News Clipping on 29-09-2018

Date:29-09-18

Equal in Sabarimala

SC rules against patriarchy in religion

TOI Editorials

Supreme Court has allowed women of all ages entry into Sabarimala temple, overruling a tradition that believed menstruating women distracted the shrine’s presiding deity Ayyappa and his celibate worshippers. The 4-1 verdict noted that the right to worship under Article 25(1) was equally available to men and women. The court rejected the Travancore Devaswom Board and others’ claims that the tradition constituted an essential religious practice. It also dismissed arguments that judicial intervention was an infringement of constitutional protections guaranteed under Article 26 to religious denominations to manage their own affairs.

This conflict between constitutional rights and age-old social customs is not new in our constitutional history. If the political class struck the first blows through constitutional rights granting equality and freedoms and statutory laws prohibiting untouchability and other social evils, the judiciary, unencumbered by political or populist compulsions, has helped take forward social reform. In a case like Sabarimala where the right to equality conflicts with the right of religious institutions, equality and individual freedom must take precedence.

There is also a strong differing view as espoused by Justice Indu Malhotra, who concludes that the equality doctrine enshrined under Article 14 does not override religious freedoms that are in accordance with the tenets of a religion. On the other hand Justice Chandrachud opines that “carving out ‘custom or usage’ from constitutional scrutiny, denies the constitutional vision of ensuring the primacy of individual dignity.” He also castigates the imposition of the burden of a man’s celibacy on a woman which is then used to deny her access to spaces to which she is equally entitled. The judgment also opens a Pandora’s box: will courts rule on religious bars to women priests and many other social and religious customs where patriarchy is prevalent?


Date:29-09-18

Gender Justice vs Judicial Overreach

The courts should stick to the temporal plane

ET Editorials

By removing the bar on women in the10-50 age group entering the shrine of Lord Ayyappa in Kerala, the 4-1ruling of a five-member bench of the Supreme Court has advanced gender equality in yet another sphere of public life in India. This should have been accorded an unqualified welcome. But the majority judgment also sets up a clash between the fundamental right to equality contained in Articles 14 and 15 of the Constitution and the right to follow any religion and set up institutions for the purpose, contained in Articles 25 and 26. This is fraught in India’s context of extreme diversity and complex possibilities of inter- and intra-community schism. The court should, in all probability, rethink its practice of determining the essential or integral nature of a religious custom and stick to interpreting whether any custom, essential or not, conforms to the Constitution or not.

By deciding to determine whether a particular practice or custom is essential or integral to a religion, the court leaves the rational world of laws and constitutional rights and enters into the realm of theology. Whether any custom or practice falls foul of the fundamental rights guaranteed by the Constitution is decidedly a matter for the court to determine, and strike down, if it does. So what, if some religious authority, say, Manu, the Hindu law giver, says that the varna system that celebrates the Brahmin as the lord of all creation and places the rest at his service is an essential feature of Hinduism? It violates the right to equality and has no place in the Republic of India. The dissenting ruling by Justice Indu Malhotra rests on the assumption that the followers of Ayyappa constitute a separate denomination from the general run of Hinduism: even if excluding women of a specific age group is not integral to Hinduism, it could be essential to the denomination. This is a slippery slope.

Religious reform in matters that positively affect life and liberty does call for judicial intervention. In other cases, internal pressure would secure reform with less of a backlash than when the pace is forced by the law. The court is no substitute for social reform movements.


Date:29-09-18

सबरीमाला मंदिर में प्रथा की हार और संविधान की जीत

संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट ने लगातार दूसरे दिन महिला अधिकारों को सशक्त करने वाला एक आधुनिक फैसला सुनाते हुए केरल के सबरीमला मंदिर में हर उम्र की महिलाओं को प्रवेश की इजाजत दे दी है। इसी के साथ धर्म के आवश्यक हिस्से के बारे में न्यायालय के व्याख्या करने का रास्ता और स्पष्ट हो गया है। एक दिन पहले ही अदालत ने 1994 में इस्माइल फारूकी के मामले में आए निर्णय को लेकर यह स्वीकार किया था कि इस मामले को बड़ी पीठ के पास भेजेने की कोई जरूरत नहीं है। केरल के मशहूर सबरीमला में शैव और वैष्णव का समन्वय तो अद्‌भुत है ही, वहां किसी भी धर्म और जाति के व्यक्ति के प्रवेश पर मनाही नहीं थी, अगर मनाही थी तो 10 साल से 50 साल की उम्र की और रजस्वला महिलाओं के प्रवेश की। तर्क था कि मंदिर के देव अयप्पन ब्रह्मचारी थे। सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में केरल हाई कोर्ट के फैसले को ही नहीं पलटा बल्कि 800 सालों से चली आ रही प्रथा को भी समाप्त कर दिया।

मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र के नेतृत्व में पांच जजों की पीठ ने चार और एक के बहुमत से यह फैसला दिया और कहा कि धार्मिक आजादी और धार्मिक स्थलों के प्रबंधन की आजादी के अनुच्छेद 26 के तहत अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। इसलिए महिलाओं का प्रवेश रोकना न तो उम्र के आधार पर उचित है और न ही उनकी शारीरिक अवस्था के आधार पर। केरल की वामलोकतांत्रिक मोर्चा सरकार स्त्रियों को प्रवेश दिलाए जाने के पक्ष में थी तो त्रावणकोर का राज परिवार और देवासम बोर्ड इसके विरुद्ध था। इससे पहले भी न्यायालय ने शिर्डी के निकट स्थित शनि शिंगणापुर मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश की इजाजत दिलाई थी। फैसले का रोचक पहलू यह है कि संविधान पीठ की एक मात्र महिला जज इंदु मल्होत्रा ने असहमति जताई है। उनका फैसला उन्हीं दलीलों पर आधारित है जिन पर अयोध्या मामले में न्यायमूर्ति नजीर का असहमति का निर्णय आधारित था। इंदु मल्होत्रा का कहना है कि यह धार्मिक आज़ादी और समानता के अधिकार के बीच का टकराव है। धर्म की आवश्यक बातें क्या हैं इसे तय करने का हक अदालत को नहीं धार्मिक व्यक्तियों को है। इस निर्णय के बाद महिला अधिकारों के पक्ष में नया माहौल निर्मित होगा। देखना है कि त्रावणकोर देवासम बोर्ड और देश के वे दूसरे मंदिर जो अभी भी महिलाओं को बराबरी का हक देने से पीछे हटते हैं अपना नियम कैसे बदलते हैं।


Date:29-09-18

विवाहेतर संबंध न तो वैध हो सकता है न नैतिक

शीतकालीन सत्र में संसद जमकर बहस करके वैधता को नैतिकता के मातहत कर सके तो बेहतर होगा

वेदप्रताप वैदिक, ( भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष )

महिला -पुरुष संबंधों के बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया है, ज्यादातर लोग उसकी तारीफ कर रहे हैं। उसे क्रांतिकारी बता रहे हैं। उनका मानना है कि यह फैसला अंग्रेजों के बनाए उस कानून को रद्‌द कर रहा है, जिसके मुताबिक महिलाओं का दर्जा पशुओं-जैसा था। 1860 में बने इस कानून के मुताबिक कोई भी महिला अपने पति को किसी पराई स्त्री से व्यभिचार करने पर सजा नहीं दिलवा सकती थी। वह अपने पति के खिलाफ अदालत में नहीं जा सकती थी। न ही वह अपने पति की प्रेमिका या सहवासिनी को कठघरे में खड़ा कर सकती थी। भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के मुताबिक सिर्फ व्यभिचारणी औरत का पति ही अपनी पत्नी के व्यभिचारी प्रेमी के खिलाफ मुकदमा दायर कर सकता था। उसे पांच साल की सजा और जुर्माना भी हो सकता था।

इस पुराने कानून में महिला मूक दर्शक बनी रहती। उसकी कोई भूमिका नहीं थी। अब सर्वोच्च न्यायालय का यह दावा है कि उसके पांचों-जजों ने महिला के सम्मान की रक्षा कर दी है। उसने व्यभिचार को अपराध मानने से मना कर दिया है। यानी कोई आदमी उसकी पत्नी से शारीरिक संबंध बनाए या व्यभिचार करे तो वह उसे सजा नहीं दिलवा सकता। यानी किसी भी महिला और आदमी में आपस में सहमति हो जाए तो वे व्यभिचार कर सकते हैं। वह अवैध नहीं होगा। हां, परपुरुष या परस्त्री के साथ अवैध संबंधों को आधार बनाकर तलाक मांगा जा सकता है। यदि विवाहेतर संबंध आत्महत्या का कारण बन जाए तो अदालत उस पर विचार कर सकती है।

अब यहां प्रश्न यह उठता है कि व्यभिचार को वैध बना देने से महिला के सम्मान की रक्षा कैसे होती है? सुप्रीम कोर्ट जजों ने खुद से यह सवाल नहीं पूछा कि आखिर व्यभिचार होता क्यों है? उसके कारण कौन-कौन से हैं? यदि विवाहेतर संबंध इसलिए होता है कि संतानोत्पत्ति की जाए तो उसे हमारे प्राचीन शास्त्रों में नियोग कहा गया है। यदि पति-पत्नी अपनी शारीरिक अक्षमता को देखते हुए वह शास्त्रीय प्रावधान करें तो वह कुछ हद तक बर्दाश्त किया जा सकता है। इसी शारीरिक अक्षमता के होने पर पति-पत्नी के दो जोड़ों में से चारों की सहमति होने पर यदि कोई तात्कालिक व्यवस्था होती है तो उसे भी अनैतिक या अवैध नहीं कहा जा सकता।

लेकिन, किन्हीं भी महिला-पुरुष के बीच यदि विवाहेतर दैहिक संबंध कायम किए जाते हैं तो उन्हें न तो वैध माना जा सकता है और न ही नैतिक! मेरी राय में वे अवैध और अनैतिक दोनों हैं। अदालत का यह तर्क बिल्कुल बोदा है कि परपुरुष और परस्त्री के बीच सहमति हो तो किसी को कोई एतराज क्यों हो? दूसरे शब्दों में मियां-बीवी राजी तो क्या करेगा, काजी? सहमति या रजामंदी का यह तर्क खुद ही खुद को काट देता है, क्योंकि विवाह या शादी तो जीवनभर की सहमति या रजामंदी है। वह स्थायी और शाश्वत है। उसके सामने क्षणिक, तात्कालिक या अल्पकालिक सहमति का कोई महत्व नहीं है। जब तक तलाक न हो जाए, किसी परपुरुष या परस्त्री से दैहिक संबंधों को उचित कैसे ठहराया जा सकता है? ऐसे यौन-संबंध अवैध और अनैतिक दोनों हैं।

इस तरह के मुक्त यौन-संबंधों के समाज में विवाह और परिवार नामक पवित्र संस्थाएं नष्ट हुए बिना नहीं रह सकतीं। जो अदालतें इस तरह के संबंधों को बर्दाश्त करती हैं, उन्हें क्या अधिकार है कि वे शादियों का पंजीकरण करें? मुक्त यौन-संबंध समाज में अनेक कानूनी और नैतिक उलझनें पैदा कर देंगे। व्यक्तिगत संपत्ति, परिवार और राज्य- इन तीनों संस्थाओं को समाप्त करने और वर्गविहीन समाज स्थापित करने वाले कार्ल मार्क्स और लेनिन के सपने कैसे चूर-चूर हो गए, यह हम सबने देखा है। अब से 50 साल पहले मुझे एक शोध-छात्र के नाते इस चूरे को देखने का प्रत्यक्ष अवसर तत्कालिक सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के समाजों में मिला था। आज भी पश्चिम के अनेक राष्ट्र इसी तथाकथित उदारता के कारण यौन-अराजकता का सामना कर रहे हैं।

आज भी दुनिया के ज्यादातर राष्ट्र व्यभिचार को अवैध और अनैतिक मानते हैं। जिन राष्ट्रों ने सहमति से किए हुए व्यभिचार को वैध माना है, उनसे मैं पूछता हूं कि वह सहमति कितनी वास्तविक है, सात्विक है और स्वैच्छिक है? उस तात्कालिक सहमति के पीछे कितना प्रलोभन, कितना भय, कितना भुलावा, कितनी मानसिक कमजोरी, कितनी मजबूरी, कितनी कुसंस्कार है, यह किसे पता है? 1707 में ब्रिटिश मुख्य न्यायाधीश जाॅन हॉल्ट ने व्यभिचार को हत्या के बाद सबसे गंभीर अपराध बताया था। मनुस्मृति और अन्य स्मृतियों में व्यभिचार को अत्यंत घृणित अपराध कहा गया है। मनु और याज्ञवल्क्य ने व्यभिचारी व्यक्ति के लिए ऐसी सजा का प्रावधान किया है, जिस पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हमारी स्मृतियों में शारीरिक संबंध तो बहुत दूर की बात है, स्त्री-पुरुष संबंधों में अनेक बारीक मर्यादाओं का भी प्रावधान है।

इस्लामी कानून में व्यभिचार को सिद्ध करना आसान नहीं है, क्योंकि वह चार गवाहों के सामने प्रत्यक्ष किया हुआ होना चाहिए। अफगानिस्तान के पठान कट्‌टर मुस्लिम होते हुए भी शरिया के इस प्रावधान को नहीं मानते। वे व्यभिचार के मामलों में ‘पश्तूनवाली’ चलाते हैं और कठोरतम सजा देते हैं। कुछ मुस्लिम राष्ट्रों, जैसे सऊदी-अरब, ईरान, यमन, पाकिस्तान आदि में अत्यंत कठोर सजा का प्रावधान है।  भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पांचों न्यायाधीशों ने सर्वसम्मति से जो फैसला दिया है, वह स्त्री के सम्मान की रक्षा कैसे करता है, यह मेरी समझ में नहीं आया लेकिन यह बात जरूर समझ में आई कि वह महिला को भी पुरुष की तरह स्वैराचारी या स्वेच्छाचारी या निरंकुश बना देता है। यह प्रवृत्ति भारतीय परंपरा और संस्कृति के प्रतिकूल है। यह प्रवृत्ति वैध तो बन जाएगी लेकिन, इसे कोई भी नैतिक नहीं मानेगा। क्या ही अच्छा हो कि इस शीतकालीन सत्र में संसद इस मुद्‌दे पर जमकर बहस करे। यदि वह वैधता को नैतिकता के मातहत कर सके तो बेहतर होगा।


Date:28-09-18

समानता के हक में

संपादकीय

दुनिया के लगभग सभी समाजों में स्त्री-पुरुष संबंधों में कई तरह की जटिलताएं रही हैं। खासकर शारीरिक संबंधों के मामले में अमूमन हर जगह स्त्री का जीवन पुरुष वर्चस्व पर आधारित मान्यताओं के तहत तय होता रहा है। हमारे समाज में विवाह के बाद अगर किन्हीं स्थितियों में पति के अलावा स्त्री के संबंध किसी अन्य पुरुष से बनते हैं तो इसमें स्त्री को व्यभिचार की दोषी के तौर पर देखा जाता है और उसका सामाजिक जीवन दूभर हो जाता है। लेकिन इसके बरक्स अब तक भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के तहत पुरुष को कठघरे में खड़ा होना पड़ता है। एक सौ अट्ठावन साल पुराने इस कानून की विडंबना यह थी कि यह पूरी तरह स्त्री के पति पर निर्भर था कि वह इस मामले में क्या रुख अपनाता है। दरअसल, इसमें व्यवस्था यह थी कि अगर स्त्री पति की सहमति के बिना किसी पुरुष के साथ शारीरिक संबंध बनाती है और पति व्यभिचार कानून का सहारा लेता है तो उस पुरुष को पांच साल तक की कैद या जुर्माने की सजा हो सकती थी। जबकि स्त्री के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होती थी। यानी एक तरह से पत्नी की हैसियत पति की संपत्ति की तरह थी, जिसमें अगर उसकी सहमति हो तो उसमें व्यभिचार कानून के तहत किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होगी।

इस कानूनी स्थिति पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं कि यह संविधान के अनुच्छेद चौदह के तहत मिले समानता के अधिकार का उल्लंघन है। इस मसले पर गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने आइपीसी की धारा 497 को असंवैधानिक ठहराते हुए कहा कि कानून का कोई ऐसा प्रावधान, जो किसी व्यक्ति के सम्मान और महिलाओं की समानता को प्रभावित करता है, वह संविधान के लिए सही नहीं है; यह कानून महिला की गरिमा को ठेस पहुंचाता है। पितृसत्तात्मक ढांचे में जीने वाले समाज में जिस तरह स्त्री की देह पर पुरुषों का वर्चस्व एक व्यवस्था की तरह कायम था, उसे खत्म करके अदालत ने एक बेहद प्रगतिशील कदम उठाया है। यों भी, पवित्रता अगर एक शर्त है तो यह महिलाओं के साथ उनके पतियों पर भी समान रूप से लागू होनी चाहिए। हालांकि केंद्र सरकार इस दलील पर धारा 497 को बनाए रखने के पक्ष में थी कि इसे निरस्त करने से वैवाहिक संस्था नष्ट हो जाएगी। मगर सच यह है कि संबंध परस्पर विश्वास और जरूरतों के पूरे होने की बुनियाद पर टिके होते हैं। अगर इसमें कमी होती है तो संबंध यों भी बोझ हो जाते हैं।

शायद यही वजह है कि अदालत ने साफ शब्दों में कहा कि व्यभिचार तलाक का आधार हो सकता है, लेकिन इसे आपराधिक कृत्य नहीं ठहराया जा सकता है। इसके अलावा, व्यभिचार की वजह से अगर पति या पत्नी में से कोई भी आत्महत्या करता है, तो इसके सबूत होने पर खुदकुशी के लिए उकसावे का मुकदमा चल सकता है। समाज में स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर अलग-अलग मान्यताएं रही हैं और इसमें आमतौर पर महिलाओं का जीवन पुरुषों की इच्छा से संचालित होता रहा है। लेकिन मानवाधिकारों के लिहाज से देखें तो इसे गैरबराबरी पर आधारित संबंध कहा जा सकता है, जिसमें लगभग सभी सामाजिक तबकों में स्त्री के अधिकारों की उपेक्षा होती है। जहां तक सामाजिक ढांचे में पति और पत्नी के संबंधों का सवाल है, तो सुप्रीम कोर्ट ने भी इस वर्चस्व आधारित सोच और आग्रह पर सवाल उठाते हुए कहा है कि पति पत्नी का मालिक नहीं होता है।


Date:28-09-18

A Moral Journey

The removal of adultery from the statute books is another decisive step towards a modern constitutional morality.

Editorial

Equality before the law does not only signify equal access to the law, but also equal exposure to the law. This is one of the principles followed by the five-judge bench of the Supreme Court, which has struck down as unconstitutional Section 497 of the Indian Penal Code that had criminalised adultery for 158 years. Section 198(2) of the Code of Criminal Procedure is also struck down. In both cases, the court has found that the woman was robbed of agency and reduced to a chattel. Law which allows only men to have agency and the right to be aggrieved is unacceptable at a time when sexual relations are understood to be between equals.

Section 497 dates from the patriarchal era and criminalised men who knowingly had relations with the wife of another man, “without the consent or connivance of that man”. The woman was not punishable as an abettor, while her husband was automatically the wronged party. Section 198(2) clarified that only the woman’s husband can be the aggrieved party or, in his absence, “someone who had care of the woman”. One gender was granted ownership of the other, which was deemed to be too innocent to look after itself. At the time when these laws came into force, the same logic was used to justify the colonial project — “natives” could not possibly develop modernity except as wards of European power. Just as colonialism is morally repugnant by contemporary ethical standards, the law of adultery is insupportable.

Following the SC intervention, adultery is now a civil matter between individuals. But a criminal residue remains — Section 306 of the IPC will be invoked if a suicide results from adultery. This will hopefully be corrected in the future, now that the court has strongly repudiated the criminality of adultery. This reform is part of a process of change in constitutional morality, which has acquired an inexorable momentum. The striking down of Section 377, which had decriminalised gay sex, may be the most celebrated legal reform, but the trail goes back to 2015, when the Supreme Court found a long-term live-in relationship to be indistinguishable from marriage, even for inheritance. In recent times, the triple talaq ruling and the right to privacy have maintained the trend. It would not be unreasonable now to look forward to the criminalisation of marital rape, which is the next milestone on a road being rapidly travelled.


Date:28-09-18

Not a Crime

By decriminalising adultery, the Supreme Court strikes a blow for individual rights

EDITORIAL

The cleansing of the statute books of provisions that criminalise consensual relations among adults continues, with the Supreme Court finally striking down a colonial-era law that made adultery punishable with a jail term and a fine. In four separate but concurring opinions, a five-judge Bench headed by the Chief Justice of India, Dipak Misra, finally transported India into the company of countries that no longer consider adultery an offence, only a ground for divorce. They have removed provisions related to adultery in the Indian Penal Code and the Code of Criminal Procedure. According to Section 497 of the IPC, which now stands struck down, a man had the right to initiate criminal proceedings against his wife’s lover. In treating women as their husband’s property, as individuals bereft of agency, the law was blatantly gender-discriminatory; aptly, the Court also struck down Section 198(2) of the CrPC under which which the husband alone could complain against adultery. Till now, only an adulterous woman’s husband could prosecute her lover, though she could not be punished; an adulterous man’s wife had no such right. In a further comment on her lack of sexual freedom and her commodification under the 158-year-old law, her affair with another would not amount to adultery if it had the consent of her husband. “The history of Section 497 reveals that the law on adultery was for the benefit of the husband, for him to secure ownership over the sexuality of his wife,” Justice D.Y. Chandrachud wrote. “It was aimed at preventing the woman from exercising her sexual agency.”

But the challenge before the court was not to equalise the right to file a criminal complaint, by allowing a woman to act against her husband’s lover. It was, instead, to give the IPC and the CrPC a good dusting, to rid it of Victorian-era morality. It is only in a progressive legal landscape that individual rights flourish — and with the decriminalisation of adultery India has taken another step towards rights-based social relations, instead of a state-imposed moral order. That the decriminalisation of adultery comes soon after the Supreme Court judgment that read down Section 377 of the IPC to decriminalise homosexuality, thereby enabling diverse gender identities to be unafraid of the law, is heartening. However, it is a matter of concern that refreshing the statute books is being left to the judiciary, without any proactive role of Parliament in amending regressive laws. The shocking message here is not merely that provisions such as Section 497 or 377 remained so long in the IPC, it is also that Parliament failed in its legislative responsibility to address them.