05-04-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक

 

Date:05-04-22

Northeast’s Ashta Lakshmi In The Limelight

With political will, AFSPA changes & partial resolution of Assam-Meghalaya border can be game-changers

Patricia Mukhim, [ The writer is a journalist and Northeast political analyst ]

Two events last week mark a turning point in the history of the Northeast states. Boundary disputes in six of the 12 contested areas were mutually resolved between the chief ministers of Assam and Meghalaya and the areas under the draconian Armed Forces Special Powers Act (AFSPA) have been significantly reduced. Prime Minister Narendra Modi has coined the term Ashta Lakshmi to define the eight states. And to the credit of the NDA government at the Centre, many infrastructure projects that were hanging fire have been fast-tracked.

Tackling a tricky interstate border

While the mutually resolved border issue will require ratification by Parliament, the fact remains that this is the first time that a matter that has caused heartburns and bloodshed at the borders was escalated to the level of CMs. Regional committees were also formed to visit the areas under dispute, speak to the people there and elicit their choice as to which side of the border they wish to be in. The last bit is any time more pragmatic than political dissenters arguing that they have not been consulted even while they sit in the comfort of the state capital. Interestingly, on the Assam side there are no contestations about the newly demarcated boundaries. The problem is on the Meghalaya side of the border where grievances are being loudly voiced by opposition parties. This matter will definitely figure in the manifesto of Meghalaya’s forthcoming election in 2023.

AFSPA on the front burner

The news that the areas under AFSPA have been significantly reduced will definitely help BJP score brownie points. So when the Union home ministry recently announced that the Disturbed Areas Notification would be removed completely from 23 districts and partially from one other in Assam, and 15 police station areas each in Nagaland and Manipur, it sounded historic. In this regard, the ministry acted on the recommendations of a high-level committee that was constituted after the Oting killing in December last year where 14 civilians were mistaken for militants and shot in cold blood.

In Nagaland the areas that are still considered ‘disturbed’ are Dimapur, Niuland, Chumoukedima, Mon, Kiphire, Noklak, Phek, Peren and Zunheboto districts and areas falling within the jurisdiction of police stations of Khuzama, Kohima North, Kohima South, Zubza and Kezocha in Kohima district, Mangkolemba, Mokokchung-I, Longtho, Tuli, Longchem and Anaki ‘C’ in Mokokchung district, Yanglok in Longleng district and Bhandari, Champang, Ralan and Sungro in Wokha district. We can accurately deduce that these areas being commercial hubs, the people are subjected to regular extortion and intimidation by Naga militant outfits. And since the state police doesn’t have the wherewithal to curtail this given the NSCN(IM)’s hold on the state government, the army and paramilitary forces have to do the job.

In Manipur the ‘disturbed area’ tag will no longer be applicable in seven police station areas of Imphal West district, four police station areas under Imphal East district and one police station area each in the districts of Thoubal, Bishnupur, Kakching and Jiribam. These six districts from where AFSPA is withdrawn are in the valley. Since 2004, AFSPA also doesn’t apply to the Imphal municipality area. Interestingly, AFSPA continues to be enforced in the hill districts of Manipur where the NSCN (IM) and Kuki outfits operate. There is clearly an ethnic bias here as has always been the case in Manipur where the politics of the hills and plains has been the regular bone of contention. The reason? Forty of the 60 assembly seats are from the Imphal valley and only 20 in the hills.

The othering of Northeast

As a newly independent nation, India might not have had the bandwidth then to deal with the Naga rebellion and assertion of sovereignty, and therefore ratified AFSPA with some modifications in 1958. For India, the Northeast is a region of different races that had been kept in check inside their territories by the British vide an instrument called the Bengal Eastern Frontier Regulation Act, 1873, now known as the Inner Line Permit (ILP). Today the same ILP is used to keep out other Indian visitors into the states of Nagaland, Manipur, Mizoram and Arunachal Pradesh, unless they get an entry permit.

Even though the armed forces defend AFSPA to the hilt, human rights activists condemn it outright. AFSPA has claimed many lives in fake encounters. In Manipur alone, 1,528 such cases have been documented and presented before the Supreme Court. It’s disturbing to note that India, the nation that broke free from colonial rule, continues to use the same laws used by a foreign power on its subjects.

Will the Modi government have the political will to throw out these colonial vestiges?


 

Date:05-04-22

कोविड के इम्तिहान में हम पास हुए हैं या फेल?

गुरचरण दास, ( लेखक और एयर इंडिया बोर्ड के पूर्व निदेशक )

कोविड-19 अब एंडेमिक बनता जा रहा है। सरकार ने आपदा प्रबंधन कानून वापस लेते हुए राज्यों को महामारी पर कदम उठाने के लिए स्वतंत्र कर दिया है। एक वायरस जो आकार में एक मिलीमीटर का भी दस हजारवां हिस्सा था, ने हमारी तैयारियों का जमकर इम्तिहान लिया है। हमने इससे क्या सीखा?

इसका पहला सबक यह था कि राज्यसत्ता को अपनी ताकत का इस्तेमाल सोच-समझकर करना चाहिए और लोगों के जीवन से जुड़े प्रश्नों पर अधिक सदाशयता से सोचना चाहिए। महामारी की शुरुआत में सरकार को कठिन फैसला लेना पड़ा कि जीवन और आजीविका में से किसे चुनें। यह धर्मसंकट था। भारत में दुनिया के सबसे कठोर लॉकडाउन में से एक लगाया गया था। एक झटके में लाखों की नौकरी चली गई। रोज कमाने-खाने वालों को इसने घोर गरीबी में धकेल दिया। प्रवासियों को विस्थापन करना पड़ा। हमारी जीडीपी गिरी। एक बेहतर ढंग से लागू किया गया या टारगेटेड लॉकडाउन संक्रमितों की जान बचा सकता था, वहीं करोड़ों कामगारों पर तकलीफों का पहाड़ नहीं टूटता।

कोविड की त्रासदी तो तभी शुरू हो गई थी, जब हम अपने स्वास्थ्य-तंत्र को सुधारने में नाकाम रहे थे। आज भी हालत कोई बहुत बेहतर नहीं है। हमसे छोटे देश कम संसाधनों के बावजूद आगे निकल गए हैं। थाइलैंड ने अपने पब्लिक और प्राइवेट सिस्टम को लिंक करते हुए यूनिवर्सल हेल्थकेयर के सपने को साकार कर लिया है। उसने अपने स्वास्थ्य मंत्रालय को दो भागों में बांटा है : एक किसी ऐसी एजेंसी की तरह काम करता है, जो निजी और सार्वजनिक अस्पतालों की प्रतिस्पर्धा के परिणामों के आधार पर अपने सभी नागरिकों के लिए स्वास्थ्य-सुविधाएं सुरक्षित करता है, वहीं दूसरा सरकारी अस्पतालों का संचालन करता है। साथ ही वह ग्रामीण और कम्युनिटी-आधारित प्राथमिक स्वास्थ्य-केंद्रों के नेटवर्क पर भी फोकस करता है, जहां स्थानीय और सुप्रशिक्षित डॉक्टर सेवाएं देते हैं। जबकि भारत के बहुतेरे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बदहाल हैं। डॉक्टर और नर्सें ड्यूटी पर नहीं जाते और दवाइयां चोरी हो जाती हैं। इस क्षेत्र में सुधार का समय आ गया है और थाइलैंड का मॉडल हमारे सामने है।

सकारात्मक पहलू यह है कि हमारा वैक्सीनेशन ड्राइव प्रभावशाली था और हमने इसे बहुत कम व्यय पर संचालित कर दिखाया। सरकार ने वैक्सीन का प्री-ऑर्डर पहले कर दिया होता तो इसे और बेहतर तरीके से किया जा सकता था। अच्छे समन्वय और एक ऑनलाइन पोर्टल के कारण आज 80 प्रतिशत आबादी को डोज लग चुकी है। हमें वैक्सीनेशन के बाद तुरंत ही डिजिटल सर्टिफिकेट मिल गए, जबकि विदेशों में लोगों को हस्तलिखित प्रमाण-पत्रों के लिए इंतजार करना पड़ा। सरकार की मुफ्त राशन और ग्रामीण रोजगार गारंटी योजनाओं ने त्रासदी में लोगों की बड़ी मदद की। ऐसे समय में लोगों की जेब में पैसा डालना और उपभोग को सपोर्ट करना जरूरी था। छोटे उद्यमों और आपसी सम्पर्कों पर निर्भर रहने वाले सेक्टरों के लिए और बेहतर प्रयास किए जा सकते थे।

लेकिन कोविड ने शिक्षा के प्रति हमारी एप्रोच में निहित खामियों को उजागर कर दिया है। भारत के बच्चे दुनिया के किसी भी देश की तुलना में स्कूलों से ज्यादा समय दूर रहे। जिन गरीब बच्चों के पास स्मार्टफोन नहीं थे या जिनके माता-पिता शिक्षित नहीं थे, उन्हें तो सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है।

कोविड ने हमारी वैचारिक आस्थाओं की भी परीक्षा ली है। मुक्त-बाजार प्रणाली ने भारत में बड़े पैमाने पर समृद्धि रची है और एक मध्यवर्ग रचा है, लेकिन कमजोर तबकों की सुरक्षा के लिए हमें लेफ्ट और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए क्लासिकल-राइट दोनों की ही जरूरत है। कोविड ने हमें बताया है कि संकट के समय वैयक्तिक और सामुदायिक- दोनों तरह के प्रयास समान रूप से महत्वपूर्ण साबित होते हैं।


Date:05-04-22

मुफ्त राशन से पांच खरब की अर्थव्यवस्था बन सकती है?

अभय कुमार दुबे, ( अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में प्रोफेसर )

अगर किसी देश या राज्य की आधे से अधिक आबादी दो जून की रोटी का भी जुगाड़ न कर पा रही हो तो क्या वह अपनी अर्थव्यवस्था का आकार आने वाले कुछ वर्षों के दौरान कई गुना बढ़ा सकता है? अगर सरकार आबादी के इतने विशाल हिस्से का पेट भरने के लिए मुफ्त गेहूं-चावल, दाल, तेल और नमक न केवल फौरी तौर पर बल्कि साल दर साल देने की योजना चला रही हो, तो उसके आर्थिक भविष्य के बारे में क्या अनुमान लगाया जाना चाहिए? ये दो प्रश्न तब उठते हैं जब हमारी केंद्र सरकार प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत मुफ्त राशन वितरण को न केवल अगले छह महीने के लिए बढ़ाती है, बल्कि उसके पीछे अघोषित इरादा यह होता है कि यह सिलसिला कम से कम 2024 तक तो जारी रहेगा ही। इसी तर्ज पर उप्र सरकार मुफ्त राशन बांटने की योजना को अगले तीन महीने के लिए बढ़ा देती है। विरोधाभास तब पैदा होता है जब केंद्र सरकार बार-बार एलान करती है कि वह राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ा कर पांच ट्रिलियन (पांच खरब) डॉलर तक कर देने की योजना पर काम कर रही है। विरोधाभास तब पैदा होता है जब उप्र सरकार अखबारों में विज्ञापन देकर किसी ऐसे महा सलाहकार की खोज करती है जो उसकी अर्थव्यवस्था का आकार एक ट्रिलियन डॉलर तक बढ़ा देने की योजना बना सके।

आंकड़े बताते हैं कि देश की कुल आबादी इस समय एक अरब चालीस करोड़ है। सरकार खुद मानती है कि मुफ्त राशन योजना से करीब अस्सी करोड़ लोग लाभान्वित होंगे। अर्थात 57% लोग राष्ट्रीय स्तर पर गरीब मान लिए गए हैं, और मुफ्त अनाज दिया जा रहा है। उप्र की कुल आबादी 24.34 करोड़ है। इसमें से पंद्रह करोड़ लोगों को मुफ्त राशन मिल रहा है। यानी, केवल नौ करोड़ से कुछ ज्यादा लोग ही उप्र में अपने प्रयास से अपने लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकते हैं। बाकी के पास रोजी-रोटी चलाने के लिए कोई जरिया नहीं है।

केंद्र सरकार के पास अब योजना आयोग की जगह नीति आयोग है। अरविंद पनगढ़िया इस आयोग के उपाध्यक्ष थे। उनके नेतृत्व में एक टास्क फोर्स बनाई गई थी। इसने सिफारिश की थी कि निचले तबके (आर्थिक रूप से कमजोर 40%) की आबादी की आर्थिक प्रगति पर निगाह रखी जानी चाहिए। जाहिर है कि अब इन गरीब लोगों की संख्या और बढ़ कर पचपन से साठ फीसदी तक पहुंच चुकी है। सरकार की अपनी स्वीकारोक्ति के मुताबिक गरीबों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।

विश्व बैंक के आंकड़ों पर यकीन करें तो देश की अर्थव्यवस्था का आकार इस समय 3.1 खरब डॉलर है। यानी इसमें 1.9 खरब डालर जोड़े जाने हैं। अगर उप्र सरकार कामयाब हो जाए तो आधे से ज्यादा यानी एक खरब डॉलर तो वह अकेली ही जोड़ देगी। लेकिन, पिछले पांच साल तो उस महासलाहकार की खोज में ही गुज़र गए जिससे इस तरह की सलाह और योजना की अपेक्षा की जा रही है। इस लेख में मुफ्त राशन योजना के राजनीतिक पहलुओं पर चर्चा करने से परहेज किया गया है, बावजूद इसके कि यह योजना आर्थिक फलितार्थों की वजह से चर्चित न हो कर लाभार्थियों को वोटरों में बदलने की एक युक्ति के रूप में ही चर्चित हो रही है।

मोटी समझ यही बताती है कि जब आर्थिक गतिविधियों में चौतरफा उछाल आता है तो वृद्धि दर तेजी से बढ़ती है, जिसके नतीजे के तौर पर लोगों को उत्पादक श्रम करने को मिलता है। उनकी आमदनी बढ़ती है और वे आर्थिक रूप से सशक्त होते हैं। सरकार या किसी और के मोहताज नहीं रहते। यहां जो नजारा दिख रहा है, वह ठीक उल्टा है। आबादी के ज्यादा से ज्यादा हिस्से सरकार पर निर्भर होते जा रहे हैं। कोविड से अगर पंद्रह-बीस फीसदी आबादी को मुफ्त राशन छह महीने या साल भर के लिए दिया जाता, तो कोई बात नहीं थी। लेकिन, आधे से अधिक आबादी के लिए लगातार चल रही इस तरह की व्यवस्था पांच खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की महत्त्वाकांक्षा की कसौटी पर फिट नहीं बैठती।


Date:05-04-22

फ्राइडे फॉर फ्यूचर जैसे अभियान पर्यावरण बचाने में मददगार हैं

अरविंद कुमार मिश्रा, ( पत्रकार व लेखक )

25 मार्च को क्लाइमेट एक्शन की मांग को लेकर दुनिया के अलग-अलग देशों में युवाओं ने प्रदर्शन किया। फ्राइडे फॉर फ्यूचर कैंपेन के 10वें संस्करण में 93 देशों के 5 लाख लोग सड़क पर निकले। 2018 में युवा एनवार्यनमेंट एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग ने स्वीडिश पार्लियामेंट के सामने धरने पर बैठकर फ्राइडे फॉर फ्यूचर कैंपेन की शुरुआत की थी। कभी इसे स्कूली बच्चों का आंदोलन करार दिया गया था, आज यह क्लाइमेट मूवमेंट दुनिया भर में महिला और युवा लीडरशिप खड़ी कर रहा है। आज दुनिया भर में थनबर्ग जैसे हजारों एनवार्यनमेंट एक्टिविस्ट क्लाइमेट जस्टिस की आवाज़ बन चुके हैं। जर्मनी में ल्यूजिया न्यूबर, अमेरिका में इसिरा हैरिस, न्यूजीलैंड में लोगान राइली, युगांडा में नाकाबायू हिल्डा, भारत की रिद्धिमा पांडे से लेकर कोप-26 के संबोधित करने वाली विनिसा उमाशंकर जलवायु योद्धा बन चुकी हैं।

कार्बन उत्सर्जन से धरती को बचाने के लिए ऐसे हजारों नाम क्लाइमेट नैरेटिव (जलवायु विमर्श) को मजबूती दे रहे हैं। फ्राइडे फॉर फ्यूचर कैंपेन में शामिल जर्मनी की ल्यूजिया न्यूबर जलवायु पहल को हर देश की डिप्लोमेसी का हिस्सा बनाने पर जोर देती हैं। ओलाडासु एडनिक नाइजीरिया में क्लाइमेट एक्शन का प्रमुख चेहरा हैं। एडनिक कहतीं हैं कि क्लाइमेट मूवमेंट को अंजाम तक पहुंचाने के लिए हर महिला को इकोफेमिनिस्ट के रूप में आगे आना होगा। न्यूजीलैंड की यूथ आईकॉन लोगान राइली टे अरा व्हाटू संस्था के जरिए माऊरी समुदाय को ग्लोबल वॉर्मिंग से बचाने में जुटी हैं। नाकाबायू हिल्डा की अगुआई में युगांडा को प्लास्टिक मुक्त बनाने का आंदोलन चल रहा है।

प्रकृति को बचाने की पहल का नेतृत्व महिलाओं के हाथ में हो, इस विचार को अब और नहीं टाला जा सकता। यूएन के अनुसार जलवायु में हो रहे अप्रत्याशित बदलाव महिलाओं को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले विस्थापितों में 80 फीसदी महिलाएं हैं। विकासशील देशों में फसल उत्पादन से लेकर ईंधन जुटाने जैसे काम में बड़ा अनुपात महिलाओं का है। आईपीसीसी की 6वीं आकलन रिपोर्ट जलवायु संकट के समाधान को महिला सशक्तीकरण से जोड़कर देखती है। यानी जलवायु त्रासदी की सबसे अधिक शिकार होने वाली महिलाओं के नजरिए से ही इसका समाधान तलाशना होगा।

संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम ने जेंडर समानता को सतत विकास लक्ष्य के दस बड़े कारक में शामिल किया है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की रिपोर्ट कहती है कि जिन देशों की संसद में महिलाओं का अनुपात अधिक है, उन्होंने अंतरराष्ट्रीय जलवायु संधियों को जल्दी अपनाया है। दुर्भाग्य से पर्यावरणीय नीतियों-विमर्श में अब तक महिला भागीदारी काफी कम रही है। नवंबर 2021 में आयोजित कोप-26 की समितियों में 34% ही महिलाएं रहीं। फाइनेंस क्लाइमेट एक्शन ग्रुप में महिलाओं की उपस्थिति न के बराबर है। 2021 में जी-7 समिट में सिर्फ एक महिला प्रतिनिधि को नीति निर्धारक मंडल में शामिल किया गया। क्लाइमेट पॉलिसी तय करने वाले वैश्विक व घरेलू निकायों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 30% से भी कम है। आधी आबादी की नेतृत्व क्षमता का इस्तेमाल दुनिया के सबसे बड़े संकट के समाधान के लिए क्यों नहीं किया जाना चाहिए?


 

Date:05-04-22

जीवन शैली में बदलाव से दूर होगा जलवायु संकट

नितिन देसाई

एक अंतर-सरकारी समिति (आईपीसीसी) ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि जलवायु परिवर्तन से पर्यावरण को असाधारण नुकसान हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार क्षेत्रीय, स्वच्छ जल और तटीय एवं खुले सागर के जलीय पारिस्थितिकीतंत्र को भारी नुकसान पहुंचा है। इन समस्याओं से निपटने के लिए नीतिगत स्तर पर शुरू किया प्रयास आपूर्ति पक्ष में बदलाव लाने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। इन बदलावों में कार्बन उत्सर्जन कम करने वाले उत्पादों पर जोर दिया जा रहा है। खासकर कम बिजली या ऊर्जा का इस्तेमाल करने वाले उपकरणों के निर्माण एवं इनके उपयोग की विशेष हिमायत की जा रही है।

जिस तेजी से जलवायु परिवर्तन का असर दिख रहा है उसे देखते हुए मांग के मोर्चे पर भी उतना ही ध्यान देने की की आवश्यकता महसूस की जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवंबर 2021 में यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) में शामिल पक्षों की ग्लासगो में हुई बैठक में ‘पर्यावरण अनुकूल जीवन-शैली’ अभियान में यही दृष्टिकोण अपनाने का आह्वान किया था। जीवन-शैली पर ध्यान इस पक्ष पर जोर देने का प्रयास है कि मानव जनित जलवायु परिवर्तन की समस्या का निवारण केवल आपूर्ति के मोर्चे पर तकनीकी बदलाव लाकर नहीं किया जा सकता है बल्कि मांग के स्तर पर भी व्यवहारात्मक बदलाव लाने की आवश्यकता है। हाल में चीन के एक शोध संगठन के अध्ययन में 116 देशों के लिए वस्तुवार उपभोग आंकड़ों का इस्तेमाल कर उपभोग से जुड़ी आदतों से होने वाले कार्बन उत्सर्जन के प्रभाव का अनुमान लगाया गया है।

वैश्विक स्तर पर दुनिया की कुल आबादी में 10 प्रतिशत सबसे धनी लोग 47 प्रतिशत तक कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। इनमें भी सर्वाधिक धनी 1 प्रतिशत 15 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। बीच की 40 प्रतिशत आबादी 43 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है इसलिए इस समूह का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन कमोबेश वैश्विक औसत जितना है। सर्वाधिक गरीब 50 प्रतिशत लोग केवल 10 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। लिहाजा यह कहा जा सकता है कि दुनिया की आबादी में सर्वाधिक धनाढ्य 1 प्रतिशत लोगों का प्रति व्यक्ति उपभोग सर्वाधिक 50 प्रतिशत गरीब लोगों के प्रति व्यक्ति उपभोग की तुलना में 75 प्रतिशत अधिक है।

अमीर एवं गरीब लोगों के भौगोलिक वितरण में काफी असमानता है। सहारा मरुस्थलीय देशों में रहने वाली ज्यादातर आबादी सबसे कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली 50 प्रतिशत जनसंख्या में आती है। दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व एशिया में आधी से अधिक आबादी कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली 50 प्रतिशत जनसंख्या में आती है। मगर पश्चिम देशों एवं सोवियत संघ के पूर्व देशों में 10 प्रतिशत से कम आबादी इस 50 प्रतिशत आबादी का हिस्सा है। इन देशों में अधिकांश आबादी बीच की 40 प्रतिशत आबादी का हिस्सा है। सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाली शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी पश्चिमी देशों और अमेरिका में अधिक है। अमेरिका में करीब 60 प्रतिशत राष्ट्रीय आबादी सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाली 10 प्रतिशत आबादी का हिस्सा है।

प्रति डॉलर व्यय निम्रतम से उच्चतम आय वाले वर्गों में अलग-अलग है। ज्यादातर ऊंचे एवं मध्य-आय वाले देशों में कार्बन उत्सर्जन करने की रफ्तार उच्च आय समूह से निम्र आय वर्ग समूह में कम होती जाती है। भारत में इसका उलटा है। व्यय के लिहाज से कार्बन उत्सर्जन आय वर्गों के साथ बढ़ता जाता है और सबसे निचले आय वर्ग की तुलना में यह शीर्ष आय वर्ग में दोगुना है। इसका कारण यह है कि अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले उत्पादों जैसे कार एवं वातानुकूलित मशीनों का इस्तेमाल ज्यादातर शीर्ष आय वर्ग वाले लोग करते हैं।

ये आंकड़े इस ओर इशारा देते हैं कि जीवन शैली में बदलाव का अभियान दुनिया की 10 प्रतिशत सबसे धनी आबादी पर केंद्रित होना चाहिए। इनमें आधे लोग विकसित देशों में रहते हैं। ये आंकड़े यह भी बताते हैं कि कई देशों में एक असंतुलन की स्थिति जरूर बनेगी जब प्रति व्यक्ति धनाढ्य लोगों का कार्बन उत्सर्जन में कमी पर जोर दिया जाएगा और गरीब लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिए उन्हें अधिक उत्सर्जन की इजाजत दी जाएगी। भारत इन्हीं देशों में एक है। क्या धनी देश इस बदलाव को स्वीकार करेंगे? 1992 में उपभोक्तावाद पर तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने कहा था, ‘अमेरिकी जीवन शैली पर किसी तरह का वाद-विवाद नहीं हो सकता।’

वास्तव में अमेरिका की जीवन शैली वैश्विक समस्या बन गई है। वहां की जीवन शैली के आधार पर ज्यादातर देशों में जीवन यापन मानक और उपभोक्ता व्यवहार तय हो रहे हैं। इस अंधाधुंध उपभोक्तावाद और मुनाफा कमाने की होड़ में बदलाव की जरूरत है। यह धनी देशों के साथ सभी देशों में होना चाहिए। 30 वर्ष पहले ‘रियो ऌऌपृथ्वी शिखर सम्मेलन’ में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश व्यावहारिक एवं दीर्घ अवधि के लिए अनुकूल उपभोग को बढ़ावा देने पर सहमत हुए थे। इनमें लोगों एवं परिवारों के लिए पर्यावरण के अनुकूल उपभोग से जुड़े कदम उठाना शामिल था। यह यूनएनएफसीसीसी की आगामी बैठकों में इस लक्ष्य को साधने का एक शुरुआती बिंदु हो सकता है। अगर भारत को वैश्विक स्तर पर इस अभियान को आगे बढ़ाना है तो उसे राष्ट्रीय स्तर पर उठाए गए कदमों का साक्ष्य पेश करना होगा। शुरुआत के तौर पर सरकार को उत्पाद एवं आय समूह के आधार पर श्रेणीबद्ध व्यय से उत्पन्न कार्बन उत्सर्जन पर सर्वेक्षण शुरू करना चाहिए। यह व्यावहारिक एवं दीर्घकालिक जीवन-शैली तैयार करने का खाका उपलब्ध करा सकता है।

कार्बन उत्सर्जन अधिक करने वाले उपकरणों पर कर लगाने के लिए जिंसों की कीमतें प्रभावित करना एक अच्छा कदम नहीं माना जा सकता है। इससे धनी एवं गरीब लोगों के उपभोग में थोड़ी असमानता लाने का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाएगा। उदाहरण के लिए निजी वाहनों का इस्तेमाल रोकने के लिए पेट्रोल के दाम बढ़ाने से धनी लोगों पर न्यूनतम प्रभाव होगा जबकि मध्यम वर्ग पर असर अधिक होगा। परिवहन के लिए सार्वजनक साधनों पर निर्भर रहने वाले कम आय वर्ग के लोगों पर असर सर्वाधिक होगा। सार्वजनिक सड़कों पर निजी कारों के इस्तेमाल की खुली छूट पर पाबंदी लगाना एक रास्ता हो सकता है।

भारत में वर्तमान समय में पर्यावरण के अनुकूल जीवन शैली रखने के लिए कुछ खास उपायों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। इनमें कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए अनिवार्य उत्पादन मानक तय करना, पर्यावरण के अनुकूल सुरक्षित उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए सरकारी खरीद कार्यक्रम शुरू करना और कार्बन उत्सर्जन की मात्रा दिखाने के लिए उत्पादों पर लेबल लगाना आदि शामिल हैं। इनके अलावा सूचना तंत्र के माध्यम से उपभोक्ता का व्यवहार बदलना, अपशिष्ट पदार्थों का उत्सर्जन कम करना और इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के कूड़े का अनिवार्य पुनर्चक्रीकरण आदि जैसे कदम उठाए जा सकते हैं। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कम करने के लिए धनी लोगों के उपभोग ढर्रों में बदलाव उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना आपूर्ति मोर्चे पर नए प्रयोग आवश्यक हैं। यह जलवायु परिवर्तन के विषय पर न्याय सुनिश्चित करने के लिए भी जरूरी है और यूएनएफसीसीसी में यह लक्ष्य हासिल करने की दिशा में कदम उठाना भारत के लिए बिल्कुल वाजिब है।


Date:05-04-22

वैश्विक स्तर पर ऊर्जा की भूराजनीति और एलएनजी

सुनीता नारायण

पिछले दिनों मैंने ऊर्जा जगत के कारोबारियों और विशेषज्ञों की वार्षिक बैठक में शिरकत की जिसका आयोजन अमेरिका के ह्यूस्टन शहर में किया गया। सेरावीक नामक यह आयोजन इस प्रकार के आयोजनों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है और कोविड-19 महामारी के कारण इसे दो वर्षों के अंतराल के बाद आयोजित किया गया। यह समय भी बेहद खराब है-रूस और यूक्रेन के बीच जंग चल रही है, प्रतिबंध लागू हैं और ऊर्जा की कीमतें नियंत्रण के बाहर हो रही हैं।

सच यह है कि युद्ध के दौरान तथा उसके पहले ऊर्जा कीमतों में हुए इजाफे ने पारंपरिक तेल एवं गैस कंपनियों की भूमिकाओं की ओर हमारा ध्यान दोबारा आकृष्ट किया है। ये कंपनियां युद्ध के बाद के ऊर्जा परिदृश्य में अपनी भूमिका को लेकर उत्साहित नजर आ रही हैं। इसमें ज्यादा तेल एवं गैस उत्खनन से लेकर यूरोप के आकर्षक नये बाजार में उनकी भूमिका से जुड़ी संभावनाएं शामिल हैं।

एक झूठी बात यह स्थापित की जा रही है कि कीमतों में मौजूदा वृद्धि इसलिए हो रही है कि जीवाश्म ईंधन से हरित ऊर्जा की ओर बदलाव के कारण तमाम दिक्कतें पैदा हो रही हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक ऊर्जा क्षेत्र के लिए तरल प्राकृतिक गैस (एलएनजी) को नए सिरे से महत्त्वपूर्ण बनाकर प्रस्तुत किया है। एलएनजी वहां काम आती है जहां पाइपलाइन नहीं पहुंच पाती। यानी जहां प्रमुख गैस उत्पादक कतर और अमेरिका आपूर्ति नहीं कर पाते। उन्होंने यह व्यवस्था की है कि पहले गैस को तरल बनाया जाए ताकि उसे कंटेनरशिप के माध्यम से ढोया जा सके तथा वहां ले जाकर उसे दोबारा गैस में परिवर्तित करके विद्युत संयंत्रों, वाहन या घरों में ऊर्जा के रूप में इस्तेमाल किया जा सके।

युद्ध की शुरुआत के बाद एलएनजी की मांग में काफी इजाफा हुआ है। उदाहरण के लिए अमेरिका में इसकी अति है। यही कारण है कि सेरावीक में बातचीत का मुद्दा यह भी था कि अमेरिका अपने साझेदारों के साथ मिलकर अपेक्षाकृत स्वच्छ जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को कैसे बढ़ावा दे सकता है। प्राकृतिक गैस कोयले की तुलना में 50 फीसदी तक कम कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करती हैं। लेकिन इसके साथ मीथेन उत्सर्जन की एक अलग समस्या है। प्राथमिक तौर पर इसे जलाने से और परिवहन तथा वितरण के दौरान लीकेज से ऐसी स्थिति बनती है। मीथेन एक प्रमुख ग्रीनहाउस गैस है। यह वातावरण में बहुत समय तक नहीं रहती लेकिन यह तापमान को कार्बन डाइ ऑक्साइड की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ाती है।

परंतु विशालकाय तेल एवं गैस उद्योग मौजूदा ऊर्जा संकट का फायदा उठाना चाहता है। यही वजह है कि इस उद्योग का कहना है कि स्वच्छ गैस क्रांति को जिम्मेदारीपूर्वक अंजाम देना होगा। उद्योग जगत मीथेन गैस को कम करने में निवेश करेगा, कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन को उपयोग में लाया जाएगा या उसे भंडारित किया जाएगा तथा इसका इस्तेमाल स्वच्छ हाइड्रोजन के निर्माण में किया जाएगा। ग्रीन हाइड्रोजन जिसका इस्तेमाल नवीकरणीय ऊर्जा में किया जाता है, उसके उलट यह हाइड्रोजन नीली होगी क्योंकि इसे प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल करके उत्पादित किया जाएगा तथा उसके बाद इस उत्सर्जन को निपटाया जाएगा और कम किया जाएगा। यह योजना ऊर्जा संकट से जूझ रही सरकारों के लिए लोरी के समान है। यूरोपीय संघ पहले ही प्राकृतिक गैस रूपी जीवाश्म ईंधन को स्वच्छ ऊर्जा घोषित कर चुका है।

इस परिदृश्य में जलवायु परिवर्तन का प्रबंधन बिना ऊर्जा के भविष्य में परिवर्तन किए भी किया जा सकता है तथा जिन कंपनियों को कारोबार की समझ है वे दुनिया को चलाना जारी रखेंगी। इस तथ्य को भूल जाइए कि अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) ने कहा था कि अगर दुनिया को 2050 तक विशुद्ध शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य पर बने रहना है तो सन 2020 के बाद तेल एवं गैस में नया निवेश पूरी तरह बंद करना होगा।

मेरा मानना है कि गैस दुनिया के हमारे हिस्से में महत्त्वपूर्ण स्वच्छ ऊर्जा है। इसलिए कि यहां कोयले के इस्तेमाल के कारण वायु प्रदूषण की समस्या बहुत गंभीर है। सन 1998 में हमने सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वॉयरनमेंट (सीएसई) में हमने यह हिमायत की थी कि सार्वजनिक परिवहन में डीजल की जगह सीएनजी का इस्तेमाल किया जाए। ऐसा किया भी गया और हवा की गुणवत्ता में सुधार भी आया। अब देश भर के औद्योगिक बॉयलर्स में कोयले का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिससे खराब हवा के कारण बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हो रही हैं। विकल्प यही है कि बॉयलर्स तथा प्रदूषणकारी ताप बिजली घरों में स्वच्छ प्राकृतिक गैस या बायोमास का इस्तेमाल किया जाए। हमें स्वच्छ ऊर्जा की आवश्यकता है ताकि हम स्वच्छ बिजली के माध्यम से ऊर्जा के इस्तेमाल में बदलाव ला सकें और वायु प्रदूषण से निपटने के लिए बायोमास, नवीकरणीय ऊर्जा और प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल कर सकें।

लेकिन सवाल यह है कि क्या पहले से औद्योगीकृत दुनिया को भी इस जीवाश्म ईंधन के उपयोग का लाभ मिलना चाहिए। सच तो यह है कि कार्बन बजट को पहले ही कुछ देशों की वृद्धि के लिहाज से अनुचित किया जा चुका है। इन देशों को कार्बन कम करने की आवश्यकता है यानी उन्हें नवीकरणीय ऊर्जा को अपनाना होगा। वे दोबारा जीवाश्म ईंधन में निवेश करके इसे स्वच्छ और हरित ऊर्जा नहीं बता सकते।

दिक्कत केवल यह नहीं है कि जीवाश्म ईंधन के निरंतर इस्तेमाल के कारण ये देश और अधिक कार्बन बजट चाहेंगे। बल्कि इसका अर्थ यह भी है कि ऊर्जा बदलाव की कीमत बढ़ेगी। एलएनजी को पहले ही यूरोप को दिया जा रहा है जिसकी कीमत चुकाने की क्षमता पहले ही अधिक है। इसका अर्थ यह होगा कि भारत जैसे देशों को कोयले के जंजाल से निकलने में मुश्किल होगी। कोयला भले ही गंदा है लेकिन यह सस्ता ईंधन है। यह धरती के भीतर पाया जाता है इसलिए ऊर्जा सुरक्षा विशेषज्ञों की भी इस पर नजर रहती है। यह हमें पीछे की ओर ले जाता है। यह पूरी दुनिया को असुरक्षित बनाता है। यही हमारे लिए सबसे महत्त्वपूर्ण बात है।


Date:05-04-22

देउबा का दौरा

संपादकीय

नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा की हाल की भारत यात्रा दोनों देशों के लिए नए युग की शुरुआत से कम नहीं है। इस यात्रा का बड़ा हासिल तो यही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ वार्ता में देउबा ने सीमा विवाद सुलझाने के लिए सहमति जताई। उन्होंने इस बात को माना कि यह विवाद शांतिपूर्ण तरीके से ही हल होना चाहिए। यह महत्त्वपूर्ण इसलिए भी है कि दो साल पहले नेपाल के साथ रिश्तों में तनाव सीमा विवाद को लेकर ही पैदा हुआ था। यह ज्यादा दुखद इसलिए भी था कि जिस देश के साथ हमारे रिश्ते सदियों से रहे हैं, उसके साथ आखिर सीमा को लेकर विवाद क्यों होना चाहिए। लेकिन नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली चीन के प्रभाव में थे। उन्होंने इस विवाद को जिस तरह से उठाया, वह भारत के लिए कम तकलीफदेह नहीं था। ऐसे में देउबा जिस नई उम्मीद के साथ भारत आए और सीमा विवाद हल करने को लेकर जो सकारात्मक रुख दिखाया, उससे एक उम्मीद बंधी है। हालांकि भारत ने यह भी साफ कर दिया कि सीमा विवाद मुद्दे को लेकर नेपाल के भीतर राजनीति नहीं होनी चाहिए। और यह सही भी है कि अगर नेपाल सरकार और वहां के राजनीतिक दल इस विवाद का राजनीतिकरण करके इसमें हित देखने की कोशिश करेंगे, तो विवाद सुलझने के बजाय पेचीदा होता जाएगा और दूसरी ताकतें इसका फायदा उठाने का मौका नहीं छोड़ेंगी। ऐसी स्थिति भारत से कहीं ज्यादा नेपाल के लिए नुकसानदायक साबित होगी।

गौरतलब है कि भारत-नेपाल के बीच सीमा विवाद कोई दो सौ साल से भी पुराना माना जाता है। पर कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि इसे लेकर दोनों देशों के रिश्तों में कड़वाहट आई हो। लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में समय-समय पर ऐसे संकेत सामने आने लगे थे, जिससे दोनों पक्षों को लग रहा था कि अब इस विवाद का स्थायी और सर्वमान्य हल निकालना चाहिए। इसीलिए 1996 में पहली बार दोनों देशों के बीच समाधान को लेकर सहमति बनी थी। पर तब भी इसका हल निकल नहीं पाया था। सीमा विवाद ने गंभीर रूप तब धारण किया जब नेपाल सरकार ने पिथौरागढ़ जिले के चीन से लगते हिस्सों, लिपुलेख दर्रे सहित कालापानी और लिंपियाधुरा को अपने आधिकारिक नक्शे में दिखा दिया। यह ऐसा कदम था जो इस पड़ोसी देश ने पहले कभी नहीं उठाया था। जिन सीमाई इलाकों को लेकर विवाद की बात कही जाती रही है, वे सामरिक दृष्टि महत्त्वपूर्ण हैं और चीन इसमें अपने हित देख रहा है।

अब अच्छी बात यह है कि दोनों देश पुरानी बातों को भूल कर नए सिरे से आगे बढ़ने पर सहमत हुए हैं। सीमा विवाद हल करने के लिए द्विपक्षीय तंत्र बनेगा और वह सभी व्यावहारिक उपायों पर चर्चा करेगा। अगर दोनों पक्ष किसी भी तरह के विवाद को हल करने की ठान लें तो कौन रोक सकता है! बस इच्छाश्क्ति होनी चाहिए। याद करें, बांग्लादेश के साथ भूमि और समुद्री सीमा विवाद बातचीत से हल हुए। नेपाल भी यह अच्छी तरह समझता है कि भारत से उसके रिश्ते रोटी-बेटी के रहे हैं। उसके विकास में भारत हमेशा से योगदान करता आया है। 1954 में भारत ने नेपाल में सहायता मिशन इसीलिए स्थापित किया था कि उसे हर तरह से मदद दी जा सके। भूकम्प जैसी आपदाओं में भी नेपाल को सामान से लेकर आर्थिक सहायता के रूप में सबसे ज्यादा मदद देकर भारत बड़े भाई का फर्ज अदा करता आया है। ऐसे में अगर नेपाल भारत के शत्रुओं के इशारे पर विवाद खड़े करेगा तो पारंपरिक रिश्ते मजबूत कैसे होंगे?