News cliping 14-06-2018

Date:14-06-18

Use Existing Powers, RBI, to Seek More

ET Editorials

The RBI governor Urjit Patel has soght more legislative powers to effectively regulate state-owned banks. His plea to the Parliamentary Standing Committee on Finance to make banking regulatory powers ownership-neutral makes sense. The RBI should be able to exercise the same supervisory powers over state-owned banks as over private sector banks. The reform will enable the regulator to take legal action against any errant PSB, level the playing field between private and public sector banks and raise corporate governance. The RBI should also stop the practice of appointing its nominees on the boards of PSBs, given that there is a conflict of interest with its supervisory role. The regulator is in talks with the government on this issue, and that’s welcome. The RBI’s remit should be in charge of bank supervision, and not operations.

In its 2017 Financial Sector Assessment Programme (FSAP) of India (2017), the IMF had raised concerns over weaknesses in the independence of the RBI. The regulator, for example, does not have the powers to remove PSB directors or management, appointed by the government. It cannot force a merger or trigger a liquidation of PSBs, and also has limited legal authority to hold PSB boards accountable when it comes to strategic direction, risk profiles, assessment of management and compensation. It recommended a strategic plan for consolidation, divestment and privatisation of state-owned banks.

The RBI must exercise the powers it already has, especially that of moral suasion. It also needs to improve skill sets of its supervisors and create domain specialists with legal, banking and audit backgrounds. Lateral entry into the RBI should be encouraged to draw in the best talent for supervision. A revolving door policy can also work, if done right.


Date:14-06-18

नौकरशाही में बदलाव का सबसे बड़ा फैसला

यदि प्रशासनिक दक्षता की बजाय विचारधारा, जाति-धर्म के आधार पर लेटरल एंट्री होने लगी तो दुर्भाग्यपूर्ण होगा।

प्रेमपाल शर्मा

केंद्र सरकार के ताजा निर्णय ने भारतीय नौकरशाही में खलबली मचा दी है। निर्णय है सरकार के संयुक्त सचिव स्तर के पदों पर बाहर से भी प्रतिभाओं को नियुक्ति देना यानी लेटरल एंट्री के दरवाजे खोलना। लगभग पच्चीस केंद्रीय सेवाओं में हजारों पद हैं। हो सकता है आने वाले वक्त में राज्य सरकार और अन्य उपक्रमों में समान पदों पर भी ‘लेटरल एंट्री’ की शुरुआत हो। भारतीय नौकरशाही में बदलाव का यह आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा और गंभीर फैसला है। सरकार के विचाराधीन इतना ही महत्वपूर्ण विचार यह है कि चयनित अधिकारियों को उनके विभागों का आवंटन केवल यूपीएससी के अंकों के आधार पर ही नहीं किया जाए बल्कि प्रशिक्षण प्रक्रिया के दौरान जाहिर हुई उनकी क्षमताओं, अभिरुचियों आदि को मिलाकर हो, जिससे प्रशासन को उनकी योग्यता का पूरा लाभ मिल सके।

पहले बात ‘लेटरल एंट्री’ की। भारतीय प्रशासनिक सेवाएं ब्रिटिश कालीन आईसीएस (इंडियन सिविल सर्विस) की लगभग नकल है। आज़ादी के वक्त इसकी जरूरत भी थी। आईसीएस का ढांचा ब्रिटिश शासकों के हितों के अनुकूल था लेकिन, आज़ादी के वक्त विभाजन से लेकर सैंकड़ों समस्याओं के मद्‌देनज़र बिना मूलभूत परिवर्तन के इसी ‘उपनिवेशी’ ढांचे को स्वीकृति दे दी गई। अफसोस है कि उम्र, परीक्षा प्रणाली, विषय बदलने के अलावा इसमें कोई बड़ा परिवर्तन आज तक नहीं हुआ। एक बेहद लुंज-पुंज व्यवस्था, भ्रष्टाचार, असंवेदनशीलता व हाथी जैसे आकार की नौकरशाही के रूप में नतीजा सामने है। ज्यादा दोष राजनीतिक स्वार्थों का है, जिसमें उपनिवेशकालीन बुराइयां तो बनी ही रहीं, नए राष्ट्र के वंशवाद, भ्रष्टाचार अनैतिकताएं भी राज्यों के उत्तरदायित्वोंं से पिंड छुड़ाकर इसमें शामिल होती गईं।

मौजूदा उच्च नौकरशाही में भर्ती यूपीएससी द्वारा होती है। नि:संदेह यह देश की सबसे कड़ी तीन स्तरीय परीक्षा है। 2017 में दस लाख से ज्यादा परीक्षार्थियों में से लगभग एक हजार चुने गए। इनकी मेरिट और प्राथमिकता के आधार पर इन्हें भारत सरकार के पच्चीस विभागों, प्रशासन, पुलिस, विदेश, राजस्व, व रेलवे आदि में बांट दिया जाता है। यही अफसर अपनी पदोन्नति के क्रम में अपनी-अपनी सेवाओं के उच्चतम स्तर निदेशक, ज्वॉइंट सेक्रेटरी, सेक्रेटरी, बोर्ड मेम्बर आदि पदों पर पहुंचते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर इसमें ‘बाहरी परिन्दा पर भी नहीं मार सकता’। आपस में अस्थायी आवाजाही जरूर होती है, जिसे ‘डेपुटेशन’ माना जाता है।

अब नए निर्णय के अनुसार उच्च पदों पर सरकार देश की उन प्रतिभाओं को भी नियुक्त कर सकती है, जिन्होंने यूपीएससी की परीक्षा पास नहीं की। वे निजी क्षेत्र, विश्वविद्यालय, सामाजिक, आर्थिक विद्वान, जाने-माने इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, लेखक, कलाकार, पत्रकार कोई भी हो सकता है। ये देश-विदेश में बिखरीं वे प्रतिभाएं होंगी, जिन्होंने अपने क्षेत्रों में ऊंचाई पाई है, परिवर्तन के प्रहरी बने हैं। सरकार यह दरवाजा खोलकर उनकी प्रतिभा, क्षमता का इस्तेमाल पूरे राष्ट्र के परिवर्तन के लिए कर सकती है। उदाहरण के लिए सूचना प्रौद्योगिकी के धुरंधर नंदन नीलेकणी जिनका आधार कार्ड का विचार देश के लिए सार्थक साबित हुआ। यदि ये प्रतिभाएं यूपीएससी में नहीं बैठीं तो उन्हें सदा के लिए राष्ट्रहित की नीतियों से वंचित नहीं करना चाहिए। यदि कश्मीर या लद्‌दाख के दुर्गम पहाड़ों में रेल चलाने के लिए ऐसे इंजीनियर उपलब्ध हैं, जिनके अनुभव से दुनिया को फायदा हुआ है तो भारत सरकार या रेल विभाग में उनका योगदान क्यों न हो? क्यों संस्कृति, शिक्षा मंत्रालय को उस संयुक्त सचिव या सचिव के सुपुर्द कर देना चाहिए, जिसकी पूरी उम्र किताब, कला, नृत्य, नाटक या विश्वविद्यालय से वास्ता ही नहीं रहा हो? नौकरशाह इनसे सीखेंगे और ये लोग सरकार से।

ऐसा नहीं है कि ‘लेटरल एंट्री’ इस सरकार का कोई मौलिक विचार है। मौलिकता निर्णय लागू करने में है। छठे वेतनमान आयोग ने 2008 में भी ‘लेटरल एंट्री’ का विचार दिया था। नब्बे के बाद शुरू हुए उदारीकरण की हवा ने परिवर्तन के रास्ते खोले। स्टार्टअप, निजी उद्योग और सूचना क्रांति ने यह साफ किया कि जितनी तेजी से विश्व व्यवस्था बदल रही है, भारतीय नौकरशाही नहीं। बल्कि राजनीतिक दुरभिसंधियों के चलते भारतीय नौकरशाही दुनिया की ‘भ्रष्टतम, कामचोर, अक्षम, असंवेदनशील व्यवस्था हो गई। इसकी क्षमता में सुधार ‘लेटरल एंट्री’ जैसी प्रक्रिया से ही संभव है! मौजूदा नौकरशाहों को जब निष्पक्ष, साहसी, निर्णयात्मक नौजवान साथियों, संयुक्त सचिवों से चुनौती मिलेगी तो ये अजगर भी बदलेंगे। वरना अभी तो यदि एक बार ये चुन लिए गए तो नब्बे प्रतिशत बिना अपनी प्रतिभा, दक्षता को आगे बढ़ाए भी उच्चतम पदों पर पहुंच जाते हैं और फिर रिटायरमेंट के बाद लाखों की प्रतिमाह पेंशन। यूपीएससी से चुने जाने का दंभ अलग। यही कारण रहा कि यूपीए सरकार भी इन्हीं नौकरशाहों और विशेषकर इनके जातीय संगठनों के दबाव में चुप्पी साधे रही। हालांकि, यूपीए सरकार की कई हस्तियां प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, मनटेकसिंह आहलूवालिया समेत कई मुख्य आर्थिक सलाहकार, सेक्रेटरी विज्ञान और तकनीकी मंत्रालयों में पिछले दरवाजे से ही सरकार में शामिल होते रहे हैं। कई यूरोपीय देशों में यह मॉडल पूरी सफलता से चालू है।

नौकरशाही के पुरोहितवाद की इमारत को पहली बार पूरे साहस के साथ धक्का मारा गया है लेकिन, मामला बहुत जटिल है। यदि प्रशासनिक वैज्ञानिक दक्षता की बजाए ‘विचारधारा’, जाति, धर्म, पंथ विशेष के आधार पर लेटरल एंट्री होने लगी तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा। क्या यूपीएससी जैसी निष्पक्ष संस्था को यह काम सौंपा जाएगा, जो सामाजिक परिवर्तनों की आहटों को समझते हुए ऐसे अधिकारियों को तैनात करे? उम्मीद की जानी चाहिए यह नियुक्ति पूरक के तौर पर तीन या पांच वर्ष जैसी अवधि के लिए होगी। एक परिवर्तन इसी समय यह लागू किया जाए कि सभी नौकरशाहों की पदोन्नति‍ एक क्षमता परीक्षा से ही हो और उन्हें भी साठ वर्ष की निश्चित सेवा अवधि से पहले भी आज़ाद कर दिया जाए। सेना में यही होता है। मौजूदा नौकरशाही की सबसे बड़ी कमी अतिरिक्त सुरक्षा बोध, नौकरी की गारंटी है। नौकरशाही में यह बदलाव क्रांति से कम नहीं हैै। मगर आप जानते हैं कि यदि क्रांति सही हाथों में न हो तो क्या होता है। सभी क्रांतियां सफल भी नहीं होती हैं फिर भी इस परिवर्तन का स्वागत है।


Date:13-06-18

सत्ता की आस में लुटे दलित

डॉ. उदित राज

बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने सत्ता को वह कुंजी बताई थी, जिससे सारे ताले खुल जाते हैं। उस समय की परिस्थितियों के अनुसार काफी हद तक सत्ता सभी क्षेत्रों को नियंत्रित करती थी, लेकिन अब परिस्थितियां बदल गई हैं। वोल्सेविक क्रांति के बाद दुनिया के तमाम देश साम्यवादी होते जा रहे थे और वहां राजसत्ता सब कुछ नियंत्रित रखती थी। यूरोपीय देशों में भी राजसत्ता काफी प्रभाशाली रही। कांशीराम जी ने जब बहुजन समाज पार्टी बनाई तो लक्ष्य इतना बड़ा रखा कि उसको हासिल करना आसान नहीं था। बामसेफ से लेकर बीएसपी तक लोगों से कहते रहे हम सत्ता में आएंगे तो समस्याओं का समाधान अपने आप हो जाएगा। समर्थक भी विास करते हुए काम करने लगे और उत्तर प्रदेश में सरकार भी बनाई। यदि कोई और दूसरा सामाजिक राजनैतिक कार्य करने की कोशिश किया तो उसे बदनाम ज्यादा होना पड़ा कि बसपा को सत्ता में आने से रोकने का षड्यंत्र है।

निजीकरण, ठेकेदारी, आउटसोर्सिंग, अत्याचार, शिक्षा, स्वास्य और महंगाई आदि की बात करने वाला अम्बेडकरवाद और बसपा विरोधी माना जाने लगा। बसपा का प्रभाव 1990 के दशक में शुरू होता है और वही समय था जब निजीकरण की शुरु आत हुई। नरसिम्हा राव की पहली सरकार थी, जिसने निजीकरण की शुरुआत की और धीरे-धीरे गति तेज हो गई। ठेकेदारी प्रथा और आउटसोर्सिग जैसे तरीके अपनाकर सरकारी नौकरियां खत्म की जाती रही । मंडल कमीशन लागू होने के बाद एक मुहीम चल गई कि सरकारी विभाग निकम्मे और भ्रष्ट हो गए हैं इसलिए समस्याओं का समाधान निजीकरण है। 1993 में कोलेजियम सिस्टम के द्वारा उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति होने लगी जिससे परिवारवाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद बढ़ा। अभिजात्य वर्ग ने इस असंवैधानिक कार्य के खिलाफ कुछ नहीं किया क्योंकि यह उनके हित में था। संविधान में कहीं भी प्रावधान नहीं है कि जज ही जज को बनाएंगे। राजनैतिक दल गरीब, दलित, आदिवासी और पिछड़ा के खिलाफ नीति योजना स्वयं तो विरोध में बनवा नहीं सकते थे तो वह कार्य न्यायपालिका से करवाने लगे।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए मंडल जजमेंट में अनुसूचित जाति का आरक्षण विषय नहीं था फिर भी जजों ने अपनी राय रखी, जिससे पांच आरक्षण विरोधी आदेश 1997 में जारी हुए। अनुसूचित जाति/जनजाति परिसंघ ने संघर्ष किया और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने तीन संवैधानिक संशोधन करके इसे ठीक किया। यहां तक की 2007 में बहन मायावती मुख्यमंत्री बनीं, तब उनकी सरकार में अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 में बड़ा संशोधन किया कि इस कानून का प्रयोग हत्या और बलात्कार में होगा, तब परिसंघ ने इलाहबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर कर उस निर्देश को निरस्त कराया। पदोन्नित में आरक्षण का मुकदमा परिसंघ की पैरवी से 2006 में सुप्रीम कोर्ट में जीता जाता है और जब मायावती मुख्यमंत्री थी तो 4 जनवरी 2011 को लखनऊ हाईकोर्ट में पदोन्नित में आरक्षण इसलिए खत्म कर देती है कि उसकी पैरवी ठीक से नहीं हुई। स्पेशल कंपोनेंट प्लान, ट्राइबल सब प्लान कभी ईमानदारी से लागू नहीं किया गया। इस पर कभी कोई आवाज इनके तरफ से नहीं उठी। कार्यालय आदेशों से आरक्षण लागू होता रहा है, जबकि इसे कानून के शक्ल में बदल देना चाहिए था, लाखों खाली पद केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकार में लगातार खाली रहे हैं।

उच्च न्यायपालिका में दलितों और पिछड़ों की भागीदारी नहीं के बराबर रही। सत्ता के सपने में दलित उपरोक्त भयंकर नुकसान को समझ नहीं पाया और बस एक ही धुन में लगे थे कि सत्ता आएगी तो सब ठीक हो जाएगा। नेतृत्व ने सोचने ही नहीं दिया कि जो अधिकार एक दिन में नहीं मिलते और ये रोजमर्रा के हिसाब से मिलते और छीनते भी हैं। अगर इस सोच के आधार पर चले होते तो उपरोक्त समस्याओं को लेकर संसद से सड़क तक जैसे अन्य पार्टयिां अपने मुद्दे पर लड़ती, ये भी लड़े होते। कितनी बड़ी त्रासदी है कि जब दलित आधारित पार्टी बनती है तो सामानांतर अधिकार छीनते जाते हैं और वह पार्टी बूथ स्तर पर सक्रिय होकर सांसद -विधायक बनाने में ही मस्त रहती है। सोच का अभाव कहें या स्वार्थ कि यह सोचना चाहिए था कि राजसत्ता कमजोर हो गई है, कुछ ताकत मीडिया के पास तो कुछ उच्च न्यायपालिका और कॉपरेरेट जगत के पास। सुप्रीम कोर्ट के दो जज का फैसला देश का कानून बन जाता है, जबकि संसद में कानून बनाना विधेयक पारित कराना बड़ी मुश्किल का काम है। हमारे ही देश में कुछ ऐसे वर्ग हैं, जो राजसत्ता में स्वयं ही सीधी भागीदारी नहीं चाहते फिर भी अपनी बाते मनवाते रहते हैं। दलितों को यह समझ लेना चाहिए कि जाति व्यवस्था खत्म होने वाली नहीं है।

जाति व्यवस्था की मानसिकता यह होती है कि अपने से नीचे वाले को स्वाभाविक रूप से अपना नेतृत्व नहीं मानता, मजबूरी और स्वार्थ में तो कुछ भी होता रहता है। ब्राह्मण अपने को तीनों वर्णो से ऊपर समझता है, क्षत्रिय अपने से नीचे पिछड़ा वर्ग एवं दलित का नेतृत्व नहीं सह सकता। पिछड़ा अपने से नीचे दलित के साथ भी यही सोचता है और ऐसे में मजबूरी और खुदगर्जी न हो तो दलितों का और कोई नेतृत्व स्वीकार नहीं करेगा। इन परिस्थितयों में क्या दलित सत्ता पर काबिज हो सकेगा। पिछड़ा वर्ग अभी न इधर का है और न उधर का। ऐसे में जब तक सत्ता नहीं मिलती तो क्या सब कुछ खो दिया जाए? जितनी ताकत समाज ने बसपा को दी, अगर उसका एक चौथाई भी मुझे दिया होता तो अधिकार छीनने की बजाय और ज्यादा मिला होता। कम ताकत मिलने के बावजूद; मेरी उपलब्धियों की सूची लंबी है। बाबा साहेब के हाथ में खुद सत्ता नहीं थी, तब कैसे इतने अधिकार दिला सके? सत्ता की प्राप्ति की लड़ाई लड़ते रहना चाहिए। सड़क पर संघर्ष लगातार जारी रहे और अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को रोकना नहीं बल्कि कहना चाहिए कि संसद और विधानसभा में लगातार मुद्दों को उठाएं।