21-02-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक

Date:21-02-22

Godspeed the Data Protection Bill

Sooner the legal foundations are laid the better

ET Editorials

Thinking within GoI that it may be better to go back to the drawing board for a Bill to protect its citizens’ data could be a way of cutting through the knots the current draft finds itself in. The Personal Data Protection Bill, 2019, has gone through an elaborate and time-consuming procedure that culminated with recommendations of a joint parliamentary committee (JPC). Yet, controversial clauses linger relating to government surveillance, regulation of media, transfer of data outside the country, and the powers of the proposed data protection authority. A fresh approach to the overdue legislation is also driven by the desire of not imposing an onerous compliance burden on India’s ecosystem of technology startups.

This course of action would be expedient if GoI needs to extricate itself from a procedural impasse: the JPC’s recommendations have, in some cases, intensified the controversy around the Bill. But if pre-existing concerns were to persist in the new draft, the enactment of the law would merely have been delayed. Another round of stakeholder consultations would keep legislation behind the curve of technology change. Data protection is a dynamic endeavour, and the sooner the legal foundations are laid the easier it will be to alter the superstructure as the digital landscape unfolds.

India is struggling with fundamental issues about privacy, even as other jurisdictions have granular data protection regimes in place. In some of these, data is better protected now than what India is proposing to do. The law, whichever route it takes, must address issues of regulatory overreach, ease of doing business and trade distortion. The government is expecting technology to fuel the next phase of India’s development. To this effect, privacy protection that does not inhibit the digital economy is key. It is up to the government to find the shortest course to achieve this balance. It has already lost five years after the Supreme Court upheld privacy as a fundamental right and sought a legislative framework to protect it.


 

Date:21-02-22

रॉकेट बॉयज में साहा की पहचान चुराना सही नहीं

शेखर गुप्ता

यदि आप गूगल के आगमन के पहले स्वतंत्र भारत के इतिहास को लेकर उत्सुक हैं तो आपको सोनी लिव पर रॉकेट बॉयज देखनी चाहिए। एक बार शुरू करने के बाद आप इसे पूरा करके ही उठेंगे। इसमें शानदार अदाकारी की गई है।

यह सिरीज आपकी सुनी हुई बातों को जीवंत करके पेश करेगी। मसलन यूरोप की मो ब्लां पहाडिय़ों पर एयर इंडिया के विमान कंचनजंघा के दुर्घटनाग्रस्त होने पर डॉ. होमी भाभा की मौत का मामला। उस रहस्य की तुलना नेताजी की मौत या उनके गायब होने और ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री की अचानक मृत्यु से किया जाता है।

मैं एक प्रशिक्षित संवाददाता हूं। आप इसे मेरा शंकालु दिमाग ही कहिये कि मैंने दो शानदार व्यक्तियों होमी भाभा और विक्रम साराभाई के जीवन पर बनी राष्ट्रवादी सिरीज में भी गड़बड़ी तलाश की। यह चोरी प्रोफेसर मेघनाद साहा की पहचान की है जो देश के सर्वाधिक महान वैज्ञानिकों में से एक थे। वह सीवी रमन, जगदीश चंद्र बसु और सत्येंद्र नाथ बोस के दर्जे के भौतिकशास्त्री थे। भाभा और साराभाई ने इन सबका अनुसरण किया।

फिल्म की पटकथा में अन्य बातों के अलावा नायक और खलनायक की जरूरत होती है। निखिल आडवाणी के इस शो में भाभा और साराभाई नायक हैं और कलकत्ता का एक भौतिकविद खलनायक है। वह सांवला है, कड़वा बोलता है, हीनभावना से ग्रस्त है और भाभा से इतना जलता है कि उन्हें नुकसान भी पहुंचाता है। वह बुरा वैज्ञानिक नहीं है। वह 1950 के दशक में कलकत्ता में देश का पहला साइक्लोट्रोन बनाता है। वह 1951 का लोकसभा चुनाव लड़ता और जीतता है, वह नेहरू का आलोचक होता है। वास्तविकता में उपरोक्त बातों पर खरा उतरने वाले व्यक्ति का नाम प्रोफेसर मेघनाद साहा था, न कि मेहदी रजा जैसा कि शो में दिखाया गया।

जाहिर है यह सब रचनात्मक स्वतंत्रता के नाम पर किया गया। परंतु अगर आपको वास्तविक नामों और किरदारों वाली सिरीज में एक काल्पनिक किरदार डालना ही था तो क्या इसे वही खलनायक बनाना चाहिए था जो दरअसल था ही नहीं? यह खलनायक एक शिया है जिसने कभी मुस्लिम लीग का समर्थन किया था। भाभा ने कलकत्ता में परमाणु विज्ञान संस्थान की स्थापना के लिए जिन्ना से धन लेने के कारण उस पर अंगुली उठाई थी। उसमें सुन्नी मुस्लिमों को लेकर गहरा क्रोध था क्योंकि उन्होंने उसके मातापिता की हत्या की थी। वह हीन भावना से इतना ग्रस्त था कि भारत के परमाणु कार्यक्रम को क्षति पहुंचाने के सीआईए के जाल में भी आ सकता था। उसे फंसाने का काम एक पत्रकार को सौंपा गया था।

शो बनाने वाले जानते हैं कि ध्रुवीकरण के इस दौर में मुस्लिमों और पत्रकारों का नाम इस्तेमाल किया जा सकता है। रजा कम्युनिस्ट पार्टी से लोकसभा में जाते हैं। इस प्रकार 2022 में मुस्लिम, वामपंथी और पत्रकार के रूप में शत्रुओं की त्रयी पूरी होती है। मेड इन इंडिया और आत्मनिर्भर जैसे संदर्भ बार-बार आते हैं। क्या वाकई खलनायक को मुस्लिम दिखाने के लिए महान मेघनाद साहा की पहचान चुराना जरूरी था? अगर इन महान लोगों के आपसी रिश्तों, बहसों आदि को लेकर एक पर्याप्त दिलचस्प सिरीज बन सकती थी तो काल्पनिक किरदार क्यों डाला गया? मैंने रॉकेट बॉयज के निर्देशक अभय पन्नूू से बात की। उन्होंने कहा कि उन्होंने रजा का काल्पनिक किरदार भाभा के प्रतिद्वंद्वी के रूप में तैयार किया और वर्गीय विभाजन तथा इस्लाम के डर को भी जोड़ा। लेकिन वह साहा की पहचान चुराने से इनकार करते हैं। मेघनाद साहा अत्यंत गरीब नमशूद्र परिवार में जन्मे थे, जिन्हें आज दलित कहा जाता है। कलकत्ता उस समय एक वैज्ञानिक पुनर्जागरण से गुजर रहा था। जगदीश चंद्र बोस और प्रफुल्ल चंद्र रे जैसे विद्वान उनके शिक्षक थे। निजी और अकादमिक दोनों तरह से उनके सबसे करीबी सहपाठी थे सत्येंद्र नाथ बोस (बोस-आइंस्टाइन आंकड़ों और बोसोन वाले)। दोनों ने मिलकर आइंस्टाइन-मिंकोवस्की के सापेक्षिकता के सिद्धांत के जर्मन पर्चे का पहला अंग्रेजी तर्जुमा लिखा। इस काम में एक अन्य भारतीय भौतिकविद पीसी महलानोबिस ने उनकी मदद की थी। इसने आइंस्टाइन को वैश्विक प्रसिद्धि दिलाई। साहा ने भौतिकी में नये आयाम तय करना जारी रखा। उनके सबसे बड़े योगदान को साहा समीकरण के नाम से जाना जाता है। परमाणु ऊर्जा विभाग के पूर्व सचिव डॉ. अनिल काकोडकर ने मुझे बताया कि हम सितारों से उत्सर्जित प्रकाश से वैज्ञानिक पद्धति से कुछ भी बनाएं, हमें उसके लिए साहा समीकरण की आवश्यकता होगी। साहा में भी साराभाई और भाभा जैसी संस्थान निर्माण क्षमता थी। उन्होंने कलकत्ता में इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर फिजिक्स की स्थापना की थी, न कि किसी मेहदी रजा ने। उन्होंने जिन्ना से कभी पैसा नहीं लिया । उन्होंने देश का पहला साइक्लोट्रोन बनाया और 1950 में इरीन जूलियन क्यूरी ने उसका उद्घाटन किया। सन 1915 के आसपास वह अनुशीलन समिति के सदस्य बने जो बंगाल के शुरुआती क्रांतिकारी संगठनों में शामिल था। उनका संपर्क उत्तर में गदर पार्टी और आयरलैंड में शिन फेन तक से हुआ। आखिर उन सभी का दुश्मन एक ही था यानी ब्रिटिश सत्ता। सन 1938 में उन्होंने सुभाष चंद्र बोस के साथ भारतीय योजना समिति के गठन में मदद की।

इन तीनों शानदार वैज्ञानिकों की वैश्विक दृष्टि अलग-अलग थी। काकोडकर कहते हैं कि भाभा हमेशा बड़ा सोचते थे और उन्होंने जेआरडी टाटा के साथ स्थापित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च से आगे जाकर ट्रॉम्बे की स्थापना की जिसे बाद में भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर कहा गया। वह सैद्धांतिक भौतिकी में पहले ही अपनी छाप छोड़ चुके थे। भाभा स्कैटरिंग को पहले ही उनका नाम दिया जा चुका था। उन्हीं की तरह साराभाई ने भी तकनीक का रुख किया और इसरो की स्थापना की। उन्होंने भौतिक शोध प्रयोगशाला और अहमदाबाद में भारतीय प्रबंध संस्थान की स्थापना में भी मदद की। बेंगलूरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान भी रमन, साहा और भाभा जैसे कई महान वैज्ञानिकों के सहयोग की देन था। भाभा और साराभाई के बीच संस्थान निर्माण को लेकर मतांतर था। काकोडकर कहते हैं कि भाभा स्वप्रेरणा से काम करते थे। उन्हें कोई काबिल व्यक्ति मिलता तो उसके इर्दगिर्द संस्थान खड़ा करने में यकीन करते जबकि इसके उलट साराभाई संस्थान निर्माण के बाद काबिल लोगों की तलाश करते। साहा और भाभा में देश के विकास के बुनियादी पहलुओं को लेकर मतभेद था। साहा ने गरीबी और भेदभाव देखा था और वह हर विज्ञान को जमीनी स्तर पर विकसित करना चाहते थे। भाभा कुलीन वर्ग से आते थे और वह सीमित क्षेत्रों में शानदार उपलब्धियों के हामी थे और भारत को नेतृत्वकर्ता बनाना चाहते थे। भाभा और साराभाई के उलट साहा राजनीतिक रूप से जोखिम लेना चाहते थे।

1951 में उन्होंने पश्चिमोत्तर कलकत्ता से स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीता। संसद में वह नेहरू से बहस करते थे लेकिन उन्होंने योजना आयोग के निर्माण में भी मदद की। देश की शुरुआती बड़ी नदी जल परियोजनाओं का श्रेय उनको भी दिया जाता है। दामोदर घाटी परियोजना भी उनके ही दिमाग की उपज थी। वह सांसद होने के बावजूद कलकत्ता विश्वविद्यालय में विज्ञान विभाग के डीन बने रहे। 1956 में जब वह योजना आयोग जा रहे थे तभी हृदयाघात से उनका निधन हो गया।

हमने साहा के बारे में आपको सबकुछ बता दिया। रॉकेट बॉयज में साहा की जगह रचे किरदार मेहदी रजा में साहा के सारे गुण हैं। लेकिन जैसा कि रजा को दिखाया गया है, साहा विध्वंसक नहीं थे, वह किसी वाम दल से सांसद नहीं बने और चूंकि उनका 1956 में निधन हो गया था इसलिए वह 1962 में चीन के साथ जंग के बाद भाभा से उलझ नहीं सकते थे, न ही भाभा को हटाने की सीआईए की किसी साजिश में शामिल हो सकते थे।

वह मुस्लिम भी नहीं थे। परंतु एक कहानी को नाटकीय बनाने के लिए एक बुरा किरदार रचा गया तो इन बातों को तरजीह दी गई। वह निचली जाति से थे और उन्हें लगभग भुला दिया गया था। सन 1993 में उनके जन्म शताब्दी वर्ष में नरसिंह राव सरकार ने एक डाक टिकट जारी किया था। शायद इसीलिए उनके चरित्र को एक कुटिल, मुस्लिम खलनायक का रूप देने में आसानी हुई। यह न केवल इतिहास के साथ अपराध है बल्कि साहा, भाभा, साराभाई जैसे लोगों को जो मूल्य और आदर्श प्रिय थे उनकेसाथ भी यह अन्याय है। याद रखें कि ये महान वैज्ञानिक हमारे स्वतंत्रता सेनानी भी थे।


Date:21-02-22

चीन से व्यापार घाटे की चुनौती

जयंतीलाल भंडारी

इस महीने के शुरू में बेजिंग शीतकालीन ओलंपिक के उद्घाटन समारोह के बहिष्कार के बाद भारत-चीन संबंधों पर कई रिपोर्टें आई हैं। इनमें इस बात पर हैरानी जताई गई है कि दोनों देशों के बीच पिछले दो साल से चल रहे तनाव के बावजूद भारत में चीन से रिकार्ड आयात हुआ है। यदि हम भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय व्यापार के ताजा आंकड़ों पर गौर करें तो पाते हैं कि जनवरी से नवंबर-2021 के बीच दोनों देशों में कुल आठ लाख सत्तावन हजार करोड़ रुपए का रिकार्ड कारोबार हुआ, जो पिछले साल के मुकाबले 46.4 फीसद ज्यादा है।

इन ग्यारह महीनों में भारत ने चीन से छह लाख उनसठ हजार करोड़ रुपए का सामान खरीदा है। यह पिछली अवधि यानी वर्ष 2020 के मुकाबले उनचास फीसद ज्यादा है। वहीं चीन को भारत ने एक लाख अनठानवे हजार करोड़ रुपए मूल्य का सामान निर्यात किया है, जो पूववर्ती वर्ष की तुलना में साढ़े अड़तीस फीसद ज्यादा है। इन ग्यारह महीनों में चीन से व्यापार घाटा भी रिकार्ड स्तर यानी चार लाख इकसठ हजार करोड़ रुपए की ऊंचाई पर पहुंच गया।

यदि हम पिछले चार वर्षों के जनवरी से नवंबर तक की अवधि के दौरान भारत-चीन व्यापार के आंकड़ों को देखें, तो पता चलता है कि वर्ष 2017 में भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा चार लाख पैंतालीस हजार करोड़ रुपए था। वर्ष 2018 में घट कर यह चार लाख तीस हजार करोड़ रुपए, वर्ष 2019 में घट कर तीन लाख तिरासी हजार करोड़ रुपए और वर्ष 2020 में घट कर तीन लाख तीस हजार करोड़ रुपए रह गया। लेकिन 2021 में यह घाटा सर्वोच्च ऊंचाई पर पहुंच गया। वर्ष 2021 में चीन से भारत के आयात में हुई वृद्धि का एक बड़ा हिस्सा चिकित्सा उपकरणों और दवाओं के निर्माण में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल का भी है।

इस समय चीन से तेजी से आयात बढ़ना इसलिए भी चिंताजनक है, क्योंकि केंद्र सरकार ने काफी समय से आत्मनिर्भर भारत अभियान के माध्यम से स्थानीय उत्पादों के उपयोग को बढ़ावा देने में लगी है। चीन को आर्थिक चुनौती देने के लिए सरकार ने टिकटाक सहित विभिन्न चीनी एप पर प्रतिबंध, चीनी सामान के आयात पर नियंत्रण, कई चीनी वस्तुओं पर शुल्क में वृद्धि, सरकारी विभागों में चीनी उत्पादों की जगह यथासंभव स्थानीय उत्पादों के उपयोग की प्रवृत्ति जैसे विभिन्न कदम उठाए हैं। वर्ष 2020 में चीन से तनाव के कारण देशभर में चीनी सामान का जोरदार बहिष्कार दिखाई दिया था। ‘मेड इन इंडिया’ का बोलबाला था। रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, नवदुर्गा, दशहरा और दीपावली जैसे त्योहारों पर बाजार में भारतीय उत्पादों की बहुतायत थी और चीनी सामान बाजार में बहुत कम दिखाई देने लगे थे। भारत में चीन से होने वाले आयात में बड़ी गिरावट आने लगी थी। व्यापार घाटे में तेजी से कमी आने लगी थी। इससे चिंतित होकर चीन ने कई बार अपनी बौखलाहट भी जाहिर की थी।

इसमें कोई दो मत नहीं कि हम रणनीतिक रूप से आगे बढ़ कर चीन से बढ़ते आयात और बढ़ते व्यापार घाटे के परिदृश्य को बहुत कुछ बदल सकते हैं। भारत में दवा उद्योग, मोबाइल उद्योग, चिकित्सा उपकरण उद्योग, वाहन उद्योग, बिजली सामान और उपकरण निर्माण उद्योग अभी भी बहुत कुछ चीन से आयातित माल पर निर्भर हैं। हालांकि चीन के कच्चे माल का विकल्प तैयार करने के लिए पिछले एक-डेढ़ वर्ष में सरकार ने पीएलआइ (प्रोडक्शन लिंक्ड इनसेटिव) स्कीम के तहत तेरह उद्योगों को करीब दो लाख करोड़ रुपए आवंटन के साथ प्रोत्साहन सुनिश्चित किए हैं। देश के कई उत्पादक चीन के कच्चे माल का विकल्प बनाने में कामयाब भी हुए हैं। अब इन क्षेत्रों में अतिरिक्त निवेश की मांग पूरी होती हुई दिखाई दी है।

आगामी वित्त वर्ष (2022-23) के बजट में विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) संबंधी नई अवधारणा के प्रावधानों को लागू कर सेज में उपलब्ध संसाधनों के भरपूर उपयोग से घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजारों के लिए कम लागत पर गुणवत्तापूर्ण विनिर्माण किया जा सकेगा। इससे चीन को निर्यात बढ़ा कर आयात भी कम करने में मदद मिलेगी। वस्तुत: अब सेज की नई अवधारणा के तहत सरकार अंतरराष्ट्रीय और घरेलू बाजार के लिए विनिर्माण करने वाले उत्पादकों को विशेष सुविधाएं देगी। सेज में खाली जमीन और निर्माण क्षेत्र का इस्तेमाल निर्यात के लिए भी हो सकेगा। सेज में पूर्णकालिक पोर्टल के माध्यम से सीमा शुल्क संबंधी मंजूरी की सुविधा होगी और विनिर्माण के लिए जरूरी सभी प्रकार के मंजूरियां भी वहीं दे दी जाएंगी। इस प्रक्रिया में राज्यों को भी शामिल किया जाएगा।

इसका बड़ा लाभ यह होगा कि ढांचागत सुविधाएं बढ़ेंगी, खासकर से आपूर्ति शृंखला की सुविधा बढ़ने से उत्पादन लागत कम होगी और भारतीय वस्तुएं अंतरराष्ट्रीय बाजार में आसानी से मुकाबला कर सकेंगीं। रेल, सड़क, बंदरगाह जैसी सुविधाओं के बड़े नेटवर्क से भारतीय लागत वैश्विक स्तर की हो जाएगी और भारत को निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था बनाने में मदद मिलेगी। सेज के तहत देशी-विदेशी निवेश को आकर्षित करने के मद्देनजर देशी-विदेशी निवेश के साथ नए उपक्रमों की स्थापना को भी बढ़ावा दिया जाएगा।

यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि वर्ष 2022-23 के बजट में भारत के लिए वैश्विक विनिर्माण केंद्र बनने की संभावनाओं को साकार करने के लिए जो रणनीतिक घोषणाएं की गई हैं, उन पर अमल से चीन से आयात कम किया जा सकता है। सरकार ने देश को विनिर्माण का केंद्र बनाने के लिए दस प्रमुख क्षेत्रों की पहचान की है। इनमें बिजली, दवा, चिकित्सा उपकरण, इलेक्ट्रानिक्स, भारी मशीनरी, सौर उपकरण, चमड़े के उत्पाद, खाद्य प्रसंस्करण, रसायन और कपड़ा क्षेत्र शामिल हैं। इन क्षेत्रों को निर्यात प्रोत्साहन भी दिए जाएंगे। निर्यात में बड़ी हिस्सेदारी रखने वाले रत्न और आभूषण के निर्यात में भी बढ़ोतरी होगी। गति शक्ति कार्यक्रम से माल ढुलाई की लागत में कमी आएगी। प्रस्तावित बजट में एक सौ कार्गो टर्मिनल बनाने की भी घोषणा की गई है। इससे भी माल की आवाजाही आसान होगी और लागत घटेगी। बजट में तैयार हीरे और रत्नों के आयात शुल्क तथा फैशन ज्वैलरी के आयात पर शुल्क में कमी की गई है। इससे चीन से आने वाली सस्ती फैशन ज्वैलरी पर रोक लगेगी और भारत में इसके निर्माण को प्रोत्साहन मिलेगा। कपड़ा और चमड़ा उत्पाद के निर्यात प्रोत्साहन के लिए जिपर, लाइनिंग मैटेरियल, बटन, विशेष प्रकार के चमड़े, पैकेजिंग बाक्स के आयात को शुल्क-मुक्त कर दिया गया है, ताकि इनके निर्यात को बढ़ावा मिलेगा।

स्थानीय बाजारों में चीनी उत्पादों को टक्कर देने और चीन से व्यापार घाटा और कम करने के लिए हमें उद्योग-कारोबार क्षेत्र की कमजोरियों को दूर करना जरूरी है। हम देश में मेक इन इंडिया अभियान को आगे बढ़ा कर स्थानीय उत्पादों को वैश्विक बना सकते हैं। इसके लिए सरकार को सूक्ष्म आर्थिक सुधारों को लागू करना होगा। भारतीय उद्योगों को चीन के मुकाबले में खड़ा करने के लिए शोध और नवाचार पर भी काफी ध्यान देने की जरूरत है। इसके साथ ही सेज की नई अवधारणा को उपयुक्त रूप से लागू करके घरेलू व वैश्विक बाजार के लिए अधिकतम उत्पादन किया जाना होगा। निश्चित रूप से इन सब उपायों से चीन पर आर्थिक दबाव बढ़ेगा। साथ ही, स्थानीय उद्योगों को प्रोत्साहन के साथ आत्मनिर्भर भारत ही चीन को आर्थिक टक्कर देने और चीन से बढ़ते व्यापार घाटे को नियंत्रित करने का एक प्रभावी उपाय सिद्ध होगा।