04-10-2021-समाचारपत्रों-के-संपादक

Date:04-10-21

डिजिटल स्वास्थ्य आईडी

संपादकीय

आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन (एबीडीएम) की आधिकारिक शुरुआत के साथ ही देश के हर नागरिक को विशिष्ट डिजिटल स्वास्थ्य पहचान (आईडी) प्रदान करने की पहल हो गई है। यह उनके व्यक्तिगत स्वास्थ्य प्रदर्शन (पीएचआर) से जुड़ी रहेगी। यह आईडी आधार से भी जुड़ी रहेगी। ये स्वास्थ्य आईडी जारी करने की प्रक्रिया महीनों पहले शुरू हो गई थी जब कोविन ऐप के माध्यम से कोविड टीकाकरण के लिए पंजीयन कराने वालों को स्वत: ही डिजिटल स्वास्थ्य आईडी जारी की जाने लगी थी। आशा है कि एबीडीएम स्वास्थ्य सेवा आपूर्ति की क्षमता, प्रभाव और पारदर्शिता में और अधिक सुधार करेगा। स्वास्थ्य आईडी और पीएचआर वाले व्यक्ति के स्वास्थ्य संबंधी व्यक्तिगत आंकड़ों को डिजिटल तरीके से सुरक्षित रखा जा सकता है। चिकित्सकीय पर्चे, जांच नतीजे और अस्पताल से छोड़े जाने के पर्चे आदि सुरक्षित रहेंगे, उन्हें देखा जा सकेगा और जरूरत के मुताबिक साझा किया जा सकेगा। यह ऐसे लोगों के लिए मददगार साबित हो सकती है जो बीमारी की हालत में यात्रा कर रहे हों। इसी तरह इसकी मदद से मरीजों को विभिन्न स्वास्थ्य सुविधाओं में अबाध आवाजाही की सुविधा होगी। इससे स्वास्थ्य बीमा प्रदाताओं को भी सेवा आपूर्ति में काफी मदद मिलेगी।

मोबाइल या आधार के माध्यम से स्वास्थ्य आईडी बनाने के लिए लाभार्थी से उसका नाम, विस्तृत जानकारी, जन्म वर्ष, लिंग, पता, मोबाइल नंबर/ आधार नंबर आदि मांगे जाएंगे। बहरहाल, डिजिटल प्रणाली में निजता और सहमति को लेकर कई गंभीर समस्याएं हैं, खासतौर पर यह देखते हुए कि भारत में व्यक्तिगत डेटा संरक्षण कानून नहीं है। रिपोर्ट बताती हैं कि करीब 12.5 करोड़ लोग जिन्होंने आधार की मदद से कोविन ऐप का इस्तेमाल किया उनकी स्वास्थ्य आईडी स्वत: जारी हो गई। उनसे किसी तरह की सहमति नहीं मांगी गई। हालांकि संभव है कि उनकी सहमति कोविन ऐप की मंजूरियों में कहीं बारीक अक्षरों में दर्ज हो। निजता और सहमति के मामले में इसे कतई अच्छी शुरुआत नहीं कहा जा सकता। पीएचआर सर्वरों में जहां डेटा दर्ज किया जाएगा, उनकी सुरक्षा विशेषताओं को लेकर भी सवाल हैं। परिभाषा के मुताबिक देखें तो लाखों की तादाद में आम लोग, विभिन्न एजेंसियां, संस्थान और अंशधारक डेटा तक पहुंच चाहेंगे और यदि यह डेटा लीक हुआ तो काफी नुकसान हो सकता है।

उपयोगकर्ताओं के लिए भी यह संभव होना चाहिए कि वे स्वास्थ्य आईडी और एडीबीएम से बाहर रहकर भी स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त कर सकें। इसके अलावा आदर्श रूप से पीएचआर तक हर पहुंच तथा जनांकीय आंकड़ों को लेकर उपयोगकर्ता की सहमति की व्यवस्था होनी चाहिए। आधिकारिक वेबसाइट में कहा गया है कि उपयोगकर्ताओं की इच्छा होने पर उनके पीएचआर तथा स्वास्थ्य आईडी को पूरी तरह डिलीट करने की इजाजत होगी। इसका अर्थ यह होगा कि तमाम जनांकीय आंकड़े मिट जाएंगे। लेकिन इस स्वनिर्मित विशेषता के ब्योरों में दिक्कत हो सकती है लेकिन निश्चित रूप से यह सहमति के मसले का कुछ हद तक ध्यान रखेगी। स्वास्थ्य आईडी डेटा को एकत्रित करके एक भंडार तैयार करेगी। सैद्धांतिक तौर पर इससे स्वास्थ्य सेवाओं में बेहतरी आएगी और अगर उन आंकड़ों तथा रुझानों का विश्लेषण किया गया तो बेहतर स्वास्थ्य नीतियां भी बन सकेंगी। लेकिन आरोग्य सेतु तथा कोविन ऐप तथा उनका व्यावहारिक उपयोग कुछ बुनियादी बातों को लेकर सवाल पैदा करता है।

उदाहरण के लिए जिन लोगों के पास स्मार्ट फोन नहीं हैं उन्हें इससे जुडऩे में मुश्किल आई और यहां भी विशिष्टता को लेकर समस्या हो सकती है। ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि आंकड़े जुटाने को लेकर इस जुनून के बाद भी हम महामारी से सक्षम तरीके से नहीं निपट पाए। कई लोग ऑक्सीजन की कमी से जान गंवा बैठे और टीकों की देर से खरीद के कारण टीकाकरण कार्यक्रम भी प्रभावित हुआ। बेहतर सेवा देने के लिए डेटा संग्रहण जरूरी है, लेकिन बुनियादी बातों पर ध्यान दिए बिना यह भी नहीं हो पाएगा।


Date:04-10-21

सुधार की दरकार

संपादकीय

संयुक्त राष्ट्र में सुधार को लेकर ज्यादातर राष्ट्र लंबे समय से आवाज उठाते रहे हैं। लेकिन अब तक इस दिशा में ऐसा कुछ भी होता नहीं दिखा है, जिससे यह संकेत मिलता हो कि बदली हुई वैश्विक परिस्थितियों में यह निकाय खुद को भी बदलेगा। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना को पचहत्तर साल हो चुके हैं। तब से अब तक दुनिया में बड़े बदलाव आ चुके हैं। विश्वयुद्ध, शीतयुद्ध जैसे भयानक दौरों से दुनिया गुजर चुकी है। महाशक्तियों के मायने और स्वरूप बदल चुके हैं। ऐसे में दुनिया को वैश्विक व्यवस्था में बांधे रखने की जिम्मेदारी निभाने वाले संयुक्त राष्ट्र में सुधार की जरूरत है। मगर हैरानी की बात है कि आज जिन देशों का इस निकाय पर नियंत्रण बना हुआ है, वे सुधार की बात तो करते हैं, पर उस दिशा में कदम बढ़ाने से बचते रहे हैं। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र में सुधार की गाड़ी कैसे बढ़े, यह बड़ा सवाल है। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र महासभा के छिहत्तरवें सत्र के अध्यक्ष अब्दुल्ला शाहिद ने सुरक्षा परिषद में सुधार के मुद्दे पर कदम बढ़ाने की बात कही है।

सुरक्षा परिषद में सुधार का मुद्दा दरअसल सदस्यता से जुड़ा है। इस वक्त सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन हैं। लेकिन ये देश किसी और देश को स्थायी सदस्य के रूप में घुसने देने को राजी नहीं दिखते। इन देशों को वीटो का अधिकार मिला हुआ है। इसलिए तमाम मुद्दों पर ये देश वीटो के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए अहम फैसलों में भी बाधा खड़ी कर देते हैं। इसलिए भी सुरक्षा परिषद का विस्तार एक जटिल मुद्दा बन गया है। भारत लंबे समय से सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग करता आया है। वैसे चीन को छोड़ दें तो बाकी स्थायी सदस्य भारत की दावेदारी का समर्थन करते आए हैं। हाल में समूह चार देशों- भारत, जर्मनी, जापान और ब्राजील ने भी इस मुद्दे को उठाया। चारों ही देश दुनिया की बड़ी आर्थिक शक्तियों में शामिल हैं। इनकी क्षेत्रीय हैसियत भी कम नहीं है। वैश्विक स्तर पर बड़े समूहों में भी शामिल हैं। भारत और ब्राजील ब्रिक्स समूह के सदस्य हैं, जिसमें रूस और चीन भी हैं। जापान और भारत क्वाड देशों के समूह में हैं, जिसकी कमान अमेरिका ने संभाली हुई है। जर्मनी यूरोप की बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है। ऐसे में इन देशों को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता क्यों नहीं मिलनी चाहिए?

आज दुनिया आतंकवाद, गृहयुद्ध, अलगाववादी हिंसा, शरणार्थी समस्या, जलवायु संकट, परमाणु हथियारों की होड़ जैसी चुनौतियों का सामना कर रही है। ऐसे वक्त में संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक भूमिका बढ़नी स्वाभाविक है। वरना कैसे यह निकाय ज्यादा प्रभावी और प्रासंगिक बन पाएगा? महासभा की हर साल होने वाली बैठकों में सुरक्षा परिषद में सुधार का एजेंडा प्रमुख रूप से छाया रहता है। लेकिन सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों का रुख इस सुधार में एक बड़ी बाधा के रूप में सामने आता रहा है। आज अमेरिका और चीन के बीच जो टकराव बना हुआ है, उसमें दुनिया फिर से दो ध्रुवों में बंटने लगी है। ऐसे में सुरक्षा परिषद के भीतर सुधार के मुद्दे पर ये देश कैसे बढ़ेंगे, यह बड़ा सवाल है। अगर दुनिया के बड़े देशों को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता नहीं मिलती है तो कई देश संयुक्त राष्ट्र जैसा दूसरा समांतर वैश्विक संगठन खड़ा करने से जरा भी नहीं झिझकेंगे। ऐसे में प्रतिस्पर्धा और टकराव और बढ़ेंगे ही।


Date:04-10-21

क्‍वांटम क्रांति के लिए होड़

निरंकार सिंह

अमेरिका और चीन के बीच एक ऐसे क्वांटम कंप्यूटर के विकास के लिए होड़ चल रही है जो आज की डिजिटल दुनिया को बदल कर रख देगा। सूचना तकनीक के क्षेत्र में यह उसी तरह की क्रांति होगी जैसे कंप्यूटर के आने से हुई। अमेरिका ने एक सौ अठारह योजनाओं में लगभग पच्चीस करोड़ डालर का निवेश किया है। उधर, चीन सरकार हेफेई में नेशनल लेबोरेटरी ऑफ क्वांटम इन्फार्मेशन साइंस विकसित कर रही है। दो साल पहले ही चीन ने पहले क्वांटम संचार उपग्रह छोड़ा था। चीन जिनान प्रांत में एक गुप्त संचार नेटवर्क भी स्थापित कर रहा है। क्वांटम सूचना के क्षेत्र में दुनिया की दो बड़ी आर्थिक शक्तियों की प्रतिद्वंद्विता इसके महत्त्व को दर्शाती है। दरअसल यह तकनीक इतनी शक्तिशाली होगी कि दुनिया को बदल कर रख देगी।

क्वांटम कंप्यूटर बनाने के लिए भारत सहित कई देशों के वैज्ञानिक प्रयासरत हैं। डिजिटल युग में जिसके पास डेटा है, वही सबसे ताकतवर है। क्वांटम कंप्यूटर की विशेषता यह है कि यह डेटा विश्लेषण की रफ्तार लाखों गुना बढ़ा देगा। कम से कम जगह में ज्यादा से ज्यादा डेटा जमा कर सकता है और गणना की तकनीक को अधिक दक्ष बना सकता है। इससे ऊर्जा की खपत भी कम होगी। आज क्वांटम कंप्यूटर बनाने के लिए माइक्रोसॉफ्ट, इंटेल, एल्फाबेट-गूगल, आइबीएम, डी-वेब सहित अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियां और विभिन्न देशों की सरकारें अपने रक्षा बजट का बड़ा हिस्सा इस अभियान पर खर्च कर रही हैं।

भौतिक विज्ञानी नील्स बोहर के अनुसार ‘अगर क्वांटम भौतिकी ने आपको गहरा धक्का न दिया होता तो उसे आप समझ भी नहीं पाए होते।’ क्वांटम स्तर पर दुनिया बिल्कुल ही अलग है। यहां सब कुछ हमारी सामान्य समझ के एकदम विपरीत घटित होता है। यह शून्य अथवा एक की सीधी-साधी दुनिया नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी जगह है जहां शून्य और एक दोनों की अजीबोगरीब स्थितियां हैं। क्या हमारी दुनिया में यह मुमकिन है कि हम एक सिक्का उछालें और चित्त व पट दोनों एक साथ आ जाए! क्वांटम कंप्यूटिंग के जरिए हम एक ऐसी दुनिया में दाखिल होते हैं जिसमें कई समानांतर गणनाओं का हल एक साथ दिया जा सकता है।

वर्तमान समय में बहुत अधिक आंकड़ों के समूह में से कम समय में कुछ आवश्यक सूचनाएं प्राप्त करना एक बड़ी समस्या है। इस जटिल कार्य को क्वांटम कंप्यूटर बहुत ही आसानी से कर सकता है। उदाहरण के लिए, यदि हमें दस लाख सोशल मीडिया प्रोफाइल में से किसी एक व्यक्ति की जानकारी खंगालनी है तो एक पारंपरिक कंप्यूटर उन सभी दस लाख लोगों से जुड़ी सूचनाओं को देखेगा और इसमें उसे दस लाख चरणों से गुजरना होगा। जबकि क्वांटम कंप्यूटर उसे एक हजार चरणों में ही निपटा सकता है। इसकी सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी रफ्तार है। यह कई पारंपरिक कंप्यूटरों द्वारा एक समय में समानांतर तौर पर किए जाने वाले काम को अकेले ही कर सकता है। बैंकिंग और सुरक्षा अनुप्रयोगों में उपयोग किए जाने के लिए कई कूट प्रणालियों का उपयोग इन कंप्यूटरों में किया जाता है जो गणितीय समस्याओं को सुलझाने में एक सीमा के बाद असमर्थ है। क्वांटम कंप्यूटर इन कमियों को दूर कर सकते हैं। इसके अलावा ये वैज्ञानिक अनुसंधानों, खगोलीय अंतरिक्ष मिशनों, डेटा संरक्षण आदि के लिए भी उपयोगी हो सकते हैं।

दो साल पहले इंटरनेट की दुनिया के बेताज बादशाह गूगल ने यह बता दिया था कि दुनिया क्वांटम युग के करीब पहुंच गई है। दुर्घटनावश सितंबर, 2019 में विज्ञान शोध पत्रिका ‘नेचर’ में छपा एक लेख आॅनलाइन लीक हो गया था। इससे यह पता चला कि गूगल ने ‘साइकामोर’ नामक एक ऐसा क्वांटम कंप्यूटर विकसित कर लिया है जो एक सेकंड में बीस हजार लाख करोड़ गणनाएं करने में सक्षम है। बाद में, गूगल ने यह भी दावा किया कि साइकामोर ऐसी गणनाओं को महज दो सौ सेकेंड में करने में सफल रहा है जिसे दुनिया के सबसे तेज सुपर कंप्यूटर ‘समिट’ को करने में दस हजार साल लग जाते। गूगल के इस दावे में कितनी सच्चाई थी, यह अभी तक नहीं पता चल पाया है। लेकिन साधारण क्वांटम कंप्यूटर भी आज के सुपर कंप्यूटरों से लाखों गुना तेज होंगे, इस बात में कोई संदेह नहीं है।

क्वांटम तकनीक के विशेषज्ञों के अनुसार क्वांटम तकनीक सूचनाओं के विश्लेषण में क्रांतिकारी बदलाव लाने की क्षमता रखती है। सभी सूचनाएं शून्य और एक में कूट रूप से दर्ज होती हैं। लेकिन साठ के दशक में पता चला कि जहां ये सूचनाएं रखी जाती हैं वह जगह इनके इस्तेमाल को प्रभावित कर सकती है। इसका मतलब ये है कि हम सूचनाओं को कंप्यूटर चिप पर स्टोर कर सकते हैं, जैसा कि हम आजकल कर रहे हैं, लेकिन हम शून्य और एक को अन्य बेहद सूक्ष्म स्थान पर जमा कर सकते हैं जैसे कि एक अकेले परमाणु में या फिर छोटे-छोटे अणुओं में। चीनी वैज्ञानिक एलेखांद्रो पोजास के अनुसार ये परमाणु और अणु इतने छोटे होते हैं कि इनके व्यवहार को अन्य नियम भी निर्धारित करते हैं। जो नियम परमाणु और अणु के व्यवहार को तय करते हैं वही क्वांटम दुनिया के नियम हैं।

कुछ वर्ष पहले तक क्वांटम कंप्यूटिंग वैज्ञानिकों के लिए एक सैद्धांतिक कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं थी। लेकिन पिछले दो वर्षों में पूरा परिदृश्य ही बदल गया। इस दिशा में हो रही प्रगति की रफ्तार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पूरा क्वांटम कंप्यूटर तो नहीं, पर उसके प्रोसेसर या सेंट्रल प्रोसेसिंग यूनिट (सीपीयू) को बाजार में पेश किया जा चुका है। हाल में एक डच कंपनी क्वांटवेयर ने दुनिया की पहली क्वांटम प्रोसेसिंग यूनिट (क्यूपीयू) को पेश किया है। इस सुपरकंडक्टिंग प्रोसेसर का नाम है-सोप्रानो। क्वांटम कंप्यूटिंग के चालीस साल के इतिहास में यह किसी चमत्कारिक उपलब्धि से कम नहीं है। बहरहाल, इस क्षेत्र में अभी तक जितना कुछ हुआ है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि चीन ने इस दौड़ में अपनी बढ़त बना ली है।

वर्ष 2016 में चीन ने दुनिया का पहला क्वांटम संचार उपग्रह छोड़ने की घोषणा की थी और दावा किया था कि वह इसके जरिए कूट संकेतों में संचार स्थापित कर सकता है जिसे दूसरा कोई देश नहीं पढ़ सकता। इन प्रयोगों के जरिए चीन ने सिर्फ क्वांटम तकनीक की अवधारणा को ही साबित नहीं किया, बल्कि उसने यह भी दिखा दिया कि उसके पास ऐसा करने की क्षमता है। क्वांटम तकनीक के उपयोग से स्वास्थ्य एवं विज्ञान, सुरक्षा, औषधि निर्माण और औद्योगिक निर्माण जैसे क्षेत्रों में हजारों नई संभावनाएं पैदा होंगी। आने वाले वक्त में इस दिशा में तीव्र प्रतिस्पर्धा देखने को मिल सकती है। भविष्य में क्वांटम कंप्यूटिंग हमारी डिजिटल दुनिया का नक्शा बदल कर रख देगी। हम कई नई चीजें कर पाने में सक्षम होंगे। जैसे दवाइयां बनाना या प्रोटोटाइप करना या फिर ईंधन का कम इस्तेमाल सुनिश्चित करने के लिए रास्ते निर्धारित करना। क्वांटम कंप्यूटर की मदद से जटिल से जटिल समस्याओं को हल करने का रास्ता निकल सकेगा। लेकिन सरकारों की सबसे ज्यादा दिलचस्पी रक्षा क्षेत्र में इनका इस्तेमाल करने में है। जैसे कि बेहद सुरक्षित संवाद स्थापित करना या दुश्मन के विमानों का पता लगाना। क्वांटम कंप्यूटर को लेकर बड़ी चिंता इसके गोपनीय कूट संकेत को हल करने को लेकर है। अभी तक कूट संकेतों को डेटा की सुरक्षा के लिहाज से विश्वसनीय माना जाता है। क्वांटम कंप्यूटर से यह काम और आसान हो जाएगा।


Date:04-10-21

लोकतंत्र में जवाब तलबी जरूरी

विनीत नारायण

पिछले सात साल का आर्थिक लेखा–जोखा विवादों में है। जहां एक तरफ केंद्र और राज्यों की भाजपा सरकारें अभूतपूर्व आर्थिक प्रगति के दावे कर रही हैं और सैकड़ों करोड़ रुपये के बडे–बडे विज्ञापन अखबारों में छपवा रही हैं वहीं विपक्षी दलों का लगातार यह आरोप है कि पिछले सात वर्षों में भारत की आर्थिक प्रगति होने के बजाए आर्थिक अवनति हुई है। ऐसा कहने के लिए वे अनेक आधार गिनाते हैं‚ यह भी कि भारत की ऋणात्मक वृद्धि दर के चलते भारत उतनी आर्थिक प्रगति नहीं कर पा रहा है‚ जितनी कर लेने की उसमें क्षमता है।

दूसरी तरफ‚ भारत के लोग‚ जिनमें उच्च वर्ग के कुछ घरानों को छोड दें‚ तो शेष घराने‚ मध्यमवर्गीय परिवार‚ निम्नवर्गीय परिवार और गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवार क्या कहते हैं‚ यह जानना भी जरूरी है। इसका सबसे साधारण तरीका यह है कि हर जिले के माध्यमिक और उच्च शिक्षा के संस्थानों में पढने और पढाने वाले अपने–अपने स्तर पर एक व्यापक सर्वेक्षण करें। जैसे ग्राम स्तर पर‚ ब्लॉक स्तर पर‚ कस्बा स्तर पर और नगर के स्तर पर सभी जागरूक शिक्षक और गम्भीर छात्र सार्वजनिक सर्वेक्षण समितियां बना लें। हां‚ यह भी ध्यान रखना होगा कि इन समितियों में किसी भी राजनैतिक दल के प्रति समर्पित लोग न रखे जाएं‚ न शिक्षक और न छात्र। तभी निष्पक्ष सर्वेक्षण हो पाएगा। ये समितियां अपनी–अपनी भाषा में सर्वेक्षण के लिए प्रश्न सूची तैयार कर लें। इन सर्वेक्षण सूचियों में हर वर्ग के हर नागरिक से प्रश्न पूछे जाएं। जैसे‚ किसान से पूछें कि पिछले सात सालों में उनकी आमदनी कितनी बढी या कितनी घटीॽ युवाओं से पूछें कि इन सात वर्षों में कितने युवाओं को रोजगार मिला और कितने युवाओं के रोजगार छूट गएॽ और वे फिर से बेरोजगार हो गएॽ इसी तरह फुटपाथ पर सामान बेचने वालों से पूछें कि इन सात सालों में उनकी आमदनी कितनी बढी या घटीॽ

इन वर्ग के सभी लोगों से यह भी पूछा जाए कि इन सात वर्षों में उन्हें मुफ्त स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाएं मिली हैं या नहींॽ मंझले व्यापारियों और कारखानेदारों से भी पूछें कि उनकी ‘बैलेंस शीट’ यानी आय–व्यय का लेखा–जोखा देख कर बताएं कि उसमें इन सात सालों में कितने फीसद वृद्धि हुईॽ इसी वर्ग से यह भी पूछें कि उन्होंने इन सात वर्षों में कितने मूल्य की नई अचल सम्पत्ति खरीदी या बेचीॽ लगे हाथ उच्चवर्गीय लोगों से भी सवाल किए जाने चाहिए। व्यापक सर्वेक्षण करने के लिए ऐसा किया जाना जरूरी होगा। अडानी और अम्बानी जैसे कुछ केंद्र सरकार के चहेतों‚ जिनकी आमदनी इन सात वर्षों में 30-35 फीसद से ज्यादा बढी है‚ को छोड दें‚ पर बाकी औद्योगिक घरानों की आर्थिक प्रगति कितने फीसद हुई या नहीं हुई है‚ या कितने फीसद गिर गई हैॽ ये सब इतनी सरल जानकारी है‚ जो बिना ज्यादा मेहनत के जुटाई जा सकती है। एक शिक्षा संस्थान उपरोक्त श्रेणियों में से हर श्रेणी के हर इलाके में 100-100 लोगों का चयन कर ले और इस चयन के बाद उस वर्ग के लोगों से वैसे ही सवाल पूछे जो उस वर्ग से पूछने के लिए यहां दिए गए हैं। अगर कोई सर्वेक्षणकर्ता समूह अति–उत्साही है‚ तो वह इस प्रश्नावली में अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार और भी सार्थक प्रश्न जोड सकता है।

हो सकता है कि कुछ लोग अपनी आर्थिक अवनति के लिए पिछले दो साल में फैले कोविड को जिम्मेदार ठहराएं‚ इसीलिए गत सात वर्षों का सही आंकडा जानना जरूरी होगा। हालांकि इस संदर्भ में यह ध्यान रखना होगा कि कोविड़–19 ने जिस तरह आर्थिक गतिविधियों का पहिया थामा और जिस तरह से काफी समय तक जनजीवन ठप हो गया था‚ उससे इस दौरान के आंकड़े़ सटीक हैं भी कि नहीं। कहना यह कि ऐसे आंकड़े़ किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुंचने में सहायक होंगे या नहीं। जब इस तरह का गैर–सरकारी‚ निष्पक्ष और पारदर्शी सर्वेक्षण हो जाता है तो धरातल की सही तस्वीर अपने आप सामने आ जाएगी क्योंकि सरकार किसी भी दल की क्यों न हो‚ वोट पाने के लिए हमेशा इन आंकडों में भारी हेरा–फेरी करती है ताकि अपनी प्रगति के झूठे दावों को आधार दे सके‚ जबकि धरातलीय सच्चाई उन आंकडों के बिल्कुल विपरीत होती है। सरकार के लिए ऐसा करना इसलिए आसान रहता है कि उसकी आर्थिक नीतियों की व्याख्या करने वाले विशेषज्ञ उसके पास होते ही हैं‚ जो सरकार के प्रत्येक फैसले को तार्किक ठहराने में माहिर होते हैं।

हर वर्ग के 100-100 प्रतिनिधियों का सर्वेक्षण करने से उस गांव‚ कस्बे‚ नगर और जिले की आर्थिक स्थिति का बडी सरलता से पता लगाया जा सकता है‚ जिसका लाभ लेकर सत्ताएं अपनी नीतियां और आचरण बदल सकती हैं बशर्ते उनमें जनहित में काम करने की भावना और इच्छा हो। झूठे विज्ञापनों से सस्ता प्रचार तो हासिल किया जा सकता है पर इसके परिणाम समाज के लिए बहुत घातक होते हैं। जैसे आम आदमी इस बात पर विश्वास कर ले कि ‘हवाई चप्पल पहनने वाला भी हवाई जहाज में उड सकेगा।’ इसी उम्मीद में वो अपना मत ऐसा वायदा करने वाले नेता के पक्ष में डाल दे‚ परंतु जीतने के बाद उसे पता चले कि हवाई जहाज तो दूर वो भरपेट चैन से दो वक्त रोटी भी नहीं खा सकता क्योंकि जो उसका रोजगार था वो नई नीतियों के कारण बेरोजगारी में बदल चुका है। ऐसे में हताशा उसे घेर लेगी और वो आत्महत्या तक कर सकता है‚ जैसा कि अक्सर होता भी है‚ या फिर ऐसा व्यक्ति अपराध और हिंसा करने में भी कोई संकोच नहीं करेगा।

सरकारें तो आती–जाती रहती हैं‚ लोकतंत्र की यही खूबी है। पर हर नया आने वाला पिछली सरकार को भ्रष्ट बताता है और फिर मौका मिलते ही खुद बडे भ्रष्टाचार में डूब जाता है। इसलिए दलों के बदलने का इंतजार न करें‚ बल्कि जहां जिसकी सत्ता हो उससे प्रश्न करें और पूछें कि उसकी आमदनी और रोजगार कब और कैसे बढेगाॽ उत्तर में आपको केवल कोरे आश्वासन मिलेंगे। अगर आप बेरोजगारी‚ गरीबी‚ महंगाई‚ पुलिस बर्बरता और अन्याय के विरुद्ध ज्यादा जोर से सवाल पूछेंगे तो हो सकता है कि आपको देशद्रोही बता कर प्रताडित किया जाए। क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से कुछ राज्यों में यह खतरनाक प्रवृत्ति बड़ी तेजी से पनप रही है। इसलिए सावधानी से सर्वेक्षण करें और बिना राग–द्वेष के जमीनी हकीकत को देश के सामने प्रस्तुत करें जिससे कि समाज और राष्ट्र‚ दोनों का भला हो सके।