News Clipping on 07-08-2018

Date:07-08-18

How to Prevent More Muzaffarpur Horrors

ET Editorials

The sordid tale of exploitation at the girls’ shelter in Muzaffarpur, Bihar, is not a case of a rare systems failure, unfortunately. Abuse and exploitation, especially of women and children, in such shelters have been reported with depressing frequency. While those responsible must be prosecuted and punished to the law’s full extent, we need a robust system of oversight and accountability to prevent recurrence.

A viable multi-layered oversight system involving the government, particularly the women and child departments in the states, and the district administration is required. The local community must be actively involved in these homes and shelters, to provide another level of continuous oversight. No shelter should operate without a licence. A charter of basic facilities and requirements must be developed and implemented, as part of the licence. Ideally, women should be tasked with running these homes and shelters. Thorough background checks of staff must be mandatory. Counsellors, doctors and nurses should have routine access, over and above regular inspections. The local administration must be made accountable for the proper running of these homes. Central to ensuring that these homes/shelters do not become centres of abuse is the involvement of the local community. Active linkages with local schools, women’s self-help groups, community businesses and colleges must be encouraged. These engagements will help create a web of informal oversight, which are likely to prove more effective than official supervision.

Ensuring that vulnerable women and children are protected is central for a strong and progressive community. Protecting the vulnerable and penalising those who prey on them must be part of citizen sensibility.


Date:07-08-18

अच्छी शुरुआत

संपादकीय

कंपनी मामलों के मंत्रालय ने राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट (एनसीएलटी) के अधीन आठ विशेष अदालतें गठित करने का निर्णय लिया है ताकि विशेष तौर पर दिवालिया मामलों से निपटा जा सके। यह कदम स्वागतयोग्य है। ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी), 2016 में प्रवर्तन में आई। यह अब तक फंसे हुए कर्ज की भारी भरकम समस्या से निपटने का सबसे अच्छा तरीका साबित हो रहा है। यह वह संकट है जिसने देश के बैंकिंग और कारोबारी जगत को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया है। एनसीएलटी इस ऋणशोधन प्रक्रिया की रीढ़ है। परंतु अगर समान न्यायिक प्रतिष्ठानों से तुलना की जाए तो इस पर काम का बोझ बहुत ज्यादा है।

भारतीय ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया बोर्ड (आईबीबीआई) की ओर से उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक एनसीएलटी ने 907 मामले विचारार्थ स्वीकार किए जिनमें से 32 मामले मंजूर हुए हैं। इससे 498 अरब रुपये की राशि की प्राप्ति हुई है। कई अन्य मामले नकदीकरण की प्रक्रिया में हैं। मार्च 2018 तक यह संख्या 87 थी। चूंकि यह प्रक्रिया नई है और दिवालिया कानून में नए मामलों के साथ बदलाव हो रहा है, उदाहरण के लिए प्रवर्तकों को अपनी कंपनी के लिए बोली लगाने की पात्रता आदि, तो ऐसे में इसे उत्साहजनक माना जा सकता है।

परंतु दो तथ्य इस रिकॉर्ड की दृढ़ता को रेखांकित करते हैं। पहला, आईबीसी की प्रक्रिया की एक अहम बात यह थी कि यह समयबद्घ है। इसके लिए 270 दिन की अवधि की इजाजत है। अब तक निस्तारण के लिए स्वीकृत 390 कंपनियों ने इस अवधि का उल्लंघन किया है। एक अन्य बात यह है कि बैंकिंग व्यवस्था के 83 खरब रुपये के फंसे हुए कर्ज को देखते हुए अब तक हुई प्राप्तियां सागर में एक बूंद के समान हैं। अपील और समीक्षा के संदर्भ में देखें तो विधिक मामलों ने प्रक्रिया को धीमा किया है लेकिन यह कारक 10 फीसदी से भी कम मामलों के लिए उत्तरदायी है। दिवालिया मामलों के अलावा पंचाट कंपनी अधिनियम के अधीन विलय और अधिग्रहण तथा अन्य मामलों को भी संभालता है। ताजा आंकड़े बताते हैं कि 11 पीठों के समक्ष 9,000 से अधिक मामले लंबित हैं। इसका समर्थन नहीं किया जा सकता। पीठों के समक्ष मामलों के वितरण में भी विसंगति है। दिल्ली में दो पीठ हैं जबकि मुंबई और कोलकाता में एक-एक पीठ। दिवालिया मामलों के लिए विशेष तौर पर आठ अदालतें गठित करने का निर्णय एक बड़ी खामी तो दूर करेगा। खासतौर पर तब जबकि मुंबई जैसी व्यस्त जगह पर इसका विस्तार भी किया जाएगा।

बहरहाल, केवल अदालतों की संख्या बढ़ाने से काम नहीं चलेगा। जरूरत इस बात की भी है कि क्षमता में भी सुधार किया जाए। प्रमुख तौर पर यह काम न्यायाधीशों तथा निस्तारण पेशेवरों की संख्या और उनकी गुणवत्ता में सुधार करके किया जा सकता है। कुछ बातों का ध्यान रखने की भी आवश्यकता है। उदाहरण के लिए यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि न्यायिक कर्मियों की कमी के चलते जिस तरह प्रतिभूति अपील पंचाट का काम ठप है, वह समस्या आईबीसी के लिए विशेष तौर पर बने एनसीएलटी पीठ के साथ नहीं आनी चाहिए। निस्तारण प्रतिनिधियों के साथ समस्या न्यूनतम पात्रता (सीए) से अधिक अनुभव की है। कई प्रतिनिधियों के पास कारोबार चलाने या उसके मूल्यांकन का कोई अनुभव ही नहीं है। कई मामलों में ऐसे कारकों से विवाद भी पैदा हुआ है। इसमें वे मामले भी शामिल हैं जिनका जिक्र आरबीआई कर चुका है। इनमें से कुछ मसले समय के साथ हल हो सकते हैं लेकिन सरकार के लिए यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि दिवालिया निस्तारण की प्रक्रिया गति पकड़ती रहे। उस लिहाज से देखें तो और ज्यादा अदालतों का गठन करना एक अच्छी शुरुआत है।


Date:07-08-18

अब अनुच्छेद 35-ए के बहाने कश्मीर में अशांति का दौर

यह अनुच्छेद किसी भी बाहरी व्यक्ति को कश्मीर में जमीन-जायदाद खरीदने और बेचने के अधिकार से वंचित करता है

संपादकीय

कश्मीर में अशांति पैदा करने का कारोबार सिर्फ सीमा पार पाकिस्तान से ही नहीं चलता, उसके लिए देश के भीतर भी पर्याप्त संगठन और शक्तियां मौजूद हैं। उन्हें अनुच्छेद 35-ए के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका के माध्यम से नया बहाना मिल गया है। उधर घाटी में बंद और हड़ताल के बीच अमरनाथ यात्रा भी स्थगित करनी पड़ी है। यह जानते हुए कि कश्मीर को भारत से जोड़ने वाला संवैधानिक अनुच्छेद 370 एक राजनीतिक फैसले के तहत किया गया प्रावधान है और अनुच्छेद 35-ए उसी के तहत राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की ओर से 1954 में अधिसूचित एक प्रावधान है ‘वी द सिटीजन्स’ नाम की एक संस्था ने उसके विरुद्ध याचिका दायर कर दी है। यह अनुच्छेद किसी भी बाहरी व्यक्ति को कश्मीर में जमीन-जायदाद खरीदने और बेचने के अधिकार से वंचित करता है।

उधर अलगाववादी संगठन ऐसे मौके की तलाश में बैठे ही रहते हैं और उन्होंने इस याचिका को भारत सरकार की विस्तारवादी साजिश बताकर आंदोलन का बिगुल बजा दिया। बंद का असर श्रीनगर के उत्तर में बारामुला, कुपवाड़ा, सोपोर, पाटन और बांदीपुरा के साथ-साथ दक्षिण और केंद्रीय कश्मीर में प्रभावी रहा, जहां कारोबार और निजी परिवहन ठप रहे। रोचक बात यह है कि अभी तक सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर किसी प्रकार की सुनवाई शुरू नहीं की है और उसने यह तय करने के लिए तीन हफ्ते का समय मांगा है कि इस मामले को संविधान पीठ के पास भेजा जाए या नहीं। यह स्थिति सूत न कपास जुलाहों में लट्‌ठमलट्‌ठा वाली है। अगर भाजपा के अलावा राज्य में सक्रिय नेशनल कॉन्फ्रेेंस, पीडीपी, माकपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों ने यथास्थिति बनाए रखने का सुझाव दिया है तो कश्मीरियत के हिमायती शाह फैजल जैसे अहम नागरिकों ने इस अनुच्छेद की तुलना उस निकाहनामे से की है जो जीवनसाथियों के रिश्ते का आधार होता है। हालांकि, कश्मीर में बाहरी लोगों द्वारा बेनामी संपत्ति की खरीद-फरोख्त की खबरें आती रहती हैं लेकिन वैधानिक रूप से कोई गैर-कश्मीरी अगर वहां जमीन नहीं ले सकता। ऐसा करने के पीछे कश्मीर की विशिष्ट पहचान बनाए रखने का ही आग्रह था। सुप्रीम कोर्ट को याचिका पर सुनवाई और फैसले में उतरने के साथ यह जरूर सोचना चाहिए कि इसका राजनीतिक परिणाम क्या होगा ?


Date:07-08-18

गडकरी के सही बोल

नितिन गडकरी आर्थिक आधार पर आरक्षण को वक्त की जरूरत बता रहे हैं, लेकिन कब तक केवल सुझाव और सलाह देने तक सीमित रहा जाएगा?

संपादकीय

केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने यह बात तो पते की कही कि आरक्षण नौकरी की गारंटी नहीं है, लेकिन उनकी यह साफगोई मोदी सरकार के समक्ष मुसीबत खड़ी कर सकती है, क्योंकि उन्होंने यह भी कहा कि नौकरियां घटती जा रही हैं। उनकी ओर से यह साफ किया गया कि एक तो सूचना-तकनीक के कारण नौकरियां कम हो रही हैं और दूसरी ओर सरकारी भर्तियां बंद हैं। इसका तो यही मतलब हुआ कि सरकार अपनी जिम्मेदारियां कम करके निजीकरण की ओर बढ़ रही है। नि:संदेह यह चलन नया नहीं। पूरी दुनिया में यही हो रहा है, क्योंकि निजी क्षेत्र के मुकाबले सरकारी क्षेत्र अकुशल साबित होने के साथ ही लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहा है। शायद इसी कारण केंद्र और राज्य सरकारों के विभिन्न् विभागों में लाखों पद रिक्त हैं, लेकिन इन लाखों रिक्त पदों के रहते यह दावा कैसे किया जा सकता है कि पर्याप्त संख्या में रोजगार उपलब्ध कराए जा रहे हैं? यह समय की मांग और जरूरत है कि केंद्रीय सत्ता अपनी रोजगार नीति को लेकर कोई संशय न रखे और इसे बार-बार दोहराने में संकोच न करे कि आज के युग में कोई भी सरकार अपने बलबूते सबको नौकरियां नहीं उपलब्ध करा सकती। इससे सभी को अवगत भी होना चाहिए कि रोजगार का मतलब केवल नौकरियां और वह भी सरकारी नौकरियां नहीं होता और न हो सकता है। जब सरकारी नौकरियों में कमी एक सच्चाई है तब सरकार को यह देखना होगा कि निजी क्षेत्र रोजगार देने के मामले में समावेशी दृष्टि से लैस नजर आए।

यह भी आज का यथार्थ है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण जरूरी होता जा रहा है। यह अच्छा है कि नितिन गडकरी आर्थिक आधार पर आरक्षण को वक्त की जरूरत बता रहे हैं, लेकिन कब तक केवल सुझाव और सलाह देने तक सीमित रहा जाएगा? इस दिशा में सरकार की ओर से कोई ठोस पहल क्यों नहीं होती? यह ठीक है कि संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था नहीं, लेकिन क्या यह व्यवस्था पत्थर की लकीर है? क्या जातिगत के साथ आर्थिक आधार पर भी आरक्षण की गुंजाइश नहीं बनाई जा सकती? भाजपा समेत अन्य राजनीतिक दल नीर-क्षीर ढंग से विचार करें तो एक प्रभावी और कहीं अधिक सार्थक आरक्षण की व्यवस्था का निर्माण संभव है। समस्या यह है कि सियासी दलों ने आरक्षण को वोट बैंक की राजनीति का औजार बना लिया है। वे न तो आरक्षण की समीक्षा कर यह देखने को तैयार हैं कि उससे अब तक क्या हासिल हुआ और न ही जमीनी हकीकत देखने के लिए। वे बिना किसी ठोस आधार गैर-बराबरी, गरीबी आदि का जिक्र इस तरह करते रहते हैं मानो सामाजिक विषमता और निर्धनता के मामले में देश वहीं खड़ा है, जहां 1960-70 के दशक में था। खराब बात यह है कि ऐसा भी माहौल बनाया जाता है कि आरक्षण सभी समस्याओं का समाधान है। इसी कारण आरक्षण की अनुचित मांगें सामने आती हैं। आज जब आंकड़े यह बता रहे हैं कि असमानता और निर्धनता निवारण में उल्लेखनीय कामयाबी मिल रही है, तब फिर रोजगार और आरक्षण नीति को प्राथमिकता के आधार पर दुरुस्त किया जाना चाहिए।

Date:07-08-18

देवरिया से उठे सवाल

संपादकीय

मुजफ्फरपुर के बालिका गृह कांड पर बवंडर के बावजदू देवरिया जैसा मामला सामने आया, लेकिन प्रशासनिक तंत्र अब भी मुजफ्फरपुर से आगे बढ़ता नहीं दिख रहा। ऐसी कोई बड़ी कार्रवाई भी नहीं दिखी, जो बताती कि सरकारें और प्रशासन अपने यहां चल रही ऐसी संस्थाओं-संस्थानों की हकीकत खंगाल रहे हैं या इसमें उनकी कोई रुचि भी है? और यह भी कि जांच इस तरह होती कि अच्छा या बुरा सच सामने आता, क्योंकि यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि सिस्टम और समाज में फैली तमाम अराजकताओं के बावजूद अब भी तमाम संस्थाएं बहुत जिम्मेदारी से अपना काम अंजाम दे रही होंगी।

देवरिया का महज परदा हटा है। पूरा सच खुलना बाकी है। कहानी का दूसरा पक्ष दिखाने की कोशिशें भी शुरू हो गई हैं। वही दूसरा पक्ष, जो मुजफ्फरपुर में लंबे समय तक रचा जाता रहा। देवरिया में अब तक के सच से इतना तो तय है कि तीन साल पहले लाइसेंस निरस्त होने और सरकार से अनुदान बंद होने के बावजूद कोई संस्था अगर काम कर रही थी, तो समाज सेवा तो नहीं ही कर रही होगी। किसी भी संस्था का इस तरह और इतने लंबे समय तक अनुदान चालू हो जाने की प्रत्याशा में चलते रहना संदेह जगाता है। यह भी सवाल आया है कि इसे मनरेगा योजना में पालना गृह का काम भी मिला था और वहां से खासा पैसा भी मिल रहा था, जिसे जांच में फर्जी भुगतान का मामला माना गया। जाहिर है, यह सब कोई अकेले तो कर नहीं रहा होगा और जिस तंत्र की मिलीभगत से यह सब हुआ होगा, वह तंत्र आसानी से तो अपनी नाक के नीचे यह सब चलना स्वीकार नहीं करेगा।

देवरिया का पूरा सच जो भी हो, इसके तात्कालिक सच ने सवाल तो उठाए ही हैं। सवाल यह भी है कि जिस तरह तमाम टीमों की खानापूरी और ‘नियमित निरीक्षण’ के बावजूद मुजफ्फरपुर में सब कुछ चलता रहा, उसके बाद यह तो जरूरी ही था कि देश भर में ऐसे तमाम केंद्रों की जांच अब तक पूरी हो गई होती। यह इसलिए भी जरूरी था कि तमाम केंद्र अब भी पूरी जिम्मेदारी से बेशक चल रहे होंगे, लेकिन चंद अराजक लोगों की कारगुजारियों के कारण उनकी निष्ठा भी दांव पर है, और यह भी सही है कि ऐसे लोगों और संस्थाओं को गेहूं के साथ पिस जाने वाला घुन बनने के लिए तो नहीं छोड़ा जा सकता।

काश, जिस बच्ची ने यह सनसनीखेज बयान पुलिस को दिया है कि लड़कियां रात में कारों से बाहर भेजी जाती थीं और सुबह रोते हुए लौटती थीं- सच न होता। कल्पना कीजिए कि आज के दौर में भी जो समाज बेटी से यौन हिंसा महज समाज के सोचने के भय से छिपा लेता हो, वह अदालत के निर्देश पर रखी गई ऐसी बच्चियों को कल किस नजर से देखेगा। दरअसल, प्याज के छिलकों की तरह परत-दर-परत खुलते मुजफ्फरपुर कांड के बाद देवरिया ने तो बस एक राह दिखाई है कि अब से ही सही, ऐसी सारी संस्थाओं की पड़ताल तत्काल हो जानी चाहिए। आखिर कब तक ऐसी चीजें दोहराने की इजाजत देंगे हम? यह सब समाज को भरोसा दिलाने के लिए भी जरूरी है कि इन जगहों पर रखी गई हमारी बच्चियां, महिलाएं या बच्चे वाकई सुरक्षित हैं और वहां से निकलकर वे एक सुखद और बेहतर भविष्य की ओर आगे बढ़ सकते हैं। शेल्टर होम या सुधार गृहों के पीछे इसी आदर्श की परिकल्पना की भी गई थी। ऐसी संस्थाओं को हमें इसी दिशा में ले जाना होगा।


Date:07-08-18

गंदे पानी के उपयोग में ही है जल संकट का समाधान

वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली, (सामाजिक कार्यकर्ता)

नदियां जैसे-जैसे आगे बढ़ती हैं, उनमें सीवेज की मात्रा भी बढ़ती जाती है। नतीजतन राह में बाद के राज्यों को प्रदूषित जल मिलता है। आरोप-प्रत्यारोप भी लगते हैं। कावेरी विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के तुरंत बाद ही तमिलनाडु ने आरोप लगाया था कि कर्नाटक उसे कावेरी जल को प्रदूषित करके भेजता है। ऐसे ही, नीति आयोग की एक बैठक में हरियाणा के मुख्यमंत्री ने दिल्ली पर पानी को गंदा करके भेजने का आरोप लगाया था। सीवेज नदियों में जा रहा है, तभी तो हरिद्वार में गंगा का पानी आचमन लायक भी नहीं है। यमुना की स्थिति तो और ही चिंतनीय है। पवित्र नदियों का भी गंदा होना उनके उद्गम से ही शुरू हो जाता है। इस साल तो गंगोत्री में भी सीवेज उपचार संयंत्र लगाया गया है।

इस समय पूरे विश्व में ही, खासकर विकासशील देशों में 80 से 90 प्रतिशत सीवेज बिना उपचार के जल-स्रोतों में डाल दिया जाता है। भारत में केंद्र सरकार भी मानती है कि शहरी क्षेत्रों में ही लगभग 62 प्रतिशत सीवेज सीधे स्थानीय जल प्रणालियों या जल-स्रोतों में डाल दिया जाता है। कहीं-कहीं यह 70 प्रतिशत तक हो सकता है। इससे जल-स्रोत प्रदूषित हो जाते हैं। देश में 75 से 80 प्रतिशत सतही जल का प्रदूषण घरेलू सीवेज के कारण होता है। सीवेज में 99 प्रतिशत से भी ज्यादा जल और बाकी करीब एक प्रतिशत भाग कार्बनिक या अकार्बनिक ठोस का होता है। इसलिए कई देश सीवेज के जल को ज्यादा से ज्यादा प्रदूषण रहित करने की तकनीक विकसित करने में लगे हैं। व्यावसायिक स्तर पर वे इन तकनीक का निर्यात भी कर रहे हैं। कृषि और उद्योगों में उपचारित सीवेज जल को उपयोग में लाया जा रहा है। इजरायल में आधी सिंचाई उपचारित जल से हो रही है। कुछ जगह तो इसे पेयजल बनाने तक शुद्ध किया जा रहा है। लेकिन हमारे यहां ऐसी कोई योजना नहीं दिखती।

भारत के केवल शहरी क्षेत्रों से प्रतिदिन करीब 62,000 एमएलडी सीवेज पैदा होता है। इस हिसाब से हमारे शहरी क्षेत्रों से प्रतिदिन लगभग 560 हजार लाख लीटर पानी बरबाद होता है। जब हर बूंद पानी के उपयोग संरक्षण का मिशन हो, तो केवल शहरी घरों-कारखानों आदि से इतने पानी का बेकार हो जाना पीड़ादायक है। कुछ जिम्मेदारी हम आत्मानुशासन से संभाल सकते हैं। आंकड़े यह भी हैं कि देश में जितना पानी घरों में पहुंचाया जाता है, उसका 70 प्रतिशत से ज्यादा सीवेज में चला जाता है। भारत में औसतन प्रति व्यक्ति जल की आपूर्ति जब 1,885 लीटर प्रति दिवस थी, तो प्रति व्यक्ति प्रति दिवस सीवेज 1,378 लीटर था। इसमें वह साफ पानी भी होता है, जो हमारे नल खुला छोड़ देने या दाढ़ी बनाते या ब्रश करते समय नल चालू रखने से बह जाता है। इसमें अधिकांश में वह जल होता है, जो हमारे घरों मेें पीने लायक बनकर पहुंचता है।

जल सुरक्षा और सीवेज जल उपचार का सीधा संबंध है। एक तो उपचारित जल का उपयोग परोक्ष रूप से जल की उपलब्धता बढ़ाता है। दूसरा, तीन चरण तक उपचारित सीवेज जल को जल-स्रोतों में छोड़कर स्रोतों के प्रदूषित होने के जोखिम को कम किया जा सकता है। उपचारित सीवेज जल स्वत: ही जल-स्रोतों में पहुंचने के बाद पुन: उपयोग चक्र में आ जाता है।यह भी देखा गया है कि शहरों के आस-पास के किसान, खासकर सब्जी उगाने वाले, गंदी नालियों का पानी सिंचाई के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। कुछ जगहों पर इन्हें खरीदा भी जा रहा है। कुछ इसे सब्जियों को धोने के काम में भी ला रहे हैं।  ऐसी सब्जियों के खाने से बीमारियों के खतरे खड़े हो सकते हैं। लेकिन अगर सीवेज जल का उपचार दो चरण तक हो, तो कृषि-कार्यों के लिए इसे उपयोग में लाया जा सकता है। हालांकि यहां भी यह ध्यान रखने की जरूरत है कि उपचार तय मानकों के आधार पर ही होना चाहिए, किसी तरह की कोताही नहीं होनी चाहिए। इसमें बचे हुए प्रदूषण का स्तर इतना भर होना चाहिए कि प्रकृति खुद अपनी प्रक्रियाओं से उनसे उबरने की क्षमता रखे। हमारे पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं। जल के इस तरह से उपयोग का काम हमें युद्ध-स्तर पर करना होगा। जल इतना अमूल्य है कि उसे एक बार ही उपयोग करके नहीं गंवाया जा सकता है।


Date:07-08-18

Not Acting East

EDITORIAL

The consequences of the unfolding conflict between the US and China — the world’s most important economic and military powers — may look somewhat abstract at this moment in Delhi. But coping with the Sino-US confrontation is an existential question for the 10 members of the Association of South East Asian Nations (ASEAN). No region in the world is so badly caught in the crossfire between Washington and Beijing, thanks to South East Asia’s profound interdependence with both America and China. The US has been the ASEAN’s leading economic partner for decades. It is also the principal provider of security to a region that has seen an extended period of stability. A rising China, however, has begun to eclipse American commercial domination and challenge US military primacy in the region.

Last week’s meetings of the ARF — the regional forum of the ASEAN that brings together all the major powers to promote peace and prosperity in the region — in Singapore underline the region’s continuing struggle to deal with the challenges. The ASEAN expects India to provide a measure of economic ballast and strategic balance in these difficult circumstances. India has its task cut out on both fronts. As the trade war between America and China escalates, the ASEAN has put special emphasis on accelerating trade liberalisation through the Regional Comprehensive Economic Partnership (RCEP) agreement under negotiation for many years. Although India has formally committed to bringing the RCEP talks to a close, many issues remain to be resolved between India and the ASEAN. Unless there is highest-level political intervention in Delhi, India is in the danger of being left out of what promises to be one of the biggest trading blocks of the world.

As the US mounts pressure on China through its new Indo-Pacific strategy, a more active naval posture in South China Sea, and nearly US$300 million in new security assistance to the region, Beijing is showing a little more flexibility in its maritime territorial disputes with the ASEAN neighbours. After nearly two decades of talking about a code of conduct in the South China Sea, ASEAN and China have agreed to start negotiations on the basis of a common draft text. An actual agreement might take years, but China is winning some diplomatic brownie points. China has also conducted its first-ever joint maritime exercise with the 10 ASEAN countries last week in Singapore. China’s arms sales to the region continue to rise. India has a longer tradition of defence and security cooperation with the ASEAN than China. Despite the Modi government’s tall talk on “Acting East”, the gap between Delhi’s promise and delivery remains large. Plugging that gap must be a high priority for the current government and its successor in Delhi.