणबद्ध तरीके से अपने लोकसभा क्षेत्र में मात्र तीन ग्राम आदर्श बनाने थे। इसके बाद 2019 से 2024 के बीच पांच गांव और आदर्श बनाए जाने थे। परंतु सांसदों ने कोई दिलचस्पी नहीं ली। देश में करीब साढ़े छह लाख गांव हैं। लेकिन सांसद अपनी निधि और कल्पनाशीलता से दर्जन भर गांव भी आदर्श नहीं बना पाए। केंद्र सरकार ने ग्रामों में चल रही विकास परियोजनाओं की जमीनी जांच के लिए एक साझा समीक्षा मिशन (सीआरएस) भी बनाया था, जिसमें इकतीस सदस्य थे। इस समिति ने अपनी जांच में पाया कि सांसद आदर्श ग्राम योजना अपने उद्देश्य में सफल नहीं रही। अतएव योजना की समीक्षा की जानी चाहिए। हो सकता है, अब नौ हजार ग्रामों के कायाकल्प का संकल्प इसी समीक्षा का परिणाम हो?

चहुंमुखी और समावेशी विकास के लक्ष्य ग्राम, किसान और खेती को समृद्ध बनाए बिना संभव नहीं हैं। शहरीकरण के तमाम उपायों के बावजूद आज भी देश के साढ़े छह लाख गांवों में सत्तर फीसद आबादी रहती है। इसलिए दुनिया भारत को गांवों का देश कहती है। ग्राम विकास योजना का यह सपना इसलिए अहम था, क्योंकि समय के साथ बदलाव तेजी से आ रहे हैं, लिहाजा ऐसे में गांवों में बदलाव की प्रक्रिया तेज नहीं की गई तो वे पिछड़ जाएंगे। देखा जाए तो एक सांसद के लिए यह लक्ष्य कोई बहुत बड़ा नहीं है। उनके पास पर्याप्त सांसद निधि होती है। स्थानीय राजनीति के वे नेतृत्वकर्ता होते हैं और प्रशासन उनके मार्गदर्शन में काम करने को बाध्य होता है। अपनी नेतृत्व दक्षता से इस ताने-बाने में समन्वय बैठा कर यदि सांसद लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता जताते, तो गांव का चौतरफा विकास आसान हो जाता। लेकिन सांसदों ने अपने लोकसभा क्षेत्र के ग्राम विकसित करने में कोई दिलचस्पी ही नहीं दिखाई, बल्कि इस दौरान यह और हुआ कि जिन ग्रामों में शराब की दुकानें नहीं थीं वहां भी वे खोल दी गईं।

यह बहस जारी है कि गांव का विकास ऊपर से नीचे की ओर होना चाहिए अथवा नीचे से ऊपर की ओर। जब देश में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू हुई थी, तब इसकी मूल अवधारणा में यह उद्देश्य जुड़ा था कि ग्रामीण विकास नीचे से ऊपर की ओर हो। इसीलिए ग्राम सभाओं को पंचायत क्षेत्र में विकास कार्य चुनने का अधिकार दिया गया था। वैसे भी संसदीय क्षेत्र इतना बड़ा होता है कि किसी भी सांसद को प्रत्येक गांव की वास्तविक जरूरतों को जानना मुश्किल है। यह इसलिए भी मुमकिन नहीं है, क्योंकि हमारे ज्यादातर सांसद अपने संसदीय क्षेत्रों में प्रवास यात्राओं पर ही आते हैं। संसदीय क्षेत्र में उनके स्थायी निवासी होने से तो कोई वास्ता ही नहीं रह गया है। लिहाजा क्षेत्र के विकास के प्रति वे दिलचस्पी भी उतनी नहीं लेते। इसलिए पंचायती राज के अस्तिव में आने के तत्काल बाद जो मुख्यमंत्री गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित थे और प्रशासनिक दृष्टि से उदारवादी रुख अपनाना चाहते थे, उन्होंने पंचायती राज के तहत विकास प्रक्रिया का क्रम नीचे से ऊपर की ओर कर दिया था। यानी कई राज्यों में विकास कार्यों के निर्णय से लेकर जनपद और जिला पंचायतों में सरकारी नौकरियों की नियुक्ति प्रक्रिया में भी पंचायती राज की अहम भूमिका सामने आने लगी थी। ऐसे राज्यों में कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र और अविभाजित मध्य प्रदेश प्रमुख रहे हैं।

जब पंचायती राज की प्रभावशाली भूमिका प्रकट हुई तो सांसदों और विधायकों को लगा कि उनका महत्त्व नगण्य हो रहा है। नतीजतन विधायिका और पंचायती राज में जबर्दस्त जंग छिड़ गई। विधायिका का आरोप था कि पंचायती राज को पर्याप्त अधिकार दे दिए जाने से सांसद और विधायकों के कार्य-क्षेत्र में सीधी कटौती हुई है और इनकी भूमिका संसद व विधानसभाओं में बैठ कर कानून निर्माता के नुमाइंदे तक सिमट गई है। प्रशासन में हस्तक्षेप लगभग समाप्त हो गया है। लिहाजा ऊपर से पंचायती राज के पर कतरने शुरू हो गए और विकास प्रक्रिया का क्रम फिर से बिगड़ने लग गया। हालांकि यह विरोध नैतिक व तार्किक कतई नहीं था।

प्रजातंत्र की जिस प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली के माध्यम से विधायिका को जो अधिकार मिलते हैं, उसी प्रणाली से पंचायती राज का वजूद जुड़ा है। दरअसल समावेशी लोकतंत्र अहम के टकराव से नहीं, उदार मानसिकता से चलता है। विकास प्रक्रिया नीचे से चले, इसीलिए प्रशासनिक सुधार आयोग ने ग्राम पंचायतों को और अधिक स्वायत्त तथा अधिकार संपन्न बनाने की सिफारिश केंद्र सरकार से की है। विकास की प्रक्रिया यदि संविधान की सबसे छोटी इकाई ग्राम सभा से शुरू हो तो बुनियादी विकास की संभावनाएं बढ़ जाएंगी, ऐसी उम्मीद की जा सकती है।

गांव का समग्र विकास कैसा होता है, इसके दो बड़े उदाहरण हमारे सामने हैं। ऐसे आदर्श ग्रामों में एक गांव महाराष्ट्र का रालेगन सिद्धि है और दूसरा गुजरात का गांव पुंसरी है जो आधुनिकता से संपन्न है। रालेगांव ऐसा गांव है, जहां पूरी आबादी शिक्षित होने के साथ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है। पुरुष हो या महिला, कोई भी बेरोजगार नहीं है। गांव के ज्यादातर परिवारों से एक व्यक्ति सेना में है। अन्ना हजारे के प्रयत्नों से जो कुल्हाड़ी बंदी, नसबंदी, नशाबंदी, घासचराई बंदी, श्रमदान, शिक्षा और जल संरक्षण के कारगर व फलदायी उपाय हुए हैं, वे केवल रालेगांव तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि आसपास के साढ़े तीन सौ ग्रामों ने भी ऐसे ही क्रांतिकारी व अप्रत्याशित विकास की राह पकड़ ली है। आज अकेले रालेगांव से अरबों रुपए की प्याज का निर्यात होता है। अकाल अथवा सूखा जैसी स्थिति से निपटने के लिए अनाज-बैंक खोल दिया गया है। ताज्जुब यह कि इस विकास में किसी सांसद, विधायक अथवा नौकरशाह का कोई योगदान नहीं रहा, बावजूद इसके यह भारत का अनूठा आदर्श गांव बन गया। दूसरा विकसित गांव पुसंरी माना जाता है। यहां गली-गली में सीसीटीवी कैमरे हैं। सामुदायिक रेडियो है। उम्दा सफाई व्यवस्था है। आरओ-जल की सुविधा है। दूध का धंधा करने वाले पशुपालकों के लिए बस सेवा है। लेकिन सभी लोगों के पास रोजगार नहीं है। मसलन वे रालेगांव के लोगों की तरह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं हैं। सभी लोग शिक्षित तो क्या साक्षर भी नहीं हैं। नशाबंदी पूरे गुजरात में लागू है, इसलिए पुंसरी में भी है। चूंकि यह गांव तकनीक से जुड़ा है, इसलिए इसे मौजूदा सोच व परिप्रेक्ष्य में विकसित माना जा रहा है। दरअसल, तकनीक से जुड़ा विकास ऐसा विकास है जो हमेशा अधूरा रहता है। इसीलिए कहा भी गया है कि तकनीक उस सर्पनी की तरह है जो अपने ही बच्चों को पैदा करने के बाद निगल जाती है। अब सोचना हमारे नीति-निर्माताओं को है कि कैसा विकास चाहते हैं- स्थायी अथवा अस्थायी?

Date:18-01-22

विरासत छोड़ गए महाराज
सोनल मानसिंह, ( प्रसिद्ध नृत्यांगना और सदस्य, राज्यसभा )

कुछ हस्तियां ऐसी होती हैं, जिनके लिए ‘थीं’ की कल्पना नहीं की जा सकती। जैसे, एमएस सुब्बुलक्ष्मी, बिस्मिल्ला खां। पंडित बिरजू महाराज भी इसी कद की शख्सियत रहे। ऐसी हस्ती का गुजर जाना भारतवर्ष के कला-इतिहास के लिए बहुत बड़ी क्षति है। यह सच है कि सबको एक न एक दिन जाना ही होता है, लेकिन जो समृद्ध विरासत महाराज जी छोड़कर गए हैं, वह अनुपम है। अद्भुत कला सृष्टि है उनकी। पंडित रविशंकर की तरह बिरजू महाराज के भी हजारों की संख्या में शिष्य-शिष्याएं दुनिया भर में छाए हुए हैं। उनकी प्रेरणा, सिखाने का उनका तरीका, उनका गुरुत्व आदि याद कर यही लगता है कि कला जगत में एक बड़ा बटवृक्ष गिर गया।

पंडित बिरजू महाराज का कला व्यक्तित्व अतुलनीय था। उनकी छटा, उनकी अदाएं, उनके तरीके- अपने लखनऊ घराने को पूरा समेटे हुए थे वह। वह तबला भी बजाते थे, ढोलक भी और पखावज भी। सुस्वर में गाना भी गाते थे। और, नृत्य के कहने ही क्या! बैठकर भी वह बखूबी भंगिमाएं देते थे। जैसे ही वह कत्थक के लिए खड़े होते, यह दिख जाता कि कोई बहुत गुणी कलाकार प्रस्तुति देने जा रहे हैं। उनको हाथ उठाने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। वह चित्र भी बेहतरीन बनाते थे। उनकी सोच का स्तर अद्भुत था। उन्होंने शिष्य-शिष्या नहीं, अपना परिवार बनाया। वह ऐसे गुरु नहीं थे कि शिष्य को सिखा दिया और वह चलते बना। शिष्य-शिष्याओं से वह आत्मीय रिश्ता रखते थे और शिष्य भी अपने गुरु के प्रति पूरी तरह से समर्पित रहते थे।

बिरजू महाराज के पास लखनऊ के कालका-बिंदादीन घराने का पूरा खजाना था। उन्होंने कत्थक में कई नृत्यावलियों की रचना की। गोवर्द्धन लीला, माखन चोरी, मालती-माधव, कुमार संभव जैसी नृत्यावलियां लोग मंत्रमुग्ध होकर देखा करते। ठुमरी, पद, गीत, दोहा आदि सबमें उनको महारत हासिल थी। उनके पिता का काफी पहले देहांत हो गया था। उनकी माता जी ने ही उन्हें पाला, संभाला था। गुरुओं और माता-पिता का उन पर इतना आशीर्वाद था कि उन्होंने खूब नाम कमाया। कत्थक को उन्होंने एक गरिमा दिलाई और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक इसे लेकर गए।

मेरा महाराज जी से मित्रवत परिचय 1980 के दशक के शुरुआती वर्षों में हुआ था। तब मेरे जन्मदिन पर मित्रों ने एक कार्यक्रम का आयोजन किया था। उसमें बिरजू महाराज भी आए थे। उन्होंने बैठकर गीत गाए और अभिनय भी किया। उनके यही शब्द थे, ‘यह मेरी तरफ से सोनल को बधाई है’। इसके बाद निरंतर मेरी मित्रता बनी रही। बहुत ही स्नेह भाव रहा उनका। बेशक पिछले कुछ वर्षों से वह बीमार चल रहे थे, पर उनकी मंडली पूरा ध्यान रख रही थी। इस स्नेह को उन्होंने खुद अरजा था। ऐसे लोगों के गुजर जाने की कतई पूर्ति नहीं हो सकती।

वह 18-20 साल के रहे होंगे, जब उन्होंने दिल्ली में संगीत भारती में शिक्षा देना शुरू किया। उसके बाद उन्होंने भारतीय कला केंद्र में सिखाना शुरू किया। बाद में जब कत्थक केंद्र बना, तो उसमें चले गए। उन दिनों उनके विषय में एक बात काफी प्रचलित थी। तब कहा जाता था कि बिरजू महाराज का घर कहां है, यह भले ही लोगों को पता न हो, लेकिन वह कहां (कत्थक केंद्र में) मिलेंगे, यह सबको मालूम होता था। कत्थक केंद्र में ही महाराज जी घंटों रियाज कराया करते थे। वहां अन्य शिक्षक भी थे, जो अपने-अपने तरीके से बेजोड़ थे। लेकिन महाराज जी का एक अलग कद था। एक तरीका था, सोच थी, सौंदर्यबोध था। कत्थक केंद्र में भी उन्होंने जितने शिष्य तैयार किए, सभी आगे चलकर एक से बढ़कर एक साबित हुए।

मैं भी मुंबई में कॉलेज के उन दिनों को कहां भूल सकी हूं, जब मैंने बिरजू महाराज की दो नृत्य नाटिकाएं देखी थीं। इनमें एक थी, मालती माधव और दूसरी, गीत गोविंदम्। दोनों में महाराज जी नायक थे और कुमुदनी लाखिया नायिका। वे नाटिकाएं आज भी मेरे दिमाग में अंकित हैं। महाराज जी तब युवा थे, लेकिन उनकी कला सृष्टि गहरे अर्थों को समेटे हुए थी।

बाद में, जब मैं दिल्ली आई, तो उनसे मुलाकात का सिलसिला शुरू हो गया। जन्मदिन के आयोजन के साथ जो हमारी मित्रता बनी, वह बाद के वर्षों में मजबूत होती गई। हमने कई शाम अपने-अपने कार्यक्रम एक ही मंच पर दिए। चूंकि मैं अलग विधा की कलाकार हूं और महाराज जी अलग, इसलिए हमने कभी एक साथ प्रस्तुतियां नहीं दीं। वह जुगलबंदी का दौर था भी नहीं। हां, एक ही आयोजन में हमारे अलग-अलग कार्यक्रमों की कई यादें मेरे पास हैं। उनकी एक बड़ी खासियत यह थी कि वह दूसरे कलाकारों के कार्यक्रम को भी चाव से देखा करते थे। इस तरह का बड़प्पन कई कलाकारों में नहीं पाया जाता है। ऐसे कलाकारों में आप भी कुंठाएं आसानी से महसूस कर सकते हैं। वे अपना कार्यक्रम देते हैं और चलते बनते हैं। मगर पंडित बिरजू महाराज शॉल ओढ़कर वहीं बैठ जाते। मेरे कई कार्यक्रम उन्होंने इसी तरह से देखे और बाद में उस पर चर्चा भी की। मेरा मानना है कि दूसरे कलाकारों के साथ भी वह ऐसा ही करते होंगे। वह बिल्कुल खुले मन के थे और खूब स्नेह बांटा करते थे।

उनकी एक और अदा मैं शायद ही भूल पाऊंगी। दरअसल, वह पान मसाला खाने के शौकीन थे। यह सादा पान मसाला होता था, जिसमें तंबाकू वगैरह नहीं होता था। जब हम साथ बैठते, तो मैं तुरंत अपनी हथेली उनके आगे फैला देती, और वह हंसते हुए कहते, हां, मुझे टैक्स तो देना ही होगा। जाहिर है, इस तरह की बहुत छोटी-छोटी बातें भी उनसे जुड़ी हुई हैं, लेकिन ये अपने आप में बहुत बड़ी हैं, क्योंकि ये बताती हैं कि किस तरीके से मित्रता का एक ताना-बाना बनता रहता है। पंडित बिरजू महाराज इस ताने-बाने के धनी थे।