News Clipping on 01-08-2018

Date:01-08-18

In Consumer Interest

Don’t hobble e-commerce with archaic tools like price regulation

TOI Editorials

E-commerce in India has changed the way millions of Indians shop and simultaneously influenced operations of manufacturers and service providers. In a sense, this transformation has taken place in a policy vacuum. This is set to end with the advent of the draft e-commerce policy. The salient feature of this policy is the strategic intent which underpins it. In this most globalised of businesses, there is a clear intent to create an architecture which encourages Indian entrepreneurs. This should have a positive spillover on the domestic economy.

While the overall intent of the policy is positive, there are some suggestions which are inconsistent with the essence of e-commerce. The e-commerce phenomenon piggybacks on path breaking advances in information and communications technology. These advances have simultaneously transformed many areas such as financial payments.Another key outcome of e-commerce is that it radically lowers the cost of doing business and this, in turn, depends on ensuring the seamlessness of the chain. Some suggestions in the draft policy can lead to a regulatory regime which will be out of sync with the above essence of e-commerce.

To illustrate, of regulator opt to fix floor prices and prohibit discount below a thresh hold , there is a danger that technological advances and process improvement will not translate into consumer benefits, In a fast evolving sector, it is impossible for a regulator to use an archaic tool like price regulation to benefit consumers. Light touch regulation which does not fetter competitiveness in the marketplace is the best way to ensure consumer benefits- and not impede the evolution of e-commerce segment on the heels of technological advances. It is important ensure the overarching aim is in sync with the plumbing.


Date:01-08-18

असम में उठे नागरिकता के सवाल का जवाब आसान नहीं

संपादकीय

असम में 40 लाख लोगों का राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर(एनआरसी) के अंतिम मसौदे से बाहर होना इंसानियत और राष्ट्रीयता के बीच गंभीर समस्या का उपस्थित होना है। केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा और उसकी सरकार ने यह साबित करने की कोशिश की है कि जो काम मुस्लिम वोट बैंक के चलते कांग्रेस सरकार टाल रही थी उसे उसने कर दिखाया। दूसरी ओर इसके पश्चिम बंगाल और देश के अन्य हिस्सों में पड़ने वाले प्रभाव को देखते हुए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और दूसरे विपक्षी नेताओं ने सरकार पर पक्षपात का आरोप लगाया है और इसे संवेदनशील मानवीय तरीके से हल करने की मांग की है।

40 लाख लोगों का आकार न सिर्फ असम की आबादी का 10 प्रतिशत है बल्कि दुनिया के तकरीबन सौ देशों की जनसंख्या से भी ज्यादा है। अगर सरकार कहना चाहती है कि भारत के भीतर पूरा देश अवैध तरीके से रह रहा है तो विपक्ष कह रहा है कि इतनी बड़ी आबादी को हम जेलों और शिविरों में रख नहीं सकते और बांग्लादेश को एक साथ वापस भी नहीं कर सकते। असम में अस्सी के दशक का छात्र आंदोलन असमिया लोगों की अस्मिता की समस्या और बांग्लाभाषियों की घुसपैठ के विरुद्ध चला था और उसे देश के तमाम धर्मनिरपेक्ष समूहों को समर्थन भी हासिल था। इंदिरा गांधी ने उसे सांप्रदायिक रंग दिया और बाद में अल्पसंख्यकों के नेल्ली नरसंहार के बाद समस्या हिंदू बनाम मुस्लिम का रूप लेती गई। उसे धीरे धीरे भाजपा ने अपना मुद्‌दा बना लिया।

हालांकि, राजीव गांधी ने 1985 में वहां की असम गण परिषद की सरकार से एक समझौता किया, जिसके तहत विदेशी नागरिकों को चिह्नित करने और उन्हें वापस भेजने का निर्णय लिया गया लेकिन, राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में व्यावहारिक धरातल पर समझौता लागू नहीं हो पाया। अब अगर पहचान करने का काम हुआ है तो उसे लागू करने की चुनौती सामने है। निश्चित तौर पर इस मसले पर ऐसी राजनीति छिड़ेगी, जिससे 2019 के चुनाव में एक राजनीतिक ध्रुवीकरण होगा और इसका असर असम ही नहीं पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा पर भी पड़ेगा। देखना है कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रही इस पहचान प्रक्रिया में न्यायालय संविधान और संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के बीच झूलने वाले देशभक्ति और वसुधैव कुटुंबकम के सिद्धांत के माध्यम से टकराव टालने वाला कौन-सा व्यावहारिक फैसला करता है।


Date:01-08-18

सराहनीय है डेटा संरक्षण पर श्रीकृष्ण समिति रिपोर्ट

सुनील अब्राहम, (लेखक सेंटर फॉर इंटरनेट ऐंड सोसाइटी के कार्यकारी निदेशक हैं)

नीति निर्माण करने वाले हलकों में एक चुटकुला चलता है- अगर सभी संबद्ध पक्ष समान रूप से नाखुश हों तो आपको यह समझ जाना चाहिए कि आप एक अच्छे समझौते पर पहुंच चुके हैं। उस दृष्टि से देखा जाए तो कह सकते हैं कि बीएन श्रीकृष्ण समिति ने सराहनीय काम किया है क्योंकि उसे लेकर कई शिकायतें हैं। निजी क्षेत्र के कुछ लोग इसलिए नाखुश हैं क्योंकि जनरल डेटा संरक्षण नियमन (जीडीपीआर) को खराब ढंग से पेश करने की उनकी कोशिश नाकाम रही है। अधिकारों, सिद्घांतों, नियामक के डिजाइन और प्रभाव आकलन आदि जैसे नियामकीय उपायों के डिजाइन के मामले में यह विधेयक काफी हद तक जीडीपीआर पर ही आधारित है। कुल वैश्विक कारोबार के 4 फीसदी के बराबर अधिकतम जुर्माने की व्यवस्था के साथ स्पष्ट संकेत दिया गया है कि विदेशों में स्थित मुख्यालय वाले उद्यमों द्वारा निजता के उल्लंघन के मामलों पर नियामक लगाम लगाएगा।

यूरोपीय नियमन के कई तत्त्वों से भरपूर कानून हमारे लिए अच्छी खबर है क्योंकि जीडीपीआर को दुनिया के शीर्ष मानवाधिकार संस्थान वैश्विक स्तर पर बेहतर मानक वाला मानते हैं। परंतु हमारे लिए बुरी खबर यह है कि विधेयक में निजी क्षेत्र के लिए अनावश्यक रूप से व्यापक डेटालोकलाइजेशन की बात कही गई है। वित्तीय और तकनीकी (फिनटेक) क्षेत्र की कुछ कंपनियां इसलिए नाखुश हैं क्योंकि समिति ने इस सुझाव को नकार दिया कि निजता का नियमन संपत्ति के अधिकार के रूप में किया जाए। यह मानवाधिकार की दृष्टि से सकारात्मक बात है। खासतौर पर इसलिए क्योंकि यह रुख यूरोपीय संघ समेत दुनिया भर में नकारा जा चुका है। संपत्ति का अधिकार उचित नहीं है क्योंकि श्रम के जरिये साझा को संपत्ति में सीमित करना व्यक्तिगत डेटा नहीं कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त पेटेंट या बौद्धिक संपदा और व्यक्तिगत सूचना में विशिष्ट परिसंपत्ति धारिता की तुलना की बात करें तो यह कई दर्जा ऊपर है। इससे नियमन को लेकर अकल्पनीय जटिलताएं पैदा हो सकती हैं। यह बात अर्थव्यवस्था के लिए भी नुकसानदेह साबित हो सकती है।

नागरिक समाज का एक हिस्सा जिसने आधार का विरोध किया वह नाखुश है क्योंकि यूआईडीएआई तथा अन्य सरकारी एजेंसियां अपनी इच्छा से बिना सहमति के डेटा का इस्तेमाल कर सकती हैं। ऐसी ही खामी जीडीपीआर में भी देखने मिलती है। याद रहे कि डेटा प्रसंस्करण की परिभाषा में संग्रहण, रिकॉर्डिंग, संगठन, संरचना, भंडारण, संयोजन, बदलाव, पुनप्र्राप्ति, उपयोग, सुसंगतता, सूचीबद्धता, पारेषण, अलगाव, प्रतिबंध और नष्ट करना आदि तमाम बातें शामिल हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि यूआईडीएआई बिना आपकी इजाजत के आपका डेटा ले सकता है। उसे अतीत में लिए गए डेटा के लिए भी आपकी सहमति की आवश्यकता नहीं है। एक अनिवार्य परीक्षण है जिसकी मदद से डेटासंग्रह को रोका जा सकता है। परंतु पिछले 10 वर्ष की अवधि में यूआईडीएआई ने गरीबों को सस्ता अनाज देने के लिए बायोमेट्रिक्स डेटा को अनिवार्य माना है। क्या ऐसे असंगत और बिना सहमति के डेटा संग्रह की प्रक्रिया जारी रहेगी? शायद हां, क्योंकि रिपोर्ट की अनुशंसा के मुताबिक यूआईडीएआई अच्छी खासी शक्तियों के साथ नियामक की भूमिका में बना रहेगा। यह वैसा ही है जैसे घोड़े को घास की रखवाली का काम सौंप दिया जाए।

कर्मचारियों की नाराजगी इसलिए क्योंकि विधेयक में एक विस्तृत आधार ऐसा भी है जिसके तहत नियोक्ता बिना सहमति के उनके आंकड़े जुटा सकते हैं। विधेयक भर्ती, सेवा समाप्ति, किसी तरह की लाभ या सेवा देने, उपस्थिति प्रमाण या किसी भी तरह के प्रदर्शन आकलन की गतिविधियों के लिए बिना सहमति के डेटा ले सकता है। इसकी इजाजत तब दी जाती है जब सहमति उचित आधार न हो या नियोक्ता की ओर से असंगत प्रयास किए जा रहे हैं। यह एक तरह से नियोक्ता के लिए निगरानी प्रणाली की तरह है। जीडीपीआर की तरह या तो इस आधार को हटा दिया जाना चाहिए या फिर परीक्षण की एक सुसंगत व्यवस्था बनाई जानी चाहिए ताकि नियोक्ता बिना सूचना के काम करने के कंप्यूटर पर स्पाईवेयर आदि न डाल सके।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कुछ पक्षधर इस बात से नाखुश हैं कि कानून में ‘राइट टु बी फॉरगॉटन’ का प्रावधान है। इस प्रावधान के तहत लोग चाहें तो इंटरनेट से अपना निजी डेटा हटाने का अनुरोध कर सकते हैं। उनकी चिंता यह है कि इसका इस्तेमाल अमीर और शक्तिशाली वर्ग द्वारा मुख्यधारा के और वैकल्पिक मीडिया को सेंसर करने में किया जाएगा। जीडीपीआर में राइट टु बी फॉरगॉटन के बरअक्स कहीं अधिक व्यापक राइट टु इरेजर है जबकि समिति के विधेयक में कहीं अधिक सीमित राइट टु रिस्ट्रिक्ट है। इसके तहत निरंतर खुलासों को रोका जा सकता है। बहरहाल जीडीपीआर में सार्वजनिक हित, वैज्ञानिक या ऐतिहासिक शोध आदि का उद्देश्य या सांख्यिकीय उद्देश्य एक स्पष्टï अपवाद है। जीडीपीआर की तरह विधेयक भी दो समर्थ मानवाधिकार निहितार्थों को रेखांकित करता है। पहला अभिव्यक्ति की आजादी और दूसरा सूचना का अधिकार।

निजता और सुरक्षा जैसे विषयों पर शोध करने वाले इसलिए नाखुश हैं क्योंकि पुनर्पहचान को तब तक एक अपराध घोषित कर दिया गया है जब तक कि उसे जनहित में या शोध कार्य के लिए प्रयोग में नहीं लाया गया हो। यह बात सकारात्मक है कि समिति ने पुनर्पहचान को एक अपराध करार दिया है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसके जिन मानकों को नियामक ने अधिसूचित किया है वे अद्यतन गणितीय आकलन पर आधारित होंगे। बहरहाल नियामक जिस शोध को बचाना चाहता है उसके लिए विधेयक में औपचारिक और अनौपचारिक रूप से अकादमिक जगत को जवाबदेही और आपराधिक अभियोजन से राहत प्रदान की जानी चाहिए थी।

आखिरी और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मानवाधिकार कार्यकर्ता इसलिए नाखुश हैं क्योंकि समिति ने पुन: जीडीपीआर के तर्ज पर कानूनी निगरानियों को जरूरी तवज्जो नहीं दी है। यूरोपीय संघ ने ऐतिहासिक तौर पर इससे निपटने के लिए अलग से ईप्राइवेसी रेग्युलेशन की मदद ली है। शायद हमें भी आगे चलकर वही रुख अपनाना होगा या फिर शायद हम इस संबंध में अवसर गंवा चुके हों। कुल मिलाकर बीएन श्रीकृष्ण समिति की सराहना की जानी चाहिए कि उसने एक बढिय़ा डेटा संरक्षण विधेयक का मसौदा प्रस्तुत किया है। अब हमारे सामने चुनौती है कि इसे और बेहतर बनाएं और जल्द से जल्द इसे कानून में बदलें।