15-02-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक

Date:15-02-22

A loophole in democracy
Only if the Samajwadi Party-led coalition wins by a large margin can it be assured of government formation
Shaikh Mujibur Rehman, [Teaches at Jamia Millia Islamia University, New Delhi and is the author of the forthcoming book, Shikwa-e- Hind: The Political Future of Indian Muslims ]

It is clear that the fierce electoral battle for Uttar Pradesh is mainly between the Akhilesh Yadav-led gathbandhan (coalition) and the Yogi Adityanath-led Bharatiya Janata Party (BJP), even if it appears multi-cornered on paper. The failure of unity among supposedly secular parties against the BJP once again demonstrates not just their half-hearted commitment to secularism but also their self-centredness as they continue to give more importance to their political future than to India’s secular polity. Without doubt, this failure of opposition unity has given a huge advantage to the BJP.

The key difference between the 2017 election and the ongoing one is that neither the BJP nor the Samajwadi Party (SP) enjoys uniform advantage in all the regions of U.P. as the BJP did in 2017. The election is thus highly competitive. In western U.P., particularly in Muzaffarnagar, the SP-Rashtriya Lok Dal (RLD) coalition enjoys a great advantage. The new-found bonhomie between the Muslims and Jats, established during the farmers’ movement, could severely dent the BJP’s fortunes in the region. There is limited evidence of reconciliation on the ground between the farmers and the BJP even after the farm bills were withdrawn.

A strategy that could backfire

Through my fieldwork I have learnt that Muslim voters in Muzaffarnagar and elsewhere in U.P. are going to employ the strategy that those in West Bengal and Delhi did, which was to vote for the candidate who could defeat the BJP. But given that the electoral competition is intense, the decision of the Bahujan Samaj Party (BSP), All India Majlis-E-Ittehadul Muslimeen, and Congress to field Muslim candidates in Muslim-dominated constituencies is likely to benefit the BJP also. In 2017, there were 14 seats out of the 85 Muslim-dominated seats (with a Muslim population of 25% to 50%) which went to the BJP owing to the same reason. There are 145 Assembly constituencies where the Muslim population is greater than the State average. In 2017, the BSP had fielded the highest number of Muslim candidates among all the parties (99), including in Faizabad, the seat of the Ram Mandir issue. The BSP has repeated its 2017 strategy now by fielding Muslim candidates in many seats across the State. This strategy along with the vote-splitting capacity of the Congress and AIMIM could help the BJP.

In a recent interview to ANI, the Prime Minister dismissed any anti-incumbency wave. He might have said this to keep his party’s candidates motivated and the cadres in high spirits. The truth is that no other politician or party in today’s India understands the importance of the U.P. election and its impact on New Delhi better than the seasoned campaigner, Narendra Modi, whose move to Varanasi from his Gujarat bastion was clearly determined by the reasoning that U.P. matters the most for his party to win the general election. It is expected that he and his party will leave no stone unturned to retain U.P. Anti-incumbency exists in different degrees in various regions and this is distinctly different from the anti-BJP sentiment in Rajasthan or Madhya Pradesh in 2018. The key difference is that anti-incumbency in U.P. in most regions is against Lucknow as well as New Delhi, which was not the case in M.P. or Rajasthan in 2018. That is why the BJP, despite losing the elections in those two States in 2018, saw a clean victory in the same places in 2019. However, it is too early to say how long the farmers’ anger against the Modi government will last. Reconciliation could happen before 2024, but that also depends on how the BJP responds after the results.

Changing ground rules

One fundamental way that Mr. Modi and Home Minister Amit Shah have changed ground rules in Indian elections is that the BJP’s defeat in an election does not imply that the BJP cannot form the government. Karnataka and M.P. are examples of places where the party lost but is running the government. Only if the margin is massive can a defeated BJP be kept out of power, as was the case in West Bengal or New Delhi. While it is hard to predict who will be the winner, a victory with such a massive margin does not look likely for Mr. Yadav. If he wants such a victory, he has to upgrade his campaign in various domains. This limitation might deny him another term or it could, at best, give him a short-term opportunity.

Whatever be the outcome, the idea that a defeated party can grab power by backdoor machination, neutralise electoral results and silence the voice of people is a threat to the idea of electoral democracy. The sooner India fixes this loophole, the better it is for democracy.

Date:15-02-22

ये कटौती गरीबों को और संकट में न डाले
संपादकीय

संसद में पेश रिपोर्ट के मुताबिक विगत वर्ष एमएसएमई सेक्टर की हर तीन में से दो इकाइयां अस्थाई तौर पर बंद रहीं और हर दूसरी इकाई के राजस्व में 25 प्रतिशत कमी आई। जाहिर है 12 करोड़ रोजगार देने वाले इस सेक्टर की खराब स्थिति बेरोजगारी का बड़ा कारण बनी। मनरेगा में पिछले साल 11.6 करोड़ लोगों ने काम मांगा लेकिन दो करोड़ को नहीं मिल सका। इस योजना में काम चाहने वालों की तादाद साल-दर-साल बढ़ना रोजगार संकट का संकेत है। मनरेगा पर बजट में पिछले साल के मुकाबले 25 प्रतिशत की कटौती संकट को और बढ़ा सकती है। इस बजट में एमएसपी पर किसानों से अनाज खरीद के लिए राशि भी पिछले साल के बजट के 3.92 प्रतिशत के मुकाबले 3.84 प्रतिशत की गई है। कृषि पर और मार पड़ना अपरिहार्य होगा क्योंकि खाद सब्सिडी भी 1.40 लाख करोड़ से घटाकर मात्र 1.05 लाख करोड़ की गई है, जो पिछले तीन सालों में सबसे कम है। यह तब है जब विश्व बाजार में खाद की कीमतें आसमान छू रही हैं। जहां एक ओर शहरों में काम न मिलने से मजदूर गांव लौटा है वहीं एमएसपी पर खरीद के बजट में कमी कृषि अर्थव्यवस्था पर और बोझ डालने वाली है। खाद्य सुरक्षा कानून के मद में दी जाने वाली राशि में भी कमी की गई है, दूसरी ओर गरीब महिलाओं को दी जाने वाली जनधन योजना- जिसमें 30 हजार करोड़ रु. बांटे जाते थे- भी पिछले साल से खत्म कर दी गई। सोशल सेक्टर, कृषि और ग्रामीण अंतर्संरचना भारत जैसे देश में बुनियाद होती हैं। गरीबों के हाथ में पैसे देकर खपत बढ़ाना आर्थिक चक्र चलाने के लिए जरूरी होगा। कैपिटल निवेश के साथ इसे भी ध्यान में रखें।

Date:15-02-22

चीनी चुनौती का सामना
संपादकीय

भारत ने 54 और चीनी एप पर पाबंदी लगाने का जो फैसला किया, वह इसलिए आवश्यक था, क्योंकि इनमें से कुछ पहले ही प्रतिबंधित कर दिए गए थे, लेकिन वे नाम बदल कर फिर से आ गए थे। चूंकि चीनी कंपनियां इस तरह का छल आगे भी कर सकती हैं इसलिए भारत सरकार को सतर्क रहना होगा। चीनी एप न केवल देश की सुरक्षा के लिए खतरा हैं, बल्कि उनमें से कुछ धोखाधड़ी का जरिया बनते हैं तो कुछ भारतीयों का डाटा चुराने का काम करते हैं। भारत अब तक करीब ढाई सौ चीनी एप प्रतिबंधित कर चुका है। चीनी एप के खिलाफ भारत की ताजा कार्रवाई के बाद यह कहना कठिन है कि चीन की सेहत पर कोई खास असर पड़ेगा। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वह सीमा विवाद को लेकर अड़ियल रवैया अपनाए हुए है। उसके इसी अड़ियल रवैये का उल्लेख करते हुए गत दिवस मेलबर्न में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने दो टूक कहा कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर जारी गतिरोध का मूल कारण चीन द्वारा लिखित समझौतों का उल्लंघन करना है। आस्ट्रेलियाई विदेश मंत्री के साथ संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने यह कहने में भी कोई संकोच नहीं किया कि जब कोई बड़ा देश लिखित प्रतिबद्धताओं को धता बताता है, तब पूरे विश्व समुदाय के लिए चिंता पैदा करता है।

चीन एक अर्से से केवल भारत ही नहीं, बल्कि अन्य अनेक देशों के खिलाफ आक्रामक और अतिक्रमणकारी रवैया अपनाए हुए है। इसके अलावा वह जहां कई छोटे देशों को कर्ज के जाल में फंसाकर उन्हें एक तरह से अपना उपनिवेश बनाने में लगा हुआ है, वहीं पाकिस्तान को भारत के खिलाफ मोहरे की तरह इस्तेमाल कर रहा है। यह ठीक है कि भारत समेत अमेरिका, आस्ट्रेलिया और जापान की भागीदारी वाला संगठन क्वाड चीन की आक्रामकता का संज्ञान लेने में लगा हुआ है, लेकिन उसकी हरकतों की निंदा करने मात्र से काम चलने वाला नहीं है। इस संगठन को चीन की मनमानी पर लगाम लगाने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। इस क्रम में भारत को अपने स्तर पर कुछ अतिरिक्त प्रयास भी करने होंगे। इस मामले में सबसे पहला काम चीन पर आर्थिक निर्भरता कम करने का करना होगा। यद्यपि लद्दाख में चीनी सेना से खूनी झड़प और उसमें उसे सबक सिखाने के बाद भारत की ओर से ऐसे कई कदम उठाए गए, जिससे चीन पर आर्थिक निर्भरता कम हो, लेकिन अभी तक अपेक्षित परिणाम नहीं मिले हैं। समस्या केवल यह नहीं कि चीनी वस्तुओं का आयात कम होने का नाम नहीं ले रहा बल्कि यह भी है कि व्यापार घाटा बढ़ रहा है। चीन को सही सबक सिखाने के लिए भारत को इस स्थिति से निकलने के लिए कमर कसनी ही होगी।

Date:15-02-22

समान नागरिक संहिता के लिए सही समय
आमना बेगम अंसारी, ( लेखिका सिटिजंस फाउंडेशन फार पालिसी साल्यूशंस में रिसर्च एसोसिएट हैं )

हमें और खासकर मुस्लिम समाज को यह सवाल पूछना होगा कि हिजाब जरूरी है या पढ़ाई? ऐसे सवाल ही हमें यह समझने में मदद करेंगे कि कर्नाटक का मामला असल में मुस्लिम महिलाओं के हक का नहीं, बल्कि उसकी आड़ में उन्हें पर्दे में रखने और अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का है। बेहतर हो कि आज हम महात्मा गांधी के इस कथन का स्मरण करें कि ‘मुस्लिम महिलाओं को पर्दे की गुलामी से बचाना चाहिए। .. अगर आधी आबादी एक खराब प्रथा की वजह से से पंगु बनी रहती है तो हम कभी भी स्वतंत्र और महान होने की आकांक्षा कैसे कर सकते हैं?’(माई डेज विद गांधी-निर्मल कुमार घोष, पृष्ठ संख्या 140)

कर्नाटक के उडुपी जिले में उपजे हिजाब विवाद ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय चर्चा का रूप ले लिया है। इसके पक्ष-विपक्ष में कई तरह के तर्क रखे जा रहे हैं। हिजाब की पैरवी करने वालों की ओर से यहां तक कहा जा रहा है कि हिजाब-बुर्का आदि पहनना मुस्लिम महिलाओं का मौलिक अधिकार है और विद्यालयों में स्कूली यूनिफार्म पहनने को कहना मुस्लिम महिलाओं पर अत्याचार है। एक पार्टी ने तो यह नारा देकर हद ही कर दी कि-हिजाब नहीं तो पढ़ाई नहीं। महाराष्ट्र में ऐसे पोस्टर नजर आए, जिनमें लिखा था, पहले हिजाब-फिर किताब।

इस सारे विवाद में हम भूल गए कि इसके मूल में क्या है? महिलाओं को अपनी पहचान छिपानी चाहिए और इसके लिए हिजाब-बुर्का पहनना चाहिए, इस तरह का सोच आखिर किस प्रकार से महिलाओं के हित में है? वास्तव में इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर गहन विचार होना चाहिए था, लेकिन हमारे लिबरल तबके ने अपनी विचारधारा को धता बताकर हिजाब को पसंद के अधिकार से जोड़ दिया। उन्होंने ऐसा करते समय इस पर भी ध्यान नहीं दिया कि हिजाब को च्वाइस का मसला बनाकर वे अपनी ही विचारधारा के उलट जाकर मुस्लिम समाज को गुमराह कर रहे हैं।

जिस परिधान यानी हिजाब-बुर्के के पीछे पितृसत्तात्मक मानसिकता काम कर रही है, उसे महिलाओं के अधिकारों के रूप में प्रचारित करने से दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ नहीं हो सकता। बात केवल इस दुर्भाग्यपूर्ण चिंतन की ही नहीं है। हम यह भी देख रहे हैं कि यह अफवाह फैलाई जा रही है कि भारत में हिजाब-बुर्के पर पाबंदी लगाने की कोशिश की जा रही है। यह दुष्प्रचार कुछ बाहरी ताकतों की ओर से भी किया जा रहा है, जबकि सच्चाई यह है कि केवल इतना कहा जा रहा है कि स्कूल का जो ड्रेस कोड है, वह सभी छात्र-छात्रओं पर लागू होता है और उसका पालन सभी को करना चाहिए। अगर कर्नाटक की छात्रओं के लिए हिजाब इतना ही जरूरी है तो जब 2019 में केरल मुस्लिम एजुकेशन सोसायटी ने अपने करीब डेढ़ सौ शिक्षा संस्थानों में बुर्के को प्रतिबंधित किया, तब वहां यह मुद्दा क्यों नहीं बना था? जाहिर है कि इसीलिए कि वहां इस तरह का नैरेटिव काम नहीं आता कि मुस्लिम समाज पर जुल्म हो रहा है।

हमें और खासकर मुस्लिम समाज को हिजाब-बुर्के के मामले में सवाल पूछने ही होंगे? ये सवाल ही हमें यह समझने में मदद करेंगे कि दरअसल मामला मुस्लिम महिलाओं के हक का नहीं, बल्कि उसकी आड़ में उन्हें पर्दे में रखने और अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का है। मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जो लोग महिला अधिकार की बातें करते हैं और इन दिनों कुछ ज्यादा ही कर रहे हैं, क्या उन्हें वास्तव में मुस्लिम लड़कियों और महिलाओं के हितों की चिंता है?

यह याद रखना चाहिए कि हिंदुस्तानी मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई को सबसे बड़ा धक्का उस दिन लगा था, जिस दिन शाहबानो प्रकरण में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के दबाव में राजीव गांधी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था। मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड कोई सरकारी-संवैधानिक संगठन नहीं, बल्कि महज एक गैर सरकारी संगठन है। शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को जिस तरह पलटा गया, उससे मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई कमजोर पड़ी और शायद इसी कारण तीन तलाक की कुरीति से छुटकारा पाने में 70 साल से अधिक का समय लग गया। इस कुरीति को खत्म करने के बाद भी मुस्लिम महिलाओं को अभी भी अन्य समुदाओं की महिलाओं जैसे कानूनी अधिकार नहीं मिले हैं। इस समुदाय में सामाजिक बदलाव भी अभी दूर की बात हैं। हिंदू कोड बिल के जरिये तमाम सुधारों से हमारी हिंदू बहनों के अधिकारों की रक्षा हुई। जहां अन्य समुदायों में सामाजिक सुधारों का सिलसिला कायम है, वहीं मुस्लिम समाज का नेतृत्व धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में अपनी महिलाओं के अधिकारों का हनन करने में लगा हुआ है। बहु-विवाह, हलाला जैसी अमानवीय प्रथाएं जारी हैं। इसी तरह अन्य अनेक कुरीतियों और महिला विरोधी पुरानी पंरपराओं से भी मुस्लिम महिलाएं जकड़ी हुई हैं।

अफसोस की बात यह है कि जो लोग हिजाब को मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों से जोड़कर हल्ला मचा रहे हैं वे कभी भी इन महिलाओं की वास्तविक समस्याओं पर एक लफ्ज बोलना पसंद नहीं करते। आखिर यह दोहरा रवैया क्यों? हिंदुस्तानी होने के नाते हमें अपनी मुस्लिम महिलाओं की वास्तविक समस्याओं के समाधान के बारे में सोचना चाहिए, न कि उन पर हिजाब थोपने और उन्हें बुर्के में कैद करने की कोशिश करनी चाहिए। फिलहाल यही हो रहा है। यह याद रखना चाहिए कि जब तक मुस्लिम महिलाएं दोयम दर्जे की नागरिक बनी रहेंगी, तब तक मुस्लिम समाज कभी भी तरक्की नहीं कर पाएगा।

जब हम समस्याओं के हल के बारे में विचार करते हैं तो दो तरीके समझ आते हैं। या तो सभी पर्सनल ला कोडिफाइड हों या फिर बिना किसी भेदभाव के सभी समुदायों को समान नागरिक संहिता के दायरे में लाया जाए। एक महिला के तौर पर मुङो लगता है कि भारत की सभी महिलाओं के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए समान नागरिक संहिता का निर्माण मील का पत्थर साबित हो सकता है। चूंकि यह संहिता सार्वभौमिक नागरिक अधिकारों पर आधारित होगी, इसलिए सभी को उसका समर्थन करना चाहिए। इससे ही उन लोगों को हतोत्साहित किया जा सकता है, जो मुस्लिम समाज की महिलाओं को पर्दे में रखने और उनकी हैसियत दोयम दर्जे की बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं।

Date:15-02-22

यूक्रेन का वैश्विक संकट
ब्रह्मदीप अलूने

इतिहास को फिर से गढ़ने की महत्त्वाकांक्षाएं अक्सर विध्वंसक परिणामों से आशंकित रहती हैं। चीन और रूस जैसे देश अपने स्वर्णिम इतिहास को दोहराने की कोशिशों में भौगोलिक और सांस्कृतिक विखंडन को दरकिनार करना चाहते हैं, जो असंभव होकर अस्थिरता को बढ़ाते हैं। इसके बाद भी इन राष्ट्रों की शक्तिकी अतिप्रबलता से सब कुछ हासिल करने की कोशिशें बदस्तूर जारी हैं। इससे विश्व शांति के लिए बड़ा खतरा खड़ा हो गया है।

दरअसल पूर्वी यूरोप का यूक्रेन संकट करीब एक हजार साल पहले कीवियाई रूस की उस ऐतिहासिक पहचान से प्रभावित है, जिसे रूसी राष्ट्रपति पुतिन किसी भी स्थिति में बनाए और बचाए रखने के लिए दृढ़ संकल्पित नजर आ रहे हैं। कीवियाई रूस मध्यकालीन यूरोप का एक राज्य था। आधुनिक रूस, बेलारूस और यूक्रेन तीनों अपनी पहचान कीवियाई रूस राज्य से लेते हैं। अब ये राज्य अलग-अलग हैं। यूक्रेन रूसी पहचान से अलग होने को बेताब है, वहीं रूस और बेलारूस साथ-साथ खड़े नजर आते हैं। यूक्रेन पर दबाव बनाने के लिए रूस ने बेलारूस में अपने सैनिकों के साथ अत्याधुनिक और विध्वंसक हथियार जमा कर लिए हैं। रूस यूक्रेन को केवल एक अन्य देश के रूप में नहीं देखता है, वह उसे बहुस्लाविक राष्ट्र मानता है। सामरिक सुरक्षा के लिए भी रूस के लिए यूक्रेन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इसलिए वह उसे कूटनीतिक और सैन्य रणनीति की धुरी के तौर पर ज्यादा देखता है। यूक्रेन रूस की पश्चिमी सीमा पर है। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब पश्चिमी देशों ने तत्कालीन सोवियत संघ पर हमला किया था, तब यूक्रेन के इलाके से ही उसने अपनी रक्षा की थी। यूक्रेन की सीमा पश्चिम में यूरोपीय देशों और पूर्व में रूस के साथ लगती है।

पिछले तीन दशकों में मध्य और पूर्वी यूरोप की राजनीतिक स्थिति में बड़े बदलाव हुए हैं। इससे सामरिक प्रतिद्वंद्विता भी तेजी से बढ़ी है। इस क्षेत्र में दुनिया की बड़ी शक्तियों के बीच भू-राजनीतिक मुकाबला चरम पर है। यूक्रेन पश्चिमी देशों के साथ अपने रिश्तों को मजबूत करने की लगातार कोशिश कर रहा है। 1991 में सोवियत संघ के बिखराव के बाद यूक्रेन एक स्वतंत्र देश के रूप में उभरा था। उसका भौगोलिक जुड़ाव यूरोप से है। इसे सामरिक रूप से एक शक्तिशाली देश माना जाता है। इसका एक कारण यह भी है कि अविभाजित सोवियत संघ के अधिकांश परमाणु केंद्र यूक्रेन में ही थे। इसलिए यह न केवल रूस के लिए अहम बना रहा, बल्कि यूरोपीय देशों की नजर भी इस पर बनी रही। 2002 में जब यूक्रेन ने नाटो में शामिल होने की आधिकारिक प्रक्रिया शुरू करने का एलान किया तो रूसी राष्ट्रपति पुतिन को यह नागवार गुजरा। खुफिया एजेंसी केजीबी का मानना है कि पश्चिमी देशों के गोपनीय अभियानों के कारण सोवियत संघ का विघटन हुआ था। पुतिन केजीबी के अधिकारी रहे हैं और उनके कार्यों में बदला और पुराना गौरव लौटाने की चेष्टा अक्सर दिखाई देती है। इसीलिए उन्होंने यूक्रेन को कमजोर करने के लिए उसके एक क्षेत्र क्रीमिया को 2014 में रूस में मिला लिया था। पुतिन के इस कदम की वैश्विक स्तर पर कड़ी आलोचना हुई थी। इसके बाद रूस के पर प्रतिबंध लगाए गए थे और पश्चिम के साथ इसके अलगाव को और बल मिला था। क्रीमियाई शहर सेवास्तोपोल का बंदरगाह प्रमुख नौसैनिक अड्डा है और यहां रूसी पोतों की मौजूदगी तनाव का कारण बन गई है। इस समय यूक्रेन की सीमा पर रूस का पूरा दबाव है। वहां युद्ध पूर्व के हालात साफ दिख रहे हैं। रूस का आरोप है कि नाटो देश यूक्रेन को लगातार हथियारों की आपूर्ति कर रहे हैं और अमेरिका दोनों देशों के बीच के तनाव को भड़का रहा है। रूस चाहता है कि नाटो की सेनाएं 1997 के पहले की तरह सीमाओं पर लौट जाएं और नाटो गठबंधन पूर्व में अब अपनी सेना का और विस्तार न करे और पूर्वी यूरोप में अपनी सैन्य गतिविधियां बंद कर दे। इसका मतलब ये होगा कि नाटो को पोलैंड और बाल्टिक देशों एस्तोनिया, लातविया और लिथुआनिया से अपनी सेनाएं वापस बुलानी होंगी।

रूस पर सामरिक दबाव बनाने के लिए नाटो और अमेरिका के लिए यूक्रेन निर्णायक भूमिका में नजर आता है। नाटो की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में से एक समुद्री सुरक्षा है, जिसके लिए उसने अटलांटिक महासागर और हिंद महासागर को केंद्र में रखा है। उसके लिए काला सागर भी सामरिक रूप से अहम है जो रूस और यूक्रेन से जुड़ा है। नाटो जमीन, आसमान, अंतरिक्ष और साइबर चुनौतियों से निपटने के लिए अपनी सेना को अत्याधुनिक बनाने की ओर अग्रसर है। इसमें उसकी सीधी प्रतिद्वंदिता रूस और चीन से है।

गौरतलब है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस के नेतृत्व में सामूहिक सुरक्षा और सामूहिक हितों के प्रति एक दूसरे पर निर्भरता बढ़ाने के लिए आठ दिसंबर 1991 को एक स्वतंत्र राष्ट्र संगठन- कामनवेल्थ आफ इंडिपेंडेंट स्टेट्स (सीआइएस) का गठन किया गया था, जिसे मिंस्क समझौता कहा जाता है। सोवियत संघ के विघटन के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आए राज्यों की सीआईएस के अंतर्गत सामूहिक नीतियां बनाई गई थीं। यह संगठन मुख्य रूप से व्यापार, वित्त, कानून निर्माण, सुरक्षा और सदस्यों के बीच तालमेल बनाने जैसे काम करता है। इस संगठन की स्थापना में यूक्रेन का भी अहम योगदान रहा था। लेकिन रूस को लेकर यूक्रेन के हस्तक्षेप से अब स्थितियां बदल गई हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन ने रूस को चेतावनी दी है कि रूस ने यदि यूक्रेन पर हमला किया तो उस पर कड़े प्रतिबंधों का सामना करना पड़ेगा। कूटनीतिक रूप से यह माना जा रहा है कि रूस के लिए सबसे बड़ा आर्थिक झटका यह हो सकता है कि रूस की बैंकिंग प्रणाली को अंतरराष्ट्रीय भुगतान प्रणाली से काट दिया जाए।

यूक्रेन संकट में रूस के साथ चीन का आना नई आर्थिक और सामरिक व्यवस्था की संभावनाओं को बढ़ा सकता है। यूक्रेन में संकट बढ़ने पर चीन अगर रूस का खुले रूप से समर्थन करता है तो यूरोपीय संघ इसका विरोध कर सकता है। यूरोपीय संघ चीन का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है। यूक्रेन संकट के बढ़ने पर पश्चिम के देश भी रूस पर प्रतिबंध लगा सकते हैं। ऐसे में चीन रूस को बड़ी आर्थिक मदद दे सकता है। इस मदद में वैकल्पिक भुगतान व्यवस्था तैयार करना, रूस के बैंकों और कारोबारी प्रतिष्ठानों को कर्ज देना और रूस से तेल की खरीद जैसे कदम शामिल हैं। 1991 में सोवियत संघ के विघटन और वैश्वीकरण की नीति के बाद वैश्विक परिस्थितियां बदलने के साथ चीन का आर्थिक दबदबा बढ़ा और उसे रूस पर बढ़त हासिल हो गई। इसी का प्रभाव है कि चीन का रूस से सीमा विवाद लगभग समाप्त हो चुका है।

चीन रूस की बढ़ती नजदीकियों से अमेरिका और नाटो की नींद उड़ी हुई है। रूस के मुकाबले चीन कहीं बड़ा प्रतिद्वंदी बन कर अमेरिका के सामने आ गया है। इससे निपटने के लिए बाइडेन यूरोप की ओर देख रहे हैं। नाटो यूरोप और उत्तरी अमेरिका के देशों के मध्य एक सैन्य गठबंधन है जिसका उद्देश्य साम्यवाद और रूस का प्रभाव कम करना रहा है। अब चीन की बढ़ती ताकत से साम्यवाद के मजबूत होने की आशंका नाटो को परेशान कर रही है। अमेरिका और चीन के बीच जारी व्यापार युद्ध पर भी रूस का रुख साम्यवाद को मजबूत करता नजर आ रहा है जो वैश्विक तौर पर चीन-रूस की भागीदारी को प्रतिबिंबित करता है। जाहिर है, यूक्रेन को लेकर जो युद्ध की जो आशंकाएं गहरा रही हैं, उसका वैश्विक असर बेहद खतरनाक हो सकता है। यह नए शीत युद्ध के उभरने के स्पष्ट संकेत हैं जो पहले से ज्यादा विनाशकारी हो सकते हैं।