News Clipping on 12-08-2018

Date:12-08-18

आर्थिक आरक्षण के विरुद्ध

हरिमोहन मिश्र

आजकल आर्थिक आधार पर आरक्षण को लेकर चर्चाए गरम हैं। सरकार भी आरक्षण को लेकर नई उठती मांगों को शांत करने के लिए शायद कुछ ऐसी ही पेशबंदी करती नजर आ रही है। यह बहस कुछ ऐसे आक्रामक ढंग से उठाई जा रही है कि आरक्षण की व्यवस्था के कुछ समर्थकों की भी दलीलें कमजोर पड़ती दिख रही हैं या वे कुछ रक्षात्मक मुद्रा में नजर आने लगे हैं। लेकिन कई स्वाभाविक सवाल भी खड़े होते हैं। मसलन, आर्थिक आधार पर आरक्षण से कितनी बड़ी आबादी को राहत दी जा सकेगी? आर्थिक पिछड़ेपन को अगर अवसरों की कमी के आधार पर परिभाषित किया जाए तो सरकारी क्षेत्र की नौकरियों के लगातार सिकुड़ते जाने और निजी क्षेत्र में अवसरों के उस पैमाने पर इजाफे न होने के कारण महज आर्थिक आरक्षण से कोई बड़ा लक्ष्य तो नहीं हासिल किया जा सकता।

जाहिर है, आरक्षण रोजगार के संकट का कोई इलाज नहीं है। तो, फिर इसके क्या मायने हैं? इसमें दो राय नहीं कि आर्थिक स्थितियां कुछ ऐसी बदली हैं कि हमारी आबादी का ज्यादातर हिस्सा अवसरों से वंचित महसूस करने लगा है। खासकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लगातार टूटते जाने से उन जातियों और समुदायों में भी बेचैनी बढ़ रही है, जो अपने-अपने क्षेत्रों में खास दबदबा रखती थीं। शायद एक बड़ी वजह यह भी है कि अरसे से आरक्षण की दरकार महसूस न करने वाली जातियां भी अब इसकी मांग करने लगी हैं और आंदोलनरत हैं। ये जातियां अपने-अपने इलाकों में रसूख रखती हैं, इसलिए खासकर मुख्यधारा की बड़ी पार्टियां उनकी अनदेखी करने का जोखिम नहीं उठा सकतीं। यही वजह है कि आरक्षण को सामाजिक न्याय का औजार मानने वाली पार्टयिों और लोगों में भी एक तरह की दुविधा देखी जा सकती है। इसी दुविधा का एक नतीजा यह भी है कि बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की दलीलों से एक हद तक सहमत होती दिख रही हैं। लेकिन सवाल यह है कि आरक्षण का वह उद्देश्य आजादी के सात दशकों में क्या पूरा हो चुका है या होने के करीब है, जो सामाजिक न्याय के नजरिए से सोचा गया था।

यह देखना इसलिए जरूरी है कि घटते अवसरों के दौर में इसका दंश बेशक समाज के निचले पायदान पर? स्थित लोगों को सबसे ज्यादा महसूस हो रहा होगा। इसका एक रूप तो किसानों और खेतिहर मजदूरों की लगातार आत्महत्या की घटनाओं में भी दिख रहा है। पिछले कुछ साल में खेतिहर मजदूरों के आत्महत्या करने की घटनाएं भी सामने आई हैं, जो पहले कम सुनने को मिलती थीं।इसमें दो राय नहीं कि घटते अवसरों का रिश्ता पिछली सदी में नब्बे के दशक से ज्यादा है, जब आर्थिक उदारीकरण के बाद कृषि और छोटे तथा स्थानीय उद्योग-धंधों के बदले बड़ी पूंजी के बड़े उद्योगों और निजीकरण को प्रश्रय का दौर तेज हुआ। नतीजतन शहरी सेवा क्षेत्र में तो कुछ अवसर पैदा हुए, जिन पर मध्यवर्गीय और पहले से अच्छी हालत वाले समुदायों को तो लाभ पहुंचा, लेकिन बड़ी आबादी के लिए अवसर सिकुड़ते गए। कृषि और उससे जुड़े छोटे उद्योग-धंधों के क्षेत्र में भी बड़ी कंपनियों के प्रवेश से ढेरों लोगों के आगे रोजगार का संकट खड़ा हो गया। मसलन, हर मोहल्ले-इलाके में आटा चक्कियों और स्थानीय कोल्हू लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मुहैया कराते होंगे। लेकिन इन क्षेत्रों में बड़ी कंपनियों के उतर आने से एक तो उसका

कुछ खास क्षेत्रों में केंद्रीकरण हुआ। दूसरे, ऑटोमेशन पर जोर बढ़ने से कम लोगों की दरकार होने लगी। आप याद करेंगे तो पाएंगे कि पहले जितने धंधे स्थानीय स्तर पर चला करते थे, आज कहीं दिखते नहीं हैं। इससे यह बड़े पैमाने पर हुआ है कि जो लोग खास तरह के हुनर से अपना जीवनयापन करते थे, वे अब बेहुनर हो गए हैं। यह कितने बड़े पैमाने पर हुआ है, इस पर अभी तक कोई खास अध्ययन नहीं हुआ है। लेकिन कुछ साल पहले आए सामाजिक-आर्थिक जनगणना से एक अंदाजा मिलता है। उसके आंकड़े बताते हैं कि पांच हजार रु पये महीना आमदनी वाले परिवारों की संख्या एक-चौथाई भी नहीं है और यह भी तब है जब उस परिवार का कोई कृषि से इतर क्षेत्र में नौकरी पर है। 2014 में एनडीए सरकार आई तो मनरेगा के प्रति उसने भारी उपेक्षा दिखाई और प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहकर उसकी खिल्ली तक उड़ाई थी कि हम इसे इसलिए जारी रखेंगे क्योंकि यह कांग्रेस के सत्तर साल के कुशासन का जीता-जागता सबूत है।

लेकिन 2017 और 2018 के बजटों में इस मद में बजटीय प्रावधान काफी बढ़ाना पड़ा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आधी-अधूरी, और कई बार महीनों तक न मिलने वाली, पगार के लिए भी लोग मजबूर होते जा रहे हैं। यानी रोजगार और अवसरों का संकट लगातार बढ़ता जा रहा है।इसलिए इन संकटों का रिश्ता विकास की उस धारा से ज्यादा है, जो उदारीकरण के बाद शुरू हुई है। उदारीकरण के साथ ही नब्बे के दशक में दो और बड़ी घटनाएं हुई, जिनका हमारी सामाजिक ताने-बाने पर खासा असर हुआ। एक ओर मंडल आयोग की रपट लागू हुई और उसके साथ ही दलित अस्मिता की भावना भी जोर पकड़ी। लिहाजा, बसपा जैसी पार्टयिों का उदय हुआ। दूसरी ओर उसी दौर में आरक्षण विरोधी सक्रियताएं बढ़ीं और कुछ खास वगरे से यह दलील भी उभरी कि योग्यता को तरजीह दिया जाना चाहिए, न कि आरक्षण को। बेशक वही दौर था जब राम जन्मभूमि आंदोलन भी उभरा। मंडल और दलित अस्मिता के उभार से राजनैतिक मानचित्र में पिछड़े और दलित नेताओं का दबदबा बढ़ा। सामाजिक न्याय के लिहाज से यह अहम मुकाम था, लेकिन खासकर उत्तर भारत में पिछड़े और दलित नेताओं ने इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के बदले अपने और अपने परिवार की प्रगति में मशगूल होना बेहतर समझा।

और लगभग सभी ने उदारीकरण से प्रशस्त धारा को सहर्ष स्वीकार कर लिया, जबकि वे देख रहे थे कि इससे ज्यादा से ज्यादा लोग तेजी से बेहुनर होते जा रहे हैं। इसी प्रक्रिया ने आर्थिक आधार पर आरक्षण की दलील को आगे बढ़ाने का काम किया। लेकिन आरक्षण की वह प्रतिश्रुति तो अभी भी अधूरी है, जिसके जरिए संविधान में सदियों से उत्पीड़ित और वंचित समुदायों को सत्ता-तंत्र में हिस्सेदारी देकर सामाजिक ताने-बाने में बदलाव की उम्मीद की गई थी। उसका मूल लक्ष्य तो जाति की जकड़बंदी और ऊंच-नीच की व्यवस्था को तोड़ना था। असल में आरक्षण गरीबी या आर्थिक अवसर उपलब्ध कराने की व्यवस्था नहीं है। यह सकारात्मक भेदभाव की अवधारणा से निकली है, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में पिछड़ों और दलित जातियों को समान सामाजिक हैसियत दिलाने और उनके प्रति भेदभाव दूर करने का औजार माना जाता है। आर्थिक आधार पर वर्गीकरण करने वाले मार्क्‍सवाद में इसीलिए यह अवधारणा नहीं है। इसी वजह से हमारी कम्युनिस्ट पार्टयिां पहले इस पर जोर नहीं दिया करती थीं। कई लोग इसे ही वामपंथी पार्टियों के सिकुड़ते जाने की बड़ी वजह मानते हैं। इसके विपरीत, समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने आरक्षण को जाति तोड़ो की अवधारणा के साथ पेश किया।

उस समय संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का नारा हुआ करता था, ‘‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावें सौ में साठ।’ गांधी और अम्बेडकर ने भी इसे जाति तोड़ो के लक्ष्य को साधने के लिए ही आगे बढ़ाया था। वैसे इन सभी विचारधाराओं के लोगों में गहरा भटकाव दिखा है। जहां तक भाजपा और संघ परिवार की बात है तो वह सोशल इंजिनियरिंग में यकीन करती रही है, सामाजिक न्याय उनके यहां उतनी बड़ी प्रतिश्रुति नहीं है। इसलिए आर्थिक आधार पर आरक्षण में उन्हें कुछ गलत नहीं लग सकता है। लेकिन यह तो आरक्षण की मूल अवधारणा से ही दूर हो जाने जैसा होगा। लोगों को अवसर और शिक्षा मुहैया करानी है तो उसकी व्यवस्था अलग होगी, आरक्षण तो कतई नहीं। इसलिए इस छलावे को लोगों को समझ लेना चाहिए। संभव है, यह इसलिए भी आगे बढ़ाया जा रहा हो कि मौजूदा कारपोरेटीकरण की धारा अपनी कमियों से ध्यान भटकाने के लिए इस पर जोर दे रही हो।


Date:12-08-18

पहले अराजकता, अब आत्मनिर्भरता

संपादकीय

जब मैं पच्चीस साल से नीचे के नौजवानों से बात करता हूं, तो पाया है कि उनका ध्यान खींचने और उन्हें किस्से बताने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि उन्हें पुराने अच्छे दिनों की ऐसी बातें, जैसे- ट्रंक कॉल बुक कराने, स्कूटर खरीदने आदि के बारे में बताया जाए। इससे ये लोग इन नतीजों पर पहुंचेंगे-

  • कि मैं कहानियां या किस्से गढ़ रहा था।
  • कि मुझे तकनीकी की चुनौती मिली है।
  • कि मैं उनके दादा जो कि दस साल पहले मर चुके हैं, उनसे भी बड़ा हूं।

सत्य यह है कि इन किस्से-कहानियों का हर शब्द वाकई सच था। भारत की पैंसठ फीसद आबादी (जो कि पैंतीस साल से नीचे की है) को यह नहीं पता है कि हम लोग एक ऐसे देश में रहते थे जिसमें शासन के आर्थिक सिद्धांतों में राज्य का नियंत्रण, सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुखता, लाइसेंस व्यवस्था, आत्मनिर्भरता, करों की ऊंची दरें, और (कृषि के अपवाद को छोड़ कर) निजी क्षेत्र को लेकर संदेह जैसी बातें थीं।

आत्मनिर्भरता का शासन

ऐसा नहीं कि हमारे नेता और नीति निर्माता मूर्ख या पागल थे। हमारे कई नेता उच्च शिक्षित थे, निसंदेह होशियार थे, और निस्वार्थ व सादा जीवन जीया। हमारे प्रशासकों का निर्माण उन नौजवान पुरुषों और महिलाओं से हुआ, जिन्होंने विश्वविद्यालयों में शिक्षा हासिल की थी और नौकरी की सुरक्षा के अलावा उनके मन में समाज का एक बेहतर और उपयोगी नागरिक बनने की जायज इच्छा थी। फिर भी, आजादी के बाद करीब तीस साल तक जो तरक्की हुई, उसकी रफ्तार दुखदायी रूप से जीडीपी बढ़ने के मुकाबले बहुत ही धीमी रही, औसतन करीब साढ़े तीन फीसद और प्रति व्यक्ति आय 1.3 फीसद रही।

इस तरह के आर्थिक शासन का नाम है- ऑटार्की (इसका अर्थ है अर्थ तंत्र में आत्मनिर्भरता)। चीन ने 1978 में, और भारत ने 1991 में इससे पीछा छुड़ा लिया था। यह आत्मनिर्भरता न तो कभी मरेगी, और न ही इसे छह फुट गहराई में दफन किया जा सकेगा। समय-समय पर पीछे मुड़ कर देखने का इसका अपना तरीका है, जो कि अब भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में होता नजर आ रहा है। बाजार-समर्थक और कारोबार-समर्थक होने के बीच बहुत बड़ा फर्क है। अपनी स्थापना के समय से ही आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) आर्थिक राष्ट्रवाद, स्वदेशी और स्वावलंबन का प्रबल पक्षधर रहा है। इसकी ट्रेड यूनियन- भारतीय मजदूर संघ विदेशी निवेश का विरोध करती है। इसका एक प्रमुख संगठन- स्वदेशी जागरण मंच बिना किसी संकोच के आत्मनिर्भरता वाली नीतियों के पक्ष में खड़ा है।

अतीत पर नजर

हाल के महीनों में, इस बात के प्रमाण देखने को मिल रहे हैं कि जिन उपायों को बहुत पहले ही खारिज कर दिया गया था, भाजपा अब उन्हें प्रबल-राष्ट्रवाद की दुहाई देते हुए फिर से जीवित करने में लगी है। इसके कुछ उदाहरणों पर हम नजर डालते हैं-

  • ‘बाजार’ का अस्तित्व राज्य निरपेक्ष है। बाजार आर्थिक सामर्थ्य और आजादी को बढ़ाते हैं। बाजार को बहुत ही संजीदगी के साथ नियंत्रित करना चाहिए और राज्य को कुछ ही मामलों में इसमें दखल देना चाहिए। उन देशों तक ने, जिन्होंने सामाजिक लोकतंत्र को गले लगाया है, यह पाया है कि बाजार अर्थव्यवस्था उनके आर्थिक दर्शन के अनुरूप है। ऐसे देशों में स्कैंडीनेवियाई देश हैं। बाजार अर्थव्यवस्था के मामले में भाजपा की स्थिति संदिग्ध है। जब वह कारोबार समर्थक होने का दावा कर रही होती है, तो उसने आयात विकल्प, दर और गैर-दर बाधाओं, मात्रात्मक प्रतिबंध, मूल्य नियंत्रण, और लाइसेंस व परमिट में फिर से अच्छाइयां ढूंढ़ निकाली हैं। आज आर्थिकी पर नियंत्रण के और नए-नए तरीके थोप दिए गए हैं। हर फैसले के पीछे ‘हित समूह’ की लॉबिंग देखी जा सकती है, जो आमतौर पर किसी उद्योग घराने के लिए होती है।
  • दूसरे विश्व युद्ध के बाद से वैश्विक वृद्धि में व्यापार ने अप्रत्याशित भूमिका निभाई है। करोड़ों लोग गरीबी के दायरे से बाहर आए हैं। छोटे देशों, जो एकदम अक्षम माने जा रहे थे, ने खूब तरक्की की और अपने को उच्च-आय वाले देशों की कतार में शामिल किया (जैसे- सिंगापुर, ताइवान)। ऐसे देशों को उनमुक्त व्यापार की ओर ले जाने वाला जो सबसे बड़ा उपाय था, वह द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार समझौते थे और 1995 से विश्व व्यापार संगठन (डबल्यूटीओ) बना हुआ है।भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार व्यापार समझौतों की उपयोगिता में भरोसा करती नहीं दिखती। डब्ल्यूटीओ में भारत की अब कोई ताकत नहीं रह गई है। इसका सबसे ताजा उदाहरण प्रस्तावित क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी की उपयोगिता की समीक्षा के लिए बनाई गई समिति है जो देशों को उनके बीच व्यापार बढ़ाने के लिए एकजुट करेगी

भारी कीमत चुकानी होगी

  • भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने पिछली तारीखों से प्रभावी करों को थोपने की अपनी सनक से पीछे हटने से इनकार कर दिया है। पहली बात यह तो कि यह 2014 में ही हो जाना चाहिए था, जब आयकर कानून में तथाकथित वोडाफोन संशोधन को रद कर दिया गया था। इसके उलट, वोडाफोन पर न सिर्फ कर-मांग के लिए दबाब बनाया जाता रहा, बल्कि दूसरे लेनदेनों के लिए भी पहले से चले आ रहे बकाए का दबाव बना दिया गया। इसके अलावा सरकार तकरीबन हर महीने ही कर दरों को लेकर कुछ न कुछ संशोधन करती रही है, उदाहरण के लिए सीमा शुल्कों और जीएसटी को लेकर (अपने मूल पापों को मिटा देने के लिए)।
  • अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कदमों के बाद नरेंद्र मोदी ने संरक्षणवादी नीतियों को समर्थन देने के संकेत दिए हैं। संरक्षणवाद से उपभोक्ताओं को भारी नुकसान होगा, मांग में कमी आएगी और इससे संसाधनों का गलत आवंटन होगा और निवेश संबंधी फैसले गलत होंगे। मैं यह जानकर हैरान हूं कि आयात घटाने के तरीके खोजने लिए कार्यबल का गठन किया गया है। गड़बड़ाई आर्थिक सोच का ताजा उदाहरण ई-कॉमर्स पर तैयार किया मसौदा-नियम है। रियायत संबंधी नियमों से ससंरक्षणवादी सोच की झलक साफ मिलती है।
  • आत्मनिर्भरता को सिर्फ नौकरशाही, खासतौर से कर अधिकारियों और जांच एजेंसियों का सशक्तीकरण करके ही खत्म किया जा सकता है। भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने सिर्फ यह किया है कि और ज्यादा अफसरों को असीमित शक्तियां (जैसे- जांच, जब्ती, गिरफ्तारी के अधिकार) दे दी हैं और कानूनों का अपराधीकरण कर दिया है। उदाहरण के लिए, विदेशी मुद्रा प्रबंधन कानून गैर-आपराधिक कानून था, अब इसमें आपराधिक कानून का प्रावधान है।

नीति-निर्माण में अराजकता रही। नोटबंदी और जीएसटी लागू करने का तरीका इसके उदाहरण हैं। अब, आत्मनिर्भरता अराजकता में बदल चुकी है। मुझे डर है कि देश को कहीं इसकी भारी कीमत न चुकानी पड़ जाए।