News Clipping on 04-10-2018

Date:03-10-18

अन्‍नदाता का आंदोलन

किसानों का वास्तव में भला तब होगा, जब केंद्र व राज्य मिलकर सक्रिय होंगे तथा राजनीतिक हानि-लाभ की चिंता किए बिना कदम उठाए जाएंगे।

संपादकीय

किसानों का एक संगठन अपनी मांगों को लेकर जिस तरह सड़कों पर उतरा और उसने अनुमति न मिलने के बावजूद दिल्ली तक पहुंचने की कोशिश की, उससे कृषि और किसानों की समस्याओं पर नीति-नियंताओं का ध्यान जाना ही चाहिए। इसमें दोराय नहीं कि भारतीय किसान तमाम समस्याओं से ग्रस्त हैं और उन समस्याओं का प्राथमिकता के आधार पर निदान होना चाहिए, लेकिन यदि किसान और उनका नेतृत्व करने वाले लोग या संगठन यह सोच रहे हैं कि कर्ज माफी जैसे रास्ते से किसानों का हित हो सकता है तो यह बिल्कुल भी सही नहीं है। पिछले दस वर्षों का अनुभव यही बताता है कि कर्ज माफी जैसे उपाय किसानों की हालत में सुधार करने में तो नाकाम होते ही हैं, पूरी बैंकिंग व्यवस्था को भी नुकसान पहुंचाते हैं और साथ ही कर्ज लेकर उसे ईमानदारी से चुकाने वाले लोगों के समक्ष संकट भी पैदा करते हैं।

यह संकीर्ण स्वार्थों वाली राजनीति के अतिरिक्त और कुछ नहीं कि कुछ दल किसानों के साथ हमदर्दी दिखाने के लिए कर्ज माफी की वकालत कर रहे हैं। राहुल गांधी और कर्ज माफी की मांग बार-बार दोहराने वाले लोगों को पता होना चाहिए कि संप्रग सरकार के समय जो भारी-भरकम योजना लाई गई थी, वह किस तरह बेनतीजा रही और किस तरह विदर्भ के वही किसान फिर से कर्ज माफी की मांग लेकर सामने आ गए, जिनके ऋण माफ किए गए थे।

यह ठीक है कि किसानों के हित में कई अहम सुझाव देने वाली स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों पर अमल से बात बन सकती है, लेकिन मौजूदा हालात में इन्हें एक झटके में लागू नहीं किया जा सकता। इसके साथ ही इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि केंद्र सरकार स्वामीनाथन समिति की कई सिफारिशों पर अमल करने की दिशा में आगे बढ़ रही है और इसी का हिस्सा है किसानों की आमदनी दोगुनी करने की दिशा में उठाए गए कुछ उल्लेखनीय कदम। आवश्यक यह है कि इन कदमों का असर जमीन पर भी नजर आए और किसान यह महसूस करें कि फसल की लागत से दोगुनी आमदनी का जो संकल्प जताया जा रहा है, वह पूरा होगा। इसके साथ ही अपनी मांगें रखते समय किसानों को भी इस पर गंभीरता से विचार करना होगा कि उन उपायों पर अमल कैसे हो जो वास्तव में उनको आत्मनिर्भर बनाएं।

कृषि और किसानों का कल्याण एक ऐसा विषय है जिस पर न तो अकेले केंद्र सरकार कुछ कर सकती है और न ही राज्य सरकारें। किसानों का हित तो तब होगा, जब केंद्र और राज्य मिलकर सक्रिय होंगे और राजनीतिक हानि-लाभ की चिंता किए बिना कदम उठाए जाएंगे। कृषि की बदहाली का एक बड़ा कारण इस क्षेत्र के लिए उपयुक्त बुनियादी ढांचे का निर्माण न हो पाना है। यह एक सच्चाई है कि जिस तरह अन्य क्षेत्रों के लिए बुनियादी ढांचे का निर्माण किया गया है, उस तरह का ढांचा कृषि के लिए नहीं बन पाया। बात चाहे सिंचाई की प्रणाली दुरुस्त करने की हो या फिर कृषि को आधुनिक तौर-तरीकों से लैस करने की, जब तक केंद्र और राज्य सरकारें बड़े पैमाने पर निवेश के लिए आगे नहीं आएंगी, तब तक किसानों की दशा में बुनियादी बदलाव नहीं आने वाला।


Date:03-10-18

विकास का बदला पहलू

राजीव सिंह

असली भारत गांवों में ही बसता है जिसमें देश की करीब 70 फीसद आबादी रहती है। पिछले कुछ वर्षो से देश में शहरीकरण बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। रोजी-रोटी के बेहतर अवसरों की वजह से ग्रामीण शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। लेकिन इस रुख में अब बदलाव आ रहा है। सरकार की सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी उज्ज्वला, डिजिटल इंडिया, स्वच्छ भारत और सौभाग्य जैसी योजनाएं ग्रामीणों के लिए उत्प्रेरक का काम कर रही हैं। इससे ग्रामीण क्षेत्र की प्रति व्यक्ति आय में अच्छा इजाफा हो रहा है। बुनियादी सुविधाएं बढ़ने से विकास की धारा शहरों से होते हुए अब गांवों की ओर रुख कर रही है। शहरीकरण की चमक बढ़ने के बावजूद वर्ष तक 2050 देश की ग्रामीण क्षेत्र की आबादी 50 फीसद के स्तर पर बनी रहेगी। दरअसल, भारत उन चुनिंदा देशों में शुमार है जहां ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में भारी अंतर है। शहरी क्षेत्र देश के प्रगतिशील और विकासशील समाज का प्रतिनिधित्व करता है। इस क्षेत्र का राष्ट्रीय आय में 55 फीसद का योगदान है जबकि ग्रामीण क्षेत्र पिछड़े और आदिवासी समाज को दर्शाता है जो गरीबी में जीवनयापन कर रही है। देश की यह दोहरी अर्थव्यवस्था समग्र विकास और इसके पांच खरब डालर के बनने की राह बड़ी बाधा साबित हो रही है। ऐसे में ग्रामीण क्षेत्र के विकास में तेजी लाकर गांव और शहर के बीच की खाई को जल्द से जल्द पाटने की जरूरत है। इसके बिना भारत के विकसित देश बनने का सपना पूरा नहीं हो पाएगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि ग्रामीण क्षेत्र का भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

ग्रामीण क्षेत्र में कृषि रोजी-रोटी का सबसे बड़ा जरिया है। वर्ष 2011 की कृषि जनगणना के अनुसार 61 फीसद से ज्यादा की ग्रामीण आबादी खेतीबाड़ी पर निर्भर है जो कारखाना क्षेत्र में कार्यरत 4.1 फीसद आबादी की तुलना में कई गुना ज्यादा है। अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान घटकर 14 फीसद पर आ गया जो वर्ष 1951 में 51 फीसद था। इससे संकेत मिलता है कि फिलहाल कृषि क्षेत्र रोजगार तो बड़ी आबादी को दे रहा है लेकिन इसकी उत्पादकता काफी कम है। राष्ट्रीय आय में ग्रामीणों का योगदान बढ़ाने के लिए नई प्रौद्योगिकी के जरिए कृषि से जुड़ी सुविधाएं बढ़ाने की सख्त जरूरत है। इसके अलावा, साक्षरता दर में सुधार और कृषि व अन्य क्षेत्रों के श्रमिकों की आय के बीच संतुलन बनाने की दरकार है। हकीकत यह है कि खेतिहर मजदूर की तुलना में शहरी श्रमिक की औसत आय तीन गुनी ज्यादा है। इस विभेद को दूर करने के लिए सरकार कौशल विकास अभियान चला रही है, लेकिन मौजूदा रफ्तार को देखते हुए यह विभेद दूर हो पाएगा इसके कम ही आसार हैं। इसके लिए सरकार को और कारगर उपाय करने होंगे। हालांकि पिछले कुछ वर्षो में ग्रामीण क्षेत्र को गरीबी से उबारने के लिए कई आकर्षक योजनाएं शुरू की गई हैं। इसके तहत कृषि उत्पादकता बढ़ाने पर विशेष जोर दिया गया है। मृदा स्वास्य कार्ड और फसल बीमा योजनाओं के अच्छे परिणाम दिख रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्र के समग्र विकास के लिए शुरू की गई समग्र शिक्षा एवं साक्षर भारत जैसी योजनाएं आगे चलकर देश के विकास में मील का पत्थर साबित होंगी। इससे ग्रामीण साक्षरता में भारी सुधार आने की उम्मीद है। यह सर्वविदित है कि ग्रामीणों की आय का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न प्रकार की बीमारियों का इलाज कराने में ही खर्च हो जाता है।

‘‘स्वच्छ भारत मिशन’ जैसी योजनाओं के साथ ग्रामीण इलाकों में स्वास्य क्षेत्र में सुधार लाने की कोशिश की जा रही है। देश में कुपोषण और डायरिया की वजह से हर साल लगभग तीन लाख बच्चों की मौत होती है। इस माह 25 सितम्बर से शुरू हुई ‘‘आयुष्मान योजना’ में पांच लाख रुपये का स्वास्य बीमा कवर मिलने से 50 करोड़ लोग स्वास्य सुरक्षा के दायरे में आ जाएंगे। यह योजना मोदी सरकार के लिए मनरेगा साबित हो सकती है, जिससे ग्रामीणों की सेहत और समृद्धि में सुधार आएगा। लोक सभा के आसन्न चुनावों को देखते हुए सरकार दीन दयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना, कौशल भारत जैसी योजनाओं को बढ़ावा दे रही है। देश के विकास के लिए ग्रामीण युवाओं के कौशल विकास, लघु एवं कुटीर उद्योगों नए कारोबार के नए विचारों को प्रोत्साहन अच्छी पहल साबित होगी। सरकार के आर्थिक सुधारों की बात करें तो इनके सकारात्मक परिणाम स्पष्ट रूप से दिखने लगे हैं। पिछले चार वित्तीय वर्षो में देश की औसत प्रति व्यक्ति आय तेजी से बढ़ी है। हालांकि शहरी और ग्रामीण क्षेत्र की प्रति व्यक्ति आय के बीच अब भी बड़ा अंतर बना हुआ है। सरकार का लक्ष्य वर्ष 2015-16 के आधार पर वर्ष 2022-23 तक ग्रामीण आय को दोगुनी करना है। फिलहाल, प्रौद्योगिकी के जरिए कृषि पैदावार बढ़ाने पर विशेष जोर दिया जा रहा है। नई प्रौद्योगिकी से श्रम, मजदूरी और लागत घटाने में मदद मिल रही है। जाहिर है कृषि उत्पादन की तुलना में किसानों की आय ऊंची दर से बढ़ेगी। उपज के वाजिब दाम, फसलों का कुशल प्रबंधन और जिंसों के उचित भंडारण जैसे उपायों के जरिए किसानों की आय में एक तिहाई वृद्धि दर्ज की जा सकती है। इसके लिए कृषि बाजार और भूमि के अनुबंध की प्रक्रिया में बड़े बदलाव की जरूरत है। हालांकि सरकार ने ऑनलाइन राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई-नाम) की व्यवस्था शुरू की है।

किसी व्यापारी को देश के दूरदराज इलाके से फसल खरीदने की सुविधा मिलने से किसानों को बेहतर दाम मिलने लगे हैं। इसी का नतीजा है कि बिहार के दरभंगा के किसान को अपने मखाने बेचने के लिए दिल्ली अथवा हैदराबाद नहीं जाना पड़ता। ऑनलाइन दर्ज होने पर अब व्यापारी उससे खुद ही संपर्क करने लगे हैं। यह सुविधा मिलने से किसान को एक और बड़ा फायदा यह मिला है कि अब वह अपनी उपज औने-पौने दाम पर बेचने को मजबूर नहीं है। दूरदराज के खेतों के सड़कों से जुड़ने से कृषि उपज की त्वरित आपूत्तर्ि का विकल्प मिल गया है। नतीजतन वॉलमार्ट जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां अब किसान के खेतों पर पहुंच कर उनके उत्पादों को खरीद रही हैं। पर अभी ऐसा नहीं कह सकते कि सब कुछ अच्छा हो गया है। सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की दर काफी ऊंची बनी हुई है। गरीबी और कर्ज न चुका पाने के कारण किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। कृषि आय का मुख्य स्रेत होने के बावजूद जरूरत के मुताबिक उत्पादन नहीं बढ़ रहा है। खेतीबाड़ी के लिए आधुनिक प्रौद्योगिकी और पर्याप्त पूंजी नहीं मिल पा रही है। इस क्षेत्र में निजी निवेश आकर्षित करने के लिए उदारीकरण की जरूरत है। यदि सरकार यह करती है तो गांवों की गरीबी निश्चित तौर पर दूर हो सकती है।


Date:03-10-18

न्याय का चेहरा

संपादकीय

अपने कई ऐतिहासिक फैसलों के लिए सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा का कार्यकाल हमेशा याद किया जाएगा। उनके फैसले आने वाले समय में भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन को गहराई से प्रभावित करेंगे। चाहे वह समलैंगिक संबंधों का प्रश्न हो या व्यभिचार का, सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का सवाल हो या आधार का, उनके फैसले इसी श्रेणी में आते हैं। इससे एक बात स्पष्ट है कि समाज की नैतिकता पर संविधान की नैतिकता स्थापित करने में मदद मिलेगी। संविधान में ऐसा कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है, जो न्यायपालिका को उसके सामाजिक कर्त्तव्य के प्रति जागरूक करे। इसलिए न्यायालय का यह दायित्व बन जाता है कि वह समाज हित में अपने विवेक से फैसला दे। न्यायालय का यह दायित्व उस अवस्था में और बढ़ जाता है, जब स्वतंत्र भारत में सामाजिक-आर्थिक न्याय की स्थापना के लिए यथास्थिति को तोड़ना अपरिहार्य था।

भारतीय न्यायपालिका स्वतंत्र भारत में शुरू से ही इसके प्रति सचेत थी। वह संविधान की व्याख्या प्रबुद्ध उदारवादी दृष्टि से करने की अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन इस प्रकार करती आ रही है, जिससे व्यक्ति के अधिकारों और उसकी गरिमा की रक्षा हो सके। सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसलों में भी यह भाव प्रतिबिंबित होता है। सेवानिवृत्ति के लिए आयोजित समारोह के दौरान भी न्यायमूर्ति मिश्रा एक बार इसी बात को पुन: रेखांकित कर गए। उनकी चिंता के केंद्र में यही था कि न्याय का चेहरा मानवीय हो। उनके लिए इस बात का कोई महत्त्व नहीं था कि वह अमीर है या गरीब। हालांकि देशकाल की परिस्थितियों के अनुसार न्याय की अवधारणा अलग-अलग होती है, लेकिन इस बात को कौन नकार सकता है कि समता के साथ न्याय भी मिले। न्याय एक गतिशील अवधारणा है, जिसे देशकाल की परिस्थितियों के अनुसार व्याख्यायित करने की आवश्यकता होती है। न्याय की सार्थकता इसी में है कि वह सुदूर ग्रामीण अंचल में बैठे एक गरीब को आसानी से उपलब्ध हो। यह तभी संभव है, जब न्याय सस्ता और शीघ्र मिले। इसके अभाव में गरीबों की उम्मीद टूटने लगती है। न्यायालय में मुकदमों का अंबार चिंताजनक है। न्यायमूर्ति मिश्रा के संबोधन में इसकी चिंता दिखी, तो आशा भी। खास बात यह कि उनका स्थान लेने वाले न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की प्राथमिकता में यह पहलू शामिल है।


Date:03-10-18

ताकि वे अपनी पसंद से खरीदें अनाज

कार्तिक मुरलीधरन, प्रोफेसर, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय

सस्ते दामों पर राशन का सार्वजनिक वितरण (पीडीएस) भारत की प्रमुख खाद्य सुरक्षा योजना है, लेकिन यह कई जानी-पहचानी समस्याओं से घिरी है। सरकारी एजेंसियों का ही आकलन है कि पीडीएस पर सरकारी खर्च का एक बड़ा हिस्सा उचित लाभार्थियों तक नहीं पहुंचता। इसके चलते, एक विकल्प सामने आया कि क्यों न इस सब्सिडी युक्त अनाज की जगह लाभार्थियों को (खाद्य पदार्थों पर खर्च करने के लिए) सीधा पैसे भेजे जाएं? इस प्रक्रिया का नाम ‘सीधा लाभ हस्तांतरण’ यानी डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) है। खुद प्रधानमंत्री का सुझाव है कि पीडीएस के बदले हमें डीबीटी पर आगे बढ़ना चाहिए।

डीबीटी के कुछ फायदे बिल्कुल साफ हैं। हर महीने बैंक खातों में पैसे भेजने से प्रशासनिक लागत में कमी आएगी और इसकी समस्याएं थम सकेंगी। साथ ही लाभार्थियों को अपनी पसंद का अनाज खरीदने का विकल्प भी मिल सकेगा। हालांकि डीबीटी में कुछ जोखिम भी हैं। मसलन, डीबीटी को सोच-समझकर लागू न करने से लाभार्थियों की दशा और खराब हो सकती है। खासकर, बैंक खाते में डाली गई रकम यदि खाद्यान्न की खुदरा कीमत और महंगाई के अनुरूप न हुई, तो वे पैसे अपर्याप्त साबित हो सकते हैं। एक मुश्किल यह भी है कि बैंक, एटीएम और बाजार की पहुंच हर जगह एक जैसी नहीं है। फिर, नकद पैसे का उपयोग लाभार्थी उन गैर-खाद्य वस्तुओं के लिए भी कर सकता है, जो उसकी वरीयता में होगी। जाहिर है, यह कोशिश खाद्य सुरक्षा और पोषण के लक्ष्य को प्रभावित कर सकती है।

इन तमाम मसलों को हमने उन तीन केंद्र शासित क्षेत्रों (चंडीगढ़, पुडुचेरी और दादर-नागर हवेली) में परखने की कोशिश की, जहां पिछले कुछ वर्षों में बतौर पायलट प्रोजेक्ट इसको शुरू किया गया है। हमने 6,000 से अधिक परिवारों पर तीन दौर के सर्वेक्षण किए। इसका जो पहला नतीजा निकला, वह यह है कि डीबीटी का क्रियान्वयन बदलते समय के साथ बेशक सुधरा है, लेकिन लागू होने के 18 महीने बाद भी चुनौती बनी हुई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 99 प्रतिशत से अधिक लाभार्थियों को सफलतापूर्वक पैसे ट्रांसफर किए गए, मगर सर्वे के दौरान 20 प्रतिशत परिवारों ने तय समय पर डीबीटी मिलने से इनकार किया। इसकी वजह यह थी कि पैसे उन बैंक खातों में नहीं आ रहे थे, जो वे लगातार इस्तेमाल कर रहे थे। पासबुक भी अपडेट नहीं हो रही थी। इसी कारण, डीबीटी में ‘लीकेज’ के भले ही कोई सुबूत हमें नहीं मिले, मगर कुछ हद तक लोगों को इसका लाभ लेने में मुश्किलें आ रही थीं।

दूसरा नतीजा यह है कि लाभार्थियों के लिए इसकी लागत अलग-अलग थी। जो एटीएम का इस्तेमाल कर रहे थे, उनका पीडीएस के मुकाबले नकद पाने और बाजार जाकर अनाज खरीदने में समय और धन कम खर्च हो रहा था, जबकि जो लाभार्थी पैसे निकालने के लिए बैंक में जाते थे, उन्हें ज्यादा समय और पैसे खर्च करने पड़ रहे थे। हालांकि लाभार्थियों ने पीडीएस की समान मात्रा में अनाज खरीदने के लिए डीबीटी राशि से अधिक पैसे खर्च किए; मगर उन्होंने बेहतर गुणवत्ता वाला अनाज खरीदा।

आखिरी निष्कर्ष यह है कि वक्त बीतने के साथ-साथ लाभार्थियों ने पीडीएस के मुकाबले डीबीटी को पसंद करना शुरू किया। पहले दौर का सर्वे इस योजना के शुरू होने के छह महीने में किया गया था। इसमें दो-तिहाई लाभार्थियों ने डीबीटी की जगह पीडीएस को पसंद किया। मगर तीसरे दौर के सर्वे में (18 महीने बाद) यह आंकड़ा उलट गया और दो-तिहाई डीबीटी को पसंद करने लगे। इसका मुख्य कारण था, पसंद का विकल्प मिलना, लचीलापन, और बेहतर गुणवत्ता के अनाज। हालांकि, पीडीएस को पसंद करने वालों ने यह भी बताया कि उन्हें कम कीमत में अधिक अनाज मिल रहा है।

ये नतीजे बताते हैं कि पीडीएस में डीबीटी इतना जटिल नीतिगत सवाल क्यों है? समय के साथ, जैसे-जैसे डीबीटी का संचालन बेहतर होने लगा, वैसे-वैसे लाभार्थी इसकी तरफ आकर्षित हो रहे थे। मगर शुरुआती तौर पर लोगों ने इसका विरोध किया था, इसीलिए जबरन सरकारी आदेश से इसे लागू करना अनैतिक और राजनीतिक रूप से नुकसानदेह होगा। इसके अलावा, दोनों विकल्पों का अनुभव होने के बाद भी लाभार्थियों में काफी अंतर है, जो डीबीटी के तमाम साझेदारों के बीच असहमतियां बना सकता हैं। ऐसे में, सवाल यह है कि हमें कैसे आगे बढ़ना चाहिए?

हमारी एक साधारण, मगर असरदार सलाह है। हमारे नीति-निर्माता पीडीएस और डीबीटी में से खुद किसी एक को न चुनें, बल्कि यह अधिकार लाभार्थियों को दे दें। यह संभव भी है, क्योंकि अब पीडीएस में ई-पीओएस यानी स्वाइप मशीनें लगाई जा रही हैं। लाभार्थियों की पसंद को इन मशीनों में दर्ज किया जा सकता है और डीबीटी या अनाज का वितरण उसी पसंद के अनुसार हर महीने हो सकता है। पैसे घर की महिला सदस्य के खाते में जमा किए जा सकते हैं, ताकि इसके उपयोग में उसकी पर्याप्त भागीदारी रहे।

पसंद-आधारित यह विकल्प इस सच को जाहिर करता है कि विभिन्न इलाकों में रहने वाले लोगों की जरूरतें अलग-अलग होती हैं, और वे अपने विकल्प का विस्तार करके लाभ का दायरा बढ़ा सकते हैं। यह उन सियासी और नैतिक चुनौतियों को भी कम कर सकता है, जो इस सुधार की राह मेंं कायम हैं। और फिर, डीबीटी की उपलब्धता मौजूदा पीडीएस को सुधारने में भी मदद कर सकती है, क्योंकि लाभार्थियों का भरोसा बनाए रखने के लिए पीडीएस को लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरना होगा। इसके अलावा, अन्य अनाजों या उत्पादों को स्टॉक करने की अनुमति देकर पीडीएस डीलर की आर्थिक सेहत भी सुधारी जा सकती है, ताकि उनके लिए कमाई का एकमात्र जरिया पीडीएस न रहे।

बहरहाल, अनाज के उपभोग और पोषण पर इस पसंद-आधारित नई व्यवस्था के प्रभाव को मापने के लिए इसके लाभार्थियों का सावधानी से मूल्यांकन किया जाना चाहिए। फिलहाल हम यह काम महाराष्ट्र सरकार के साथ मिलकर मुंबई में पायलट परियोजना के तौर पर कर रहे हैं। इसे दूसरे राज्यों में भी शुरू किया जा सकता है। हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि हम अधिक विकल्पों के साथ वंचित तबकों को सशक्त बनाएं और समाज के सबसे कमजोर सदस्यों की भी रक्षा करें। पसंद-आधारित यह विकल्प ऐसा करने में सक्षम है।