News Clipping on 08-08-2018

Date:08-08-18

महिला अपराधों में बिहार को टक्कर देता उत्तर प्रदेश

संपादकीय

बिहार के मुजफ्फरपुर से सटे उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के नारी संरक्षण गृह में भी उसी तरह का सेक्स रैकेट पकड़े जाने से यह लगने लगा है कि दोनों प्रदेशों में सत्ता और एनजीओ का गठजोड़ समाज सेवा के नाम पर एक ही तरह के घृणित अपराधों में लिप्त है। देवरिया में पुलिस की कार्रवाई में पता चला है कि रजिस्टर में दर्ज 42 अंतःवासियों में से 18 अभी भी गायब हैं। संबंधित एनजीओ की मान्यता तो क्रेच में अनियमितता के कारण एक साल पहले रद्‌द हो गई थी और इस बार जब जिला परिवीक्षा अधिकारी जांच करने गए तो उनसे झड़पों के बाद यह रहस्योद्‌घाटन हुआ कि वहां तो सेक्स का रैकेट चल रहा है।

देवरिया मुजफ्फरपुर जैसा बड़ा शहर नहीं है और वहां किसी ऐसे रैकेट को लंबे समय तक छुपा पाना कठिन होगा। पौराणिक देवारण्य नाम वाले इस जनपद का हिस्सा कभी भगवान बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली कुशीनगर(अब जिला) भी रही है। गन्ना उत्पादन और चीनी मिलों से मिलने वाली समृद्धि पर टिके इस जनपद की साक्षरता दर राज्य की 70 प्रतिशत के विपरीत 74 प्रतिशत के राष्ट्रीय स्तर के करीब है। यहां स्त्री-पुरुष का लैंगिक अनुपात भी 1000 पुरुषों के मुकाबले 1013 है। इसके बावजूद अगर समाजवादी और साम्यवादी आंदोलन के गढ़ और चोटी के विद्वत जनों की जन्मस्थली रहे देवरिया में इतने जघन्य अपराध हो रहे हैं तो इसमें प्रदेश की नई सरकार के योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता।

उत्तर प्रदेश में पिछले एक साल में महिलाओं पर होने वाले अपराधों में 24 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। वहां आठ महिलाओं से प्रतिदिन दुष्कर्म होता है और 30 महिलाएं रोज अगवा होती हैं। योगी सरकार ने इस मामले में अभियुक्तों की गिरफ्तारी और जिलाधिकारी की बर्खास्तगी जैसी कार्रवाई तो तुरंत की है लेकिन,यहां बसपा नेता मायावती की वह टिप्पणी मौजूं लगती है कि मौजूदा सरकार को चला रही पार्टी के लोग अपने को कानून से ऊपर मानते हैं। दूसरी तरफ स्वयं सेवी संगठनों का कारोबार मानवाधिकारों और समाज सेवा के बजाय धन और सत्ता कमाने और कालेधन को सफेद करने का एक बहाना भी बनता चला गया है। इसलिए यह धंधा अफसरों और राजनेताओं के संरक्षण में फलता-फूलता है। वे समाज की बुराई मिटाने की बजाय स्वयं ही बुराई के केंद्र बनते चले जा रहे हैं। ऐसे में सरकारी चौकसी के साथ समाज को भी जागरूक बनाना ही होगा।


Date:08-08-18

समझ और संवेदनशीलता

संपादकीय

असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) का अंतिम मसौदा तैयार होने के पहले जो विवादास्पद कवायद हुई उसे कहीं और ही समर्थन मिलता दिख रहा है। गत सप्ताह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की पश्चिम बंगाल इकाई ने वहां भी ऐसी ही कवायद दोहराए जाने की मांग की। इतना ही नहीं त्रिपुरा के सत्ताधारी गठबंधन के सदस्य इंडीजीनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) ने त्रिपुरा में, जनता दल (यूनाइटेड) ने नगालैंड में और कुछ सामाजिक कार्यकर्ता समूहों ने मेघालय और मिजोरम में यह प्रक्रिया दोहराने की मांग की है। क्या सरकार को इन मांगों पर विचार करना चाहिए? असम में इस प्रक्रिया की खामियों की बात सामने आई है। अपने नागरिकों का निर्धारण करना निरपवाद रूप से किसी सरकार की जवाबदेही है। खासतौर पर तब जबकि नागरिकता के साथ करदाताओं के पैसे से लोगों को कल्याणकारी लाभ मिलते हों।

असम में एनआरसी की प्रक्रिया को सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में अंजाम देने पर जोर दिए जाने के बावजूद हकीकत यह है कि यह एक बांटने वाले राजनीतिक समझौते की देन है। यह समझौता सन 1985 में तत्कालीन केंद्र सरकार और असम आंदोलन के नेताओं के बीच हुआ था। ये नेता अवैध अप्रवासियों को चिह्नित कर उनके देश वापस भेजने की मांग कर रहे थे। ये तथाकथित अवैध प्रवासी मुख्यतौर पर बांग्लादेशी मुस्लिम थे। उनमें से कुछ आजादी के पहले की कई पीढिय़ों से असम में रहते और काम करते थे। जबकि अन्य सन 1971 की जंग के बाद भारत में शरण लेने आए थे। यह प्रक्रिया अनिवार्य तौर पर विदेशी लोगों के प्रति घृणा की वजह बनेगी। यह मात्र संयोग नहीं है कि असम में एनआरसी के मसौदे से मुस्लिम बाहर हैं। हालांकि कुछ हिंदुओं के साथ भी ऐसा ही हुआ है।

मौजूदा समय में धर्म, जातीयता और नागरिकता को लेकर जो सार्वजनिक बहस चल रही है उसमें देशव्यापी एनआरसी प्रक्रिया की कल्पना करना कठिन है। अगर उसे अपनाया गया तो कई तरह के विवाद उत्पन्न होने तय हैं। खासतौर पर सीमावर्ती राज्यों में जहां नेपाली और बर्मी मूल के लोग आबादी का हिस्सा हैं। बंगाल और उत्तर प्रदेश ऐसे ही राज्य हैं जहां बहुत बड़ी तादाद में मुस्लिम रहते हैं।

असम में अपनाई गई प्रक्रिया यह भी बताती है कि सार्वजनिक रिकॉर्ड कितने कमजोर हैं। आधार ने काफी हद तक समस्या को हल किया है लेकिन वह अनिवार्य तौर पर नागरिकता का निर्धारण नहीं करता। असम की एनआरसी प्रक्रिया विरासती दस्तावेजों पर केंद्रित रही। तथ्य यह है कि ऐसे कई भारतीय नागरिक भी होंगे जो तत्काल ये दस्तावेज प्रस्तुत नहीं कर पाएंगे। आज भी एक खास आयुवर्ग के कई भारतीयों के पास जन्म प्रमाण पत्र नहीं मिलेंगे। सन 1990 में अनिवार्य किए जाने के पहले उनकी जरूरत भी शायद ही पड़ती थी। कई भारतीयों को सरकारी अधिकारियों की लापरवाही का भी शिकार होना पड़ा होगा क्योंकि विभिन्न दस्तावेजों में उनके

नामों के हिज्जे, उम्र और लिंग आदि गलत लिखे हो सकते हैं। अशिक्षित और अल्पशिक्षित लोगों के साथ यह दिक्कत ज्यादा है। असम में कई परिवारों के सदस्य इसी वजह से अंतिम मसौदे से बाहर हैं। देश के नागरिकता कानूनों में भी सुधार की आवश्यकता है। समय के साथ वे काफी जटिल और समय खपाऊ हो चुके हैं। कई बार नागरिकता लेने में एक दशक तक का वक्त लग सकता है। भारतीय राज्य के मानवता के सिद्घांत के मद्देनजर एक अहम बदलाव की आवश्यकता है। किसी के माता-पिता की राष्ट्रीयता चाहे कुछ भी हो अगर कोई बच्चा भारत में पैदा हुआ है, उसने अपना पूरा जीवन यहां बिताया हो तो उसे भारत की नागरिकता क्यों नहीं मिलनी चाहिए? संक्षेप में सरकारों को नागरिकता के मसले से समझदारी और संवेदनशीलता से निपटना होगा।


Date:08-08-18

पढ़ाई के बोझ ने स्कूल के काम के सापेक्ष खेल को कम महत्व दिया है

ऋषभ कुमार मिश्र,( लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं)

पिछले कुछ दिनों से ऐसे बच्चों का अवलोकन कर रहा था जिन्होंने इसी वर्ष स्कूल जाना शुरू किया है। इस अवलोकन ने यह समझने में मदद की कि स्कूल की संस्थागत मौजूदगी बच्चे की रोजमर्रा की जिंदगी में क्या बदलाव लाती है? अक्सर बच्चे के जीवन में स्कूल के प्रभाव की चर्चा स्कूल में प्रवेश के साथ आरंभ करते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि इस कहानी के सूत्र को थोड़ा पहले से पकड़ने की जरूरत है। आजकल स्कूल में प्रवेश लेने से पहले ही बच्चे स्कूल से परिचित हो चुके थे।

स्कूल से इनका परिचय अभिभावक सहित अन्य वयस्क दो तरीकों से कराते हैं। पहला, वे स्कूल में प्रवेश के पूर्व ही साक्षरता-अक्षर ज्ञान और गणित का अभ्यास कराने लगते हैं। दूसरा, वे स्कूलों के प्रतीकों जैसे- बैग, ड्रेस, टिफिन आदि से बच्चे के मन में स्कूल की छवि उकेरने लगते हैं। जैसे ही बच्चे हाव-भाव या शब्दों के सहारे संवाद आरंभ करते हैं वैसे ही अभिभावक अक्षर और गिनती के उच्चारण और इसे दोहराने के द्वारा पढ़ाई-लिखाई से परिचित कराने लगते हैं। इसके अलावा अभिभावकों का जोर होता है कि उनके बच्चे रोजमर्रा के उपयोग की वस्तुओं का अंग्रेजी शब्द-ज्ञान कर लें। दो या तीन वर्ष के छोटे बच्चे के साथ इन अभ्यासों को करना बच्चे को शैक्षिक सफलता के लिए अभिभावकों का होमवर्क मान सकते हैं।

यह ‘होमवर्क’ इस मान्यता से संचालित है कि सीखने की सामग्री साक्षरता है और इसे ज्यादा मात्रा में सीखने के लिए, सीखने का समय अधिक होना चाहिए। सीखी हुई सामग्री को दोहराने की आवृत्ति अधिक होनी चाहिए। सीखने की प्रतियोगिता में आगे रहने के लिए अतिरिक्त तैयारी करना अभिभावक की जिम्मेदारी है। क्या हमने कभी सोचा है कि साक्षरता के इन माध्यमों के अलावा प्रकृति और परिवेश में बहुत कुछ है जिसके प्रति बच्चे को संवेदनशील किया जा सकता है? मसलन फूलों के अलग-अलग प्रकार, चिड़िया की आवाजें, घर और आसपास के कीट पतंगें। ऐसा करके बच्चे को कुदरत के निकट ले जाया जा सकता था। उसे परिवेश की संज्ञाओं के ज्ञान के बदले उनकी विशेषताओं को पहचानने और महसूस करने का अवसर दिया जा सकता था। साक्षरता से जोड़ने का उतावलापन बच्चे की दुनिया को सीमित कर देता है। इस सीमित दुनिया में अभिभावक बच्चों के परिवेश में स्कूल से जुड़े प्रतीकों को स्थापित कर देते हैं।

ऐसे ही कुछ प्रतीक स्कूल का बैग, लंच बॉक्स, ड्राइंग बुक, कलर, ड्रेस आदि हैं। इन प्रतीकों के माध्यम से बच्चा स्कूल से खुद को जोड़ता है। उदाहरण के लिए बच्चे के दूसरे या तीसरे जन्मदिन तक किसी न किसी के द्वारा उपहार में एक बस्ता मिल जाता है। इस बस्ते के तरह-तरह के उपयोग हो सकते हैं। अधिकतर अभिभावक बस्ते के उसी उपयोग से बच्चे को परिचित कराते हैं जिस उद्देश्य से वह दिया गया है कि यह कॉपी-किताब रखने वाला झोला ही है। जिस बच्चे ने अभी-अभी चलना ही सीखा है वह बस्ता लेकर स्कूल जाने की नकल उतारने लगता है। अभिभावक इसे शुभ संकेत मानते हैं और निष्कर्ष निकालते हैं कि उनके बच्चे में पढ़ाई को लेकर सकारात्मक अभिवृत्ति है। इन तैयारियों के साथ बच्चे का प्री-स्कूल में प्रवेश करा दिया जाता है। एक-दो दिन बच्चा स्कूल के अपरिचित माहौल में जूझता है। अंतत: वह स्कूल को अपनाने लगता है।

स्कूल को अपनाने के साथ बच्चे की दिनचर्या और व्यवहार में नए लक्षण प्रकट होने लगते हैं। बच्चे की दिनचर्या की सबसे बड़ी विशेषता समय के कठोर विभाजन का अभाव होती है। स्कूल आने-जाने का चक्र शुरू होते ही बच्चे की आजादी समय के पालन की बाध्यता बन जाती है। बच्चे को निर्धारित समय पर उठना, तैयार होना, विद्यालय जाना, विद्यालय से आना, खेलना, कार्यों को पूरा करना आदि सीखना पड़ता है। उसे यह बोध हो जाता है कि घर और स्कूल में अलग-अलग कार्यों को करने का समय अलग-अलग और निर्धारित होता है। वह यह भी जानने लगता है कि कौन सा कार्य अधिक महत्वपूर्ण और कौन सा कम महत्वपूर्ण है? यह बोध काम और खेल में भेद करना सिखा देता है। बच्चे को लगातार बताया जाता है कि स्कूल के काम के सापेक्ष खेल एक कम महत्वपूर्ण गतिविधि है, क्योंकि खेल न तो ‘क्लासवर्क’ का हिस्सा होता है और न ही ‘होमवर्क’ का। वह तो बस मनोरंजन मात्र है। खेल के बदले स्कूल के कामों को प्राथमिकता देने को ‘अच्छे’ बच्चे के साथ जोड़ दिया जाता है।

समझ में नहीं आता हम लोग खेल के प्रति ऐसी दृष्टि क्यों रखते हैं? जिन बच्चों के अवलोकन को मैंने अपने अध्ययन का आधार बनाया उनके खेल में समस्या समाधान, जोड़-तोड़ और सूझ आदि को देखा गया। फर्क इतना होता है कि इस खेल के नियंता बच्चे स्वयं होते हैं। खेल के दौरान बच्चे आसपास की वस्तुओं से खिलौनों का आविष्कार करते हैं। इन वस्तुओं को एक भिन्न अर्थ देते हैं। दोस्तों के साथ नियम बनाए जाते हैं। एक दूसरे को स्वीकार करना सीखते हैं। वे उपलब्ध संसाधनों से समस्याओं का समाधान करते हैं। जबकि स्कूल काम की जिस अवधारणा को बच्चे को सिखाता है वह अक्सर वयस्कों के द्वारा परिभाषित कार्य होता है जिसके करने के ढंग के प्रति उसे सजग रहना होता है। शिक्षकों की अपेक्षाओं और निर्देश के अनुसार किसी कार्य को करना होता है। उसका प्रदर्शन उसके अच्छे या बुरे होने को निर्धारित करता है। इसीलिए छोटे बच्चों की नोटबुक पर ‘स्टार’ और ‘गुड’ जैसे विशेषण होते हैं।

बच्चों के संज्ञानात्मक विकास के जिन सिद्धांतों को शिक्षण का आधार माना जाता है वे भी सीखने में बाह्य नियंत्रण का समर्थन नहीं करते हैं। न ही ये सिद्धांत स्कूल के द्वारा संज्ञानात्मक विकास में किसी तीव्र बदलाव की पैरवी करते हैं। इन्हीं आधारों पर बाल केंद्रित शिक्षा के लिए ‘खेल’ को शिक्षा का माध्यम बनाने की बात की जाती है। इस सुझाव के विपरीत स्कूल उन नियमों और तौर-तरीकों को स्थापित कर रहे हैं जहां खेल, स्कूल यानी पढ़ाई के काम के बराबर महत्वपूर्ण नहीं है। इसके पीछे खेल को असंरचित और लक्ष्यहीन मानने की धारणा है। यह धारणा एक सामाजिक उत्पाद है जिसमें यह विश्वास है कि मानसिक श्रम, शारीरिक श्रम से श्रेष्ठ है और यह डर है कि खेल को अधिक महत्व देने से बच्चा ‘व्हाइट कॉलर जॉब’ के रास्ते पर बढ़ने से भटक जाएगा। इस धारणा को बदलने से ही समाज में सार्थक रूप से परिवर्तन लाना संभव हो सकेगा।

Date:08-08-18

माओवादियों पर शिकंजा

संपादकीय

छत्तीसगढ़ में एक बड़ी कार्रवाई में पंद्रह माओवादियों का मारा जाना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि पिछले कुछ महीनों में माओवादियों के खिलाफ जो अभियान छेड़ा गया है, उसके ठोस नतीजे सामने आ रहे हैं। राज्य सरकार ने साफ संदेश दिया है कि माओवादी अगर हथियार नहीं डालते और मुख्यधारा में शामिल नहीं होते हैं तो उनके खिलाफ कार्रवाई जारी रहेगी। प्रदेश के मुख्यमंत्री समय-समय पर माओवादियों से आत्मसमर्पण कर मुख्यधारा में शामिल होने की अपील करते रहे हैं। दो दिन पहले भी ऐसी अपील की गई थी। छत्तीसगढ़ लंबे समय से माओवादी गतिविधियों से ग्रस्त है और इसके खिलाफ व्यापक अभियान भी चलाए जाते रहे हैं। प्रदेश का बड़ा हिस्सा आदिवासी बहुल है, जो विकास की बाट जोह रहा है। इसलिए इन इलाकों को माओवादियों के चंगुल से मुक्त कराना सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। माओवादियों के विरुद्ध राज्य में पंद्रह जून से ऑपरेशन मानसून शुरू किया गया था। सोमवार को सुकमा जिले के घने जंगलों में की गई यह कार्रवाई इसी अभियान का हिस्सा थी। इसमें विशेष कार्य बल और डीआरडी (डिस्ट्रिक्ट रिजर्व फोर्स) के दो सौ जवानों को लगाया गया था। इसे बड़ी कामयाबी इसलिए भी माना जा रहा है कि लंबे समय बाद पहली बार जवानों ने दुर्गम पहाड़ों और घने जंगलों में घुस कर ऐसी कार्रवाई को अंजाम दिया और पांच लाख के ईनामी माओवादी को भी ढेर कर दिया।

पिछले करीब पौने दो महीने में ऑपरेशन मानसून के तहत पैंतीस माओवादी मारे गए। माओवादी आमतौर पर हर साल मई-जून में नए युवकों की भर्ती करते हैं और उन्हें हथियार चलाने सहित दूसरे प्रशिक्षण देते हैं। एसटीएफ को इस बारे में खुफिया सूचना मिली थी। माओवादियों ने गोलापल्ली के जंगलों में बड़ा ठिकाना बना रखा था। यह ऐसा दुर्गम स्थान है जहां बारिश के दिनों में पहुंच पाना आसान नहीं है और जवानों को बरसाती नाले पार करते हुए माओवादियों के अड्डे तक पहुंचना पड़ा। बड़ी कार्रवाइयां इसलिए भी मुश्किल होती हैं कि माओवादी जगह-जगह कई-कई किलोमीटर तक सड़कें तोड़ देते हैं। सालों गुजर चुके हैं, लेकिन सरकार सड़कें बनाने में लाचार है। ऐसे में सुरक्षा बलों के लिए जंगलों और माओवादियों के प्रभाव वाले इलाकों में पहुंचना आसान नहीं होता। लेकिन लंबे समय बाद जवानों ने एक दुर्गम इलाके में पंद्रह माओवादियों को ढेर कर यह साफ कर दिया है कि आने वाले दिनों में वे बड़ी कार्रवाई के लिए भी तैयार हैं।

ऑपरेशन मानसून के तहत सारा जोर उन माओवादी नेताओं के सफाए पर है जो लंबे समय से सुरक्षा बलों को निशाना बनाने और स्थानीय स्तर पर हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं। राज्य के चौदह जिले माओवाद प्रभावित हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इसी साल अप्रैल में माओवाद प्रभावित राज्यों की समीक्षा करते हुए छत्तीसगढ़ के तीन जिलों को नक्सल प्रभावित जिलों की सूची से बाहर किया है, लेकिन राज्य के कबीरधाम जिले को नक्सल प्रभावित जिलों की सूची में डाल दिया। इससे लगता है कि माओवादी अगर एक जिले से खत्म हो रहे हैं तो दूसरे में गढ़ बना रहे हैं। कुल मिला कर नेटवर्क बढ़ ही रहा है, उस पर लगाम नहीं लग पा रही। राज्य के मुख्यमंत्री कई बार दावा कर चुके हैं कि 2022 यानी अगले चार साल में प्रदेश को पूरी तरह माओवादियों से मुक्त कर दिया जाएगा। लेकिन सवाल है कि जब तीन दशक बाद भी राज्य के चौदह जिले माओवादियों के कब्जे में हैं तो अगले चार साल में इनसे कैसे मुक्ति मिल जाएगी ?


Date:08-08-18

एक नया मॉडल है तो

प्रभा वर्मा

विकास का केरल मॉडल ऐसे मानव विकास सूचकांकों को हासिल करने के लिए दुनिया भर में जाना जाता है, जो अनेक विकसित देशों के समान हैं। कुछ साल पहले ही संयुक्त राष्ट्र ने केरल का जिक्र भारत के अकेले ऐसे राज्य के रूप में किया था, जहां मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) बहुत ऊंचा है। केरल की सार्वभौम सार्वजनिक शिक्षा ने यह सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है कि जाति, धर्म या लैंगिक आधार पर बिना भेदभाव तमाम बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने के जरिए केरल के आधुनिक समाज में एक जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष तथा प्रगतिशील मानस की नींव डालने की राह हमवार हो। केरल में करीब 13,000 सरकारी तथा सरकारी समर्थन से चलने वाले स्कूल हैं।

आधुनिक स्कूली शिक्षा का करीब दो सदी लंबा इतिहास है। ऐसे अनेक स्कूल हैं, जो करीब एक सदी से काम कर रहे हैं। ऐसे स्कूल भी हैं, जो कोई 200 साल पुराने हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इन अनेक पुराने स्कूलों के बुनियादी ढांचे को अपग्रेड करने की जरूरत है। अब इस मिशन के जरिए 1000 से ज्यादा छात्रों वाले हरेक स्कूल का उनके बुनियादी ढांचे के विकास के लिए 3 करोड़ रुपये तक की राशि दी जाएगी। साथ ही, सरकारी मदद से चलने वाले हरेक स्कूल को बुनियादी ढांचे के विकास के लिए एक करोड़ रुपये तक की सहायता दी जाएगी और इतनी ही राशि स्कूल प्रबंधन द्वारा जुटाई जाएगी। इस शिक्षा मिशन को जन कार्यक्रम के रूप में चलाया जा रहा है। सरकारी फंड के अलावा पीटीए, एलुमनाई (पूर्व छात्र) और स्थानीय जनता भी यह सुनिश्चित करने के लिए फंड जुटाएंगे कि विकास कायरे की मलकियत साझा रहे। इन स्कूलों को अंतरराष्ट्रीय स्तर का स्कूल बनाने की कोशिश की जा रही है।

इस मिशन के हिस्से के तौर पर 1,000 स्कूलों को उनके बुनियादी ढांचे में सुधार के जरिए उत्कृष्टता के केंद्रों के रूप में अपग्रेड किया जा रहा है। स्कूलों में ज्यादातर बुनियादी ढांचे के काम के लिए केरल इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट फंड बोर्ड (केआईआईएफबी-केरल बुनियादी ढांचा निवेश फंड बोर्ड) के जरिए फंड आवंटित किया जा रहा है, और इसके लिए केरल के वर्ष 2018-19 के बजट में योजना आवंटन के तहत स्कूली शिक्षा के 970 करोड़ रुपये की राशि रखी गई है। जिस स्कूल में 500 से ज्यादा छात्र हैं, उसके बुनियादी ढांचे को केरल बुनियादी ढांचा निवेश फंड बोर्ड के जरिए अपग्रेड किया जा रहा है। जो स्कूल करीब 150 साल पुराने हैं, उन्हें हैरिटेज स्कूलों का दरजा दिया जा रहा है, और उनके लिए विशेष फंड रखे गए हैं। सभी प्राइमरी और अपर प्राइमरी स्कूलों में कंप्यूटर लैब स्थापित करने के लिए के आईआईएफबी की ओर से 300 करोड़ रुपये बढ़ाए जा रहे हैं।

लाइब्रेरियों तथा प्रयोगशालाओं के नवीनीकरण और एंफीथियेटर तथा डायनिंग हॉल तैयार करने के लिए भी फंड जारी किए जा रहे हैं। डिजिटल शिक्षण सुविधाएं बढ़ाने के लिए एफओएसएस की पहलकदमी पर आईटी स्कूल प्रोजेक्ट को केरल इन्फ्रास्ट्रक्चर एंड टेकोलॉजी फॉर एजुकेशन (केआईटीई) के रूप में अपग्रेड किया जा रहा है। हाई टैक क्लासरूमों में इस्तेमाल के लिए एक शिक्षा संसाधन पोर्टल ‘‘समग्र’ तैयार किया गया है। ‘‘समग्र’ के अलावा डिजिटल पाठय़पुस्तकें, प्रश्न बैंक और ई-संसाधन भी सभी की पहुंच में होंगे। इसमें वीडियो, ऑडियो, पिक्चरों और पारस्परिक उत्प्रेरकों के रूप में करीब 19,000 डिजिटल संसाधन हैं, जिन्हें कक्षा तथा विषयवार अलग किया जा सकता है। इन सुविधाओं का इस्तेमाल करने के लिए करीब 77,000 शिक्षकों को प्रशिक्षित किया गया है।

‘‘लिटिल काइट्स’ नामक आईटी क्लबों में 1,00,000 छात्र सूचीबद्ध किए गए हैं। इन क्लबों के जरिए छात्रों को एनिमेशन, हार्डवेयर, इलेक्ट्रॉनिक्स, साइबर सुरक्षा, मलयालम कंप्यूटिंग जैसे क्षेत्रों में प्रशिक्षित किया जा रहा है। इस समझ को ध्यान में रखते हुए कि विज्ञान एवं तकनीक को मौटे तौर पर मानवता के लाभ के लिए होना चाहिए, इन क्लबों को इन्क्यूबेटरों के रूप में देखा जा रहा है, जो छात्रों को आईटी के जरिए सामाजिक रूपांतरण में योगदान करने की ओर ले जाएंगे। सुनिश्चित करने के लिए कि छात्र प्रकृति के बारे में जागरूक बने और उसके संपर्क में रहे, स्कूलों में बायोडाइवर्सिटी पार्क स्थापित किए जा रहे हैं। हरित केरल मिशन के जरिए बच्चों को पौधे दिए जा रहे हैं ताकि वे उन्हें पाल-पोस कर बड़ा करें। जिन बच्चों के घरों में जगह नहीं है, उन्हें स्कूल परिसर में लगा सकते हैं। सार्वजनिक शिक्षा को केरल की एलडीएफ सरकार के प्रोत्साहन के फलस्वरूप सरकारी स्कूलों में अभिभावकों का फिर से विास जमने लगा है।

शिक्षा क्षेत्र में शुरू हुए इन हस्तक्षेपों के एक साल बाद वर्ष 2017 में सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या बढ़कर करीब 1,50,000 हो गई। अभिभावक निजी स्कूलों और सीबीएसई स्कूलों से अपने बच्चों को निकाल कर राज्य बोर्ड के स्कूलों में दाखिल करवा रहे हैं। बहरहाल, बढ़ती संख्या के बावजूद राज्य सरकार अकादमिक वर्ष शुरू होने के बहुत पहले ही सभी छात्रों को पाठ्य पुस्तकें और यूनिफॉर्म मुहैया कराने में सफल रही है। पूर्ववर्ती सरकार के कार्यकाल के दौरान अकादमिक सत्र की शुरुआत में छात्रों को पाठ्यपुस्तकें मुहैया कराने में ही देरी हो जाती थी। मौजूदा सरकार ने छात्रों की यूनिफॉर्म तैयार करने के लिए हैंडलूम कपड़े का इस्तेमाल करने का नवोन्मेषी कदम उठाया। इससे हैंडलूम उद्योग को जीवनदान मिला। वास्तव में इस वर्ष जितने की अपेक्षा थी, उससे कहीं ज्यादा यूनिफॉर्मो की मांग थी।

हैंडलूम इन अपेक्षाओं को पूरा करने में अक्षम था, लेकिन उसने इस मांग को पूरा करने के लिए अतिरिक्त श्रम शक्ति लगाई। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हर छात्र का अधिकार है। सार्वजनिक शिक्षा में केरल का इस्तक्षेप यही सुनिश्चित करने पर केंद्रित है। संतुलित आहार पर आधारित पोषणकारी दोपहर के भोजन के जरिए छात्रों के स्वास्य पर अतिरिक्त ध्यान दिया जा रहा है। साथ ही, कला और खेलकूद में उनकी प्रतिभा को भी केंद्रित हस्तक्षेपों के जरिए विकसित किया जा रहा है। उन्हें सूचना, ज्ञान और कौशल से लैस किया जा रहा है जिससे वे विश्व स्तर पर प्रतियोगी बनने में सफल होंगे। साथ ही, उनमें मानवता के उन मूल्यों को विकसित किया जा रहा है, जो जाति, क्षेत्र और लिंग की क्षुद्र सीमाओं के पार जाते हैं।सार्वजनिक शिक्षा को बचाने और उसे नवजीवन देने के अपने मिशन के जरिए केरल एक धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक तथा प्रगतिशील समाज की अपनी बुनियादों को भी मजबूत कर रहा है।


Date:08-08-18

ऐसे कैसे बचेंगी बेटियां !

पंकज चतुव्रेदी

पहले मुजफ्फरपुर और अब देवरिया, समाज से उपेक्षित बच्चियों को जहां निरापद आसरे की उम्मीद थी, वहीं उनकी देह नोची जा रही थी। कुछ साल पहले ऐसा एक नृशंस प्रकरण कांकेर में भी सामने आया था। ये वाकिये विचार करने पर मजबूर करते हैं कि क्या वास्तव में हमारे देश में छोटी बच्चियों को आस्था के चलते पूजा जाता रहा है, या फिर हमारे आदि समाज ने बच्चियों को हमारी मूल पाशविक प्रवृत्ति से बचा कर रखने के लिए परंपरा बना दी थी। यह बात सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज है कि भारत में कोई 900 संगठित गिरोह हैं, जिनके सदस्यों की संख्या पांच हजार के आसपास है।

विदित हो अभी कुछ साल पहले ही दिल्ली पुलिस ने राजधानी से लापता बच्च्यिों की तलाश के दौरान एक ऐसे गिरोह को पकड़ा था, जो बहुत छोटी बच्चियों को उठाता था, फिर उन्हें राजस्थान की पारंपरिक वेश्यावृत्ति के लिए बदनाम एक जाति को बेचा जाता था। अलवर जिले के दो गांवों में पुलिस के छापों से पता चला कि कम उम्र की बच्चियों का अपरहण किया जाता है। फिर उन्हें इन गांवों में ले जा कर ‘‘बलि के बकरे’ की तरह खिलाया-पिलाया जाता है। गाय-भैंस से ज्यादा दूध लेने के लिए लगाए जाने वाले हार्मोन के इंजेक्शन ‘‘ऑक्सीटॉसिन’ दे कर छह-सात साल की उम्र की इन लड़कियों को कुछ ही दिनों में 14-15 साल की तरह की किशोरी बना दिया जाता हैं। फिर उन्हें यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर किया जाता था। ऐसा नहीं है कि दिल्ली पुलिस के उस खुलासे के बाद यह घिनौना धंधा रुक गया। अभी अलवर, मेरठ, आगरा, मंदसौर सहित कई जिलों के कई गांव इस पैशाचिक कृत्य के लिए सरेआम जाने जाते हैं।

पुलिस से छापे मारती है, बच्चियों को महिला सुधार गृह भेज दिया जाता है। फिर दलाल लोग ही बच्चियों के परिवारजन बन कर उन्हें महिला सुधार गृह से छुड़वाते हैं, और सुदूर किसी मंडी में फिर से उन्हें बेच देते हैं। बच्चियों की खरीद-फरोख्त करने वाले दलाल स्वीकार करते हैं कि एक नाबालिग कुंवारी बच्ची को धंधे वालों तक पहुंचाने के लिए उन्हें चौगुना दाम मिलता है। वहीं कम उम्र की बच्ची के लिए ग्राहक भी ज्यादा दाम देते हैं। फिर कम उम्र की लड़की ज्यादा सालों तक धंधा करती है। तभी दिल्ली और कई बड़े शहरों में हर साल कई छोटी बच्चियां गुम हो जाती हैं, और पुलिस कभी उनका पता नहीं लगा पाती। इस बात को ले कर सरकार बहुत कम गंभीर है कि भारत, बांग्लादेश, नेपाल जेसे पड़ोसी देशों की गरीब बच्चियों की तिजारत का अंतराष्ट्रीय बाजार बन गया है। एड्स के भूत ने यौनाचारियों को भयभीत कर रखा है। वे छोटी बच्चियों की मांग ज्यादा करते हैं। कुछ नीम हकीमों ने भी फैला रखा है कि यौन-संक्रमण रोग ठीक करने के लिए बहुत कम उम्र की बच्ची से यौन संबंध बनाना कारगर उपाय है।

इसके अलावा, देश में काफी लोग मासूमों का इस्तेमाल पोर्न वीडियो और फिल्में बनाने में कर रहे हैं। अरब देशों में भारत की गरीब मुस्लिम लड़कियों को बाकायदा निकाह करवा कर सप्लाई किया जाता है। हैदराबाद तो इसकी सर्वसुलभ मंडी है। ताईवान, थाईलैंड जैसे देह-व्यापार के मशहूर अड्डों की सप्लाई-लाइन भी भारत बन रहा है। कहने को तो सरकारी रिकॉर्ड में कई बड़े-बड़े दावे और नारे हैं-जैसे कि 1974 में संसद ने बच्चों के संदर्भ में एक राष्ट्रीय नीति पर मुहर लगाई थी। इसमें बच्चों को देश की अमूल्य धरोहर घोषित किया गया था। भारतीय दंड संहिता की धारा 372 में नाबालिग बच्चों की खरीद-फरोख्त करने पर 10 साल तक सजा का प्रवधान है। असल में इस धारा में अपराध को सिद्ध करना बेहद कठिन है। एक बार जबरिया ही सही इस फिसलन में जाने के बाद खुद परिवार वाले बच्ची को अपनाने को तैयार नहीं होते। ऐसे में भुक्तभोगी से किसी के खिलाफ गवाही की उम्मीद नहीं की जा सकती।

दुनिया के 174 देशों, जिनमें भारत शामिल है, के संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौते की धारा 34 में स्पष्ट उल्लेख है कि बच्चों को सभी प्रकार के यौन उत्पीड़न से निरापद रखने की जिम्मेदारी सरकार पर है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह बात किताबों से आगे नहीं है। कहने को तो संविधान बिना किसी भेदभाव के बच्चों की देखभाल, विकास और अब तो शिक्षा की भी गारंटी देता है, लेकिन इसे नारे से आगे बढ़ने के लिए न तो इच्छा-शक्ति है, और ना ही धन। कहने को कई आयोग बने हुए हैं, लेकिन वे विभिन्न सियासती दलों के लोगों को पद-सुविधा देने से आगे काम नहीं कर पा रहे हैं। आज बच्चियों को केवल जीवित रखना ही नहीं, बल्कि उन्हें इस तरह की त्रासदियों से बचाना भी जरूरी है, और इसके लिए सरकार की सक्रियता, समाज की जागरूकता और पारंपरिक लोक की सोच में बदलाव जरूरी है।


Date:08-08-18

क्रांति जिससे आजादी की राह निकली

मृदुला मुखर्जी, प्रसिद्ध इतिहासकार

‘भारत छोड़ो’ (क्विट इंडिया) के नारे के साथ 1942 में ‘अगस्त क्रांति’ की शुरुआत हुई थी। इस आंदोलन में हर तबके के लोगों ने हिस्सा लिया। किसानों, महिलाओं, छात्रों, नौजवानों के साथ-साथ विभिन्न विचारधारा के लोगों ने इसमें शिरकत की और अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। वह दूसरे विश्व युद्ध का समय था और लोगों के लिए कठिन माहौल था। ब्रिटिश सरकार ने तमाम तरह के सख्त कानून थोप दिए थे और किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधियों पर पाबंदी लगा दी थी, फिर चाहे वह शांतिपूर्ण क्यों न चल रही हो। इन सबके बावजूद लोगों ने बहादुरी के साथ यह आंदोलन चलाया।

आज जब यह भावना गहराती जा रही है कि लोग विरोध के स्वर में साथ नहीं देते और उनमें राजनीतिक तौर पर उदासीनता पसरती जा रही है, तब इस आंदोलन का संदेश हमारे भीतर एक नई उम्मीद जगाता है। यह बताता है कि लोग यदि ठान लें, तो वे किसी भी उद्देश्य के लिए एक हो सकते हैं; बस उन्हें एक सही नेतृत्व की दरकार होती है। यह आंदोलन अत्याचार के खिलाफ खड़े होने की एक परंपरा का हिस्सा है। आज इसलिए भी इसकी प्रासंगिकता है कि यह उन तमाम तबकों को ताकत देता है, जो आज दबाए-कुचले जा रहे हैं और अपने हक-अधिकार की जंग लड़ रहे हैं।

आखिर ‘भारत छोड़ो’ का नारा देना क्यों जरूरी हो गया था? दूसरे विश्व युद्ध के दौरान यह आंदोलन चलाना क्यों उचित समझा गया, जबकि भारतवासियों और राष्ट्रीय आंदोलन की सहानुभूति ब्रिटेन व मित्र देशों के साथ थी, जो हिटलर और मुसोलिनी के फासीवाद व नाजीवाद के खिलाफ लड़ रहे थे? इसके कई कारण थे। एक बड़ी वजह थी, अंग्रेज सरकार की वह नीति, जिसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के युद्ध में मदद के प्रस्ताव को ठुकराकर भारत को जबर्दस्ती दूसरे विश्व युद्ध में हिस्सेदार बनाया। कांग्रेस का कहना था कि भारतीयों को सरकार में शामिल कर उन्हें जिम्मेदारी भी दी जाए। लेकिन अंग्रेजों ने इसे ठुकराकर जोर-जबर्दस्ती से काम निकालना पसंद किया।

एक और कारण था, दक्षिण-पूर्व एशिया में ब्रिटेन का रवैया। जब जापानी फौज इस इलाके के देशों पर हमला कर रही थी, तब ब्रिटिश शासक लड़ने और स्थानीय जनता की हिफाजत करने की बजाय भाग खड़े हुए थे। हिन्दुस्तानियों के मन में शंका पैदा हुई कि क्या अंग्रेज यहां भी रणछोड़ साबित तो नहीं होंगे? गांधीजी की चिंता यह भी थी कि अंग्रेजों को हराकर कहीं जापानी हुकूमत भारत पर न अपना कब्जा जमा ले। इसका वह एक ही जवाब समझते थे कि भारतीय जनता में जोश और संघर्ष की भावना जगे, इसीलिए वह आंदोलन के हक में थे। लोगों की नाराजगी भी इस आंदोलन की एक वजह थी, क्योंकि युद्ध के कारण महंगाई बढ़ गई थी और जरूरी चीजों की भारी कमी हो रही थी। कुल मिलाकर, आम जनता में सरकार के खिलाफ एक विरोधाभास था।

इस आंदोलन को शुरू करने के लिए अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बंबई (अब मुंबई) के गोवालिया टैंक मैदान में बुलाई गई। खुले अधिवेशन में नेताओं ने हजारों लोगों को संबोधित किया। यहीं पर गांधीजी ने अपना मशहूर मंत्र ‘करो या मरो’ दिया। उन्होंने लोगों से कहा कि मैं अभी वायसराय से एक बार और बात करूंगा। पर अंग्रेज सरकार इंतजार के मूड में नहीं थी। 9 अगस्त, 1942 की सुबह उसने कई जगह छापा मारकर कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें गुप्त जगह पर भेज दिया। इस कार्रवाई ने लोगों में बहुत गुस्सा पैदा किया।

अगले छह-सात हफ्तों तक यह आंदोलन चला। बहुत बडे़ पैमाने पर लोगों ने इसमें हिस्सा लिया। कहीं पुलिस थानों पर हमले किए गए, तो कहीं डाकघरों, रेलवे स्टेशनों और कचहरियों पर। ब्रिटिश साम्राज्य के तमाम प्रतीकों को ढहाया जाने लगा। हालांकि बहुत सी जगहों पर लोगों ने शांतिपूर्ण सत्याग्रह किया और खुद को गिरफ्तारी के लिए पेश किया। आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेजों ने असाधारण तरीके अपनाए। फार्यंरग तो की ही गई, हवाई जहाज से भी प्रदर्शनकारियों पर कार्रवाई की गई। सामूहिक जुर्माना लगाया गया, गांव जलाए गए और लोगों को खूब मारा-पीटा गया। जब सरकारी अत्याचार के कारण खुला आंदोलन कमजोर हो गया, तो गुप्त रूप से यह आंदोलन चल पड़ा।

इस आंदोलन के दौरान एक नई चीज थी, ‘पैरेलल गवर्नमेंट’ यानी समानांतर सरकार का उभरना। यह तीन जगहों पर हुआ- बलिया (उत्तर प्रदेश), सतारा (महाराष्ट्र) और मिदनापुर (बंगाल) में। वहां स्थानीय नेता और कार्यकर्ता मिलकर राष्ट्रीय सरकार चलाते थे, जिसमें स्कूल, कचहरी, पुस्तकालय आदि का उचित बंदोबस्त शामिल था। ब्रिटिश हुकूमत ने जेल में गांधीजी पर दबाव बनाने की बहुत कोशिशें कीं। वह चाहती थी कि आंदोलन में हो रही हिंसक घटनाओं की बापू निंदा करें। मगर गांधीजी ने कहा, ‘अंग्रेजों की भयानक हिंसा के कारण कुछ लोग हिंसक हो उठे हैं।’ वह हिंसा के खिलाफ थे, पर यह भी समझते थे कि जब जबर्दस्त हिंसा का सामना करना पड़ता है, तो प्रतिहिंसा होती ही है।

‘अगस्त क्रांति’ का नतीजा यह था कि दूसरे विश्व युद्ध के खत्म होते-होते अंग्रेजों ने भारत छोड़ने की तैयारी शुरू कर दी। वे समझ गए कि उनके दिन अब गिनती के रह गए हैं। साल 1937 में तत्कालीन वायसराय लिनलिथगो ने दावा किया था कि हिन्दुस्तान में ब्रिटिश सरकार का परचम अगले 50 वर्षों तक लहराएगा। मगर 1942 के इस आंदोलन को देखकर अंग्रेजों को एहसास हो गया कि यदि वे ससम्मान विदाई चाहते हैं, तो उन्हें जल्द से जल्द हिन्दुस्तान को आजादी देनी होगी। वे नहीं चाहते थे कि इस तरह के किसी और आंदोलन का वे सामना करें। विश्व युद्ध का बहाना बनाकर और अपूर्व हिंसा का इस्तेमाल करके उन्होंने जैसे-तैसे इस आंदोलन को तो संभाल लिया था, मगर बुद्धिमानी इसी में थी कि विदाई की तैयारी की जाए।

ऐसा हुआ भी। शिमला कॉन्फ्रेंस, कैबिनेट मिशन, माउंटबेटन योजना, संविधान सभा- ये सब ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के कारण ही संभव हो सके, और 15 अगस्त, 1947 को हम एक आजाद मुल्क बन गए।


Date:08-08-18

पाबंदी का रास्ता

संपादकीय

यह हमेशा ही होता रहा है। सुविधाएं अपने साथ समस्याएं भी लाती हैं। सुविधा वाले पक्ष को तो सभी सहज अपना लेते हैं, लेकिन समस्या वाला सिरदर्द अक्सर सिर चढ़कर बोलता है और इससे मुक्ति की तलाश में हम कई बार सुविधा को ही दांव पर लगाने की हद तक पहुंच जाते हैं। सोशल मीडिया ऐसी ही सुविधा है, जिसका सिरदर्द इन दिनों सभी को परेशान कर रहा है- सरकारों को, राजनीतिक दलों को, प्रशासन को, तमाम तरह की संस्थाओं को, सेलेब्रिटी को और यहां तक कि अभिभावकों को। ऐसे मौकों पर चाहे-अनचाहे सरकार से उम्मीद बांधी जाती है, और सरकार अपनी तरह से सक्रिय हो गई है। खबर है कि दूरसंचार विभाग वह रास्ते तलाश रहा है, जिससे किन्हीं आपातकालिक स्थितियों में फेसबुक, वाट्सएप और इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया साइट पर पाबंदी लगाई जा सके। इसके लिए विभाग ने संबंधित पक्षों, जैसे इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर और टेलीफोन सेवा देने वाली कंपनियों को चिट्ठी लिखी है। विभाग ने इस मसले पर उन सबकी राय मांगी है। जहां तक पाबंदी की बात है, तो इनफॉरमेशन तकनीक कानून की धारा 69ए सरकार को यह अधिकार देती है कि वह खास स्थितियों में ऐसी सेवाओं को रोक सकती है। कश्मीर में इस धारा का कई बार इस्तेमाल हो चुका है, इसके अलावा राजस्थान में तनाव के माहौल के चलते इंटरनेट सेवाओं को एक बार बाधित किया जा चुका है।

सुविधाएं अपनी जगह हैं, पर सोशल मीडिया को कठघरे में खड़ा करने का चलन पिछले दिनों काफी बढ़ा है। यह सच है कि इसके लिए दिए जाने वाले तर्क निराधार नहीं हैं। सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके लोगों को भड़काने और यहां तक कि दंगे करवाने की घटनाएं कई जगह हुई हैं। पिछले दिनों देश में लिंचिंग यानी भीड़ द्वारा पीट-पीटकर मार देने की जो घटनाएं जगह-जगह हुई हैं, उसका दोष भी ज्यादातर जगहों पर सोशल मीडिया के मत्थे ही मढ़ा गया है। हर बार यही पाया गया या कहा गया कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल अफवाहें फैलाने के लिए किया गया। अफवाह चाहे गो-तस्करी की हो या गोमांस की, सांप्रदायिक हिंसा की या बच्चे चुराने की।

क्या पाबंदी से इस तरह की प्रवृत्तियां पूरी तरह से खत्म हो जाएंगी? सोशल मीडिया अभी नया है, इसलिए हमारे पास इस पर पाबंदी के बहुत सारे सबक नहीं हैं। परंपरागत मीडिया पर पांबदी के कई ऐसे उदाहरण हैं, जब इसके कारण संवेदनशील समय में अफवाहें ज्यादा तेजी से फैलीं और तनाव बजाय घटने के और बढ़ गया। पाबंदी कभी समाधान नहीं होती और इसका असर उल्टी दिशा में होने का खतरा बहुत बड़ा होता है। किसी भी तरह की सामाजिक और राजनीतिक बुराई को रोकने में पाबंदियों की भूमिका हमेशा ही संदिग्ध रही है। भारत जैसे खुले समाज में पाबंदियां कभी कामयाब नहीं होतीं, ऐसे में कोई भी जीवंत समाज इनके विकल्प तलाश ही लेता है। इसीलिए दुनिया के ज्यादातर विकसित लोकतंत्रों में कोई भी अब पाबंदी की बात नहीं करता। फिर भी पाबंदी प्रशासन को आकर्षित करती है, क्योंकि बुराइयों को जड़ से खत्म करना जटिल काम है, जबकि पाबंदी लगाना सबसे आसान है। अब पिछले दिनों की भीड़ द्वारा पीटकर मार दिए जाने की घटनाओं को ही लें, इसके पीछे एक राजनीति और एक पागलपन है। जब तक हम इस राजनीति व पागलपन को खत्म नहीं करेंगे, यह समस्या खत्म नहीं होगी।


Date:08-08-18

विकास के कई रास्ते इस सेज से भी निकल सकते हैं

जयंतीलाल भंडारी, अर्थशास्त्री

सेज यानी स्पेशल इकोनॉमिक जोन को हम भूलने लग गए हैं। सेज की लिए आवंटित बहुत सी जमीनें खाली पड़ी हैं और अब इन पर कोई चर्चा तक नहीं होती। हालांकि इसका आरोप मौजूदा केंद्र सरकार पर नहीं मढ़ा जा सकता, यह काम उससे बहुत पहले ही शुरू हो गया था। जबकि निर्यात बढ़ाने और 2020 तक विश्व बाजार में दो फीसदी हिस्सेदारी बनाने के लिए सेज की भूमिका को प्रभावी बनाना जरूरी है।

हाल ही में वाणिज्य मंत्रालय ने सेज से संबंधित जो आंकड़े पेश किए हैं, वे बताते हैं कि सेज रोजगार सृजन, निवेश और निर्यात के ऊंचे लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल नहीं हुआ है। 30 अगस्त, 2017 तक 373 अधिसूचित सेज में से 223 सेज चालू हैं और 150 का परिचालन ही नहीं हो रहा है। यह भी बताया गया कि 373 सेज के लिए 45,711.64 हेक्टेयर जमीन आवंटित की गई थी। लेकिन इसमें से 23,779.19 हेक्टेयर जमीन अभी खाली पड़ी है। दूसरी तरफ भारतीय वाणिज्य व उद्योग मंडल (एसोचैम) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में जितने सेज हैं, उनमें आधे से अधिक बेकार पड़े हैं। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि देश में सेज से रोजगार सृजन, निवेश और निर्यात के जो अनुमान लगाए गए थे, वे वास्तविक धरातल से दूर रह गए हैं।

देश में वर्ष 2000 से शुरू हुई सेज की अवधारणा का मकसद निर्यात आधारित इकाइयों को विशेष प्रोत्साहन देना था। निर्यात को बढ़ाने के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को गति देने और रोजगार के अवसर बढ़ाना भी सेज का प्रमुख उद्देश्य है। सेज के तहत निर्यात आधारित उद्योगों को न्यूनतम कागजी कार्यवाही और नियमों के साथ अच्छे इन्फ्रास्ट्रक्चर और आकर्षक वित्तीय सुविधाएं देने की व्यवस्था की गई। लेकिन अगर हम सेज की अब तक की प्रगति को देखें, तो इसके सफल न हो पाने का एक बड़ा कारण इससे संबंधित नीतियों की अस्थिरता है। एक समय के बाद नीतियां और बजट प्रावधान इस योजना को लेकर खामोश हो गए।

केंद्र सरकार ने 2018-19 में निर्यात को 350 अरब डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है, लेकिन जिस तरह से दुनिया में ‘ट्रेड वॉर’ शुरू हुई है, उसमें चुनौती और भी कठिन हो गई है। निर्यात क्षेत्र की चुनौती अभी इसलिए और बढ़ेगी, क्योंकि विश्व व्यापार संगठन के नियमों के मुताबिक वर्ष 2018 के अंत तक भारत को निर्यात सब्सिडी बंद करनी होगी। अमेरिका से आईटी निर्यात की आमदनी आधी से कम रह जाने की आशंका बढ़ रही है। ऐसे में, सेज से उम्मीद बांधी जा सकती है।

सेज की अवधारणा चीन के आर्थिक जोन से उपजी थी, उम्मीद थी कि इस रास्ते से हमारी अर्थव्यवस्था अपने पांवों पर खड़ी होगी, फिर हम विश्व बाजार में चीन के आधिपत्य को उसी की भाषा में जवाब देने की स्थिति में होंगे। लेकिन कई कारणों से बात आगे नहीं बढ़ी। इस बीच भारत के मुकाबले कई छोटे-छोटे देश मसलन बांग्लादेश, वियतनाम, थाईलैंड जैसे देशों ने अपने निर्यातकों को सुविधाओं का ढेर देकर भारतीय निर्यातकों के सामने कड़ी प्रतिस्पद्र्धा खड़ी कर दी है। ऐसे में एक बार फिर सेज पर ध्यान देते हुए उसे गतिशील बनाना जरूरी है। जरूरी है कि सेज में नई जान फूंकने के लिए एकल खिड़की मंजूरी व्यवस्था लागू करने के साथ ही कारोबार आसान बनाया जाए और कंपनियों को सेज में उद्योग लगाने पर कर छूट संबंधी विशेष लाभ दिया जाए। सेज के माध्यम से निर्यात बढ़ाने के लिए अब नए प्रयास जरूरी हैं। जरूरी है कि सेज के तहत निर्यातकों को नए प्रोत्साहन दिए जाएं। हमें उम्मीद बांधनी चाहिए कि निर्यात बाजार में भारत की हिस्सेदारी को तेजी से बढ़ाने के लिए सेज की भूमिका को प्रभावी और कारगर बनाने के रणनीतिक प्रयासतेजी से किए जाएंगे। पहली प्राथमिकता ऐसी रणनीति की होनी चाहिए, जिससे देश में सेज के लिए आवंटित की आधी से अधिक खाली जमीन का उपयुक्त औद्योगिक उपयोग हो। साथ ही, देश में जो आधे से ज्यादा सेज बेकार पड़े हुए हैं, उन्हें उपयोगी और सक्रिय बनाकर निर्यात और रोजगार के बडे़ इंजन के रूप में विकसित किया जाए।


Date:08-08-18

Commissions Of Inaction

National commissions are white elephants: Expensive and ineffective.

Tahir Mahmood , [ The writer is former chairman, National Minorities Commission and member, Law Commission of India.]

“Over the years, in many important debates, this statutory body has often played the role of a foot-soldier of frivolousness.” This is what The Indian Express said about the National Commission for Women in an editorial (‘Sins of Commission’, July 30) in the context of its reported recommendation to the government for banning by law the Christian religious practice of confession. “Reckless and damaging” the suggestion indeed is, but for me an issue for deeper thought is the editorial’s assessment of the role played by this 26-year-old organisation as an exercise in frivolity which, in retrospect, seems to also be true of most of its sister institutions.

In India there are national commissions aplenty, all supposed to be parastatal watchdogs to oversee the implementation of human rights and civil liberties. Today there are at least eight such quasi-autonomous bodies. The exercise began in January 1978 with the establishment of a central Minorities Commission, followed five months later by a joint Scheduled Castes and Scheduled Tribes Commission. Set up by the Morarji Desai government, these bodies were slated to be given constitutional status. But the move was scuttled by the then Opposition parties in league with some partners in government.

A second attempt to achieve the goal, made in 1990 by the V P Singh government, was also stifled. The bill moved for this purpose, passed two years later during the succeeding Congress rule, conferred constitutional status on the SC/ST Commission alone. The Minorities Commission was eventually rechristened as the National Commission for Minorities (NCM) and placed under an Act of Parliament. In 2003, the SC/ST Commission was split into two bodies, both enjoying constitutional status.

During V P Singh’s rule was also enacted a National Commission for Women Act 1990, but the first Commission under it was set up in January 1992 after the change of government. Next year, the new Congress government enacted laws for the establishment of two more national commissions, one each for backward classes and safai karmcharis. In quick succession, it decided to set up a National Human Rights Commission (NHRC), professedly to “counter the false and politically motivated propaganda by foreign and Indian civil rights agencies”. It came into existence in September 1993 under an ordinance retrospectively replaced early next year with the Protection of Human Rights Act. Mercifully, no new national commissions came up during the next 10 years, but on bouncing back to power in 2004, the Congress set up two national commissions — one each for minority educational institutions and protection of child rights. It had also moved a bill to confer constitutional status on NCM but did not seriously pursue the move. This year, a parliamentary committee and the present NCM endorsed the move but till date there has been no official response. Meanwhile, the government has conferred constitutional status on the National Backward Classes Commission.

The composition and appointment mechanism for various national commissions widely differ. The NHRC must be headed by a former Chief Justice of India and have two members each from amongst judges and human rights experts — all to be appointed by a high-level statutory committee. On the contrary, the NCM and NCW chairs and members are to be appointed by the government in its unrestricted discretion. While aspirants for the chair and membership of NCM should only be persons of “eminence, ability and integrity”, the NCW chair is simply to be one “committed to the cause of women” — only its members have to be “persons of ability, integrity and understanding who have experience in law or legislation, trade unionism, management of an industry or organisation committed to increasing employment potential of women, women’s voluntary organisations (including women activists) administration, economic development, health, education or social welfare”. The record of successive governments in adhering to the prescribed touchstones is disappointing. More so in the case of NCW — of its eight Chairs, the only name eminently fulfilling statutory requirements for eligibility has been of Mohini Giri.

Under the noses of these supposedly autonomous national bodies, the situation of citizens’ human rights and civil liberties has been moving from bad to worse. All these white elephants — each maintained with an exorbitant budget — are a drain on the state exchequer and ultimately an unwarranted burden on taxpayers.