(07-07-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक

Date:07-07-22

Social Media Must Keep Social Contract

ET Editorials

Microblogging site Twitter seeking legal recourse over takedown notices by GoI brings out the conflict between contractual terms agreed upon by social media platforms and their users, and the limits to free speech available in the jurisdictions they operate in. In a situation of overlapping restrictions, the tighter one should ideally prevail. Twitter is understood to have contended in court that there were procedural and communication gaps in missives on objectionable content from the ministry of electronics and information technology (MeitY). The platform’s legal challenge follows an ultimatum by GoI that Twitter could lose its immunity as an intermediary unless repeated content takedown notices were complied with.

Achallenge on technical grounds is easily dealt with by improving communication between governments and social media platforms. Things would, however, get more complicated if governments had to satisfy social media about legitimate security or law enforcement concerns. The media operates on self-censorship, and the law steps in only when this fails. It also looks into bias masquerading as self-censorship. Social media will have to evolve along these lines. Voters, through governments, decide the freedoms they need. Courts uphold these freedoms. Social media is not the arbiter of free speech. The limits to free speech are set out by political, social, cultural underpinnings, and social media must comply.

It is in the interest of governments to keep their censorship reflex to a minimum if they want improved information delivery through technology, which has bypassed ownership rules that govern legacy media. Social media is a giant advancement over its predecessors because of its global reach. But the information it carries will eventually be fragmented by lawmakers.


 

Date:07-07-22

निराशा में कामगारों की वापसी अच्छे संकेत नहीं

संपादकीय

मई (7.12%) के मुकाबले जून में 7.8% बेरोजगारी दर किसी गैर-लॉकडाउन माह की सबसे बड़ी गिरावट है। चिंता यह है कि इस माह रोजगार की संख्या 40.4 करोड़ से घटकर 39 करोड़ रह गई है। गांवों में बेरोजगारी की दर इसी काल में 6.62 से बढ़कर 8.03% हो गई जबकि हकीकत है कि इसमें धान/खरीफ की बुआई शुरू होने के कारण बेरोजगारी दर में भारी कमी होनी चाहिए थी। क्या किसान-कामगार कम बारिश के कारण खरीफ बुआई से हट रहे हैं? क्या खेती में अचानक मशीन का प्रयोग ज्यादा होने लगा है, जिसकी संभावना कम ही है? वर्ल्ड बैंक ने सन् 2021 की रिपोर्ट में कहा था कि भारत में काम की उम्र के कुल लोगों में केवल 43% को ही काम मिल पाया है। महीने भर पहले की रिपोर्ट के अनुसार 45 करोड़ रोजगार चाहने वालों को निराश होकर वापस गांव जाना पड़ा, वहीं जून में लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट 40 से घटकर 38.8% ही रह गया है। शहरों में बेरोजगारी पिछले एक साल में सबसे कम रही, इसका कारण सेवा क्षेत्र में कुछ रफ्तार आना बताया जाता है लेकिन बड़ा कारण कामगारों के एक बड़े वर्ग का लेबर मार्केट से बाहर होना है, जिससे बेरोजगारी दर का प्रतिशत कम हो जाता है। खास बात है कि लॉकडाउन में जब कामगारों का शहरों से पलायन हुआ था तब भी उसका लाभ गांव को ज्यादा रकबे में खेती से मिला, जो अब नहीं मिल रहा है। सरकार को सोचना होगा।


Date:07-07-22

खतरे में पड़ी परिवारवाद की राजनीति

प्रदीप सिंह, ( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

भाजपा ने अगले लोकसभा चुनाव के लिए अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव किया है। यह बदलाव पार्टी का नए भौगोलिक क्षेत्रों में विस्तार करने के लिए है। भाजपा को लग रहा है कि वंचित वर्ग को अपने साथ जोड़ने, सामाजिक समीकरण बिठाने और सुशासन पर अपनी पहचान स्थापित करने में वह कामयाब रही है। इसके अलावा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मुद्दे पर भी अब उसे चुनौती देने की स्थिति में कोई दल नहीं है। अब पार्टी की चुनौती परिवारवादी क्षेत्रीय दल हैं। इन्हें पराजित किए बिना भाजपा सही मायने में राष्ट्रीय पार्टी नहीं बन पाएगी। दक्षिण के चार में से तीन राज्यों, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और पूरब के बंगाल, बिहार एवं ओडिशा में से पांच राज्यों में उसकी न तो कभी सरकार बनी और न ही वह सरकार बनाने के आस पास पहुंची। बिहार में वह सत्ता में साझीदार तो रही, लेकिन कभी अपना मुख्यमंत्री नहीं बनवा पाई। ये सभी राज्य ऐसे हैं जहां भाषाई और क्षेत्रीय अस्मिता बाकी सब मुद्दों पर भारी पड़ते हैं। भाजपा के जो कोर मुद्दे हैं, उनके जरिये वह जहां तक पहुंच सकती थी, लगभग पहुंच चुकी है। इससे आगे विस्तार के लिए उसे नए रास्ते, नए नारे और नई रणनीति की जरूरत है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व का एक विशेष गुण है। इसका चाणक्य नीति से सीधा संबंध है। यह है कछुए की तरह व्यवहार करना। जैसे कछुआ अपने शरीर का उतना ही अंग बाहर निकालता है, जितनी जरूरत होती है। उसी तरह मोदी अपनी रणनीति के बारे में उतना ही बताते हैं, जितनी उस समय की जरूरत होती है। वह पिछले आठ साल से परिवारवाद की बात कर रहे हैं। अपनी पार्टी में इसे रोकने का लगभग सफल प्रयास कर चुके हैं। भाजपा में वह जो कर रहे हैं, वह परिवारवाद को रोकने की कोशिश है, लेकिन समस्या की जड़ परिवारवाद नहीं वंशवाद है। हालांकि यह भी सच है कि वंशवाद की शुरुआत होती परिवारवाद से ही है। भाजपा में वंशवाद नहीं है। कोई ऐसा नेता नहीं है जो यह दावा कर सके कि उसके पद पर उसके परिवार का ही कोई व्यक्ति आएगा। मोदी की योजना वास्तव में कांग्रेस के जरिये क्षेत्रीय दलों तक पहुंचने की है। इसी रणनीति के तहत राजनीति में परिवारवाद पर पहली बार नियोजित तरीके से हमला करने का फैसला हुआ है। हैदराबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में यह केंद्रीय मुद्दा रहा। क्षेत्रीय दलों को घेरने के लिए भाजपा की यह नई रणनीति है। आठ साल तक कांग्रेस मुक्त भारत अभियान चलाने के बाद भाजपा की निगाह अब क्षेत्रीय दलों पर है। क्षेत्रीय दलों का सबसे कमजोर पक्ष है उनका परिवार, पर मोदी जो कर और कह रहे हैं वह केवल परिवार तक सीमित नहीं है। परिवारवादी पार्टियों के नेताओं का सामंतवादी रवैया और रहन-सहन दूसरी पीढ़ी आते-आते आम लोगों को खटकने लगता है। बात इतनी ही होती तो शायद गनीमत होती, लेकिन मामला उससे आगे चला गया है। मोदी और भाजपा को समझ में आ गया है कि विधानसभा चुनाव में पार्टी का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, सुशासन (केंद्रीय योजनाओं का असर) और सामाजिक गठजोड़ एक सीमा के बाद असर नहीं डालता। मतदाता लोकसभा चुनाव में दूसरी तरह मतदान करता है और वह मोदी के साथ खड़ा नजर आता है, पर विधानसभा चुनावों में भाजपा का मत प्रतिशत गिर जाता है।

मोदी की परिवारवाद विरोधी मुहिम में कई और मुद्दे समाहित हैं। यह महज दुर्योग नहीं अधिकतर परिवारवादी पार्टियां और उनके नेता भ्रष्ट भी हैं और छद्म पंथनिरपेक्ष भी। इसे यूं भी कह सकते हैं कि ये हिंदू विरोध और मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करते हैं। इसलिए इनके खिलाफ जनता को खड़ा करने में आज के बदले माहौल में थोड़ी आसानी दिख रही है। तुष्टीकरण की राजनीति को मतदाता बार- बार नकार रहा है। तुष्टीकरण की राजनीति करने वालों के लिए इसका बचाव करना दिन प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है। स्थिति यह हो गई है कि मुस्लिम वोटों के दम पर दशकों तक राजनीति करने और राज करने वाली पार्टियां अब मुसलमानों के मुद्दे उठाने से बचने लगी हैं। वे चाहती हैं कि मुसलमान चुपचाप उन्हें वोट दे दें। कम से कम चुनाव के समय तो अपना मुंह बंद ही रखें। इस सबके बावजूद भाजपा की राह इतनी आसान नहीं है। उसके सामने दो समस्याएं और आती हैं। एक तो इन राज्यों में पार्टी जमीनी संगठन का ढांचा तैयार करना और दूसरा राज्य स्तर का नेतृत्व उभारना।

भाजपा को हाल में महाराष्ट्र में दो परिवारवादी पार्टियों को पटखनी देने में सफलता मिली है। महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी, दोनों को गहरा राजनीतिक आघात लगा है। इनके लिए इससे संभलना बहुत कठिन है, खासतौर से उद्धव ठाकरे की शिवसेना के लिए। आने वाले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में शिवसेना को ठाकरे परिवार में मुक्ति मिल जाए तो आश्चर्य नहीं। महाराष्ट्र के बाद भाजपा की नजर अब तेलंगाना पर है। इस साल के आखिर में गुजरात और हिमाचल में विधानसभा चुनाव हैं। इसके बावजूद भाजपा ने अपनी कार्यकारिणी की बैठक हैदराबाद में की। भाजपा को साफ दिखाई दे रहा है कि तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव की सरकार और परिवार, दोनों के प्रति आम लोगों में नाराजगी बढ़ रही है।

परिवारवाद पर प्रधानमंत्री के हमले का असर इतनी जल्दी दिखना शुरू हो जाएगा, इसकी उम्मीद नहीं थी। चंद्रशेखर राव की बौखलाहट तो कुछ दिनों से दिख रही है। नई आवाज उठी है तमिलनाडु से। द्रमुक नेता ए. राजा ने भाजपा और केंद्र सरकार को चेतावनी दी है वे उनकी पार्टी को अलग तमिल देश की मांग के लिए मजबूर न करें। उधर बंगाल से ममता बनर्जी ने भाजपा के खिलाफ जिहाद का एलान किया है। एक बात तो स्वीकार करना पड़ेगी कि परिवारवाद के खिलाफ देश में माहौल बन गया है। चूंकि भाजपा परिवारवाद को मुख्य राजनीतिक विमर्श के रूप में स्थापित करने में कामयाब रही है इसलिए परिवारवादी राजनीति के पैरोकार सक्रिय हो गए हैं। तर्क दिया जा रहा है कि मोदी के परिवार मुक्त राजनीति के नारे का वास्तविक लक्ष्य विपक्ष मुक्त राजनीति है। एक तरह से परिवारवाद के समर्थकों ने परोक्ष रूप से मान लिया है इस देश में विपक्ष को बचाने के लिए परिवारवाद को बचाना जरूरी है। जब बुराई में अच्छाई दिखाने की कोशिश होने लगे तो समझिए कि तर्क और ताकत, दोनों ही नहीं बचे हैं।


 

Date:07-07-22

प्लास्टिक का विकल्प और सवाल

अखिलेश आर्येंदु

एक जुलाई से प्लास्टिक और थर्माकोल से बने कई उत्पादों पर केंद्र सरकार ने रोक लगा दी है। गौरतलब है कि इसके पहले 23 दिसंबर 2019 को प्लास्टिक के थैलों पर रोक लगाई गई थी। सर्वोच्च न्यायालय प्लास्टिक से बढ़ रहे वायु, जल और मिट्टी प्रदूषण के मद्देनजर रोक लगाने का निर्देश केंद्र सरकार को पहले ही दे चुका है। केंद्रीय पर्यावरण के वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग ने 16 जून, 2021 को इस आशय का निर्णय लेने के बाद 18 जून, 2021 को इसे गजट में प्रकाशित किया था। गजट प्रकाशन के एक सौ अस्सी दिन बाद 15 दिसंबर 2021 को प्लास्टिक के कई उत्पादों पर रोक लगाने का फैसला किया गया था, लेकिन इसे लागू अब एक जुलाई से किया गया। केंद्र सरकार का यह कदम जलवायु संकट की रोकथाम के मद्देनजर उठाया गया है। इसे असरदार तरीके से लागू करने के लिए सरकार ने जहां नियम बनाएं हैं, वहीं इन नियमों का उल्लंघन करने वालों के लिए कड़े कानून भी बनाए गए हैं। अब देखना यह है कि इस बार नए आदेश पर अमल कितना और कैसे हो पाता है और सरकारी व अर्धसरकारी विभागों में कितनी कड़ाई से इसका पालन कराया जाता है?

एक बार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और थर्माकोल पर पाबंदी के बाद यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि आखिर इसका विकल्प क्या हो। हालांकि विकल्प तलाशना और व्यवहार में लाना असंभव काम नहीं है। इसके अलावा एक सवाल प्लास्टिक उत्पादों के उद्योगों से भी जुड़ा है, जो तत्काल और स्थायी समाधान मांगता है। जहां तक बात प्लास्टिक उत्पादों के विकल्प की है तो भारतीय कुटीर उद्योग परंपरा में इस्तेमाल की जाने वाली तमाम चीजें जैसे कागज, फाइबर और मिट्टी के बनाए बर्तन आदि इसमें शामिल किए जा सकते हैं। कागज के थैलों के चलन को बढ़ावा देकर बड़े पैमाने पर प्लास्टिक की थैलियों को चलन से बाहर किया जा सकता है। गौरतलब है कि भारतीय स्वदेशी उत्पादों में कुम्हारी कला के जरिए बनाए गए बर्तन भी आते हैं। मानव सभ्यता को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाले प्लास्टिक के उत्पादों की जगह ये सबसे बेहतर विकल्प हो सकते हैं। सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक उत्पादों में थैलियां, पैकिंग फिल्म, फोम वाले कप-प्याले, कटोरे, प्लेट, लेमिनेट किए गए कटोरे व प्लेट, छोटे प्लास्टिक कप और कंटेनर जैसे प्लास्टिक उत्पाद शामिल हैं। इनकी खपत रोजमर्रा में सबसे ज्यादा होती है। इनकी जगह मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल कई तरह से मुफीद हो सकता है।

प्लास्टिक धरती के लिए खतरा इसलिए बन गया है कि यह आसानी से नष्ट नहीं होता। जाहिर है, ऐसे में इसका कचरा बढ़ता रहेगा। प्लास्टिक कचरे के बारे में एक अनुमान यह है कि दुनिया में आज जितना प्लास्टिक कचरा है, उससे तीन माउंट एवरेस्ट के बराबर तीन पहाड़ खड़े किए जा सकते हैं। मुश्किल यही है कि सामान्य प्लास्टिक को सड़ने में भी दो सौ से पांच सौ साल चाहिए, खत्म होना तो दूर की बात है। इसके बावजूद प्लास्टिक उत्पादों से लोग छुटकारा नहीं पा रहे हैं। वजह साफ है कि यह सस्ता है और हर जगह आसानी से उपलब्ध है। इसलिए इसके जहरीलेपन को भी नजरअंदाज कर धड़ल्ले से इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। प्लास्टिक कचरे का खतरा इसलिए भी बढ़ गया है कि इसका अस्सी फीसद हिस्सा समुद्र में जा रहा है और समुद्री पर्यावरण तेजी से बिगड़ रहा है। समुद्र में पाए जाने वाले स्तनधारी जीव तक प्लास्टिक खा जाते हैं और अकाल मौत का शिकार बन रहे हैं। अनुमान के मुताबिक प्लास्टिक खाकर हर साल तकरीबन एक लाख समुद्री जीव-जंतु मर जाते हैं, जिनमें सील, व्हेल, समुद्री कछुए भी शामिल हैं। मछलियों की तो कोई गिनती ही नहीं है।

झारखंड, बिहार, ओड़ीशा, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ सहित देशभर में प्रचलित कुटीर उद्योगों में शुमार मिट्टी के बेहतरीन बर्तनों और पत्तों से बने दोने-पत्तलों का चलन अब बीते वक्त की बात हो चली है। इससे जुड़े कुम्हार और दूसरे समुदाय के लोगों के सामने जीविका का संकट भी खड़ा ही है। गौरतलब है, मुसहर जाति के लोगों की जीविका का एकमात्र साधन दोने-पत्तल और खजूर की पत्तियों से झाडू बनाना रहा है। गांव-देहात में इनकी ज्यादा खपत होने की वजह से इससे जुड़े परिवार गांवों में जाकर इन्हें बेच लेते थे या लोग इनके यहां जाकर खरीद लाते थे। लेकिन बदलते वक्त में गांवों में भी जिस तरह से शहरीकरण और बाजारीकरण पसरा है, तब से गांवों में न दोने-पत्तलों की जरूरत रह गई है और न मिट्टी के बर्तनों की।

देश के कई इलाके ऐसे हैं जहां परंपरागत रोजगार अभी भी प्रचलन में हैं, लेकिन वे भी पहले की अपेक्षा काफी कम हो गए हैं। इसकी वजह भी हर जगह कागज और प्लास्टिक के बने दोने-पत्तलों और बर्तनों का बढ़ता प्रचलन है। गौरतलब यह भी कि जो परिवार पिछले आठ-दस पीढ़ियों से इस कारोबार से जुड़े थे, वे अब मजबूरी में दूसरे पेशों में लग गए हैं। अभी भी जो परिवार मजबूरी में अपने परंपरागत व्यवसायों में लगे हैं, उनके सामने और गंभीर समस्याएं हैं। सबसे पहली तो कच्चे माल की कमी है। कुम्हारों को जहां मिट्टी, पानी, उपले आदि का संकट झेलना पड़ता है, वहीं दोने-पत्तल बनाने वालों को पेड़ के पत्ते आसानी से नहीं मिल पाते। पहले तो जंगलों से पेड़ के पत्ते आसानी से मिल जाते थे, लेकिन सरकारी कानूनों और प्रतिबंधों की वजह से अब तो पत्ते तोड़ना भी अपराध हो गया है।

पर्यावरण के लिए बेहद नुकसानदायक माने जाने वाली प्लास्टिक थैलियों, बर्तनों और दूसरे उत्पादों पर प्रतिबंध लगाने की पहल हो चुकी है। लेकिन दूसरे कानूनों की तरह ही प्लास्टिक उत्पादों को खरीदने-बेचने पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून को कोई तवज्जो नहीं दी जा रही। यही वजह है कि दिल्ली सहित दूसरे राज्यों में धड़ल्ले के साथ प्लास्टिक के सभी तरह के उत्पाद अभी भी बिक रहे हैं।

केंद्र सरकार के आंकड़े के मुताबिक देशभर में पैंसठ लाख परिवार कुम्हारी कला पर निर्भर हैं। इसी तरह तकरीबन एक लाख मुसहर परिवार आज भी दोने-पत्तल बनाने के परंपरागत काम में लगे हैं। दिल्ली में ही करीब डेढ़ हजार परिवार कुम्हारी कला से जुड़े हैं, लेकिन उन्हें मिट्टी, पानी और इसमें इस्तेमाल होने वाली दूसरी चीजें आसानी से नहीं मिल पातीं। दूसरी बात यह कि एक बार उपयोग होने वाले प्लास्टिक की भरमार होने और सस्ता होने की वजह से भी मिट्टी के बर्तनों की खपत मामूली ही होती है। प्लास्टिक की चमक-दमक और इस्तेमाल करके फेंकने की आदत होने की वजह से भी मिट्टी के उत्पादों से लोग बचते हैं। जबकि मिट्टी के बर्तनों के इस्तेमाल से न पर्यावरण को कोई नुकसान पहुंचता है और न किसी तरह की बीमारी का खतरा होता है।

सैकड़ों प्लास्टिक उत्पादों की भरमार से कस्बों और गांवों के कुओं व नहरों का जल भी प्रदूषित होता जा रहा है। इससे जल स्रोत जहरीले होने लगे हैं और लोग कई तरह की बीमारियों से ग्रस्त होते जा रहे हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक सत्तर के दशक के बाद प्लास्टिक का उपयोग शहरी, ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में तेजी से बढ़ता गया और कई बीमारियों का कारण बन गया। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर हम प्लास्टिक की जगह मिट्टी से बने उत्पादों के इस्तेमाल करने लगें तो कितनी बड़ी और गंभीर समस्याओं से निजात पा सकते हैं। संकट प्लास्टिक के विकल्पों का नहीं है, बल्कि इच्छाशक्ति है कि कैसे हम इससे छुटकारा पाएं।


Date:07-07-22

लक्ष्मण रेखा का लंघन

संपादकीय

सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियों को सार्विक तौर पर स्वीकार किया जाता है, और असहमति की स्थिति में भी उसे कटु आलोचनाओं से परे रखा जाता है। लेकिन हाल में नूपुर शर्मा के मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों ने जो मौखिक टिप्पणियां की हैं, उन्होंने समाज में खलबली जैसी पैदा कर दी है। ज्ञातव्य है कि सर्वोच्च न्यायालय में नूपुर ने अपने विरुद्ध पूरे देश में की गई शिकायतों की सुनवाई किसी एक अदालत में किए जाने की मांग की थी। उनकी यह मांग नई नहीं थी। पहले भी कई बार इस तरह की मांग को स्वीकार किया गया है। किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने न केवल शर्मा की याचिका को ठुकरा दिया, बल्कि देशभर के मुस्लिम समाज में जो प्रतिक्रिया हुई और उदयपुर तथा अमरावती में जो हत्याएं हुई, परोक्ष रूप से उनके लिए शर्मा के उस बयान को जिम्मेदार ठहरा दिया गया जो उन्होंने एक टीवी डिबेट के दौरान दिया था और जिसे पैगंबर की शान में गुस्ताखी माना गया था। सर्वोच्च न्यायालय की इस प्रतिक्रिया से क्षुब्ध होकर पूर्व न्यायाधीशों, पूर्व नौकरशाहों और पूर्व सैन्य अधिकारियों ने प्रधान न्यायाधीश को खुला पत्र लिखा है, जिसमें कहा गया है कि ये टिप्पणियां न्याय प्रक्रिया पर न मिटने वाला दाग है, और इन्हें वापस लिया जाना चाहिए। उनका इशारा सीधे-सीधे इस टिप्पणी की ओर था कि शर्मा की जुबान ने पूरे देश को आग में झोंक दिया है और उनका बयान किसी राजनीतिक एजेंडे से प्रेरित था या किसी कुटिल गतिविधि का हिस्सा था। प्रधान न्यायाधीश को लिखे गए पत्र में अनेक कानूनी मुद्दे उठाए गए हैं, और कहा गया है कि नूपुर शर्मा के मामले को अलग तरह से देखा जा रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिक्रिया अतिवादी थी। एक बहुत बड़े वर्ग का मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिक्रिया कन्हैया और उमेश जैसे सामान्य व्यक्तियों की हत्या को मौलानाओं के भड़काऊ बयानों और तमाम लोगों को जान से मारने के लिए दी जाने वाली धमकियों को परोक्ष रूप से वैधता प्रदान करती है। सर्वोच्च न्यायालय वह संस्था है जिसमें भावातिरेक की कोई गुंजाइश नहीं है, बल्कि संविधान से सापेक्ष पूरी तटस्थता अपेक्षित होती है। न्यायाधीशों की प्रतिक्रिया से तटस्थता का यह नियम प्रभावित हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय को एक बार इस पर विचार करना चाहिए तो दूसरी ओर शीर्ष अदालत की टिप्पणियों के विरु द्ध उग्र प्रतिक्रिया व्यक्त करने वालों को भी संयम से काम लेना चाहिए ताकि सर्वोच्च अदालत की शुचिता को कोई क्षति न पहुंचे। सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा का नष्ट होना किसी भी तरह से देश के हित में नहीं होगा।


 

Date:07-07-22

जवाबदेही से नहीं हो कोई समझौता

प्रांजल शर्मा, ( डिजिटल नीति विशेषज्ञ )

किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कई देशों में ट्विटर, फेसबुक और बड़ी सोशल मीडिया कंपनियों को चुनौती मिल रही है। पिछले महीने ही ट्विटर को अमेरिकी सरकार को 15 करोड़ डॉलर का जुर्माना देने के लिए मजबूर होना पड़ा है। ट्विटर ने अपने यूजर्स या उपयोगकर्ताओं की निजी सूचनाओं का दुरुपयोग किया था। अमेरिका के संघीय व्यापार आयोग (एफटीसी) ने ट्विटर पर उपभोक्ताओं की निजता के उल्लंघन का आरोप खुलकर लगाया है। एफटीसी की अध्यक्ष लीना खान ने एक बयान में कहा है कि ट्विटर की इस कारस्तानी से उसकी कमाई तो बढ़ी है, पर इससे उसके 14 करोड़ से ज्यादा उपयोगकर्ता प्रभावित हुए हैं।

अब सिर्फ अमेरिका ही नहीं, यूरोपीय संघ भी ट्विटर जैसी सोशल मीडिया कंपनियों के खिलाफ कड़े कदम उठा रहा है। यूरोपीय संघ ने तो फेसबुक, ट्विटर और अमेजन सहित अन्य वैश्विक आईटी कंपनियों के खिलाफ ताजा पहल करते हुए उनकी जवाबदेही बढ़ाने के लिए कड़ा कानून पारित किया है। डिजिटल मार्केट ऐक्ट (डीएमए) के अलावा यूरोपीय संघ के सांसदों ने डिजिटल सर्विसेज ऐक्ट (डीएसए) को भी मंजूरी दे दी है। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म अब अवैध सामग्री की निगरानी के लिए ज्यादा जवाबदेह होने को मजबूर हो जाएंगे। दिग्गज आईटी कंपनियों ने अगर कानून का उल्लंघन किया, तो उन पर भारी जुर्माना भी लगेगा। अगर डीएमए का उल्लंघन हुआ, तो कंपनियों को अपने वार्षिक वैश्विक कारोबार के 10 प्रतिशत तक और डीएसए का उल्लंघन हुआ, तो छह प्रतिशत तक के जुर्माने का सामना करना पड़ेगा।

इन कंपनियों को अपने प्लेटफॉर्म पर सामग्री की जांच करनी होगी, जोखिम का मूल्यांकन करना होगा और अवैध सामग्री प्रबंधन के स्वतंत्र ऑडिट की भी जरूरत पड़ेगी। ऐसी सामग्रियों पर भी नजर रखनी पड़ेगी, जो वैध तो हो सकती हैं, लेकिन जो सार्वजनिक स्वास्थ्य, मानवाधिकारों या अन्य सार्वजनिक हितों के लिए खतरा हैं। यूरोपीय संघ द्वारा बनाया गया डिजिटल मार्केट ऐक्ट एक प्रतिस्पद्र्धा केंद्रित बिल है, जिसका मकसद प्रमुख ऑनलाइन प्लेटफॉर्म या कंपनियों को अधिक पारदर्शी बनाना है। दूसरी ओर, डीएसए इस बात पर प्रकाश डालता है कि यूरोप कैसे बड़ी कंपनियों के लिए नियम तैयार करने की दिशा में मुस्तैदी से आगे बढ़ रहा है। अमेरिका और यूरोपीय संघ द्वारा उठाए गए सख्त कदम अन्य देशों को भी इस दिशा में प्रेरित कर रहे हैं। अच्छे कानूनों से भारत भी सीख सकता है।

आजकल ट्विटर के समर्थक यह दिखाना चाहते हैं कि भारत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नुकसान पहुंचा रहा है, लेकिन वे यह बताना भूल जाते हैं कि दुनिया के अधिकांश लोकतांत्रिक देशों द्वारा ट्विटर पर सवाल उठाए जा रहे हैं। भारत के केंद्रीय आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा है, ‘सोशल मीडिया बहुत शक्तिशाली माध्यम है और इसका हमारे जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है, लेकिन आप इसे कैसे जवाबदेह बनाते हैं, यह सवाल दुनिया में हर जगह बहुत प्रासंगिक बन गया है।’

आज कोई भी कंपनी राष्ट्रीय कानूनों और विनियमों से ऊपर होने का दावा नहीं कर सकती। उन्हें कानून और समाज के प्रति जवाबदेह होना ही पड़ेगा। गौरतलब है, भारत सरकार ने अपने निर्देशों की पालना के लिए ट्विटर को 4 जुलाई तक का वक्त दिया था। ट्विटर कंपनी को ट्विटर अकाउंट और ट्वीट्स हटाने के लिए जनवरी 2012 से जून 2021 के बीच सरकार से 17,000 से अधिक अनुरोध प्राप्त हुए थे, जिनमें से ट्विटर ने सिर्फ 12.2 प्रतिशत अनुरोधों की ही पालना की है। ट्विटर ने लगभग 1,600 खातों और 3,800 ट्वीट्स को ही रोका है। दरअसल, ट्विटर 4 जुलाई की समय-सीमा के भीतर सरकार के सभी अनुरोधों को मानने पर सहमत नहीं था, तो उसने ऐसी मांग के लिए सरकार पर मुकदमा करने का फैसला किया।

सरकार ने ज्यादातर अनुरोध आईटी ऐक्ट के अनुच्छेद 69-ए के तहत भेजे थे। इस अधिनियम के तहत, केंद्र या उसके अधिकृत अधिकारी भारत की संप्रभुता, अखंडता, रक्षा, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों या सार्वजनिक व्यवस्था के हित में या किसी को उकसाने से रोकने के लिए किसी सूचना को अवरुद्ध करने की मांग कर सकते हैं।

अच्छी बात है कि भारत सरकार ने आईटी नियमों में संशोधन का प्रस्ताव दिया है, जिसके तहत वह एक अपीलीय शिकायत निवारण पैनल का गठन करेगी, जिसके पास देश के कानून के अनुरूप कंपनी के शिकायत प्रकोष्ठ द्वारा लिए गए फैसलों को रद्द करने की शक्ति होगी। इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री राजीव चंद्रशेखर ने मंगलवार को दोहराया कि सभी सोशल मीडिया कंपनियों को देश के नियम-कायदों का पालन करना होगा। कंपनियों को न्यायिक समीक्षा की अपील का अधिकार है, लेकिन उन्हें सरकार के सभी नियमों का पालन तो करना ही होगा।

भारत में ट्विटर ने ही नहीं, फेसबुक के स्वामित्व वाले वाट्सएप ने भी जवाबदेही लागू करने वाले नियमों को रोकने के लिए भारत सरकार के खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय में मामला दायर किया है, जिसमें नए आईटी नियमों को लागू होने से रोकने की मांग की गई है। नए नियमों के तहत वाट्सएप जैसे महत्वपूर्ण सोशल मीडिया माध्यम के लिए जरूरी हो गया है कि वह विशेष संदेशों की उत्पत्ति का स्रोत बताए। जिस तरह से नफरत या झूठ के प्रसार के लिए वाट्सएप का इस्तेमाल बढ़ा है, उसे देखते हुए यह सरकार के लिए जरूरी है कि गलत सूचनाओं के स्रोतों पर लगाम लगाए। जाहिर है, इसके लिए सोशल मीडिया कंपनियों को बाध्य करना जरूरी है। भारत के साथ ही, दुनिया भर की सरकारें जहां इन कंपनियों को चुनौती दे रही हैं, वहीं दूसरी ओर, ये चतुर या धूर्त कंपनियां जवाबदेही और पारदर्शिता के लिए मजबूर करने वाले नियमों के खिलाफ लड़ने के लिए अपनी पूरी ताकत का इस्तेमाल कर रही हैं।

भारत को अपनी जमीन पर मजबूती से खड़ा होना चाहिए। स्पष्ट और मजबूत नियम-कायदे बनाने की प्रक्रिया जारी रखनी चाहिए। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि कानून में कोई अस्पष्टता न रहे, ताकि कंपनियां जांच से बचने के लिए नियमों की कमियों का फायदा न उठाएं। उपयोगकर्ताओं के अधिकारों की रक्षा करते हुए सोशल मीडिया से लाभान्वित होने के लिए जांच और संतुलन जरूरी है।


Date:07-07-22

कन्नूर ने प्लास्टिक का एक एक कतरा बीन लिया

पंकज चतुर्वेदी, ( वरिष्ठ पत्रकार )

एक जुलाई से सिंगल यूज पन्नी सहित 19 ऐसी वस्तुओं पर रोक लगा दी गई है, जिनके कारण देश में प्लास्टिक का बोझा बढ़ रहा था। वैसे यह पहली बार नहीं है कि प्लास्टिक कम करने की योजना बनी हो। याद कीजिए, अगस्त 2019 में मन की बात के अंतर्गत प्रधानमंत्री ने पॉलीथिन व प्लास्टिक से देश को मुक्त करने का आह्वान किया था। गौरतलब है कि 2017 की मध्य प्रदेश सरकार की घोषणा हो या फिर दिल्ली से सटे गाजियाबाद नगर निगम द्वारा पांच साल पहले चलाया गया सख्त अभियान, लोग मानते हैं कि पॉलीथिन थैली नुकसानदेह है, पर अगले ही पल कोई मजबूरी जताकर उसे हाथ में लिए चल देते हैं। ऐसे में, केरल का कन्नूर मॉडल देश को राह दिखा सकता है।

केरल के दक्षिण-पूर्व में स्थित तटीय शहर कन्नूर देश का ऐसा पहला शहर बन गया है, जहां अब कोई प्लास्टिक कचरा नहीं बचा है। केरल राज्य स्थापना दिवस 1 नवंबर, 2016 को जिले ने ‘नलनाडु-नल्ला मन्नू’ अर्थात ‘सुंदर गांव-सुंदर भूमि’ का संकल्प लिया था और पांच महीने में ही इसे साकार कर दिखाया। कन्नूर ने जब ठान लिया कि जिले को देश का पहला प्लास्टिक-मुक्त जिला बनाना है, तब सभी वर्ग के लोगों को साथ लिया गया। बाजार, रेस्तरां, स्कूल, एनजीओ, राजनीतिक दल आदि एकजुट हुए। समाज के हर वर्ग, खासकर बच्चों ने इंच-इंच भूमि से प्लास्टिक का एक-एक कतरा बीन लिया। नगर निकायों ने एकत्रित कचरे को ठिकाने लगाने की जिम्मेदारी निभाई। इसके साथ ही, जिले में हर तरह की पॉलीथिन थैली, डिस्पोजेबल बर्तन व अन्य प्लास्टिक पैकिंग पर पूर्ण पाबंदी लगा दी गई। कन्नूर के ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी’ के छात्रों ने इवीनाबु बुनकर सहकारी समिति और कल्लेतेरे औद्योगिक बुनकर सहकारी समिति के साथ मिलकर बहुत कम दाम पर बेहद आकर्षक व टिकाऊ थैले बाजार में उतार दिए। सभी व्यापारिक संगठनों, मॉल आदि ने इन थैलों को रखना शुरू किया और आज पूरे जिले में कोई भी पॉलीथिन नहीं मांगता है। होटलों ने खाना पैक करवाकर ले जाने वालों को घर से टिफिन लाने पर छूट देना शुरू कर दिया और घर-घर आपूर्ति भी अब स्टील के बर्तनों में की जा रही है। ग्राहक सामान रखकर खाली बर्तन लौटा देते हैं।

असल में, कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने ही किया है। अभी कुछ साल पहले तक स्याही वाला पेन होता था, उसके बाद ऐसे बॉल-पेन आए, जिनकी केवल रिफील बदलती थी।

आज बाजार में ऐसे पेन का बोलबाला है, जो स्याही खत्म होने पर कचरे में चले जाते हैं। तीन दशक पहले एक व्यक्ति साल भर में बमुश्किल एक पेन खरीदता था और आज औसतन हर साल एक दर्जन पेन की प्लास्टिक प्रति व्यक्ति बढ़ रही है। अनुमान है, पूरे देश में हर रोज चार करोड़ दूध की थैलियां और दो करोड़ पानी की बोतलें कूडे़ में फेंकी जाती हैं। न जाने कितने तरीकों से हम कचरा बढ़ा रहे हैं।

कन्नूर और केरल ने इन समस्याओं को ठीक से समझा। वहां इंक पेन इस्तेमाल का अभियान चलाया गया। आदेश निकालकर सभी सरकारी दफ्तरों में बॉल पॉइंट वाले पेन पर पांबदी लगा दी गई। अब सरकारी खरीद में भी केवल इंक पेन खरीदे व इस्तेमाल किए जा रहे हैं। इंक पेन और स्याही पर भी छूट दी जा रही है। अनुमान है कि यदि पूरे राज्य में यह योजना सफल हुई, तो प्रतिदिन पचास लाख प्लास्टिक पेन का कचरा पर्यावरण में मिलने से रह जाएगा। राज्य सरकार के कार्यालयों में स्टील के बर्तनों में ही पानी की व्यवस्था होने लगी है। सरकारी आयोजनों में फ्लेक्स बैनर पर रोक है। प्रत्येक कार्यालय में कचरे को अलग-अलग करना, कंपोस्ट बनाना, कागज के कचरे को रिसाइकिल के लिए देना और बिजली व इलेक्ट्रॉनिक कचरे को प्रत्येक तीन महीने में वैज्ञानिक तरीके से ठिकाने लगाने की योजनाएं जमीनी स्तर पर बेहद कारगर रही हैं।

वाकई, प्लास्टिक से मुक्ति कठिन नहीं है। हमने देखा है कि बीते आठ साल में आम लोग स्वच्छता के प्रति जागरूक हुए हैं, लेकिन जरूरत है इस दिशा में सतत कार्य करने की।